जेम्स टोबिन का आर्थिक विकास मॉडल | Read this article in Hindi to learn about:- 1. टोबिन के मॉडल का आरम्भिक बिन्दु (Origin Point of Tobin’s Model) 2. टोबिन मॉडल में मौद्रिक परिसम्पत्तियों की प्रस्तावना (Introduction to Monetary Assets in Tobin’s Model) 3. चित्रात्मक प्रदर्शन (Diagrammatic Representation).
टोबिन के मॉडल का आरम्भिक बिन्दु (Origin Point of Tobin’s Model):
सितम्बर 1964 में ज्यूरिच के प्रबन्ध विज्ञान संस्थान एवं अर्थमिति समिति के संयुक्त यूरोपीय अधिवेशन में प्रो॰ जेम्स टोबिन ने फिशर लेक्चर में वृद्धि के मॉडल में मुद्रा के महत्व पर सारगर्भित व्याख्या प्रस्तुत की ।
टोबिन का मॉडल पूँजी गहनता के सन्तुलन अंश एवं तत्सम्बन्धित रूप से पूंजी की सीमान्त उत्पादकता (MPC) व ब्याज की दर जो तकनीक के द्वारा निर्धारित होती है तथा नव-क्लासिकल अर्थशास्त्रियों के वृद्धि मॉडल में सूचित बचत व्यवहार जिनकी प्रकृति गैर मौद्रिक होती है-से आरम्भ होता है ।
कीजियन विश्लेषण द्वारा अनुभव की जा रही कठिनाइयाँ भी सम्मुख थीं जिनका सम्बन्ध वृद्धि की आवश्यक वांछित एवं प्राकृतिक दरों के मध्य भिन्नता या अलगाव से है, जो तब उत्पन्न होती है जब की गहनता विनियोगियों द्वारा पूंजी को रखने की अनिच्छा से सीमित होती क्योंकि प्रतिफल की दरें न्यून होती हैं ।
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समाज बचत करने की इच्छा क्यों करें जब विनियोग से प्राप्त प्रतिफल की दरें काफी अनाकर्षक हों ?:
प्रश्न यह है कि जब विनियोग से प्राप्त प्रतिफल की दरें काफी न्यून एवं अनाकर्षक होती है तब समाज बचत की इच्छा क्यों करें । यह तब ही तर्क संगत हो सकता है जब पूंजी के अलावा मूल्य के भण्डार उपस्थित हों जिनके प्रतिफल की दरों के साथ पूंजी की सीमान्त उत्पादकता प्रतिस्पर्द्धा करें ।
प्रो॰ टोबिन ने सरकार के मौद्रिक ऋण या उधार को मूल्य के वैकल्पिक भण्डार या संचय के रूप में लिया तथा यह प्रदर्शित किया कि बचतों की कितनी अधिक मात्राएँ इस रूप में प्रवाहित की जा सकें जिसे Gw अर्थात् वृद्धि की आवश्यक वांछित दर को Gn या वृद्धि की प्राकृतिक दर के बराबर कम किया जा सके ।
सन्तुलनकारी पूँजी गहनता तथा ब्याज की दरें तब व्यक्तिगत या पोर्टफोलियो तथा मौद्रिक घटकों के साथ-साथ बचत व्यवहार व तकनीक से निर्धारित होती है । सन्तुलन की ऐसी अवस्था में वास्तविक मौद्रिक ऋण या तो घाटे के कम या मुद्रा विस्फीति के द्वारा प्राकृतिक रूप से बढ़ता है ।
टोबिन मॉडल में मौद्रिक परिसम्पत्तियों की प्रस्तावना (Introduction to Monetary Assets in Tobin’s Model):
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आर्थिक वृद्धि के मॉडलों में विशेषतः श्रीमती जोन रोबिंसन एवं प्रो॰ कालडोर के सिद्धान्तों में लाभ की एक आवश्यक या चाही जाने वाली दर की धारणा महत्वपूर्ण स्थान रखती है । इन मॉडलों में समुच्चयगत लक्षण यह है कि यहाँ विनियोग निर्णयों को बचत व्यवहार से पृथक् रखा गया है ।
पूंजी पर प्रतिफल की एक न्यूनतम दर या लाभ की आवश्यक या चाही जाने वाली दर की प्राप्ति हेतु भी एक आधार चाहिए । इसके लिए सबसे पहले तो बचतों का होना आवश्यक है व दूसरा बचतें कई धाराओं में प्रवाहित हो सकें ऐसी गति व प्रतिस्पर्द्धा का होना भी जरूरी है ।
एक छोटी खुली अर्थव्यवस्था में बचतों को विनियोग के रूप में क्रियान्वित करने के लिए नियन्त्रणकारी प्रतिस्पर्द्धात्मक दर अवश्य ही उस दर या प्राप्ति के द्वारा तय की जा सकती है जो विदेशों में विनियोग करने से प्राप्त होती है । लेकिन एक बन्द अर्थव्यवस्था के लिए ऐसी सीमा का अस्तित्व स्पष्ट नहीं हो पाता भले ही वह एक राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था हो या समूचे रूप में विश्व हो ।
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इन दशाओं में वृद्धि के मॉडल बन्द अर्थव्यवस्था के मॉडल कहलाएँगे । एक बन्द अर्थव्यवस्था में मूल्य के वैकल्पिक भण्डार मौद्रिक परिसम्पत्तियाँ होती है । उनके द्वारा प्राप्त प्रतिफल से ही वास्तविक पूंजी दर प्रतिफल की स्वीकृत दरों तथा पूंजी गहनता के स्वीकृत अंश की सीमायें नियत होती हैं ।
इन सीमाओं को समझने के लिए यह जानने के लिए कि यह दोनों किस प्रकार निर्धारित होती हैं ? तथा यह किस प्रकार बदलती हैं, आवश्यक हो जाता है कि मॉडल में सुस्पष्ट रूप से मौद्रिक परिसम्पत्तियों की प्रस्तावना रखी जाए ।
यहाँ परिसम्पत्तियों एवं वास्तविक पूंजी के मध्य बचतकर्त्ताओं एवं सम्पत्तिधारकों के द्वारा किए जा रहे चुनाव का मूल्यांकन करना भी आवश्यक होगा । टोबिन ने एक तरफ बचत उपभोग चुनावों व दूसरी तरफ स्वायत चुनावों के मध्य विभेद करने का प्रयास किया । टोबिन ने जिन महत्वपूर्ण चुनावों को स्पष्ट किया वह स्वायत्त चुनाव हैं ।
दो परिसम्पत्ति स्वायत्त व्यवहार का सरलतम रूप (Simplest Kind of Two Assets Portfolio Behaviour):
दो परिसम्पत्ति स्वायत्त व्यवहार को निम्न प्रकार समझाया जा सकता है । यदि दोनों परिसम्पत्तियों से प्राप्त होने वाले प्रतिफलों में भिन्नता होती है तो सम्पत्ति धारक अपनी सम्पत्ति को अधिकतम प्राप्ति वाली परिसम्पत्तियों में लगाना चाहेंगे ।
लेकिन यदि दोनों परिसम्पत्तियों से प्राप्त होने वाले प्रतिफल बराबर है तो सम्पत्ति धारक इस बात की अधिक चिन्ता नहीं करेंगे कि किस अनुपात में वह अपनी सम्पत्ति को दोनों परिसम्पत्तियों के मध्य लगाएँ ।
यदि दोनों परिसम्पत्तियों की आपूर्ति धनात्मक है तो वह स्वेच्छा से अपनी सम्पत्ति को दोनों तरफ लगाए पर उस स्थिति में जबकि मिलने वाले दोनों प्रतिफल बराबर हों । स्वायत्त व्यवहार से सम्बन्धित इस मान्यता के आधार पर यह समझना आसान हो जाता है कि मुद्रा पर संस्थागत रूप से निर्धारित ब्याज की दर किस पर पूंजी के प्रतिफल को नियंत्रित करती है ।
टोबिन मॉडल की चित्रात्मक प्रदर्शन (Diagrammatic Representation of Tobin’s Model):
अब यह जानना आवश्यक है कि ऐसे दो तरीके कौन से है जिनमें सरकार इस मुश्किल स्थिति से बाहर निकल सकती है । चित्र 59.1 में माना HH’ मुद्रा से प्राप्त होने वाला प्रतिफल है अर्थात् यह वह न्यूनतम प्रतिफल है जो पूंजी के स्वामी लेना चाहते है या इस दर को वह स्वीकार करते है ।
यहाँ तत्सम्बन्धित पूंजी गहनता KH है । अब यह पहला तरीका जिसे सरकार लागू कर सकती है यह है कि वह मुद्रा पर प्राप्त प्रतिफल को कम या सीमित कर दे माना सरकार इसे M1 कर देती है । ऐसी कमी किए जाने पर मुद्रा पर ब्याज की दर ऋणात्मक हो जायेगी ।
ऐसी स्थिति को सिलवियो गैसल ने Stamped Money के द्वारा स्पष्ट किया था । मौद्रिक परिसम्पत्तियों पर ब्याज की दरों में सामान्य सीमाओं के अन्तर्गत किये जाने परिवर्तन केन्द्रीय बैंक के सामान्य उपकरणों द्वारा अधिक वास्तविक जटिल मॉडलों में सम्भव होते है ।
वैकल्पिक रूप से सरकार यह भी कर सकती है कि वह समुदाय की अतिरिक्त बचत के एक भाग को मुद्रा के बढते हुए प्रवाह के साथ सयोजित कर दे । माना S1S1‘ वह मात्रा है जिस तक जनता अपनी कुल सम्पत्ति को, पूंजी की विद्यमान मात्रा के सापेक्ष बढ़ाना चाहती है ।
यदि सम्पत्ति बचतें पूंजी का रूप लेने लगें तो ऐसी दशा सामने आयेगी जिससे बच निकलना कठिन होता है । इसे हैरोड द्वारा व्यक्त किया गया था । लेकिन यदि इसका एक ही भाग पूंजी संचय की ओर प्रवाहित हो और यदि विशिष्ट रूप से पूंजी स्टॉक में वृद्धि को कम करके S3S3‘ कर दिया जाये तो स्थिति सामान्य हो जायेगी ।
सन्तुलन कारी पूंजी गहनता KH होगी जो पूंजी के सीमान्त उत्पाद को चाहे जाने वाले स्तर HH’ पर बनाये रखता है । यह केवल तब हो सकेगा यदि सरकार नयी मुद्रा उपलब्ध कराये जिससे S1S1‘ व S3S3‘ के मध्य के अन्तर द्वारा प्रदर्शित बचतों का अवशोषण हो जाये ।
इस दशा को प्राप्त करने के लिए सरकार के पास केवल एक यही तरीका है कि वह नयी मुद्रा के निर्गमन से घाटे के वित्त प्रबन्ध की दशा चलने दे । यह घाटा उचित आकार का होना चाहिए । इसे चित्र 59.2 में प्रदर्शित किया गया है । चित्र में बचतों को Y-अक्ष में तथा उत्पादन एवं आय को X-अक्ष द्वारा मापा गया है । दोनों का मापन पूंजी स्टॉक के अनुपात में किया गया है ।
पूँजी की प्रति इकाई पर प्राप्त उत्पादन YH है जिसकी तत्सम्बन्धित चाही जाने वाली साम्य पूंजी गहनता KH है । वस्तु एवं सेवाओं के सरकारी क्रय को कुल उत्पाद के एक भाग g के द्वारा सूचित किया गया है ।
अतः YH (1 – g) निजी प्रयोग हेतु उपलब्ध उत्पादन है, साथ में यदि बजट सन्तुलित है तब यह जनसंख्या को उपलब्ध आय है । आय के एक भाग से सम्बन्धित बचत के फलन को S1S1‘ के द्वारा दिखाया गया है तथा SH निजी बचतों की मात्रा है । मान्यता के अनुरूप यद्यपि यदि विनियोग अधिक होता है तो
पोर्टफोलियो चुनाव से सम्बन्धित इन संकल्पनाओं से सरकारी ऋण का आकार मुद्रा के स्टॉक के समकक्ष होना मायने नहीं रखता । समीकरण 2 आय के एक भाग के रूप में निर्भर या आवश्यक घाटे को सूचित करता है अर्थात् आय के एक निश्चित भाग का अवशोषण घाटे के रूप में अवश्य होगा ।
यहां ध्यान रखना है कि सम्पत्ति स्वामी मुद्रा एवं पूंजी के कुछ भाग को अपने पास बनाये रखेंगे, जबकि उनके द्वारा प्रतिफल प्राप्त हो रहे ही । ऐसी स्थिति में संचयी घाटे का आकार अधिक महत्व नहीं रखता ।
इसके ठीक विपरीत दशा हैरोड द्वारा वर्णित मुद्रा प्रसारिक जटिल परिस्थिति है । घाटे की नीति को अपनाये जाने से अवस्फीतिक दबावों से तो मुक्ति मिल जायेगी, अब यदि एक अतिरेक की नीति को अपनाया जाये तो वह मुद्राप्रसारिक दबावों का सामना कर सकती है ।
इस दशा में एक सन्तुलित बजट नीति पूंजी के द्वारा प्राप्त प्रतिफलों में इतनी अधिक वृद्धि कर देगी कि कोई भी अपने पास मुद्रा रखना नहीं चाहेगा । यदि जनता के पास मुद्रा की मात्रा बनाये रखनी है जो यह जरूरी होगा कि पूंजी की गहनता में वृद्धि की जाये तथा पूंजी के सीमान्त उत्पाद में कमी की जाये ।
लेकिन एक उच्च पूंजी गहनता उत्पादन के सापेक्ष अधिक विनियोग की अपेक्षा करती है । एक उच्च विनियोग अनुपात की प्राप्ति के लिए वह संसाधन जिन्हें बचतकर्ता पूंजी निर्माण हेतु उपलब्ध कराता है अवश्य ही सरकारी बजट अतिरेक के साथ पूरित होने चाहिएँ ।
टोबिन के अनुसार उत्पादन में पूंजी का अधिक लगना, पोर्टफोलियो में भी पूंजी की अधिकता की आवश्यकता या निर्भरता रखता है । यदि बचतें इतनी अधिक हों कि पूंजी गहनता में वृद्धि होने लगे तब पूंजी पर प्राप्त होने वाले प्रतिफल गिरने लगेंगे ।
मुद्रा पर प्रतिफल के दिए होने पर मुद्रा का स्टाक प्रति इकाई पूंजी के अवश्य बढेगा । यदि सरकार ऐसी वृद्धि को प्रतिबन्धित करने में सक्षम हो तब पूंजी की गहनता प्रारम्भ होना शुरू हो सकती है लेकिन इस प्रक्रिया की भी एक सन्तुलन की दशा w = n होने पर, वृद्धि की आवश्यक या वांछनीय दर तथा प्राकृतिक दरें ठीक बराबर होंगी अर्थात् Gw = Gn ।
पूंजी गहनता का साम्य अंश k का वह मूल्य होगा जो समीकरण 3 में w (k, r) का n से साम्य कराता है । टोबिन ने विस्तार से समझाया कि समीकरण 3 में w एवं y जैसे चर k व m के फलन के रूप में पूंजी गहनता पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर करते हैं । अब चूँकि k का एक गिरता हुआ फलन y तथा बढता हुआ फलन m है, इससे स्पष्ट होता है कि w, k के साथ गिरता है ।
टोबिन ने इस व्याख्या का चित्रात्मक निरूपण किया । चित्र 59.3 में S1S1‘ रेखा सन्तुलित बजट (d = 0) बचत फलन को प्रदर्शित करती है । जहाँ बचत व्यय योग्य आय का एक स्थिर फलन है । यह पूंजी को वृद्धि की वांछित या आवश्यक दर (Gw) होगी यदि m शून्य के बराबर हो ।
W1W2‘ रेखा प्रत्येक पूंजी गहनता पर पूंजी को वृद्धि की वांछित या आवश्यक दर होगी, जबकि यह माना गया हो कि मुद्रा का स्टॉक पूंजी गहनता के साथ समायोजित किया गया हो तथा घाटे के व्यय द्वारा समायोजन करते हुए अनुरक्षित रहता है ।
W1W2‘ रेखा के साथ वृद्धि की प्राकृतिक दर (Gn) NN’ का अन्तर्छेदन साम्य पूंजी गहनता k1 को बताता है । पूंजी पर प्रतिफल का साम्य M’ है, इसका सीमान्त उत्पाद k1 है । यह प्रतिफल आवश्यक रूप से मुद्रा r के प्रतिफल के बराबर नहीं है ।
वक्र W1W2‘ को मुद्रा के विशिष्ट प्रतिफल r1 हेतु खींचा गया है । के प्रतिफल को कम करते हुए माना य करते हुए, यह वक्र दायीं ओर खिसक कर W1W2‘ हो जाता है । जिससे पूँजी गहनता बढ़ती है तथा पूंजी पर प्रतिफल की साम्य दर कम होती है । टाबिन के अनुसार एक वास्तविक दशा तब उत्पन्न होती है जब वस्तुओं के रूप में मुद्रा का मूल्य परिवर्तनशील होता है । इसकी परिवर्तनीयता के दो महत्वपूर्ण परिणाम निकलते है ।
सम्पत्ति के मौद्रिक घटक का वास्तविक मूल्य सरकार के प्रत्यक्ष नियन्त्रण में नहीं होता बल्कि यह कीमत स्तर पर भी निर्भर करता है तथा मुद्रा की एक इकाई पर वास्तविक प्रतिफल सीमा होगी जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि पूंजी गहनता में एक सन्तुलन विद्यमान होता है ।
टोबिन ने बताया कि मौद्रिक गहनता इस सन्तुलन से आगे पूंजी की गहनता को नहीं ठेलेगी, क्योंकि घाटे के व्यय से पूंजी निर्माण के लिए काफी कम बचतें उपलब्ध होती है ।
सन्तुलन की ऐसी दशा में कुल सम्पत्ति में मुद्रा एवं पूंजी का शेयर अवश्य ही स्थिर रहेगा इससे इनके द्वारा प्राप्त होने वाले प्रतिफल भी स्थिर रहेंगे । स्टॉक मुद्रा एवं पूंजी के मध्य स्थिर सम्बन्ध को बनाये रखने के लिये यह चर भी समान दर से बढेंगे । ऐसी स्थिति में नई बचतें भी इन तीनों के मध्य उसी प्रकार विभाजित होकर प्रवाहित होंगी जैसे पुरानी बचतों के सन्दर्भ में होता था ।
माना m (k, r) प्रति इकाई पूंजी पर मुद्रा की चाही जाने वाली मात्रा है, जब पूंजी गहनता k है तथा मुद्रा पर प्राप्त प्रतिफल r है । यहाँ m,r का एक बढ़ता हुआ फलन है, अधिक मुद्रा की माँग है, क्योंकि इससे प्राप्त प्रतिफल उच्च है ।
अब यदि को स्थिर माना जाये तथा m को k का एक बढ़ता हुआ फलन तब k में होने वाली एक वृद्धि पूंजी के प्रतिफल को न्यून या कम कर देगी । वास्तव में k में होने वाली वृद्धि y को कम करेगी और इसके फलस्वरूप भुगतान के तरीकों के रूप में हस्तान्तरण माँग भी कम हो जायेगी । लेकिन टोबिन ने यह भी माना कि पूंजी गहनता में परिवर्तनों के प्रतिफल प्रभाव काफी अधिक शक्तिशाली होते है ।
टोबिन ने माना कि w पूंजी स्टाक की आवश्यक वृद्धि दर है तथा d विद्यमान पूँजी की प्रति इकाई पर होने वाला घाटा है । तब m (k, r) पर प्रति इकाई पूँजी मुद्रा की स्थिरता के लिए जरूरी होगा कि d = m (k, r) w हो । बचत व्यय योग्य आय का एक स्थिर अनुपात है । तब आवश्यक रूप से आधारभूत समता ठीक समीकरण (1) की भाँति होगी ।
इसके स्वयं के प्रतिफल को ही समाहित नहीं करता बल्कि इसके वास्तविक मूल्य में परिवर्तन को भी शामिल करता है ।
अब यह प्रश्न उठता है कि क्या एक साम्य सन्तुलन पूंजी गहनता विद्यमान है और यदि हाँ तो किस प्रकार इसका निर्धारण किया जाये । उपर्युक्त व्याख्या यह प्रदर्शित करती है कि पूंजी गहनता का एक सन्तुलन विद्यमान है जो एक स्थायी कीमत स्तर से सम्बन्धित होता है ।
लेकिन इसके लिए एक विशिष्ट राजकोषीय नीति की जरूरत होती है जो कटे के व्यय की समुचित मात्रा या न्यूनार्थ वित्त प्रबन्धन के द्वारा, मुद्रा और पूंजी के मध्य एक सही सन्तुलन के द्वारा अनुरक्षित की जाती है । प्रश्न यह उठता है कि तब क्या हो जब राजकोषीय नीति का निर्धारण स्वतन्त्र रूप से किया जाये जिससे स्थायी कीमत स्तर को बनाये रखना असम्भव हो ।
माना एक संतुलित बजट नीति को अपनाया जाता है तथा मुद्रा का मामूली या नाम मात्र का स्टाक स्थिर रहता है । अवस्फीति के परिणामस्वरूप वास्तविक पूंजी लाभ अब ठीक वैसी ही समान भूमिका का निर्वाह करेंगे जैसा कि उपर्युक्त व्याख्या में घाटों के अधीन हुई थी अर्थात् वह वास्तविक व्यय योग्य आय की वृद्धि या संवर्धन करेंगे तथा बचत की प्रवृत्ति का एक भाग अवशोषित भी करेंगे ।
यहाँ पर एक महत्वपूर्ण भिन्नता भी दिखाई देती है । सन्तुलन की एक दशा में मुद्रा का वास्तविक स्टॉक उतनी ही तेजी से बढ़ेगा जितनी तेजी से पूंजी का स्टॉक बढता है, जो कि प्राकृतिक दर n पर सम्भव होता है । वर्तमान उदाहरण में यह केवल तब सम्भव होगा यदि कीमत स्तर दर n पर गिर जाये ।
यदि ऐसा हो, तब मुद्रा का शुद्ध प्रतिफल r मात्र मामूली प्रतिफल नहीं होता बल्कि r + n होता है । फलत: मुद्रा की माँग में होने वाली वृद्धि अधिक होगी उस स्थिति की तुलना में जब कीमतें स्थायित्व में रहने की आशा की गई हो ।
साम्य की दशा, प्रति इकाई पूंजी पर मुद्रा के अधिक स्टॉक की आवश्यकता रखेंगी तथा एक निम्न पूंजी गहनता तब होगी, जबकि मुद्रा अवस्फीति को मुद्रा सृजन हेतु प्रतिस्थापित किया गया हो । इसे चित्र 3 में दिखा गया है जहाँ W3W3‘ रेखा जो मुद्रा के प्रतिफल की सूचक है, W1W2‘ प्रतिफल से n की दूरी प्रदर्शित करती है ।
एक संगत प्रश्न यहाँ उठता है-तब क्या होगा जब तकनीकी प्रक्रिया, श्रम शक्ति की वृद्धि, बचत के व्यवहार, प्रतिफल की प्रत्याशाओं में होने वाले परिवर्तनों या पोर्टफोलियो अधिमानों में होने वाली किसी भी अनियमितता से समुदाय पोर्टफोलियो सन्तुलन की दशा से बाहर हो जाये ?
यदि ऐसे किसी धक्के का नतीजा यह हो कि जनता के पास काफी अधिक पूंजी व काफी कम मुद्रा हो तब वस्तुओं की कीमतें तेजी के साथ गिरेंगी या पहले की तुलना में बहुत धीमी गति से बढेंगी । दूसरी तरफ, जनता मुद्रा से पूंजी को खरीदना चाहेगी तथा ऐसे में कीमतें तेजी से बढेंगी या कीमतों में होने वाला ह्रास ठहर जायेगा ।
प्रत्यक्ष रूप से अब दो प्रभाव दिखाई देंगे, जो एक दूसरे के साथ संघर्ष करेंगे । इनमें से एक को पीगू प्रभाव व दूसरे को विकसेल प्रभाव कहते है । पीगू प्रभाव स्थायित्वकारी होता है । एक ऐसी दशा को हम ध्यान में रखें जो अवस्फीतिकारी धक्के की है । ऐसे में कीमतों में त्वरित ह्रास होता है जिससे विद्यमान मौद्रिक सन्तुलनों का वास्तविक मृल्य बढता है ।
इससे पोर्टफोलियो सन्तुलन को बनाये रखने में मदद मिलती है । इसके अतिरिक्त कुल वास्तविक सम्पत्ति में होने वाली वृद्धि से पूंजी निर्माण की ओर बचतों का प्रवाह बाधित हो जायेगा । दूसरी ओर विकसेल प्रभाव अस्थायित्वकारी होता है ।
कीमतों में होने वाली त्वरित कमी से मुद्रा पर आकर्षक प्रतिफल प्राप्त होंगे जिससे पोर्टफोलियो माँग में पुन: एक विवर्तन प्रोत्साहित होगा जो मूल संकट या धक्के की ही दिशा में जायेगा ।
ऐसा कोई तर्क नहीं है कि सन्तुलन की एक अवस्था में क्यों एक प्रभाव दूसरे के सापेक्ष अधिक मजबूत हों । टोबिन के मॉडल में अंतत: पीगू प्रभाव सफल रहता है, लेकिन अवस्फीति, शून्य या ऋणात्मक पूंजी निर्माण एवं बाधित वृद्धि की लम्बी समय अवधि को झेलने के बाद ।
चित्र 59.4 में टोबिन ने स्थायित्व की दशा को प्रकट किया है । चित्र में y-अक्ष कीमत विस्फीति की दर –p/p का मापन करता है तथा X-अक्ष पूंजी संचय की दर K/K को । प्रत्येक अक्ष पर वृद्धि की प्राकृतिक दर n दी हुई है । X-अक्ष में पूंजी संचय की एक दर के. से अधिक होने से तात्पर्य है पूंजी की घनता तथा प्रतिफल में दिखाई देने वाली कमी, जबकि n से कम पूंजी संचय की दर ठीक विपरीत दशा की सूचक होगी ।
अत: यह माना जायेगा कि एक सन्तुलनकारी बजट नीति को अपनाया जायेगा जिससे मुद्रा का मामूली स्टॉक स्थिर रहे । इस स्टॉक का वास्तविक मूल्य अवस्फीति की दर पर बढ़ेगा । इसके साथ ही यह भी माना गया है कि विद्यमान वास्तविक मुद्रा सन्तुलन एवं पूंजी साम्य की अवस्था में है, अर्थात् इनकी सापेक्षिक पूर्तियाँ, पूँजी पर लाभ की प्रचलित दर से समायोजित होती है तथा मुद्रा पर प्रतिफल की एक वास्तविक दर n के बराबर होती है जो प्राकृतिक दर है ।
चित्र 59.4 में मूल बिन्दु से 45° रेखा पोर्टफोलियो सन्तुलन को प्रदर्शित करती है । यह प्रतिफल की विद्यमान दरों पर कीमत विस्फीति एवं पूंजी निर्माण के संयोगों को प्रदर्शित करती है जो पोर्टफोलियो सन्तुलन को बनाये रखने के लिये आवश्यक होते है । ऋणात्मक डाल वाली रेखा बचत को सूचित करती है जो –p/p तथा K/K का संयोग बताती है ।
X-अक्ष में sy (1-g) पूंजी वृद्धि की दर जब समस्त बचतें पूंजी की तरफ क्रियाशील होती है । y-अक्ष में s/1-s प्रदर्शित है जहाँ D पूंजी की प्रति इकाई पर मुद्रा का मामूली स्टाक है, यह कीमत विस्फीति की एक दर को मापती है जिस पर समूची बचत की प्रवृत्ति, मौद्रिक परिसम्पत्तियों को प्राप्त पूंजी लाभ द्वारा सन्तुष्ट हो जाती है ।
‘बचत की रेखा’ पोर्टफोलियो सन्तुलन रेखा को बिन्दु (n,n) पर काटती है । यह सन्तुलन की दशा है । इस बिन्दु पर पोर्टफोलियो सन्तुलन एवं पूंजी गहनता को बनाये रखने के लिये नई बचतें विभाजित हो जाएँगी ।
अब माना कि मुद्रा विस्फीति की दर n से अधिक हो जाती है । ऐसे में बिन्दु W जो बचतों के विभाजन को सूचित करेगा बचत रेखा के उत्तर पूर्व की ओर गति करेगा । इससे अभिप्राय है कि मुद्रा का प्रतिफल अधिक है, यह आरम्भिक पोर्टफोलियो सन्तुलन से भी अधिक है ।
पोर्टफोलियो व्यवहार एक बारगी ही प्रतिफल में वृद्धि को सूचित नहीं करता, क्योंकि यह कुछ समय लेता है और यह इस कारण कि अवस्फीति की नई दर अपने प्रभाव दिखाने लगेंगी साथ ही सम्पत्ति धारक नई परिस्थितियों के प्रत्युतर में समायोजित होने में कुछ समय लेते हैं । अब पूँजी पर प्राप्त होने वाले प्रतिफल बढेंगे, क्योंकि पूंजी कम संचय प्राकृतिक दर से नीचे गिर जाता है ।
अब, पीगू प्रभाव के अधीन कीमतों में होने वाली कमी मुद्रा के स्टॉक में (पूंजी के स्टाक के सापेक्ष) वृद्धि करता है । यह दोनों ही प्रभाव काफी अधिक समय लेते है तथा जैसे-जैसे समय बीतता है और अधिक गहन हो जाते हैं । यह मुद्रा की बढ़ती हुई माँग को सन्तुष्ट करने या क्षतिपूर्ति करने की प्रवृति रखता है, क्योंकि मुद्रा के प्रतिफल में वृद्धि हो रही है लेकिन यह सब बहुत धीमी गति से या काफी कम होता है ।
ऐसा होने पर अवस्फीति की दर पुन बढती है तथा बिन्दु बचत वक्र के उत्तर पूर्व की ओर जाता है । लेकिन जैसे-जैसे इसमें गति होती है तथा जितनी लम्बी यह प्रक्रिया चलती है सम्पत्ति में पूँजी का अंश कम होता जाता है तथा इससे प्राप्त प्रतिफल बढता जाता है ।
‘स्थायित्वकारी प्रभाव’ शक्ति प्राप्त करते है वहीं ‘अस्थायित्वकारी प्रभाव’ दुर्बल पड जाते है । जब मौद्रिक स्टाक में आय का अनुपात अर्थात् py/D गिरता है बचत रेखा का ऊर्ध्व हिस्सा नीचे की ओर गति करता है । अब अवस्फीति की दर (जो समस्त बचतों को पूँजी निर्माण से हटा देने की प्रवृति रखती है) कम से कम होती चली जायेगी ।
मुद्रा पर प्रतिफल गिरने लगता है, वहीं पूंजी पर प्रतिफल बढने लगता है । अतत: अवस्फीति की दर पुन: n तक गिरेगी और यही सन्तुलित वृद्धि की धारणा से संगति या अनुरूपता रखेगी ।