कम विकसित देश: गुन्नार मर्डल का दृश्य | Read this article in Hindi to learn about the views of Gunnar Mrydal on less developed countries.
डॉ. गुन्नार मिर्डल का जन्म 1899 में स्वीडन में हुआ । उन्होंने 1923 में स्टाकहोम विश्वविद्यालय से कानून व 1927 में अर्थशास्त्र में स्नातक उपाधि प्राप्त की । स्टाकहोम विश्वविद्यालय में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्राध्यापक रहने के उपरांत वह स्वीडन सरकार के आर्थिक सलाहकार, वाणिज्य मंत्री तथा यूरोप में यू. एस. इकोनोमिक कमीशन के सैकेट्री जनरल रहे ।
1957 में वह Institute for International Economic Studies में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए । उन्हें एफ. ए. हायेक के साथ अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया । गुन्नार मिर्डल का लेखन कम विकसित देशों की विकास योजनाओं के नीति निर्धारण एवं समस्याओं के गहन अनुसंधान का फल है ।
प्रो. मिर्डल ने विकास का पृथक मॉडल प्रस्तुत नहीं किया संभवतः वह पहले अर्थशास्त्री रहे जिन्होंने कम विकसित देशों विशेषकर भारत की समस्याओं का विस्तार से अध्ययन किया और स्पष्ट किया कि यह देश पश्चिम के तरीकों से विकास नहीं कर सकते ।
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उनका प्रसिद्ध ग्रंथ एशियन ड्रामा एक दशक के अनुसंधान के उपरांत 3 भागो में 1968 में प्रकाशित हुआ जिसमें कम विकसित देशों की समस्याओं का यथार्थवादी दृष्टि से मूल्यांकन किया गया । उन्होंने कम विकसित देशों में आमूल परिवर्तन सुधारों की आवश्यकता पर बल दिया ।
दृष्टिकोण:
कम विकसित देशों की समस्याओं को समझने तथा विकास हेतु नीति निर्धारण में मिर्डल इन देशों की यथार्थवादी संकल्पना की आवश्यकता को विशेष महत्व देते हैं यथार्थ की सच्ची संकल्पना पर पहुँचने के लिए मिर्डल के अनुसार पहली शर्त यह होनी चाहिए कि उन अवसरवादी हितों को स्पष्ट रूप से समझे जो हमारे सत्यान्वेषण को प्रभावित करती है ।
पिछड़े हुए देशों के बारे में पश्चिमी अर्थशास्त्री यह मानकर चलते हैं कि इन देशों के निवासी अपनी आय व जीवन स्तर को बेहतर बनाने की संभावनाओं के बारे आशावादी दृष्टिकोण नहीं रखते । उनमें आलसीपन व अकुशलता होती है वह वेतन के आधार पर काम के अवसर खोजते हैं ।
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ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें किसी भी वस्तु की खास आवश्यकता नहीं है । वह निश्चित स्वभाव आत्मनिर्भरता, कार्य के बिना आराम के जीवन व जैसे तैसे जीवन यापन करने की प्रवृत्ति से ग्रसित रहते हैं । यह भी समझा गया कि इन प्रवृत्तियों को धार्मिक मान्यताओं व रूढ़ियों से बल मिलता है ।
मिर्डल का निष्कर्ष था कि कम विकसित देशों के बारे में बिना अधिक अनुसंधान किये मान्यताएं स्वीकार कर ली गयी पर उनकी परिस्थितियों को जानने व उसमें सुधार करने पर ध्यान नहीं दिया गया । मिर्डल के अनुसार वर्तमान समय में पिछड़े देशों की समस्याओं के बारे में अनुसंधान अधिक हुए हैं ।
जिसके कारण निम्न है:
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1. उपनिवेशी व्यवस्था की समाप्ति,
2. कम विकसित देशों में विकास की इच्छा का उत्पन्न होना,
3. अन्तर्राष्ट्रीय तनाव विशेषकर शीत युद्ध जिसने कम विकसित देशों के भाग्य को विकसित देशों की विदेशनीति की चिंता का एक विषय बना लिया है ।
मिर्डल ने स्पष्ट कहा कि कम विकसित देशों की समस्याओं के बारे विकसित देशों में जो अनुसंधान हुआ है वह पूर्वाग्रह ग्रस्त है । समृद्ध देश अपने राजनीतिक हित व आर्थिक लाभों को ध्यान में रख निष्कर्ष प्रदान करते है ।
यह भी देखा गया है कि कम विकसित देशों के अध्ययन के लिए सिद्धांतों पर आश्रित रहा जाता है उनका प्रयोग कम विकसित देशों के लिए भी कर लिया जाता है । भले ही वहाँ वह परिस्थितियां न हो जैसी विकसित देशों में विद्यमान थीं । कम विकसित देशों के बारे अपूर्ण व एकपक्षीय आँकड़े एकत्र किए गए ।
इसके आधार पर जो भी अनुभवसिद्ध अवलोकन किए गए वह उथले एवं त्रुटिपूर्ण थे । मिर्डल के अनुसार विकसित देशों की संरचना को ध्यान में रखकर तैयार किए गए सिद्धांत कम विकसित देशों में व्यावहारिक नहीं बन पाते क्यों कि इन देशों की परिस्थितियां तथा संस्थाओं का स्वरूप भिन्न होता है ।
कम विकसित देशों के लिए सिद्धांत बनाते हुए अर्थशास्त्री प्राय: विकसित देशों के उच्च स्तर, वहां की सामाजिक सुरक्षा, उनके निवासियों की कार्यक्षमता, काम करने की इच्छा व कुशलता जैसे घटकों को पिछड़े देशों में भी स्वीकार कर लेता है ।
मिर्डल के अनुसार कम विकसित देशों में विकास की समस्याओं के विश्लेषण में इस सरलीकरण की अनुमति नहीं दी जा सकती । यह ध्यान रखना होगा कि विकसित देश के निवासियों का न्यूनतम जीवन स्तर उत्पादक को प्रभावित करता है जिसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए ।
विकसित देश के अर्थशास्त्रियों द्वारा अपनाया गया दृष्टिकोण उन परिस्थितियों कों ध्यान में नहीं रखता जो कम विकसित देशों में विकास की बाधा के कारक है । मिर्डल उन अर्थशास्त्रियों की कटु आलोचना करते है जो कम विकसित देशों की सैद्धांतिक व व्यावहारिक समस्याओं का विवेचन आर्थिक तथ्यों और संबंधों की सरल संकल्पनाओं के संदर्भ में करते है ।
वह आर्थिक समस्याओं को मुख्य मानते हैं तथा गैर आर्थिक या अनार्थिक घटकों की उपेक्षा करते है । मिर्डल के अनुसार यथार्थ में आर्थिक समस्या नहीं होती, केवल समस्याएं होती है तथा यह जटिल होती है ।
मिर्डल को यह दृढ़ विश्वास था कि आर्थिक समस्याओं को अन्य घटकों एवं कारकों से पृथक रखकर नहीं बल्कि जनांकिकी समाज एवं राजनीतिक परिप्रेक्ष्य के संबंध में समझना आवश्यक है । उन्होंने विकास की एक संस्थागत विधि को निर्मित करने का प्रयास किया ।
संस्थावाद का दृष्टिकोण मुख्यतः अनुसंधान के लिए प्रेरणा बनता है । यह ऐसा अनुसंधान होता है जो सिद्धांतों को मात्रात्मक सूक्ष्मता प्रदान कर सकता है । तथा उन्हें आधारभूत कसौटी पर तो लेने योग्य बना सकता है ।
संस्थावादी अधिक आलोचनात्मक दृष्टि रखने वाला होता है अत: वह लगातार यह देखता है कि परम्परागत तरीकों में विश्वास करने वाले अर्थशास्त्री का मात्रात्मक सूक्ष्मता का दावा निरर्थक होता है ।
मिर्डल के अनुसार कम विकसित देशों में आर्थिक विकास के बारे में प्रायः इसका मूल भौतिक विनियोग से जोड़ा जाता है तथा तकनीकी कुशलताओं प्रबंध के अनुभवों की आवश्यकता पर ध्यान नहीं दिया जाता । राष्ट्रीय अथवा औसत आय, बचत, रोजगार व बाजार कीमत तथा तकनीकी गुणांकों के संदर्भ में रोजगार व उत्पादन की शब्दावली में तर्क प्रस्तुत दिये जाते हैं ।
दुख तो यह है कि इस बात की ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता कि इन देशों में इन शब्दों का क्या अर्थ हो सकता है तथा आंकड़ो को जिस जादूगरी से इनका निर्धारण किया जा रहा है । मिर्डल आधुनिकी करण के आदर्शों को साधन मूल्य संबंधी मान्यता के रूप में प्रयुक्त करते हैं ।
उनके अनुसार विकास की समस्याओं का विश्लेषण करने में तर्कसंगत दृष्टिकोण, विकास एवं विकास नियोजन उत्पादन में वृद्धि, रहन सहन के स्तर में वृद्धि, सामाजिक व आर्थिक समानता, बेहतर व सुधरी हुई संस्थाएं व दृष्टिकोण, राष्ट्रीय सुदृढ़ता, राष्ट्रीय स्वतंत्रता, छोटे से छोटे स्तर पर लोकतंत्र तथा सामाजिक अनुशासन जैसे कारकों को ध्यान में रखा जाना चाहिए ।
यह समस्त मूल्य संबंधी मान्यताएँ जिन्हें निष्कर्ष रूप में प्राप्त किया जाता है तार्किक विश्लेषण के अनुसंधान में एक दूसरे से संबंधित होती हैं और अध्ययन के अर्न्तगत ही इन्हें अपनी सूक्ष्म परिभाषा प्राप्त होती हैं ।
मिर्डल का मत था कि वास्तविक परिस्थितियाँ सदा आदर्श से बहुत दूर होती हैं । अनुसंधान के लिए इन आदर्शों को मूल्य संबंधी मान्यताओं के रूप में प्रस्तावित करने का यह अर्थ होता है कि इन आदर्शों की प्राप्ति की दिशा में परिवर्तन नियोजन का वांछित लक्ष्य है ।
कम विकसित देशों में आमूल परिवर्तनकारी सुधारों की आवश्यकता:
कम विकसित देशों की विकास समस्याओं में समानता का प्रश्न महत्वपूर्ण है । असमानता का संबंध समस्त सामाजिक व आर्थिक संबंधों से है । समानता के प्रश्न को इन देशों की विकास समस्याओं एवं नियोजन नीति में महत्वपूर्ण स्थान नहीं दिया गया है ।
पश्चिमी अर्थशास्त्री यह मानकर चलते हैं कि आर्थिक विकास व समानतावादी सुधारों में संघर्ष होता है । मिर्डल ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठाया कि क्या आर्थिक समानीकरण एवं आर्थिक प्रगति के मध्य कोई विवाद है ।
उनका विचार था कि दक्षिण एशिया में पश्चिम के सापेक्ष कहीं अधिक समानता में होने वाली वृद्धि विकास को मदद ही पहुँचाएगी पश्चिमी विचारकों का मत था कि सभी देशों में विकास की आरम्भिक अवस्थाओं में आर्थिक वृद्धि व कल्याण के उपायों के मध्य एक विवाद रहा है ।
वह यह संकल्पना लेते हैं कि निर्धन देश सामाजिक न्याय के बारे में सोचने तथा समानतावादी सुधारों की कीमत चुकाने की स्थिति में नहीं हैं । आर्थिक विकास के लिए इन्हें सामाजिक न्याय का बलिदान देना पड़ेगा ।
मिर्डल के अनुसार कम विकसित देश आज राष्ट्रीय नियोजन के माध्य से विकास कार्य करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हैं । समानता की स्थापना को नियोजन का मूल लक्ष्य घोषित किया जाता है । संक्षेप में कम विकसित देशों में अधिक समानता तेज आर्थिक विकास की एक अनिवार्य शर्त है ।
कम विकसित देशों में असमानता के अनेक रूप हो सकते हैं । मिर्डल मुख्यत: सामाजिक असमानता तथा आर्थिक असमानता के मध्य भेद करते हैं । सामाजिक से तात्पर्य है सामाजिक गतिशीलता का अभाव व स्वतंत्र रूप से प्रतियोगिता करने की सीमित संभावना । आर्थिक असमानता से तात्पर्य है सम्पत्ति व आय में विद्यमान अंतर ।
सामाजिक व आर्थिक असमानता एक देश की निर्धनता का मुख्य कारण है । नियोजन की दृष्टि से किसी समाज को निर्धनता से मुक्ति दिलाने के लिए आर्थिक समानता एक पूर्व शर्त होती है ।
दूसरी मुख्य बात यह है कि एक देश जितना अधिक निर्धन होगा वहां आर्थिक असमानता उन लोगों के लिए बहुत अधिक कष्ट उत्पन्न करेगी जो सबसे अधिक निर्बल है । तीसरा संबंध यह है कि निर्धनता से मुक्ति पाने के लिए देश जिस कठिनाई का अनुभव करता है वह उसका एकमात्र कारण नहीं बल्कि परिणाम हो ।
कम विकसित देशों की परिस्थितियों का यथार्थवादी विश्लेषण करते हुए मिर्डल इन देशों में आमूल एवं दूरगामी सुधारों की आवश्यकता का अनुभव करते हैं । इन दूरगामी सुधारों को कम विकसित देशों द्वारा स्वयं क्रियान्वित करना होगा ।
उन्हें विभिन्न क्षेत्रों में अपनी समस्त नीतियों को इस प्रकार संचालित करना होगा कि वह आर्थिक व सामाजिक असमानताएं दूर हो सकें जो बढ़ती ही जा रही हैं । इसकी आवश्यकता केवल सामाजिक न्याय के लिए ही नहीं वरन विकास के मार्ग में जो रुकावटें व बाधाएँ है उन्हें उनके निवारण के लिए भी है ।
कम विकसित देशों को यह ध्यान भी रखना है कि देश के निर्धन व्यक्तियों की सहायता के जो प्रयास किये जा रहे हैं कहीं उनका स्वरूप इतना विकृत नहीं हो गया जिससे समृद्ध देशों को लाभ मिले । मिर्डल के अनुसार ऐसी विकृति कम विकसित देशों में अधिकांशतः देखी जाती है तथा यह उस प्रक्रिया का अंग बन गई है जो असमानता को बढ़ाने में कारक है ।
कम विकसित देशों में मनुष्य एवं भूमि के संबंधों को बुनियादी रूप से परिवर्तित करते हुए कृषि विकास करना मुख्य आवश्यकता है ताकि व्यक्ति को भरपूर प्रयास करने व जिस पूँजी को वह स्वयं जुटा सकता है का विनियोग करने के लिए प्रोत्साहन मिल सके ।
मिर्डल के अनुसार भूस्वामित्व एवं काश्तकारी की व्यवस्था में सुधार के बिना कृषि में तकनीकी प्रगति से सामाजिक व आर्थिक अंतराल और अधिक बढ़ेंगे । जनसंख्या के दबाव को कम करने के लिए कम विकसित देशों में परिवार नियोजन कार्यक्रमों का प्रचार प्रसार करना चाहिए ।
इन देशों को अपनी जनसंख्या से निरक्षरता को मिटा देने की महत्वाकांक्षा रखनी चाहिए । स्कूली शिक्षा में आधारभूत परिवर्तन की आवश्यकता है । अल्पविकसित देशों को अपने कानून बनाने के तरीकों एवं उन्हें क्रियान्वित करने की विधियों में भी सुधार करना चाहिए इन्हें अपने राज्य को एकीकृत व सुदृढ़ बनाना चाहिए ।
इन्हें भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए संघर्षरत रहना होगा । मिर्डल का विश्वास था कि अल्प विकसित देशों में चलाए जा रहे सुधारों को प्रबल प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है ।
इसके पीछे विशेष रूप से उच्च वर्ग के निहित स्वार्थ है जिनके हाथ में राष्ट्रीय एवं स्थानीय दोनों स्तरों पर राजनीति का नियमित रूप से नियंत्रण बना रहता है । मिर्डल के अनुसार विकास से सुधारों की संभावना बढ़ती है ।
तात्पर्य यह है कि सुधार एक बार प्रारंभ हो जाने पर एक ऐसी समग्र प्रक्रिया उत्पन्न होती है जिसके चक्राकार प्रभाव के द्वारा विकास व सुधार का क्रम चालू हो जाता है । विकसित देशों के अर्थशास्त्रियों के द्वारा कम विकसित देशों की उन परिस्थितियों को छुपाने का प्रयास किया जाता है जो आमूल एवं दूरगामी सुधारों की आवश्यकता को सबसे अधिक प्रभावित करते है ।
मिर्डल लिखते हैं कि कठिन व उलझन में डालने वाले तथ्यों पर ध्यान न देना व उनका विश्लेषण करना कम विकसित देशों के उन अप्रबुद्ध लोगों के हाथ में खेलना है जो सुधारों का विरोध करते हैं तथा जो सुधार के उन समस्त प्रयोगों को विकृत बनाते है ताकि ऐसे प्रयास उनकी अदूरदर्शिता पर आधारित हितों के अनुरूप हो जाएँ ।
कम विकसित देशों में कृषि नीति पर विचार करते हुए अर्थशास्त्री घटिया प्रौद्योगिक आशावादिता के शिकार बन गए हैं । उन्होंने भूस्वामित्व एवं काश्तकारी व्यवस्था के अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार नहीं किया व कृषि की उन्नति में गाँवों के सामान्य जनों के सहयोग के महत्व की उपेक्षा की ।
मिर्डल के अनुसार अभी तक किसी भी अर्थशास्त्री ने विकास के लिए प्रौढ़ शिक्षा के अभियान के द्वारा निरक्षरता को समाप्त करने की व्यावहारिकता के महत्व को नहीं देखा । मानव संसाधन विनियोग पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया ।
शिक्षा प्रणाली में अध्ययन व अध्यापन की दिशा, विषय वस्तु व भावना पर ध्यान नहीं दिया गया । शिक्षा प्रणाली की योजना ही ऐसी है कि यह विकास के लिए हानिकारक हो रही । मिर्डल का निष्कर्ष था कि पूर्वाग्रहों से मुक्त व गहन अनुसंधान के प्रयास का स्वयं कम विकसित देशों के नीति निर्धारण पर प्रभाव पड़ेगा ।
राज्य नियोजन:
मिर्डल ने प्रश्न उठाया कि क्या कम विकसित देशों में आर्थिक वृद्धि राजनीतिक प्रजातंत्र के अधीन सम्भव होगी । उनका विचार था कि प्रजातंत्र वास्तव में आर्थिक एवं सामाजिक परिवर्तनों के लिए समर्थ वाहन नहीं है बल्कि यह यथास्थिति को बनाए रखने का उपाय भर हैं ।
उन्होंने कहा कि परिवर्तन की मुख्य प्रेरणा दृष्टिकोण एवं संस्थाओं के द्वारा लाई जाएगी । वस्तुत: कम विकसित देशों की योजना को आधारभूत रूप से एक राजनीतिक कार्यक्रम होना चाहिए । वह इस बात से आश्वस्त थे कि अर्द्धविकसित देश एक क्रमिक विधि पर आश्रित नहीं रह सकते तथा उनको बड़े धक्के या प्रबल प्रयास की जरूरत है ।
मिर्डल ने नये स्वतन्त्र हुए कम विकसित देशों के आर्थिक विकास की संरचना पर विचार करते हुए इस संकल्पना को ध्यान में रखा कि यह सरकार का दायित्व है कि वह विकास को नियोजन के माध्यम से गतिशील करें ।
राज्य द्वारा किए जा रहे नियोजन के आधीन कुछ आधारभूत सामाजिक उद्देश्यों को स्वीकार किया जाना चाहिए जिसमें व्यक्तियों के जीवन-स्तर में होने वाला सुधार अवसरों की समानता, योजना व नीति निर्धारण में व्यक्तियों की बढ़ती हुई हिस्सेदारी ।
व्यापार एवं पूँजी प्रवाह:
प्रो. गुन्नार मिर्डल का विचार था कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से कम विकसित देशों को लाभ नहीं हो पाता । इसका कारण यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धांतों का निर्माण उन संकल्पनाओं को ध्यान में रख कर किया गया है जो कम विकसित देशों के अनुकूल नहीं है ।
वस्तुत: अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धांत को विकास की कमी के यथार्थ व विकास की आवश्यकता को स्पष्ट करने के लिए तैयार नहीं किया गया था । इसके विकसित यह कहा जा सकता है कि अमूर्त तार्किकता के इस प्रभावशाली ढाँचे का प्राय: विपरीत उद्देश्य था- अन्तर्राष्ट्रीय समानता की समस्या को ढाल जाना ।
पूर्वाग्रस्त होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का विश्लेषण इस धारणा को विकसित करता है कि यह विभिन्न देशों के मध्य धीरे-धीरे आय की समानता स्थापित करने की प्रवृत्ति स्थापित करता है, लेकिन इनके साथ जो मान्यताएँ ध्यान में रखी जाती हैं वह अव्यावहारिक व अनुभव के विपरीत होती हैं ।
यही कारण है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं पूँजी के प्रवाह से असमानताएँ उत्पन्न होती हैं । कम विकसित देश बाजार की शक्तियों की प्रक्रिया की दया पर जी रहे हैं तथा, यह शक्तियाँ इन देशों के विकास प्रयासों के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती हैं । इसके साथ ही व्यापार से लाभ प्राप्त करने की स्थिति में नहीं है ।
अधिकांश कम विकसित देश भुगतान संतुलन की कठिनाइयों का अनुभव कर रहे हैं । विकसित देशों से प्राप्त होने वाली वित्तीय सहायता में भी कमी की प्रवृत्ति देखी जा रही है । उपनिवेशी युग की भाँति ही विकसित देशों की व्यापार नीतियों में विकसित देशों के प्रति अनेक तरीकों से भेदभाव किया गया ।
विस्तारक प्रभाव एवं संकुचन प्रभाव:
मिर्डल के अनुसार विकसित क्षेत्रों की तुलना में कम विकसित क्षेत्र आय की विषमताओं से अधिक पीड़ित है जिसका कारण बाजार शक्तियों की स्वतंत्र क्रियाशीलता है । इससे विभिन्न क्षेत्रों के मध्य असमानताएँ बढ़ती जाती हैं ।
बाजार शक्तियों की स्वतन्त्र क्रियाशीलता के परिणामस्वरूप समस्त महत्वपूर्ण आर्थिक क्रियाएँ कुछ विशेष क्षेत्रों में ही केन्द्रित होने लगती हैं । उदाहरण के लिए उद्योग, व्यापारिक प्रतिष्ठान, बैंक, बीमा, यातायात ।
अर्थशास्त्री बौद्धिक शून्य में कार्य नहीं करता उसे तो ऐसे बौद्धिक पर्यावरण का निर्माण करना है जिसमें सबको रहना एवं कार्य करना है । जो अर्थशास्त्री नीति संबंधी विकल्पों को प्रभावित करना चाहता है उसे जनसामान्य तक अपने विचार पहुंचाने होंगे ।
मिर्डल ने कहा कि अर्थशास्त्र में जो पूर्वाग्रह हैं उनके विरूद्ध संघर्ष उस स्थिति में अधिक सफल हो सकेगा यदि बुद्धिमान लोगों के बीच चाहे वह अर्थशास्त्र से संबंधित हों या नहीं, हमारे सोचने के तरीकों पर विचार करने तथा उनकी आलोचना करने में तेजी से सफलता प्राप्त होगी ।
नरम राज्य (Soft State):
मिर्डल का मत था कि किसी ना किसी सीमा तक समस्त कम-विकसित देश नरम राज्य हैं । नरम राज्य से तात्पर्य विचित्र प्रकार की सामाजिक अनुशासनहीनता से है ।
जो निम्न रूप में प्रकट होती हैं:
1. कानून की दुर्बलताएँ अर्थात् कानून के पालन व उसके क्रियान्वयन की कमजोरी ।
2. विभिन्न स्तरों पर सरकारी अधिकारियों द्वारा उन नियमों एवं निर्देशों की अवहेलना जिनका पालन करना उनका कर्तव्य है ।
3 भ्रष्टाचार की स्थितियाँ ।
मिर्डल के अनुसार नरम राज्यों में शोषण की संभावनाओं का अधिकांशत: उच्च वर्ग उठाता है साथ ही वह अधिकारी और राजनीतिज्ञ जिनके हाथ में निर्णयों से संबंधित नियंत्रण होते हैं । नियंत्रणों के द्वारा इन्हें सत्ता प्राप्त होती है जिसके दुरुपयोग की संभावनाएं बहुत व्यापक हैं ।
भले ही अधिक लाभ केवल उच्च अधिकारियों को प्राप्त हों पर इससे जुड़ा भ्रष्टाचार समाज के निचले स्तर तक फैल जाता है । कम विकसित देशों में जो परिस्थितियाँ इन्हें नरम राज्य बनाती हैं भ्रष्टाचार उसका एक अनिवार्य अंग हैं ।
भ्रष्टाचार समस्त नियोजन व योजनाओं के लक्ष्यों को पूरा करने में तर्कहीनता के तत्व का समावेश कर देता है, क्योंकि भ्रष्टाचार विकास की प्रक्रिया को इस प्रकार प्रभावित करता है कि यह अपने मार्ग से विचलित हो जाती हैं ।
भ्रष्टाचार से सरकार की स्थिरता को संकट पहुँचता है यह राष्ट्रीय सुदृढ़ता के हर प्रयास में बाधा पहुंचाता है इससे सरकार के प्रति सम्मान एवं निष्ठा में कमी आती है । कम विकसित देशों को अपने राज्यों को कम नरम बनाने के लिए कठिन संघर्ष करना होगा या इस उद्देश्य हेतु उन्हें कानून को अधिक सार्थक बनना होगा । इन्हें अपने प्रशासन में सुधार करने की आवश्यकता हो ।
व्यापक स्तर पर किया गया प्रशासनिक सुधार विकास की गति को तीव्र करने के लिए सर्वाधिक महत्व का कार्य है । कम विकसित देशों में योग्य व ईमानदार प्रशासकों की कमी है ।
अर्थशास्त्र का दायित्व:
मिर्डल ने विकास संबंधी व्याख्या में अर्थशास्त्री के योगदान पर सारगर्भित विश्लेषण दिया उनके अनुसार अर्थशास्त्री विवेक सम्मत नीति संबंधी विकल्पों एवं वास्तविकता विकल्पों के बीच की मुख्य श्रृंखला है । इस प्रकार उस पर विश्लेषणकर्ता व नीति निर्धारण के क्षेत्र के परामर्शदाताओं का मुख्य दायित्व आता है ।