फी-रानी का आर्थिक विकास का मॉडल | Read this article in Hindi to learn about Fie and Ranis’s model of economic development.

जोन सी. एच. फे एवं गुस्ताव रानीस ने अपने शोध लेखों A Theory of Economic Development (Sept. 1961), Development of Labour Surplus Economy (1964) एवं Agrarianism Dualism and Economic Development (1966) में संक्रमण की ऐसी प्रक्रिया को स्पष्ट किया जिसके अर्न्तगत एक देश स्थिर अवस्था से आत्मनिर्भर विकास की अवस्था को प्राप्त करता है । कम विकसित देशों में वृद्धि की समस्या पर विचार करते हुए के एवं रानीस ने कृषिवाद, द्वैतता एवं आर्थिक परिपक्वता के मध्य अन्तर स्थापित किया ।

कृषिवाद (Agrarianism):

कृषिवाद की मुख्य प्रवृत्ति परम्परागत कृषि दशाओं की उपस्थिति है । कृषिवाद के अधीन अन्य सभी आर्थिक क्रियाएँ गुणात्मक एवं मात्रात्मक दोनों दृष्टियों से द्वितीयक महत्ता की होती हैं । गैर कृषि कार्यों में पूंजी का अल्प प्रयोग किया जाता है ।

कृषि अर्थव्यवस्था आधारभूत रूप से स्थैतिक प्रवृत्ति की होती है जिसमें जनसंख्या का भारी दबाव बना रहता है । द्वैतता से अभिप्राय है कि एक बड़े कृषि क्षेत्र का एक गतिशील औद्योगिक क्षेत्र के साथ समन्वय उद्योग क्षेत्र पूँजी का प्रयोग करता है एवं दोनों ही क्षेत्र वृद्धि की प्रक्रिया के अर्न्तगत एक-दूसरे से क्रिया प्रतिक्रिया करते हुए नियमित तकनीकी परिवर्तनों से प्रभावित होते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

द्वैत अर्थव्यवस्था साधनों के पुर्नआबंटन के धीरे-धीरे कृषि अर्थव्यवस्था के स्थान पर उद्योगों की ओर गतिशील होती जाती है । फे एवं रानीस के अनुसार आधुनिक लेखकों ने द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त अर्द्धविकसित देशों में वृद्धि की समस्या पर विचार करते हुए द्वैतता को अपने विश्लेषण का केन्द्र बिन्दु माना ।

इनमें रागनर नक्सें, डबल्यू. आर्थर लेविस, बेंजामिन हिगिन्स, पी. एन. रोजेन्सटीन रोडान तथा स्वयं फे एवं रानीस मुख्य हैं । इन सभी अर्थशास्त्रियों ने एक कृषि प्रधान द्वैत अर्थव्यवस्था को एक परिपक्व औद्योगिक अर्थव्यवस्था में रूपान्तरित होने की समस्या पर विचार किया ।

फे एवं रानीस के अनुसार कृषिवाद प्राथमिक रूप से ही एक प्रकार की उत्पादन संरचना के अनुरक्षण एवं विकास से सम्बन्धित है, जबकि द्वैतता उत्पादन संरचना के मौलिक परिवर्तन द्वारा कृषि प्रणाली की समाप्ति को सूचित करती है ।

विकास का एक प्रासंगिक विश्लेषण द्वैत अर्थव्यवस्था की कार्यप्रणाली एवं द्वैतता से परिपक्वता के सफल रूपान्तरण की दशाओं को ही विश्लेषित नहीं करता बल्कि कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था की कार्य प्रणाली एवं कृषि प्रधान जड़ता से द्वैतता के अधीन होने वाली वृद्धि के रूपान्तरण को भी अभिव्यक्त करता है ।

ADVERTISEMENTS:

कृषि अर्थव्यवस्था का विकास (Development of the Agrarian Economy):

आर्थिक क्रियाओं में कृषि अर्थव्यवस्था के प्रचलित स्वरूप के अधीन कृषि वस्तुओं का उत्पादन भूमि व श्रम के प्रयोग से सम्बन्धित करते हुए किया गया तथा यह स्पष्ट किया गया कि कृषि व्यवस्था के विशाल कृषि उत्पादन क्षेत्र में शिथिलता उत्पन्न होता है तथा इनका उपयोग किया जाता है ।

शिथिलता दो प्रकार की होती है:

(1) ऐसी कृषि वस्तुएँ जो परम्परागत उपभोक्ता स्तरों को बनाए रखने हेतु आवश्यक नहीं हैं ।

ADVERTISEMENTS:

(2) ऐसी मानवशक्ति जिसकी कृषि उत्पादन में आवश्यकता नहीं पड़ती ।

कृषि प्रणाली की भविष्य सम्भावनाओं को देखते हुए अर्थव्यवस्था में उत्पन्न शिथिलता के कई सम्भावित विकल्प हैं । फे एवं रानीस ने उपभोग जनसंख्या समायोजन एवं तकनीकी समायोजन को अधिक महत्व दिया ।

अतिरेक के उपयोग का सबसे उचित उपाय यह है कि इसको प्रतिव्यक्ति उपभोग की वृद्धि में लगा दिया जाये । फे एवं रानीस ने उपभोग न किए गए कृषि अतिरेक, गैर कृषि उत्पादन क्रियाओं एवं तकनीकी परिवर्तन की दर को निर्धारित करने वाली शक्तियों की महत्ता पर अपने मॉडल में विचार किया ।

उन्होंने कृषि अर्थव्यवस्था के दीर्घकालीन व्यवहार को जानने के लिए उपभोग-जनसंख्या समायोजन एवं तकनीकी समायोजन विधि के आंशिक सहयोग की आवश्यकता पर बल दिया ।

फे एवं रानीस स्पष्ट करते हैं कि वास्तविक जगत में समस्त सम्भावित अतिरेक का उपभोग कृषि में कार्य कर रही जनसंख्या द्वारा नहीं किया जाता और न ही यह सम्पत्तिशाली वर्ग के विलासपूर्ण उपभोग की ओर प्रवाहित होता है ।

उस सीमा तक जहाँ प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि प्रति व्यक्ति उपभोग में वृद्धि करती है अथवा अतिरेक अन्य उद्देश्यों हेतु उपलब्ध रहता है, वहाँ परिस्थितियों मुख्यत: संस्थागत घटकों जैसे वर्ग संरचना, भूमि प्रबन्ध, भूमिस्वामी द्वारा लगान वसूल करने की शक्ति इत्यादि पर निर्भर करती है ।

इस प्रकार प्रणाली के दीर्घकालीन अर्द्धसन्तुलन की व्याख्या के लिए कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था की संगठनात्मक विशेषताओं की अधिक जानकारी रखना आवश्यक हो जाता है ।

कृषि अर्थव्यवस्था से द्वैत अर्थव्यवस्था की ओर परिवर्तन (Transition from Agrarianism to Dualism):

द्वैत अर्थव्यवस्था की ऐसी संरचनात्मक विशेषताएँ हैं जी कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था से भिन्न है, जबकि दोनों अर्द्धविकसित एवं कृषि पर निर्भर है । द्वैत अर्थव्यवस्था की मुख्य प्रकृति एक जीवन-निर्वाह क्षेत्र के साथ वाणिज्य उन्मुख औद्योगिक क्षेत्र का सहअस्तित्व है ।

कृषि क्षेत्र के सहायक एवं निष्क्रिय दस्तकारी क्षेत्र व सेवाओं में वास्तविक पूँजी का नहीं के बराबर प्रयोग होता है, जबकि औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र गतिशील होता है जिनमें पूँजी निर्माण की महत्वपूर्ण भूमिका है ।

द्वैत अर्थव्यवस्था की मुख्य समस्या यह नहीं है कि कृषि में ह्रासमान प्रतिफल की दशाओं की उपस्थिति में धनी वर्ग की बढ़ती हुई विलासिता व उच्च उपभोग को किस प्रकार सन्तुष्ट किया जाये बल्कि समस्या यह है कि अर्थव्यवस्था के गुरुत्व केन्द्र को किस प्रकार कृषि से उद्योग की ओर परिवर्तित किया जाये ।

कृषि अर्थव्यवस्था में तकनीकी परिवर्तन एक दीर्घकालीन तथा कभी कभार अनुभव न किए जाने वाले परिवर्तनों से सम्बन्धित है । कृषि अर्थव्यवस्था आवश्यक रूप से ऐसी धीमी प्रक्रिया है जिसमें खेती के तरीके बदलने में शताब्दियाँ लगती हैं ।

फे एवं रानीस के अनुसार कृषि उत्पादकता में होने वाला यह धीमा सुधार केवल तब नियमित रखा जा सकता है, जबकि कृषि अन्तर्संरचना में होने वाली टूट-फूट को हमेशा सुधार दिया जाये ।

उदाहरणार्थ कृषि का विकास तब तक नहीं हो पाएगा जब तक नहरों एवं अन्य जल प्रवाह सुविधाओं का उचित रख-रखाव न हो । एक समय अवधि में मानव संसाधन की वह आदाएँ जों उत्पादकता वृद्धि की दिशा में लगायी जा रही हैं, अगली अवधि के तकनीकी परिवर्तनों हेतु अत्यन्त महत्वपूर्ण होती हैं ।

कृषि अर्थव्यवस्था की वह श्रम शक्ति जो प्रत्यक्ष रूप से कृषि उत्पादन में नहीं लगी हैं ऐसी कई क्रियाओं में लगायी जा सकती है जो भविष्य में कृषि को अधिक उत्पादक बनाए ।

कृषि में बेरोजगार एवं अर्द्धरोजगार श्रम शक्ति को सिंचाई हेतु नहरें खोदने, बाँध बनाने, कृषि भूमि को समतल करने व रख-रखाव के अन्य कार्यों में लगाया जा सकता है (इस प्रकार θ का काफी अधिक भाग, अर्द्धरोजगार कृषि श्रम शक्ति के उस भाग का फलन होता है जिसे दीर्घ समय अवधि उत्पादकता वृद्धि क्रियाओं में लगाया गया है ।

यह निर्धारित किया जाना आवश्यक है कि कृषि अर्थव्यवस्था के अतिरेक का उपयोग किस प्रकार किया जा रहा है । यह उन लोगों पर निर्भर करता है जो कृषि अतिरेक के स्वामी हैं एवं उपलब्ध मानव संसाधन को नियंत्रित करते है ।

एक तरीका तो यह है कि अतिरेक को θ में वृद्धि करने वाली दिशा में लगाया जाये व दूसरा यह कि इसे उच्च जीवन-स्तर एवं विलासी उपभोग की ओर लगाया जाये । कृषि अर्थव्यवस्था में यह भी देखा जाता है कि साधन सम्पन्न वर्ग भविष्य के प्रति जागरूक नहीं होते ।

वह अधिक विलासिता, उच्च उपभोग, दिखावा पर काफी अधिक व्यय करते हैं । अतिरेक जनशक्ति इस कारण कृषि उत्पादकता वृद्धि को सुधारने में सहायक नहीं बन पाती । सामान्यतः एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में इसी कारण ऐसी शक्तियां कार्य करती हैं जो θ में नियमित कमी का कारण बनती हैं ।

फे एवं रानीस के अनुसार यह तकनीकी समायोजन कृषि प्रधान समाज की दीर्घकालीन समस्याओं के वास्तविक पक्ष पर आधारित हैं । θ में होने वाली अधोगामी गतियाँ प्रणाली को स्थिरता अथवा जड़ता की दशा में ले आती हैं ।

पूँजीपति वर्ग अपने औद्योगिक पूँजी स्टॉक में तेजी व शीघ्रता से वृद्धि करना चाहता है । वह उद्योग में पुर्नविनियोग के लिए नए अतिरेक को प्राप्त करने के साथ ही नयी पूँजी की उत्पाद शक्ति को तकनीकी परिवर्तन की सहायता से बढ़ाना भी चाहता है । वह नव-प्रवर्तनों को प्रेरित करते एवं उन्हें अपनाते हैं ।

फे एवं रानीस के अनुसार द्वैत अर्थव्यवस्था के कुल बचत कोष दो प्रकार के अतिरेक को समाहित करते हैं- औद्योगिक लाभ एवं कृषि अतिरेक कुल बचत कोष इस प्रकार दोनों क्षेत्रों में आबंटित किया जाता है तथा उपक्रमशीलता की क्रियाओं को ध्यान में रखा जाता है ।

इससे कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ती है तथा अतिरेक श्रम इन क्षेत्र से मुक्त होता है । दूसरी ओर औद्योगिक श्रम उत्पादकता में वृद्धि होती है जिससे आबंटित श्रम शक्ति के लिए माँग का सृजन होता है ।

ठीक इसी समय श्रमिकों के उपभोक्ता अधिमान दिए होने पर दोनों क्षेत्रों में सृजित किया गया उत्पादन ऐसा होना चाहिए कि खाद्य पदार्थों या औद्योगिक वस्तुओं की कमी न पड़े ।

इस प्रकार आबंटन निर्णय जो प्रत्येक क्षेत्र के पूँजी संचय एवं तकनीकी परिवर्तन को ध्यान में रखते हैं, ऐसे सन्तुलित तरीके से वृद्धि चाहता है कि पुर्नआबंटन प्रक्रिया से किसी भी क्षेत्र का अति विस्तार न होने पाए । फे एवं रानीस ने प्रदर्शित किया कि पूँजी संचय के साथ तकनीकी परिवर्तन एक द्वैत अर्थव्यवस्था में कृषि अर्थव्यवस्था की वृद्धि करता है ।

जापान, ताइवान व ग्रीस में हुई सफल कृषि क्रान्तियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि भौतिक पूँजी ने कृषि के विकास में सापेक्षिक रूप से कम महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की है । इसके सापेक्ष नयी तकनीकों को श्रम गहन पद्धतियों, उन्नत खाद, बीज का प्रयोग अधिक प्रभावी बनाता है ।

कृषि संसाधनों पर स्वामित्व रखने वाला वर्ग जैसे भूमिपति जब यह पाता है कि औद्योगिक परिसम्पत्तियाँ उसके लिये (युद्ध करने व बेहतर जीवन अपनाने से अधिक) महत्वपूर्ण हैं तब द्वैतता की ओर रूपान्तरण प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है एवं कृषि उत्पादकता को और अधिक बढ़ाए जाने की प्रेरणा उत्पन्न होती है ।

बढ़ता हुआ कृषि उत्पादन द्वैतवादी प्रणाली के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है जिसे धनात्मक तकनीकी समायोजन प्रणाली कहा जाता है । द्वैतवादी अर्थव्यवस्था के विकास का दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष औद्योगिक क्षेत्र में तकनीकी परिवर्तन की प्रकृति एवं दर का निर्धारण है ।

अर्थव्यवस्था तब तक कृषि प्रधान रहती है तब तक वह परिवर्तनों के प्रति सापेक्षिक रूप से उदासीन होती है । एक बार रूपान्तरण की प्रक्रिया चल जाने पर अर्थव्यवस्था शेष विश्व के निकट सम्पर्क में आ जाती है । वह प्राथमिक वस्तुओं के निर्यात के बदले उपभोक्ता व पूँजी वस्तुओं व तकनीक के अन्तरण या हस्तान्तरण का आयात करती है ।

औद्योगीकरण की प्रारम्भिक प्रक्रिया में तकनीकी परिवर्तनों की भूमिका इस गहनता व शक्ति दोनों के सन्दर्भ से अत्यन्त महत्वपूर्ण बन जाती है । जापान के तीव्र औद्योगीकरण का एक मुख्य कारण भी तकनीकी परिवर्तन की प्रकृति व वृद्धि रही ।

फे एवं रानीस ने स्पष्ट किया कि जैसे-जैसे एक द्वैत अर्थव्यवस्था अधिकाधिक उद्योगमुखी हो जाती है, तब एक सफल श्रम पुर्नआबंटन प्रक्रिया के अधीन उसकी घरेलू कुशलता एवं प्रतिभा व कुशलता का स्तर बढ़ने लगता है, वैसे-वैसे उधार की औद्योगिक तकनीक की महत्ता कम होने लगती है । अर्थव्यवस्था घरेलू स्तर पर तकनीकी उन्नति की क्षमता को विकसित कर लेती है ।

द्वैत अर्थव्यवस्था का विकास (Development of the Dualistic Economy):

फे एवं रानीस ने द्वैत अर्थव्यवस्था के विकास को आर्थिक चरों की एक अर्न्तसम्बन्धित प्रणाली के समय पथ द्वारा निर्धारित किया । फे एवं रानीस के अनुसार यद्यपि उत्पादन के दो क्षेत्र हैं लेकिन एक द्वैत अर्थव्यवस्था में वृद्धि की प्रक्रिया की प्रवृत्ति काफी जटिल है ।

इस प्रक्रिया में दो पृथक उत्पादन क्षेत्रों में उत्पादन केन्द्रित प्रवृत्तियों जैसे पूँजी व श्रम का प्रयोग एवं नव-प्रवर्तन क्रियाओं के सृजन को सम्मिलित किया जाता है ।

कुछ महत्वपूर्ण अन्तर्क्षेत्रीय सम्बन्धों में कृषि से औद्योगिक क्षेत्र की ओर श्रम का अन्तरण बचतों का अन्तक्षेंत्रीय प्रवाहीकरण एवं तकनीकी परिवर्तन की अन्तर्क्षेत्रीय एवं क्षेत्रान्तर्गत उत्तेजनाओं की सम्भावनाएं मुख्य हैं ।

इस प्रक्रिया के साथ न केवल उत्पादन की शक्तियां (दोनों क्षेत्रों के उत्पादन फलन) एवं उपभोग (उपभोक्ता अधिमान फलन) को ध्यान में रखा गया है, जबकि जनसंख्या वृद्धि की बर्हिजात शक्तियों एवं तकनीक के आयात की सम्भावना को भी ध्यान में रखा जाता है ।

अन्त में यह भी ध्यान में रखा जाता है कि वास्तविक उत्पादन, आबंटन उपभोग एवं वितरण निर्णय संगठनात्मक विधियों के एक समुच्चय के सन्दर्भ में कार्यशील हैं । फे एवं रानीस ने स्पष्ट किया कि नव-प्रवर्तन की गहनता का स्तर प्रति व्यक्ति आय के परिवर्तनों के प्रत्युत्तर द्वारा प्रभावित होता है ।

यह सम्बन्ध इस कारण है कि सम्पत्तिशाली वर्ग के जीवन-स्तर में होने वाली वृद्धि जिसे प्रति व्यक्ति आय एवं अतिरेक की वृद्धि के द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है, निष्क्रिय वर्ग की सेवाओं के लिए माँग उस बिन्दु तक बढ़ाता है जहाँ तुरन्त या कुछ समय के उपरान्त कृषि उत्पादकता की वृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगता है ।

यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में इस प्रकार के सम्बन्ध दिखायी दें । फे एवं रानीस ने स्पष्ट किया कि औद्योगिक वस्तुओं के सन्दर्भ में औद्योगिक शुद्ध मजदूरी का नियन्त्रण कृषि अतिरेक की सापेक्षिक उपलब्धता के द्वारा अन्तर्क्षेत्रीय वस्तु बाजार में होता है ।

द्वैतवादी अर्थव्यवस्था के औद्योगिक एवं कृषि क्षेत्रों के मध्य आपस में लाभदायक सम्बन्ध इस कारण होते हैं कि कृषि क्षेत्र के सन्दर्भ में औद्योगिक क्षेत्र की अधिकता कृषि उत्पादकता को प्रोत्साहित करती है एवं औद्योगिक क्षेत्र के सन्दर्भ में कृषि क्षेत्र की अधिकता बचत कोष को प्रोत्साहित करती है ।

आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Evaluation):

(1) फे एवं रानीस का विश्लेषण एक अर्द्धविकसित देश में कृषि क्षेत्र को महत्वपूर्ण मानता है । उनके अनुसार यह व्याख्या आर्थिक द्वैतता की दशाओं में वृद्धि की प्रक्रिया को स्पष्ट रूप से समझने के लिए आवश्यक है ।

फे एवं रानीस का यह विश्वास रहा कि ऐतिहासिक विकास के आदर्श जीवन-चक्र पर चलते हुए सफलता पूर्वक गति करने वाली आर्थिक प्रणाली कृषिवाद में प्रारम्भ कर द्वैतता की स्थिति पर चलते हुए अन्तत: आर्थिक परिपक्वता की दशा प्राप्त करती है ।

(2) फे एवं रानीस ने दीर्घकालीन कृषि व्यवहार की व्याख्या के साथ-साथ एक बढ़ती हुई द्वैत अर्थव्यवस्था में दोनों क्षेत्रों की गतिशील अर्न्तक्रिया को विश्लेषित किया । उन्होंने स्पष्ट किया कि कृषि अर्थव्यवस्था एवं द्वैतता के मध्य आधारभूत अन्तर ‘कृषि नव-प्रवर्तन उपस्थित करने का कार्य’ है ।

यह मुद्दा अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्था की मुख्य समस्या है । कृषिगत तकनीकों में जड़ता विकास की ऐसी बाधा को प्रदर्शित करती है जिनसे अभी भी कुछ ही अर्द्धविकसित देश मुक्त हो पाए हैं ।

(3) द्वैत अर्थव्यवस्था में कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्रों के मध्य के सम्पर्क व समीपता की समस्या पर भी अधिक ध्यान नहीं दिया गया है । यदि अतिरेक प्राप्त करने वाला उसका प्रत्यक्ष विनियोग उद्योग क्षेत्र के विस्तार में किया जाता है तो उसका उद्देश्य उत्पादकता के द्वारा प्राप्त होने वाली बचतों की ओर जाता है जिन्हें पुन: विनियोजित किया जा सके ।

उन्नीसवीं शताब्दी के जापान में ऐसी अन्तर्क्षेत्रीय समीपता या सम्पर्क की स्थिति को विकेन्द्रीकृत ग्रामीण उद्योग की वृद्धि ने प्रोत्साहित किया । जापान की सरकार का योगदान भी इसमें काफी रहा जिसने प्रसिद्ध भूमि कर को सामाजिक व आर्थिक उपरिमदों पर व्यय किया ।

वस्तुत: यह निजी स्वौच्छिक बचतों का प्रवाह था जो काफी अधिक लोगों के हाथों एकत्र हुई और इसके द्वारा ही जापान के औद्योगीकरण प्रयासों को वित्त प्राप्त हुआ । मध्यवर्गीय भूस्वामियों का योगदान भी काफी रहा जिन्होंने एक पाँव कृषि तथा दूसरा औद्योगिक क्षेत्र में रखा एवं द्वैत प्रणाली को आगे बढ़ाने में सक्रिय भूमिका निबाही ।

सारांश (Conclusion):

फे एवं रानीस की व्याख्या का सार यह है कि कृषि प्रणाली में नव-प्रवर्तन को प्रेरणा देने वाली कोई प्रक्रिया क्रियाशील नहीं होती, उपक्रमियों का ऐसा समूह विद्यमान नहीं होता जो अतिरेक का सृजन करने वाले अवसरों के प्रति संवेदनशील हो, जबकि द्वैत अर्थव्यवस्था में एक उपक्रमशील वर्ग विद्यमान होता है जिसकी निर्णय लेने की क्षमता एवं भूमि की उपलब्धता उसे औद्योगिक उपभोक्ता वस्तुओं एवं औद्योगिक पूँजी वस्तुओं के उत्पादक के रूप में इस प्रकार सामने लाती हैं कि वह कृषि विधियों में एक नियमित सुधार करने में भी सम्पर्क होता है ।

फे व रानीस के अनुसार इस वर्ग का बहुत अधिक संख्या में विद्यमान होना आवश्यक नहीं बल्कि यह ऐसे प्रतिनिधियों की उपस्थिति को दिखाता है जो इधर-उधर बिखरे कृषकों के बड़े समूह से प्रभावित होकर द्वैत अर्थव्यवस्था की प्रगति को सम्भव बनाते हैं जो अन्तत: समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करती हैं ।

Home››Economics››Models››