आर्थिक विकास में संस्थानों की भूमिका | Read this article in Hindi to learn about the role of institutions in economic growth.
विभिन्न संस्थाएं किस प्रकार विकास की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं, जैसे निजी सम्पत्ति, उत्तराधिकार का नियम, संयुक्त परिवार प्रणाली, जाति प्रथा और धर्म आदि श्रम की उत्पादकता को प्रभावित करते हैं ।
1. निजी सम्पत्ति (Private Property):
निजी सम्पत्ति की प्रथा लोगों द्वारा कठिन परिश्रम करने, बचत और निवेश करने की इच्छा को उत्साहित करती है । निजी सम्पत्ति रखना लोगों का वैधानिक अधिकार है जिसके द्वारा लोगों को सम्पत्ति प्राप्त करने और प्रयोग करने की स्वतन्त्रता है तथा किसी अन्य की सम्पत्ति का प्रयोग प्रतिबन्धित है ।
सम्पत्ति का अधिकार एक निजी व्यक्ति अथवा एक वर्ग अथवा किसी सार्वजनिक प्राधिकरण के पास हो सकता है । लुइस अनुसार- सम्पत्ति विश्व में एक मान्य संस्था है । इसके बिना मानवीय जाति में कोई भी तथा किसी भी प्रकार की उन्नति नहीं होती क्योंकि जिस वातावरण में व्यक्ति रहता है उसको सुधारने के लिये व्यक्ति के पास कोई भी प्रोत्साहन नहीं होता ।
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निजी सम्पत्ति का अस्तित्व लोगों को कठिन परिश्रम करने, धन संचय करने और बचतों का निवेश करने की प्रेरणा देता है । इससे उद्यमीय प्रवृत्ति का भी विकास होता है । परन्तु, दूसरी ओर निजी सम्पत्ति का अधिकार समाजवादी देशों में उपलब्ध नहीं होता ।
समाजवादी विचारकों का मत है कि निजी सम्पत्ति की प्रथा आर्थिक विकास को प्रतिबन्धित करती है और निजी लाभ की भावना अनुचित प्रतिस्पर्द्धा और सम्पत्ति के केन्द्रीकरण की ओर ले जाती है और समाज में असमानता की प्रवृत्तियों को बढ़ाती है । इसका यह अर्थ नहीं कि निजी सम्पत्ति की प्रथा लाभप्रद नहीं है । वास्तव में यह व्यक्तिगत प्रयासों को बहुत प्रभावित करती है ।
2. जाति प्रथा (Caste System):
जाति प्रथा जोकि अनेक अल्प विकसित देशों में विद्यमान है आर्थिक विकास के मार्ग में अड़चनें खड़ी करती हैं । जाति प्रथा एक दृढ़ सामाजिक वर्गीकरण है जो किसी व्यक्ति की भावनाओं को सीमित करता है और विकास के ठीक वातावरण के मार्ग में रुकावटें खड़ी करता है ।
किसी कठोर श्रेणी संरचना वाले समाज में जहां सामाजिक विशिष्टता जन्म द्वारा निर्धारित होती है, किसी व्यक्ति द्वारा अपनी आय को बढ़ाना कठिन होता है क्योंकि यह श्रम की व्यावसायिक गतिशीलता को रोकता है । इससे श्रम की दक्षता और उत्पादकता कम होती है ।
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इससे अनेक प्रकार के कार्यों के प्रति द्वेषपूर्ण विचार उत्पन्न होते हैं । इसके अतिरिक्त जाति प्रथा के कारण एक अनुसूचित जाति अस्तित्व में आई है जिसकी निम्न सामाजिक स्थिति है और बहुत से मानवीय साधनों का दुरुपयोग होता है ।
यदि, अकस्मात उच्च वर्ग के लोग शारीरिक कार्य करते देखे जाते हैं तो उनके सम्मान को क्षति पहुंचती है । यही कारण है कि मध्य और ऊपरी मध्य वर्ग के शिक्षित लोगों में सफेदपोशी वाली सेवाएं अधिक लोकप्रिय हैं ।
लुइस ने अल्प विकसित देशों में इंजीनियरों के उदाहरण का वर्णन किया है जो ऐसा कोई कार्य नहीं करते जिससे उनके हाथ गन्दे हों । इस प्रकार, जाति प्रथा ने लोगों में कठिन परिश्रम की भावना को दुर्बल किया है जो उद्यमीयता के विकास मार्ग में एक बाधा है ।
इसलिये सामान्य लोग उस व्यवसाय से जुड़े रहते हैं जिसके लिये उनमें कोई गुण नहीं है तथा वे उसे केवल परिवार और जाति के व्यवसाय के रूप में करते हैं । परिणामस्वरूप, ऐसी व्यवसायिक कठोरताएं उद्यम की भावना को क्षीण करती है तथा अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के वातावरण की रचना नहीं करती ।
3. संयुक्त परिवार प्रणाली (Joint Family System):
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संयुक्त परिवार प्रणाली में अधिक लोग निश्चित आय पर निर्भर करते हैं जिससे बचत और निवेश का क्षेत्र सीमित होता है जिससे पूंजी निर्माण की दर नीची हो जाती है और निर्भर व्यक्ति निष्क्रिय हो जाते हैं । संक्षेप में कहा जाता है कि यह श्रम गतिशीलता सम्बन्धी बाजार प्रोत्साहन को निष्क्रिय करता है ।
इस प्रकार, हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि संयुक्त परिवार प्रणाली की प्रथा विकास के निर्बाध कार्य में बाधा है जबकि समाज की व्यक्तिवादी प्रणाली सहायक है क्योंकि यह उद्यमीय योग्यता को बढ़ाती है ।
4. उत्तराधिकार का नियम (Law of Inheritance):
उत्तराधिकार का नियम किसी देश के आर्थिक विकास को प्रभावित करने के योग्य होता है क्योंकि लोगों को उत्तराधिकार के नियम में पूर्ण विश्वास होता है । इस नियम अनुसार सम्पत्ति के वर्तमान स्वामी की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति का आबंटन विभिन्न उत्तराधिकारियों में किया जाता है जिनमें उसके पुत्र और बेटियां सम्मिलित हैं ।
सम्पत्ति का यह बंटवारा विशेषतया कृषि भूमि के सम्बन्ध में उपविभाजन और भूमि के छोटे-छोटे खण्डों की गम्भीर समस्या उत्पन्न करता है जिसके परिणामस्वरूप उत्पादकता घटती है, सम्पत्ति के मूल्यों में कमी आती है और आय घटती है जिससे समाज में पूंजी और बचत की मात्रा प्रभावित होती है । परन्तु इसके विपरीत उत्तराधिकार के उचित नियम लोगों को कठिन परिश्रम करके धन एवं सम्पत्ति एकत्रित करने के लिये प्रेरित करते हैं ।
कुछ देशों में ज्येष्ठाधिकार का नियम है जो उत्तराधिकार का अधिकार केवल बड़े पुत्र को देता है, इस नियम को आर्थिक विकास में अधिक सहायक माना जाता है क्योंकि यह कठिन परिश्रम में परिणामित होता है तथा लोग रुचि लेते हैं क्योंकि परिवार के सभी सदस्यों का सम्पत्ति में भाग सुनिश्चित नहीं होता ।
उसी समय, यह कहा जाता है कि यह नियम सामाजिक न्याय पर आधारित नहीं है और आर्थिक विकास के संवर्धन में सहायक होने की बजाय अधिक समस्याएं खड़ी करता है ।
5. धर्म (Religion):
के. विलियम केप (K. William Kepp) के मतानुसार- ”अल्प विकसित देशों में धार्मिक संस्थाएं आर्थिक उन्नति की धीमी गति के लिये उत्तरदायी हैं ।” इसलिये, किसी समाज में धर्म लोगों की प्रवृत्तियों और विचारों को प्रभावित करता है, जिससे आर्थिक विकास का वातावरण और आर्थिक गतिविधियों का प्रसार अधिक प्रभावित होता है ।
यह आर्थिक विकास के संवर्धन में स्पष्ट बाधा बन सकता है । आर्थिक विकास की आवश्यकता है कि लोग उत्पादकता बढ़ाने के मार्गों की ओर ध्यान देने को तैयार हो । यह लोगों को नये कार्य आरम्भ करने और जोखिम उठाने के लिये अवश्य प्रेरित करें ।
यह केवल धर्म की भावना द्वारा ही सम्भव है जिसके कारण आर्थिक विकास में सहायक समझे जाने वाले विचार उत्पन्न होते हैं । संक्षेप में, धर्म लोगों के आर्थिक विकास के लिये प्रेरणा की रचना में सहायक होता है ।
यह विचार लुइस (Lewis) द्वारा प्रकट किया गया है जो कहते हैं- ”यदि कोई धर्म सामग्रिक मूल्यों पर, काम पर, लाभ पर, उत्पादक निवेश पर, वाणिज्यात्मक सम्बन्धों में ईमानदारी, प्रयोग ओर जोखिम उठाने और अवसर की समानता पर बल देता है तो यह विकास में सहायक होगा जबकि इन बातों के प्रतिकूल होने पर यह विकास मार्ग में बाधा बनेगा ।”
6. कार्य की ओर दृष्टिकोण (Attitude towards Work):
कार्य के प्रति दृष्टिकोण और लोगों की इच्छाएं अन्य महत्त्वपूर्ण कारक हैं जो किसी समाज में आर्थिक विकास का निर्धारण करते हैं । लोगों की अभिवृत्ति और काम करने के लिये प्रेरणा का निर्धारण उन सामग्रिक लाभों से होता है जिससे उन्हें कठिन परिश्रम के फलस्वरूप प्राप्त करने की सम्भावना होती है ।
इस सम्बन्ध में लुइस का कहना है कि लोग तब ही सर्वोत्तम ढंग से कार्य करेंगे यदि उनके परिश्रम का फल उन्हें या उनके उत्तराधिकारियों को मिलना सुनिश्चित हो । इसलिये सामग्रिक पुरस्कार काम और पहलकदमी के लिये दृढ़तम प्रेरणा है ।
परन्तु स्मरण रहे कि इस लक्ष्य की शक्ति मुख्यत: समाज की धार्मिक अभिवृत्ति और सांस्कृतिक नमूने पर आधारित होगी । बहुत से अल्प विकसित देशों में लोगों का संन्यासी दृष्टिकोण एक सामान्य लक्षण है जो सामग्रिक प्रयत्नों की प्रेरणा को दुर्बल करता है क्योंकि इसमें भौतिक आवश्यकताओं की अधीनता संलिप्त है ।