कम विकसित देशों में व्यापार की शर्तें | Read this article in Hindi to learn about the terms of trade in less developed countries.

कम विकसित देशों में व्यापार शती के विपरीत रहने के कारण निम्न है:

(1) अधिकांश कम विकसित देश प्राथमिक वस्तुओं का उत्पादन करते हैं तथा इन देशों में उत्पादकता की दर विकसित देशों के सापेक्ष अल्प होती है । कम विकसित देश प्राथमिक वस्तुओं का अधिक उत्पादन करने के साथ कच्चे माल, खाद्यान्न व खनिज पदार्थों का अधिक निर्यात करते है ।

विश्व बाजार में कम विकसित देशों द्वारा किए जा रहे निर्यातों का अंश कम होने के साथ ही निर्यात मूल्य भी सामान्यतः कम होते है यद्यपि ऐसे भी कुछ देश है जिन्होंने कच्चे संसाधनों के मूल्य में होने वाली वृद्धि से अपनी निर्यात प्राप्तियों को बढाने में सफलता प्राप्त की है; जैसे तेल व ओपेक समूह के देश ।

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(2) कम विकसित देश द्वारा किए जा रहे कृषि व खनिज पदार्थों या प्राथमिक वस्तुओं की माँग की आय लोन सापेक्षिक रूप से अल्प होती है, जबकि विकसित देश मुख्यतः औद्योगिक वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टिकरण करते है जिनकी माँग की आय लोच तुलनात्मक रूप से अधिक होती है ।

जब एक देश की राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है तो विनिर्माण क्षेत्र में किया जाने वाला आनुपातिक व्यय सामान्यतः बढता है व खाद्यान्नों में किया जाने वाला व्यय घटता है । अतः विश्व कीमतों में होने वाली वृद्धि से विकसित देशों के निर्यातों की माँग प्राथमिक वस्तु उत्पादन करने वाले कम विकसित देशों के निर्यातों की तुलना में बढती है ।

(3) विकसित देशों की अपेक्षा कम विकसित देशों में जनसंख्या की वृद्धि अधिक होती है जिससे कम विकसित देशों में आयात माँग बढ़ती है व निर्यात योग्य अतिरेक में कमी होती है । दूसरी ओर विकसित देशों में जनसंख्या वृद्धि सीमित होने से विकसित देशों की निर्यात माँग का विस्तार नहीं हो पाता । परिणामतः व्यापार शर्तें प्रायः विपरीत रहती है ।

(4) कम विकसित देशों में उत्पादकता का स्तर निम्न रहने का कारण पिछड़ी हुई प्राविधि है जिससे प्रति इकाई लागत विकसित देशों की तुलना में उच्च रहती है । विकसित या औद्योगिक देशों ने द्वितीयक व तृतीयक क्षेत्र के उत्पादनों; यथा औद्योगिक एवं तकनीकी वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त की है ।

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वैज्ञानिक अनुसन्धान खोज एवं आविष्कार पर आधारित उत्पादन विधियों से यह देश प्राथमिक वस्तु का उत्पादन भी निम्न लागतों पर कर पाने में समर्थ रहते हैं । इसके परिणामस्वरूप उनके निर्यातों का अंश एवं निर्यात मूल्य दोनों ही कम विकसित देशों की तुलना में अधिक रहता है ।

प्रो॰ सिंगर ने अपनी पुस्तक Distribution of Gains Investing and Borrowing Countries में प्राथमिक वस्तु उत्पादित करने वाले देशों में व्यापार शर्त में होने वाले ह्रास के कारणों की जांच करते हुए कहा है कि जब तकनीकी प्रगति होती है तो इसके फलस्वरूप विनिर्माण क्षेत्र में उत्पादक को ऊँची आय के रूप में लाभ प्राप्त होते है तथा प्राथमिक क्षेत्र में उपभोक्ता को तकनीकी उन्नति के परिणामस्वरूप वस्तु की निम्न कीमतों के रूप में लाभ प्राप्त होते है ।

परन्तु प्रो॰ सिंगर ने यह स्पष्ट नहीं किया कि किस प्रकार विनिर्माण क्षेत्र में लगे उत्पादकों द्वारा तकनीकी प्रगति के परिणामस्वरूप लाभ प्राप्त किये जाते है तथा यह किस प्रकार प्राथमिक वस्तु उत्पादित करने वाले देश के उपभोक्ताओं को हस्तान्तरित होते हैं ।

प्रो॰ मैकलियोड ने स्पष्ट किया कि ऐसा इस कारण होता है, क्योंकि प्राथमिक क्षेत्र के उत्पादन की अपेक्षा विनिर्माण क्षेत्र में एकाधिकारी घटकों का अधिक अंश रहता है ।

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(5) विनिर्माण उद्योगों में लगे देशों की तुलना में कम विकसित देश जो कि प्राथमिक वस्तुओं का अधिक उत्पादन करते है उपलब्ध संसाधनों का सीमित प्रयोग कर पाते है । जब कुछ वस्तुओं की विश्व कीमतें गिरती है तब विनिर्माण उद्योगों में लगे देश अपने साधनों को उन वस्तुओं के उत्पादन की तरफ विवर्तित करने में सफल होते है, जिनकी कीमतें नहीं गिर रही हैं ।

प्राथमिक वस्तुओं का उत्पादन कर रहे देशों में ऐसा करना सम्भव नहीं है, क्योंकि यह अर्थव्यवस्थाएँ न तो सुगठित अर्न्तसंरचना रखती है व न ही उत्पादन के साधनों को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में लगाने में सक्षम बन जाती हैं । स्पष्ट है कि ऐसे उन्नत क्षेत्र प्राय: व्यापार की शर्तों में ह्रास का अनुभव नहीं करते, जबकि प्राथमिक उत्पादों की विश्व कीमतों में बहुत तेजी से कमी हो रही हो ।

(6) विकसित देशों में खाद्यान्नों एवं कच्चे पदार्थों के घरेलू उत्पादन में होने वाली तीव्र वृद्धि, कम विकसित देशों द्वारा किए जा रहे ऐसे निर्यातों की आवश्यकता को भी सीमित कर देते हैं ।

जैसे-जैसे विकसित औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं में तकनीकी प्रगति हुई है, वैसे-वैसे प्रति इकाई निर्मित मात्रा हेतु ऐसे कच्चे माल की मात्रा में कमी होती गई है जो प्राथमिक वस्तु उत्पादित करने वाले देशों द्वारा निर्यात किया जा रहा था ।

कृत्रिम प्रतिस्थापन, जैसे संश्लिष्ट रबड़, कृत्रिम रेशों, प्लास्टिक आदि के प्रयोग ने कम विकसित देशों के निर्यात परिमाण को संकुचित किया है । यह भी देखा गया है कि प्राथमिक वस्तु की निर्यात कीमतों में अस्थायित्व रहता है जिसके कारण विकसित देश अधिक संश्लिष्ट व कृत्रिम प्रतिस्थापन वस्तुओं का अधिक प्रयोग करने के उत्सुक रहते हैं । दूसरी तरफ कम विकसित देश, विकसित देशों द्वारा किये जा रहे आयात पर निर्भर रहते हैं । इन स्थितियों में कम विकसित देशों की व्यापार शर्तें विपरीत बनी रहती है ।

(7) कम विकसित देशों में संगठन, मोल भाव करने की शक्ति का अभाव है, जबकि विकसित देश अपनी सुदृढ़ स्थिति का लाभ उठाते हुए कम विकसित देशों के उत्पादन के आयात पर संरक्षण व नियन्त्रण भी लगाते है ।

निष्कर्षत:

कम विकसित देशों में व्यापार की शर्तों का प्रतिकूल रहना, प्राविधि का पिछड़ापन, जनसंख्या में वृद्धि, ह्रासमान प्रतिफल की दशाएँ, उत्पादन के साधनों का प्रगतिशील रहना व प्रतिस्थापन वस्तुओं के अभाव से सम्बन्धित है । कम विकसित देशों में संगठन का अभाव रहता है जिससे वह एकजुट होकर अपनी वस्तुओं के लिए उचित निर्यात मूल्य प्राप्त नहीं कर पाते ।