जॉनसन की धन और विकास की सिद्धांत | Read this article in Hindi to learn about Johnson’s model of money and growth.
1966 में प्रोफेसर जौनसन ने नव-प्रतिष्ठित एक क्षेत्रीय वृद्धि मॉडल में मुद्रा की प्रस्तावना रखी । प्रो॰ जेम्स टोबिन ने जौनसन के शोध-पत्र में त्रुटि बताई जो कि कीजियन बचत की संकल्पना के विश्लेषण से सम्बन्धित थी । 1967 में जौनसन ने इस त्रुटि को सुधारा व प्रावैगिक आर्थिक विश्लेषण की दिशा में बहुमूल्य योगदान दिया ।
किंज के स्थिर बचत अनुपात मॉडल पर जौनसन का विवेचन टोबिन के निष्कर्षों से मेल खाता है । टोबिन के मूल लेख की तुलना में जौनसन की व्याख्या अधिक सरल है । उन्होंने कीमत स्तर की प्रत्याशाओं के प्रभावों को अपने मॉडल में स्पष्ट किया है तथा यह मान्यता ली है कि मुद्रा का वास्तविक मूल्य स्थिर होता है ।
जौनसन ने वास्तविक सन्तुलनों से सम्बन्धित उपयोगिता के प्रतिफल की व्याख्या की जो टोबिन के मॉडल में एक सुधार के रूप में देखा गया जहाँ शुद्ध सन्तुलन के उपयोगिता प्रतिफलों को शुद्ध आय की एक मद के रूप में देखा गया जो कि बचत को प्रभावित करता है ।
सरल मॉडल तथा मौद्रिक अर्थव्यवस्था पर विस्तार (Simple Model and an Extension to a Monetary Economy):
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आधारभूत रूप से जौनसन का मॉडल दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है । इसका पहला भाग एक सरल मॉडल है तथा दूसरा भाग एक मौद्रिक अर्थव्यवस्था पर विस्तार है । इसे एक शुद्ध मॉडल कहा गया है जिसमें जनता के पास जमा करने हेतु अकेली परिसम्पत्ति पदार्थ पूंजी है ।
मान्यताएँ (Assumption):
जौनसन के अनुसार यह माना जाता है कि विद्यमान मुद्रा सरकार द्वारा या निर्गमन अधिकारी द्वारा निर्गमित गैर-ब्याज-धारक-करेंसी के रूप में विद्यमान है मौद्रिक पूर्ति में होने वाली वृद्धि अतिरिक्त करेंसी की छपाई एवं इसके जनता के मध्य वितरण से सम्बन्धित होती है ।
जनता मुद्रा को विशुद्ध सम्पत्ति के रूप में मानती है । तकनीकी शब्दावली में, यह मॉडल एक ‘वाह्य मुद्रा’ मॉडल है । व्याख्या हेतु इस मान्यता पर बहुत जोर दिया गया कि मुद्रा गैर-ब्याज-धारक है तथा इसे शुद्ध परिसम्पत्ति के रूप में देखा गया ।
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मौद्रिक सिद्धान्त के परम्परागत विश्लेषण का अनुसरण करते हुए, यह माना गया कि मज़दूरियाँ एव कीमतें पूर्णतः लोचशील हैं, इस विशिष्ट अर्थ में कि जनता के पास मुद्रा की जमा तुरन्त वास्तविक नकद शेषों के वांछित स्तर से समायोजित हो जाती है ।
प्रति व्यक्ति वास्तविक नकद शेषों का वांछित स्तर एक फलन के रूप में सर्वप्रथम यह प्रति व्यक्ति आय के स्तर या प्रति व्यक्ति सम्पत्ति के स्तर से सम्बन्धित है जो या तो गैर मानव या कुल गैर मौद्रिक सम्पत्ति है । दूसरा यह मौद्रिक सन्तुलन पर प्रतिफल की प्रत्याशित दर से, तीसरा यह पदार्थ पूंजी पर प्रतिफल की दर से, सम्बन्धित है ।
जौनसन ने पुन यह माना कि, अन्य बातों के समान रहने पर, वास्तविक नकद शेष का चाहे जाने वाला स्तर, पैमाने के चर आय या सम्पत्ति की दो परिभाषाओं से एक स्थिर अनुपात रखता है । इस प्रकार यह अनुपात प्रतिफल चरों की दो दरों का फलन है ।
पूंजी पर प्रतिफल की दर, इस मान्यता के अनुसार कि पूंजी भी उत्पादन की भाँति सामग्री है, अतत: पूँजी का सीमान्त उत्पाद है । मौद्रिक शेषों पर प्रतिफल की प्रत्याशित दर, कीमतों में परिवर्तन की प्रत्याशित दर का ऋणात्मक होती है, यह तब भी ऋणात्मक होती है जब कीमतों में वृद्धि की आशा हो, यह तब शून्य होती है जब कीमतें स्थिर होने की आशा रखें तथा यह तब धनात्मक होती है जब कीमतों में गिरने की आशा हो ।
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जौनसन यह स्वीकार करते थे कि कीमतों में परिवर्तन की प्रत्याशित दर ठीक बराबर होती है कीमतों में परिवर्तन की वास्तविक दर के । कीमतों में परिवर्तन की वास्तविक दर अपनी बारी में वास्तविक उत्पादन की वृद्धि दर तथा मौद्रिक अधिकारी द्वारा उपलब्ध कराई गई मौद्रिक पूर्ति की वृद्धि दर द्वारा निर्धारित होती है ।
मौद्रिक अधिकारी मुद्रा की पूर्ति को जिस प्रकार भी नियमित करें, वास्तविक शेषों का वांछित स्तर कीमत स्तर में होने वाली उपयुक्त गतियों द्वारा सुनिश्चित होता है । परन्तु कीमत-स्तर परिवर्तन की आवश्यकता ही नकद शेषों पर प्रतिफल की दर को निर्धारित करेगा ।
अतः यही चाहे जाने वाले नकद शेषों को भी प्रभावित करेगा और इसी के द्वारा अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर भी असर पडेगा । जौनसन के अनुसार नकद शेषों में इस तरह होने वाली वृद्धि वास्तविक पूंजी के संचय को प्रभावित करेगी तथा यह प्रक्रिया निर्भर करेगी बचत के उस सिद्धान्त पर जिसे लागू किया जा रहा है ।
आधारभूत स्तर पर, विशेषत बचत के लिए तीन वैकल्पिक मान्यताएं प्रस्तुत की गई । इनमें से दो आय के बचत से स्थिर अनुपात की कीजियन मान्यता का विकल्प है तथा तीसरी मान्यता बचतों के व्यवहार को सूचित करती है जो सम्पत्ति के वास्तविक उत्पादन से इच्छित अनुपात द्वारा निर्देशित होती है ।
दो सम्बन्धित समस्याओं पर आधारित व्याख्या (Explanation Based on Two Related Problems):
जौनसन का मॉडल दो संबन्धित समस्याओं पर आधारित है:
(i) मुद्रा की तटस्थता जिसे आर्थिक वृद्धि के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया गया है तथा
(ii) अर्थव्यवस्था की वृद्धि को प्रभावित करने के लिए मौद्रिक नीति के प्रयोग की सम्भावना ।
जौनसन के मॉडल के अनुसार, मान्यता से मुद्रा तुलनात्मक-स्थैतिक अर्थ में तटस्थ है अर्थात् मुद्रा की मात्रा में एक बारगी होने वाला परिवर्तन जिसे मौद्रिक अधिकारी द्वारा मौद्रिक पूर्ति की वृद्धि की प्रवृत्ति दर के लिए आरोपित किया जाता है, कीमत स्तर में भी एक बारगी परिवर्तन करेगा जिसका अर्थव्यवस्था में कोई वास्तविक प्रभाव नहीं पडेगा ।
प्रावैगिक अर्थशास्त्र के सन्दर्भ में अब यह प्रश्न उठता है कि क्या मुद्रा अधिक सार्थक अर्थों में इस प्रकार तटस्थ है कि मुद्रा पूर्ति में होने वाले परिवर्तन की दर का अन्तर जिसे मौद्रिक अधिकारी द्वारा अनुरक्षित रखा गया है, उस गति में कोई अन्तर नहीं होने देगी जिसके अधीन अर्थव्यवस्था अपने सन्तुलन वृद्धि पथ को नियत करती है तथा मुद्रा पूर्ति में परिवर्तन की दर का एक अन्तर सन्तुलन वृद्धि पथ की ओर ले जाने वाले प्रति व्यक्ति उत्पादन एवं उपभोग के समुच्चयगत लक्षणों में कोई अन्तर नहीं लाएगी ।
जौनसन के अनुसार पहले के अर्थ में यदि मुद्रा तटस्थ नहीं है तो मौद्रिक नीति दीर्घकालीन सन्तुलन वृद्धि हेतु अर्थव्यवस्था में हो रही क्रियाओं को त्वरित कर सकती है या धीमा कर सकती है और यदि बाद के अर्थ में यह तटस्थ नहीं है तो मौद्रिक नीति सन्तुलन वृद्धि के लक्षणों को प्रभावित कर सकती है ।
कींजियन स्थिर बचत दर मॉडल (Keynesian Constant Saving Ratio Model):
इस मान्यता के अधीन कि समग्र बचतें, समग्र आय का एक स्थिर अनुपात होती है, अर्थव्यवस्था की वृद्धि होने पर नकद शेषों में वृद्धि होती है, भले ही इसे प्रति श्रमिक पूंजी की वृद्धि द्वारा सम्भव बनाया जा रहा हो या पूंजी के श्रम से एक निश्चित अनुपात में श्रमिकों की संख्या में वृद्धि द्वारा (चालू वास्तविक उत्पादन में योगदान सम्भव बनाती है) जिससे चालू आय बढती है तथा बचतें सम्भव होती हैं । इस प्रकार उत्पादन में बचतों का योगदान भी बढता है ।
नकद शेषों में होने वाली वृद्धि से बचती का अवशोषण होता है, क्योंकि अतिरिक्त नकद शेष भी रखे रहते हैं । इसका शुद्ध प्रभाव बचतों के अनुपात में कमी के रूप में सामने आता है जिनका विनियोग उत्पादन हेतु पदार्थ पूंजी के सृजन की ओर होता है ।
समग्र उत्पादन में वृद्धि की दर के दिए होने पर वास्तविक शेष में निरपेक्ष वृद्धि अधिक होती है और इस प्रकार उत्पादन में विनियोजित शुद्ध पूंजी के अनुपात में कमी भी अधिक होती है जो उत्पादन में नकद शेषों की चाहे जाने वाली दर के साथ चलती है ।
वास्तव में, समग्र उत्पादन में वृद्धि की दर इस प्रकार दी हुई नहीं होती । यह उत्पादन में शुद्ध विनियोग के अनुपात के साथ अन्त निर्भर होती है । परन्तु यह सिद्ध किया जा सकता है कि इरा सम्बन्ध में उत्पादन में शुद्ध विनियोग का अनुपात उत्पादन में वास्तविक शेषों के अनुपात के साथ विपरीत रूप से बदलेगा ।
शुद्ध पूंजी पर प्रतिफल की दर पूंजी के श्रम के साथ अनुपात या प्रति व्यक्ति उत्पादन के स्तर के साथ नियत होती है तब उत्पादन में वास्तविक शेषों का वांछित अनुपात मौद्रिक अधिकारी द्वारा अनुरक्षित कीमतों में वृद्धि की दर के साथ विपरीत रूप से बदलता है ।
इस प्रकार, उत्पादन में पदार्थ पूँजी विनियोग का अनुपात प्रत्यक्ष रूप से मौद्रिक अधिकारी द्वारा अनुरक्षित कीमतों में वृद्धि के साथ बदलता है । इससे यह पता चलता है कि मौद्रिक नीति जितनी विस्तारवादी होगी उतनी ही तेजी से अर्थव्यवस्था वृद्धि करेगी व दीर्घकालीन सन्तुलन वृद्धि पथ पर अर्थव्यवस्था को पहुँचने के लिए प्रति व्यक्ति पूंजी के स्तर का अधिक होना आवश्यक होगा ।
चित्रात्मक व्याख्या (Diagrammatic Representation):
चित्र 60.1 में OY रेखा या अक्ष में प्रति श्रमिक उत्पादन को प्रति श्रमिक पूंजी के फलन ।
Osy रेखा प्रति इकाई बचत की प्रति श्रमिक पूँजी से फलनात्मक सम्बन्ध को अभिव्यक्त करती है । Okn रेखा जिसका ढाल n (जनसंख्या में वृद्धि की दर) है यह बताती है कि विद्यमान श्रम शक्ति के साथ पूंजी प्रति व्यक्ति की मात्रा दिए होने पर श्रम शक्ति में होने वाली नमी वृद्धि हेतु कितने विनियोग की पूर्ति सुनिश्चित करनी होगी ।
Oy’ व्यय होने वाली प्रति व्यक्ति आय है जो उत्पादन एवं नकद शेषों के चालू वृद्धि मान को बताती है इसका निर्धारण उत्पादन द्वारा उत्पादन के नकद शेषों से अनुपात b तथा वृद्धि की वर्तमान दर g के द्वारा होता है अर्थात्-
यह ध्यान में रखना होगा कि g स्वयं में s'(y) हैं का फलन है, व्याख्या का मुख्य पक्ष सन्तुलन की दशा है जिसे चित्र में बिन्दु T के द्वारा प्रदर्शित किया गया है जहाँ Os'(y) रेखा पूँजी आवश्यकता रेखा Okn को अन्तर्देशित करती है तथा जहाँ उत्पादन में वृद्धि की दर g = n होती है ।
Oy’ तथा Oy के मध्य सम्बन्ध निम्न विवाद वाले कारकों से निर्देशित होते है, जैसे ही y बढ़ता है, वास्तविक पूंजी पर प्रतिफल गिरने लगता है जो आय से नकद शेषों के आवश्यक अनुपात को बढ़ाने की प्रवृत्ति रखता है तथा y’ के अनुपात को y पर ले आता है ।
दूसरी तरफ y में होने वाली वृद्धि से आशय है वृद्धि दर में होने वाली एक कमी जो एक स्थिर बचत अनुपात में सम्भव होता है, क्योंकि यह एक उच्च पूंजी से उत्पादन का अनुपात रखता है ।
इसके परिणामस्वरूप उत्पादन की प्रति इकाई पर पूंजी की कम आनुपातिक गहनता होती है । इसका आशय यह है कि वृद्धि के लिए अतिरिक्त वास्तविक शेषों के आय से अनुपात में कमी होती है । इसी कारण y’ की गति y की ओर होती है ।
कीमत वृद्धि की लक्ष्य दर जितनी कम होगी (या कीमत में कमी की लक्ष्य दर जितनी अधिक हो) जिसका अनुरक्षण मौद्रिक अधिकारी द्वारा किया जाता है, b का विस्तार (जो वास्तविक शेषों का आय से आवश्यक अनुपात है) अधिक होगा । Os'(y) रेखा का Okn से अन्तर्देशन बिन्दु T के द्वारा प्रदर्शित किया गया है ।
यह कीमत विस्फीति की लक्ष्य दर से कम होने या कीमत स्फीति की लक्ष्य दर के अधिक होने से प्रभावित होता है जिसका निर्धारण मौद्रिक अधिकारियों द्वारा किया जाता है । इसकी एक उच्च सीमा को बिन्दु T’ द्वारा दिखाया गया है जो यह बताता है कि मुद्रा प्रसार की दर इतनी अधिक है कि वह आवश्यक वास्तविक शेष अनुपात को उपेक्षणीय स्तर तक गिरा देता है ।
इस प्रकार जौनसन के मॉडल में, मुद्रा इस अर्थ में तटस्थ नहीं है कि सन्तुलन वृद्धि पथ पर समानता या अभिमुखता की दर दिखाए मौद्रिक विस्तार की दर से स्वतन्त्र होती है । साथ ही आधारभूत रूप से मुद्रा इस अर्थ में भी तटस्थ नहीं है कि सन्तुलन पथ की विशेषताएँ मौद्रिक नीति से स्वतन्त्र होती है ।
इस व्याख्या से यह सार प्राण होता है कि जौनसन के मॉडल में सीमाओं के अन्तर्गत मौद्रिक का प्रयोग अर्थव्यवस्था को स्वर्ण नियम दशाओं की प्राप्ति हेतु प्रयोग किया जा सकता है ।
आय अनुपात मॉडल में आवश्यक पूंजी (Desired Wealth to Income Ratio Model):
जौनसन की व्याख्या, इस कीजियन मान्यता को कि आय का एक स्थिर अनुपात बचाया जाता है सीमित सैद्धान्तिक महत्व को मानते है । उन्होंने वैकल्पिक सिद्धान्त प्रस्तुत कर यह निष्कर्ष निकाला कि बचत प्राप्ति की इच्छा से प्रेरित होती है तथा सम्पत्ति से वास्तविक उत्पादन का एक निश्चित अनुपात बनाये रखती है । इस दशा को चित्र 60.2 द्वारा स्पष्ट किया गया है ।
उत्पादन में कुल सम्पत्ति का आवश्यक अनुपात OR रेखा के ढाल के व्युत्क्रम द्वारा प्रदर्शित किया गया है । वास्तविक सन्तुलन की दशा P1 द्वारा दिखाई गई है जहां- पदार्थ पूंजी Ok1 मानव पूंजी k1K1 तथा वास्तविक मौद्रिक सम्पत्ति K1W1 हैं, व कुल सम्पत्ति OW1 है ।
मुद्रा के स्टाक का वास्तविक मूल्य बराबर होता है । नकद शेषों के वांछित मूल्य के जो कि तदन्तर कुल गैर मौद्रिक सम्पत्ति से या कुल सम्पत्ति से एक वाछित नकद शेष अनुपात के द्वारा सम्बन्धित होता है ।
यह निर्भर करता है पदार्थ पूंजी के प्रतिफल की दर तथा नकद शेषों के प्रतिफल की दर पर । नकद शेषों के प्रतिफल की दर निर्भर करती है उत्पादन में वृद्धि की दर तथा मौद्रिक पूर्ति पर ।
शुद्ध विनियोग का उत्पादन से अनुपात एक ओर चालू सम्पत्ति के उत्पादन से अनुपात पर व दूसरी ओर चालू सम्पत्ति से उत्पादन के अनुपात को बनाये रखने की इच्छा से निर्धारित होता है । यह एक वांछित स्तर को प्राप्त करने से सम्बन्धित है जिसे OR रेखा द्वारा दिखाया गया है ।
जौनसन के अनुसार दीर्घकालीन सन्तुलन की दशा में- उत्पादन = Oyc प्रति इकाई पदार्थ पूँजी Okc प्रति इकाई मानव पूंजी का मूल्य kcKc तथा वास्तविक मौद्रिक पूँजी प्रति इकाई KcWc है ।
उपयुक्त सम्बन्धों के द्वारा मुद्रा के सम्पत्ति से वांछनीय अनुपात में होने वाली वृद्धि के प्रभाव को समझा जा सकता है । गैर मौद्रिक पूँजी के आरम्भिक स्तर Kc से प्रारम्भ करने पर यह वृद्धि तब होती है जब कीमत स्तर में एक बारगी ही परिवर्तन होता है, जिसके उपरान्त कीमतें पूर्व दर में ही परिवर्तित होती रहेंगी ।
ऐसे में समुदाय यह पाता है कि उसकी सम्पत्ति से आय का अनुपात चाही जाने वाली दर से अधिक है और ऐसे में वह, सम्पत्ति के साथ स मौद्रिक सम्पत्ति का संचय न करने के लिए प्रेरित होते हैं ।
संचय के न होने की प्रवृत्ति से पदार्थ पूँजी पर प्रतिफल की दर में वृद्धि होती है तथा इससे कुल सम्पत्ति में मुद्रा का वांछित अनुपात कम होने लगता है ऐसे में सम्पत्ति में होने वाला ह्रास कम होने लगता है जो भिन्न परिस्थिति में सन्तुलन को बनाए रखने के लिए जरूरी होता है ।
जौनसन के मॉडल में भी, मुद्रा दीर्घकालीन सन्तुलन के अर्थ में तटस्थ नहीं है । इसका कारण यह है कि साम्य वृद्धि पथ पर अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ मौद्रिक पूर्ति में परिवर्तन की दर से स्वतन्त्र होंगी ।
दूसरी ओर इसके प्रतिकूल दशा में वृद्धि के सन्तुलन हेतु मौद्रिक अधिकारी उत्पादन एवं पूंजी प्रति इकाई में वृद्धि या कमी कर सकता है जिसके लिए वह मौद्रिक पूर्ति में विस्तार की दर को बढ़ाता अथवा कम करता है ।
इससे अर्थव्यवस्था ‘स्वर्ण नियम दशाओं’ की प्राप्ति हेतु गति करती है, जिसकी सीमाएँ सम्पत्ति के आय से वांछित अनुपात द्वारा नियत होती है तथा इस दशा के उपस्थित रहने पर कि मुद्रा विस्फीति की दर पदार्थ पूंजी के प्रतिफल की दर से अधिक नहीं बढेगी ।