निकोलस कलदर की आर्थिक विकास का सिद्धांत | Read this article in Hindi to learn about:- 1. कालडोर के वृद्धि मॉडल की प्रस्तावना (Introduction to Kaldor’s Model of Economic Growth) 2. कालडोर के वृद्धि मॉडल की मान्यताएँ (Assumptions of Kaldor’s Model of Economic Growth) 3. व्याख्या (Explanation).
कालडोर के वृद्धि मॉडल की प्रस्तावना (Introduction to Kaldor’s Model of Economic Growth):
प्रो. निकोलस कालडोर ने 1957 में A Model of Economic Growth प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने सतत् या अविरत वृद्धि पथों का प्रावैगिक विश्लेषण प्रस्तुत किया । कालडोर इस विचार का समर्थन करते थे कि एक प्रावैगिक विश्लेषण को यथार्थ एवं विस्तृत होना चाहिए । इसके लिए आवश्यक है कि एक तरफ आय एवं दूसरी तरफ जनसंख्या वृद्धि के सम्बन्धों का विश्लेषण किया जाए ।
यह अन्तर्सम्बन्ध तकनीकी प्रगति की दशाओं को ध्यान में रखता है । कालडोर ने न केवल साधनों के अन्तर्सम्बन्ध का ध्यान में रखा बल्कि वह इनकी अन्तर्निर्भरता पर भी पर्याप्त ध्यान देते थे । कालडोर का विश्लेषण मुख्य रूप से बचत विनियोग एवं तकनीकी फलनों पर आधारित रहा ।
कालडोर के वृद्धि मॉडल की मान्यताएँ (Assumptions of Kaldor’s Model of Economic Growth):
कालडोर का वृद्धि मॉडल निम्न मुख्य मान्यताओं पर आधारित है:
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i. यह विश्लेषण कीजिंयन पूर्ण रोजगार की मान्यता पर आधारित है जिसमें समग्र वस्तु एवं सेवाओं की अल्पकालीन पूर्ति बेलोचदार है तथा मौद्रिक मांग में होने वाली किसी वृद्धि का प्रत्युतर नहीं देती । उत्पादन का सामान्य स्तर एक बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था में समर्थ माँग द्वारा नहीं बल्कि उपलब्ध साधनों द्वारा सीमित होता है ।
ii. आय के अधीन मजदूरी एवं लाभ सम्मिलित हैं । लाभ में उपक्रमी व सम्पत्ति धारकों को प्राप्त होने वाली आय तथा मजदूरी में श्रम को प्राप्त होने वाली आय एवं श्रम एव प्राप्तियां सम्मिलित |
iii. कुल बचतों में मजदूरी से की गई बचतें एवं लाभ द्वारा की गयी बचतें सम्मिलित है ।
iv. माना गया है कि कुल आय में लाभ का अंश विनियोग का फलन है, जबकि लाभों से की गई बचत की प्रवृतियाँ दी हुई हैं ।
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v. एक ऐसे विनियोग फलन को ध्यान में रखा गया है जिसके अधीन किसी समय विशेष में किया गया विनियोग अंशत उत्पादन में होने वाले परिवर्तन के फलन एवं अंशत: पूर्व वर्ष में पूंजी पर प्राप्त न्याज की दर में होने वाले परिवर्तन को ध्यान में रखता है ।
vi. आय, मजदूरी, लाभ, पूंजी बचत एवं विनियोग जैसी व्यापक आर्थिक धारणाओं की स्थिर कीमतों के रूप में अभिव्यक्त किया गया है ।
vii. माना गया है कि लाभों एवं मजदूरियों के अंश में होने वाले परिवर्तन तथा ब्याज की दर में होने वाले परिवर्तन का अपनायी गयी तकनीकों के चुनाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।
viii. पूँजी संचय एवं पूंजी वस्तु बनाने वाले उद्योगों में तकनीकी प्रगति के परिणातस्वरूप तकनीक के चुनाव में बदलाव होता है ।
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ix. मौद्रिक नीति एक पूर्णत: निष्क्रिय भूमिका का निर्वाह करती है ।
x. वास्तविक पूँजी के स्टॉक का मापन कालडोर के अनुसार पूँजी यन्त्रों में समाहित स्टील के कुल भार द्वारा होता है ।
xi. यह माना गया है कि तकनीकी प्रगति पूंजी संचय की दर पर निर्भर करती है । कालडोर के अनुसार तकनीकी प्रगति का मुख्य निर्धारक पूँजी संचय है तथा एक दिए हुए समय में समाज द्वारा तकनीकी प्रगति के अवशोषण की क्षमता असीमित नहीं होती है ।
कालडोर ने इस मान्यता को तकनीकी प्रगति फलन के रूप में स्पष्ट किया । यह फलन तकनीकी ज्ञान की प्रगति एवं पूँजी स्टॉक में होने वाले प्रति व्यक्ति परिवर्तन के संयुक्त प्रभाव को एक ओर पूँजी की वृद्धि की दर एवं दूसरी ओर उत्पादन की वृद्धि की दर के द्वारा प्रदर्शित करता है ।
चित्र में प्रति व्यक्ति पूँजी की वृद्धि की दर को X अक्ष में तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि की दर को Y अक्ष में प्रदर्शित किया गया है । हमने यह स्पष्ट किया है कि तकनीकी प्रगति फलन पूँजी की वृद्धि एवं उत्पादकता की वृद्धि का संयुक्त उत्पाद है । पूंजी-उत्पाद अनुपात इन दोनों के मध्य सम्बन्ध पर निर्भर करता है ।
चित्र में TT’ वक्र तकनीकी प्रगति फलन है जो ऊपर की ओर उठता हुआ उन्नतोदर वक्र है लेकिन एक निश्चित बिन्दु के उपरान्त यह चपटा होने लगता है । उदाहरण के लिए TT’ वक्र में बिन्दु P के उपरान्त प्रति श्रमिक पूँजी की मात्रा गिरने लगती है । 45० की रेखा OE, पूँजी एवं उत्पादन की वृद्धि की समान प्रतिशत दर को अभिव्यक्त करती है ।
P बिन्दु पर वक्र TT’ एवं OE रेखा एक दूसरे को अर्न्तछेदित करती हैं । P दीर्घकालीन साम्य बिन्दु है जहाँ पूँजी की वृद्धि की प्रतिशत दर एवं उत्पादन की प्रतिशत दर समान है । पूँजी उत्पाद अनुपात का व्यवहार नये विचारों के प्रवाह एवं पूँजी संचय की दर पर निर्भर करेगा ।
यदि पूँजी संचय की दर पूँजी की वृद्धि की समानता के बिन्दु से अल्प हो तब पूंजी-उत्पादन में कमी होगी तथा ऐसी खोजें की जाऐंगी जिनसे श्रम-बचत सम्भव बने । यदि पूँजी संचय की दर OC से कम हो तब उत्पादन पूँजी की तुलना में तेजी से बढ़ेगा ।
अत: नए विनियोगों में अधिक लाभ की दर प्राप्त होनी सम्भव बनेगी । इसके परिणामस्वरूप ऐसी गति उत्पन्न होगी जिससे दायीं ओर बढ़ते हुए P बिन्दु की ओर आना सम्भव होगा लेकिन यदि पूँजी उत्पादन की तुलना में तेजी से बढ़ती है तब विनियोग की दर गिरती है । इससे लाभ गिरेगा तथा बायीं ओर P बिन्दु की ओर तब तक मापा जाएगा जब तक सन्तुलन बिन्दु प्राप्त नहीं हो जाता ।
उपर्युक्त मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए कालडोर वृद्धि के मॉडल की व्याख्या करते है । कालडोर के अनुसार आर्थिक वृद्धि के एक सिद्धान्त का उद्देश्य अनार्थिक चरों की प्रवृति को प्रदर्शित करना है जो अन्तत: उस दर को निर्धारित करते हैं जिस पर एक अर्थव्यवस्था में उत्पादन का सामान्य स्तर बढ़ता है । इस प्रकार इस प्रश्न का उत्तर खोजने में आसानी रहती है कि आखिर क्यों कुछ समाज दूसरों की तुलना में अधिक तेजी से विकास करते हैं ।
कालडोर ने अपने आर्थिक वृद्धि के मॉडल को दो अवस्थाओं के अधीन विश्लेषित किया:
i. स्थिर कार्यशील जनसंख्या जिसके अधीन कुल वास्तविक आय की आनुपातिक वृद्धि दर ठीक बराबर होती है प्रति व्यक्ति उत्पादन में आनुपातिक वृद्धि दर के ।
ii. बढ़ती हुई जनसंख्या जिसके अधीन कुल वास्तविक आय में आनुपातिक परिवर्तन को प्रति व्यक्ति उत्पादन में आनुपातिक परिवर्तन तथा कुल कार्यशील जनसंख्या में होने वाले आनुपातिक परिवर्तन के योग द्वारा अभिव्यक्ति किया जा सकता है ।
कालडोर के वृद्धि मॉडल की व्याख्या (Explanation of Kaldor’s Model of Economic Growth):
स्थिर कार्यशील जनसंख्या की दशा में कालडोर के अनुसार कुल शुद्ध आय में वृद्धि की आनुपातिक दर Yt, प्रति व्यक्ति उत्पादन में होने वाली आनुपातिक दर के बराबर होती है । लडोर ने सर्वप्रथम आधारभूत फलन की व्याख्या की जिसके अन्तर्गत बचत फलन विनियोग फलन एवं तकनीकी प्रगति फलन को स्पष्ट किया गया ।
1. बचत फलन कालडोर ने आय को केवल दो भागों मजदूरी एवं लाभ में वर्गीकृत किया । अत: बचत फलन को लाभों एवं मजदूरियों के निश्चित अनुपातों के योग द्वारा अभिव्यक्त किया गया ।
यदि Y = आय
K = पूँजी
P = लाभ
S = बचत
G = उत्पादकता वृद्धि की सन्तुलन दशा
Sp = बचत की प्रवृति जो लाभों से प्राप्त की गयी है
Sw = बचत की प्रवृति जो मजदूरी से प्राप्त की गयी है
t = समय
लाभ प्राप्तकर्ताओं एवं मजदूरी प्राप्तकर्त्ताओं की बचत प्रवृतियों के दिए होने की मान्यता के आधार पर बचत फलन को निम्न समीकरण द्वारा प्रदर्शित किया जाता है ।
उपर्युक्त समीकरण तब लागू होगा जब दोनों चरों के मूल्य 0 से 1 के मध्य हों तथा α > β के हो । समीकरण (1) यह स्पष्ट करता है कि समुदाय की बचतें, समग्र या सामूहिक लाभों P1 के अनुपात α एवं मजदूरी (Y1 – P1) के एक अनुपात β को समाहित करती है । स्पष्ट है कि बचतें, आय वितरण का फलन है ।
2. विनियोग फलन:
विनियोग फलन इस संकल्पना पर आधारित है कि लाभ के शेयर एवं विनियोग के मध्य घनिष्ट सहसम्बन्ध विद्यमान होता है ।
किसी दी हुई अवधि में विनियोग निर्णय पूँजी स्टॉक को बनाए रखने की इच्छा से निर्देशित होते है तथा इसका प्रतिफल के साथ सम्बन्ध दिया होता है । विनियोग निर्णयों में परिवर्तन तब होता है जब पूंजी से प्राप्त होने वाली दर में सुधार हो ।
यदि समय t में पूँजी की स्टॉक Kt हो तब
बचत फलन यह स्पष्ट करता है कि बचतें जिन्हें आय के अनुपात के रूप में अभिव्यक्त किया गया है, अचर α एवं β के योग, जिन्हें क्रमश: आय से प्राप्त लाभों एवं मजदूरी के सापेक्षिक अनुपातों के द्वारा प्रदर्शित किया गया है ।
विनियोग फलन निम्न है:
विनियोग फलन यह प्रदर्शित करता है कि विनियोग आय के अनुपातों द्वारा मापा गया है जो बराबर होती है आय में होने वाली वृद्धि गुणा चालू-पूँजी उत्पाद अनुपात ऋण β’ जिसे पूर्व वर्ष की लाभ की दर के अनुपात द्वारा व्यक्त किया गया है धन लाभ की चालू दर का स्थिर भाग ।
समीकरण (8) एवं (9) संयुक्त रूप से लाभ एवं मजदूरी के मध्य एवं साथ ही साथ बचत एवं विनियोग के मध्य (जिसे आय के अनुपात के रूप में अभिव्यक्त किया गया है) आय वितरण का निर्धारण करती है । एक विशिष्ट आय वितरण के दिए होने पर, लाभों का स्तर वह मुख्य चर है जो बचत एवं विनियोग के मध्य सन्तुलन की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करता है ।
समीकरण (8) एवं (9) के द्वारा लाभों एवं मजदूरी, दोनों में आय के वितरण एवं आय के बचाए व विनियोग किए अनुपात को निर्धारित किया जाता है । चित्र 2 में आय के अनुपात के रूप में लाभ P/Y को X अक्ष में तथा आय के अनुपात के रूप में बचत एवं विनियोग अर्थात S/Y तथा I/Y को Y अक्ष प्रदर्शित किया गया है ।
बचत एवं विनियोग के सापेक्ष तेजी से बदे तो इससे अभिप्राय है कि आय के अनुपात के रूप में बचतों का स्तर, सन्तुलन मूल्य से अधिक होगा । लेकिन कीमतें एवं लागतों में होने वाले सापेक्षिक परिवर्तनों के द्वारा लाभ के स्तर में होने वाले परिवर्तन साम्य वृद्धि पथ की पुनर्स्थापना करेंगे । इस साम्य पथ का स्थायित्व तब सम्भव होगा जब SS’ वक्र का ढाल II’ वक्र के ढाल से अधिक होगा ।
अर्थात् निम्न दशा पूर्ण हो:
दशा (11) से अभिप्राय है कि साम्य वृद्धि पथ का स्थायित्व निर्भर करता है त्वरक गुणांक पर जो निर्भर करता है आय वितरण की दशाओं पर । स्थायी सन्तुलन की दशा में लाभ से अभिप्राय यह है कि बचतों की वृद्धि दर विनियोग की अपेक्षा ढालू हो । कालडोर के अनुसार साम्य वृद्धि पथ के स्थायित्व की यह एक आवश्यक दशा है ।
प्रणाली सफलतापूर्वक कार्य कर सकती है जब निम्न दो दशाएँ विद्यमान हों:
समीकरण (12) में अर्थात् लाभ की निमतम सीमा) (13) समीकरण (12) में वर्णित सीमा से आशय है कि समीकरण (1) व समीकरण (5) द्वारा निर्धारित लाभ, श्रम शक्ति को जीवन निर्वाह मजदूरी बिल का भुगतान करने के उपरान्त उपलब्ध अतिरेक से अधिक नहीं होना चाहिए ।
समीकरण में वर्णित सीमा से आशय है कि समीकरण (1) व (5) से प्राप्त लाभ लाभ की उस न्यूनतम सीमा से कम नहीं होने चाहिए जो उपक्रमी के लिए आवश्यक हैं तथा जिन पर वह अगला विनियोग करने के लिए प्रोत्साहित होता है ।
माना यह दोनों सीमाएँ सन्तुष्ट होती हैं, तब तकनीकी प्रगति समीकरण (6) यह सूचित करता है कि आय एवं पूंजी में हर अगले समय में वृद्धि होती है तथा अर्थव्यवस्था सतत् रूप से गति करते हुए अविरत वृद्धि के अल्प कालीन सन्तुलन को प्राप्त करती है । इस प्रक्रिया को चित्र 3 के द्वारा निरूपित किया गया है जहाँ X अक्ष में पूँजी की आनुपातिक वृद्धि एवं Y अक्ष में आय की आनुपातिक वृद्धि को प्रदर्शित किया गया है ।
काल्डोर इस प्रकार वृद्धि की प्रावैगिक प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं । उपक्रमी को इतना लाभ अवश्य होता है कि वह अगली अवधि में विनियोग करने के लिए प्रोत्साहित रहता है । इस प्रकार बचत एवं विनियोग के मध्य स्थैतिक प्रकृति का नहीं है । यह एक गतिशील सन्तुलन है जो तकनीकी प्रगति के फलन से प्रभावित होता है । तकनीकी प्रगति का स्वरूप ऐसा है कि वह प्रारम्भिक समय t = 1 से आय एवं पूँजी में वृद्धि करती है । इससे प्रणाली अविरत वृद्धि के पथ की ओर अग्रसर होती है ।
वस्तुत: साम्य वृद्धि पथ या सतत् अविरत वृद्धि पथ की स्थापना तकनीकी प्रगति फलन के द्वारा होती है जिसकी आवश्यक दशा निम्न है:
हैरोड के मॉडल के साथ चलते हुए, कालडोर यह स्पष्ट किया कि समीकरण (16) को समीकरण (9) के साथ देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह हैरोड की आवश्यक वृद्धि दर अधास्साटए का विपरीत है, जबकि समीकरण (14), हैरोड की प्राकृतिक वृद्धि दर का विपरीत है । हैरोड की शब्दावली का प्रयोग करते हुए स्पष्ट किया जा सकता है कि प्रणाली वृद्धि की ऐसी सन्तुलन दर की ओर जाने की प्रवृति रखती है जहाँ वृद्धि की आवश्यक दर Gw तथा वृद्धि की प्राकृतिक दर Gn बराबर होती है । यदि इन दोनों में कोई भिन्नता हो तो ऐसी शक्तियाँ उत्पन्न होंगी जिनसे इस अन्तर को दूर किया जाना सम्भव बनेगा । यह शक्तियाँ अंशत: वृद्धि की आवश्यक दर के एक समायोजन द्वारा कार्य करेंगी ।
जनसंख्या के विश्लेषण (Expanding Population):
स्थिर कार्यशील जनसंख्या के विश्लेषण में सुधार करते हुए कालडोर ने जनसंख्या में होने वाले विस्तार को ध्यान में रखा । उन्होंने इस विचार का आधार लिया कि जनसंख्या में होने वाली वृद्धि जीवन निर्वाह के साधन में वृद्धि की दर का फलन होती है ।
माल्थस के जनसंख्या विश्लेषण का आश्रय लेते हुए कालडोर ने मान्यता ली कि:
(i) एक समुदाय में प्रसवन दर के दिए होने पर जनसंख्या वृद्धि की दर का प्रतिशत एक निश्चित अधिकतम से आगे नहीं बढ़ती भले ही वास्तविक आय में तेजी से वृद्धि हो रही हो
(ii) आय वृद्धि की दर के फलन के रूप में जनसंख्या में होने वाली वृद्धि दर में परिमित वृद्धि होगी ।
इन मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए कालडोर ने जनसंख्या आय वृद्धि सम्बन्धों की व्याख्या की ।
माना, वास्तविक जनसंख्या वृद्धि = It
जनसंख्या वृद्धि की अधिकतम दर = λ
आय में वृद्धि की दर = gt
तब, तीन सम्भावनाएं विद्यमान होती हैं:
थाल्डोर ने प्रथम दो सम्भावनाओं को संयुक्त रूप से एवं तीसरी सम्भावना को पृथक रूप से ध्यान में रखा । उन्होंने यह संकल्पना की कि, अविरत वृद्धि की दशा तब होगी जब
वक्र Oyg चूंकि gt < It को अभिव्यक्त करता है अत: It < λ 2 इसके परिणामस्वरूप आय एवं जनसंख्या की वृद्धि दरें तब तक बढ़ती हैं जब तक जनसंख्या वृद्धि की दरें λ वक्र को नहीं छू जातीं जैसा कि बिन्दु T के द्वारा दिखाया गया है । दीर्घकाल की दशाओं को ध्यान में रखते हुए जनसंख्या वृद्धि की दर इसके अधिकतम पर तब पहुंचेगी । जिसे RSTλ के क्षैतिज भाग के द्वारा दिखाया गया है ।
जब जनसंख्या वृद्धि की दर अधिकतम स्तर पर पहुँच जाती है तब पैमाने के स्थिर प्रतिफल की दशाएँ देखने में आती है । इससे तात्पर्य है कि प्रति व्यक्ति पूँजी की एक दी हुई मात्रा पर प्रति व्यक्ति उत्पादन अपरिवर्तित रहता है । इससे अभिप्राय है कि तकनीकी प्रगति फलन अर्थात् α ” एवं β ” गुणांक जनसंख्या परिवर्तन से अपरिवर्तित रहते है अर्थात् उत्पादकता की वृद्धि दर जनसंख्या में होने वाले परिवर्तन से प्रभावित नहीं होती ।
स्पष्ट है कि जनसंख्या में होने वाले परिवर्तनों से α ” एवं β ” के गुणांक एवं λ ” अपरिवर्तित रहते हैं जो कि पैमाने के स्थिर प्रतिफल की सूचना देते है । यह मान्यता एक नवीन एवं सापेक्षिक से अल्प जनसंख्या वाले देश की दशा में सत्य है । कालर ने स्पष्ट किया कि यह एक अधिक जनसंख्या वाले देश के सन्दर्भ में सत्य नहीं है जहाँ भूमि की दुलर्भता के कारण गिरते हुए प्रतिफल प्राप्त होते हैं ।
इससे अभिप्राय है कि दी हुई तकनीक एवं प्रति व्यक्ति पूँजी के दिऐ होने पर, जनसंख्या में होने वाली वृद्धि उत्पादकता में कमी का कारण बनेगा । ऐसी स्थिति में तकनीकी प्रगति फलन का आकार TP भिन्न होगा । जिसे चित्र 5 के द्वारा प्रदर्शित किया गया है । यहाँ तकनीकी वृद्धि का फलन TP, X अक्ष को बिन्दु T कर काटते हुए जाता है । इससे अभिप्राय है कि प्रति व्यक्ति उत्पादन को एक स्थिर स्तर पर बनाए रखने के लिए प्रति व्यक्ति पूँजी की एक निश्चित प्रतिशत वृद्धि की आवश्यकता होती है ।
वक्र TA, OP रेखा को बिन्दु m एवं n पर काटता है इसमें n बिन्दु, स्थायी सन्तुलन को प्रदर्शित करता है, जबकि m अस्थायी साम्य को निरूपित करता है । यदि अर्थव्यवस्था बिन्दु m के बाएँ ओर है तो आय एवं पूँजी की वृद्धि सतत् रूप से गिरेगी तथा ऐसी स्थिति आ जाएगी जब पूँजी व आय की वृद्धि यथास्थिर हो जाये ।
इस दशा में यह भी सम्भव है कि वक्र TA, OP रेखा के नीचे से होकर जाएगा जैसा कि चित्र में बिन्दुदार रेखा द्वारा प्रदर्शित किया गया है । इस दशा में दीर्घकालीन वृद्धि साम्य प्राप्त नहीं होगा । यह पूर्ण अवरोध की दशा होगी ।
तकनीकी प्रगति फलन का स्वरूप एवं दशा वास्तव में देश की विकास स्थितियों पर निर्भर करता है । विकसित देशों में जनसंख्या का दबाव कम होता है तथा श्रम की अतिरिक्त इकाईयाँ लगाने पर बढ़ते हुए या स्थिर प्रतिफल की दशाएँ दिखायी देती हैं । ऐसे में तकनीकी प्रगति फलन, λ के मूल्य से पुन: सुदृढ़ होता जाता है ।
अर्द्धविकसित देशों में भूमि एवं पूँजी की दुलर्भता होती है । जहाँ जनसंख्या वृद्धि की दर, तकनीकी प्रगति फलन को कम करती है तथा इस प्रकार उत्पादकता गिरती है ।
उपर्युक्त से स्पष्ट है कि आय की वृद्धि में जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव मुख्यत: दो घटकों से सम्बन्धित है:
1. जनसंख्या वृद्धि की अधिकतम दर,
2. तकनीकी प्रगति के कारण उत्पादकता में होने वाली प्रतिशत परिवर्तन वस्तुत: कालडोर का वृद्धि मॉडल प्रावैगिक विधियों पर आधारित है । कीजियन विश्लेषण एवं हैरोड द्वारा विकसित प्रावैगिक विश्लेषण के आधार पर कालडोर की व्याख्या बचत विनियोग एवं उत्पादकता के आधारभूत चरों की अर्न्तनिर्भरता के द्वारा आर्थिक प्रक्रिया का विश्लेषण करती है । संक्षेप में कालडोर का मॉडल वृद्धि की प्रावैगिक प्रकिया को आधारभूत फलनात्मक सम्बन्धों के द्वारा अभिव्यक्त करता है ।