सोलोव के आर्थिक वृद्धि मॉडल | Read this article in Hindi to learn about:- 1. सोलोव के आर्थिक वृद्धि मॉडल की प्रस्तावना (Introduction to Solow’s Model of Economic Growth) 2. सोलोव के आर्थिक वृद्धि मॉडल की मान्यताएँ (Assumptions of Solow’s Model of Economic Growth) and Other Details.

Contents:

  1. सोलोव के आर्थिक वृद्धि मॉडल की प्रस्तावना (Introduction to Solow’s Model of Economic Growth)
  2. सोलोव के आर्थिक वृद्धि मॉडल की मान्यताएँ (Assumptions of Solow’s Model of Economic Growth)
  3. सोलोव के दीर्घकालीन आर्थिक  वृद्धि का मॉडल (Solow’s Model of Long Run Economic Growth)
  4. सोलोव के सम्भव आर्थिक विकास प्रतिरूप (Possible Economic Growth Pattern Suggested by Solow)
  5. सोलोव के आर्थिक वृद्धि मॉडल की आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Evaluation of Solow’s Model of Economic Growth)

1. सोलोव के आर्थिक वृद्धि मॉडल की

प्रस्तावना (Introduction to Solow’s Model of Economic Growth):

डॉ॰ सोलोव के वृद्धि मॉडल का मुख्य लक्ष्य उन्नत देशों में सतत् आर्थिक विकास हेतु हैरोड-डोमर द्वारा प्रस्तुत विश्लेषण की सीमाओं को प्रदर्शित करना था ।

ADVERTISEMENTS:

डॉ॰ आर.एम. सोलोव ने अपने शोधलेख A Contribution to the Theory of Economic Growth (फरवरी 1956) में स्पष्ट किया कि आवश्यक विकास दर एवम प्राकृतिक दर में विरोध इस संकल्पना के कारण उत्पन्न होता है कि उत्पादन स्थिर अनुपातों की दशा के अधीन किया गया है ।

सोलोव के अनुसार हैरोड-डोमर मॉडल में जिस चाकू के धार वाले संतुलन की बात कही गयी है वह इस मान्यता पर आधारित है कि उत्पादन स्थिर अनुपातों की दशा में होता है तथा उत्पादन में श्रम की पूँजी के बदले प्रतिस्थापित करने की कोई संभावना नहीं है । वास्तव में साधनों के स्थिर साधनों के स्थिर अनुपात की मान्यता अवास्तविक है, क्योंकि वास्तविक विश्व में साधनों को एक दूसरे के लिए प्रतिस्थापित किया जाता है । सोलोव ने उत्पत्ति के साधनों की निश्चित या स्थिर अनुपातों की मान्यता को नकारते हुए साधनों की निश्चित या स्थिर अनुपातों की मान्यता को नकारते हुए साधनों की प्रतिस्थापनीयता को ध्यान में रखा ।


2. सोलोव के आर्थिक वृद्धि मॉडल की

मान्यताएँ (Assumptions of Solow’s Model of Economic Growth):

 

ADVERTISEMENTS:

डॉ॰ सोलोव का विकास मॉडल निम्न मान्यताओं के अधीन विश्लेषित किया जाता है:

i. एक मिश्रित या संयुक्त वस्तु का उत्पादन किया जाता है ।

ii. राष्ट्रीय उत्पादन दो उत्पादन के साधनों-श्रम व पूँजी के द्वारा उत्पादित किया जाता है जिन्हें उनकी सीमांत भौतिक उत्पादकता के अनुसार भुगतान किया जाता है ।

iii. पैमाने के स्थिर प्रतिफल नियम की उपस्थिति ध्यान में रखी गयी है अर्थात् उत्पादन प्रथम श्रेणी के रेखीय समरूप उत्पादन फलन के अधीन होता है ।

ADVERTISEMENTS:

iv. पूँजी व श्रम के पूर्ण रोजगार की स्थिति पायी जाती है ।

v. पूंजी व श्रम को एक दूसरे से प्रतिस्थापित किया जाता है ।

vi. मजदूरी एवम कीमतें लोचशील मानी गयी हैं ।

vii. तकनीकी प्रगति की दर तटस्थ अथवा उदासीन है ।

viii. बचत दर स्थिर है ।

उपर्युक्त मान्यताओं के संदर्भ में सोलोव दीर्घकालीन वृद्धि का विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं ।


3. सोलोव के

दीर्घकालीन आर्थिक  वृद्धि का मॉडल (Solow’s Model of Long Run Economic Growth):

सोलोव के दीर्घकालीन वृद्धि मॉडल की व्याख्या निम्न प्रकार है:

केवल एक वस्तु का उत्पादन किया जा रहा है । समस्त उत्पादन को संयुक्त वस्तु की भाँति देखा गया है जिसकी उत्पादन दर = y (+) है । अत: y (+) समुदाय की वास्तविक आय को प्रदर्शित करती है । इसका एक भाग उपभोग किया जाता है तथा शेष को बचाया व विनियोग किया जाता है ।

उत्पादन के बचत किए अनुपात को स्थिर S के द्वारा सूचित किया जाता है ।

अत: बचत की दर = SY (+)

एक समुदाय में पूँजी का स्टाक = K (+)

पूँजी के स्टाक में होने वाली वृद्धि = dK/dt जिसे K के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है अर्थात् K = शुद्ध विनियोग

चूँकि बचत = विनियोग, अत: निम्न आधारभूत समता विद्यमान होगी ।

K = SY …(1)

उत्पादन प्रथम श्रेणी के रेखीय समरूप उत्पादन फलन के अनुरूप हो रहा है, अत: यदि उत्पादन = Y, पूँजी स्टाक = K तथा श्रम शक्ति की पूर्ति = L हो, तब

Y = F (K.L) …(2)

यह माना गया है कि पैमाने के स्थिर प्रतिफल नियम कार्यशील है जो कि श्रम व पूँजी की प्रतिस्थापनीयता व ह्रासमान सीमांत उत्पादकताओं पर आधारित हैं ।

समीकरण 1 में समीकरण 2 से Y का मान रखने पर

K = SF (K. L) …(3)

माना गया है कि जनसंख्या की वृद्धि एक बर्हिजात घटक है । श्रम शक्ति में एक समान सापेक्षिक दर n में वृद्धि होती है । n को हैरोड द्वारा वर्णित वृद्धि की प्राकृतिक दर से संबोधित किया जाता है, जबकि तकनीकी परिवर्तन अनुपस्थित होते है । अत: t समय पर श्रम की उपलब्ध पूर्ति L (t) को निम्न सूत्र द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है ।

L (t) = L0 ent …(4)

समीकरण 4 को श्रम का पूर्ति वक्र भी कहा जा सकता है । सोलोव के अनुसार यह स्पष्ट करता है कि घातीय रूप से वृद्धि करती श्रम शक्ति को पूर्णतया बेलोचदार तरीके से रोजगार दिया गया है । श्रम पूर्ति वक्र एक सीधी रेखा है जो समीकरण 4 के अनुसार श्रम शक्ति के बढ़ने पर दायीं ओर को खिसक जाती है । तब वास्तविक मजदूरी दर इस प्रकार समायोजित होती है कि समस्त उपलब्ध श्रम रोजगार प्राप्त कर लेता है तथा सीमांत उत्पादकता समीकरण उस मजदूरी दर को निर्धारित करता है जो वास्तव में विद्यमान रहेगी ।

सीमांत उत्पादकता समीकरण निम्न प्रकार दिया है:

समीकरण 3 में L कुल रोजगार को प्रदर्शित करता है, जबकि समीकरण 4 में यह श्रम की उपलब्ध पूर्ति को प्रदर्शित करता है । यह मानते हुए कि पूर्ण रोजगार को निरंतर प्राप्त किया जा रहा है । समीकरण 4 से L का मान समीकरण 3 में रखने पर K = sF (K, Le0nt) …(5)

पूँजी संचय के समय पथ को निर्धारित करने वाला आधारभूत समीकरण है । यदि समस्त उपलब्ध श्रम को रोजगार दिया जाना है तब पूँजी संचय के इस समय पथ का अनुसरण किया जाना आवश्यक है । पूँजीगत स्टाक एवम श्रम शक्ति के समय पथों के ज्ञात होने पर उत्पादन फलन की सहायता से वास्तविक उत्पादन का अनुरूप समय फलन ज्ञात किया जाना संभव है ।

वास्तविक मजदूरी दर का समय पथ सीमांत उत्पादकता समीकरण के द्वारा निर्घारित किया जाता है ।

प्रो. सोलोव ने विकास प्रक्रिया को निम्न प्रकार अभिव्यक्त किया:

”किसी समय पर उपलब्ध श्रम पूर्ति को समीकरण (4) के द्वारा दिया गया है तथा उपलब्ध पूँजी स्टाक भी दिया है । साधनों के वास्तविक प्रतिफल श्रम व पूँजी को पूर्ण रोजगार प्रदान करने के लिए अपने आपको समायोजित कर लेंगे । अत: हम उत्पादकता फलन समीकरण (2) की सहायता से उत्पादन दर को ज्ञात कर सकते हैं । तब बचत की प्रवृति हमें यह बतलाती है कि शुद्ध उत्पादन का कितना भाग बचाया एवम् विनियोग किया जाएगा ।

हम चालू अवधि में पूँजी के शुद्ध संचय को जानते हैं । संचित पूंजी स्टाक में इसे जोड़ कर हमें अगली अवधि में उपलब्ध पूँजी की मात्रा ज्ञात होती है और समूची प्रक्रिया को इसी प्रकार दोहराया जा सकता है ।


4. सोलोव के

सम्भव आर्थिक विकास प्रतिरूप (Possible Economic Growth Pattern Suggested by Solow):

सोलोव ने अपने मॉडल द्वारा विकास के संभावित स्वरूप को ज्ञात करने का प्रयास किया । सर्वप्रथम उन्होंने यह प्रश्न किया कि क्या हमेशा पूँजी संचय का पथ श्रम शक्ति में वृद्धि की बिक्री दर के साथ संगति रखता है ?

समाधान हेतु उन्होंने एक नए चर म की प्रस्तावना रखी जो पूँजी का श्रम के साथ अनुपात है ।

यह अर्थव्यवस्था के सतत् एवं अविरत वृद्धि का आधारभूत समीकरण है ।

संतुलन की दशा में अर्थात् समीकरण (7) में फलन F (r, 1) उत्पादन के स्तरों को प्रदर्शित करता है जहां पूंजी r की विभिन्न मात्राएं एक इकाई श्रम के संयोग के साथ प्रयोग की जाती है अर्थात् यह प्रति व्यक्ति उत्पादन को प्रति श्रमिक पूँजी के फलन के रूप में अभिव्यक्त करता है ।

nr प्रति इकाई श्रमिक पूंजी के फलन के रूप में अभिव्यक्त करता है । nr प्रति इकाई श्रमिक विनियोग की मात्रा है जिसकी आवश्यकता समय के व्यतीत होने के साथ पूँजी-श्रम अनुपात को अपरिवर्तित रखने के लिए पड़ती है । अत:

समीकरण (7) यह स्पष्ट करता है कि पूँजी-श्रम अनुपात में परिवर्तन की दर को पूँजी की वृद्धि sF (r, 1) एवम् श्रम की वृद्धि के अंतर के द्वारा ज्ञात किया जा सकता है ।

सोलोव के सम्भव विकास प्रतिरूप को चित्र 1 के द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है । चित्र में X अक्ष पर r अर्थात् पूँजी श्रम अनुपात K/L तथा Y अक्ष में प्रति इकाई श्रम उत्पादकता q को प्रदर्शित किया गया है । उत्पादन फलन q = f (r, 1) को नतोदर नीचे की ओर झुका हुआ खींचा गया है जो प्रदर्शित करता है कि पूँजी-श्रम अनुपात (r) को बढ़ाने की सीमांत उत्पादकता धनात्मक लेकिन गिरती हुई है ।

मूल बिन्दु से जाती रेखा फलन nr को प्रदर्शित करती है । मूल बिंदु से जाता नतोदर वक्र फलन sF (r, 1) है जो कि पूँजी की गिरती हुई सीमांत उत्पादकता को प्रदर्शित करता है । nr तथा sF (r, 1) रेखाओं के अन्तर्छेदन बिंदु P से प्रदर्शित किया गया है । चूँकि यहाँ nr = sF (r, 1) अत: समीकरण (7) में का मान शून्य हो जाएगा ।

जब r = 0 है तो पूँजी श्रम अनुपात स्थिर है तथा पूँजी का स्टाक ठीक उसी दर से बढ़ेगा जिस दर पर श्रम शक्ति n में वृद्धि हो रही है । स्पष्ट है कि पैमाने के स्थिर प्रतिफल की मान्यता के अधीन वास्तविक उत्पादन ठीक उसी समान दर n से वृद्धि करेगा तथा श्रम शक्ति का प्रति व्यक्ति उत्पादन स्थिर रहेगा । अन्तर्छेदन बिंदु P से x अक्ष में लम्ब डालते हुए हम बिंदु r* प्राप्त करते है । यह संतुलित वृद्धि साम्य को प्रदर्शित करता है ।

यदि पूँजी श्रम अनुपात r, r* के बराबर न हो तब अर्थव्यवस्था एक असंतुलन की दशा का अनुभव करेगी ।

 

ऐसी दो दशाएँ सम्भव हैं:

1. जब r > r*, अर्थात् पूंजी-श्रम अनुपात, संतुलन मूल्य से अधिक हो ।

2. जब r < r*, अर्थात् पूँजी श्रम अनुपात, संतुलन मूल्य से निम्न हो ।

स्वचालित साम्य की दशा को चित्र 2 की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है । चित्र में x अक्ष में पूँजी व Y अक्ष में श्रम प्रदर्शित किए गए हैं । साम्य पूंजी-श्रम अनुपात r* को मूल बिंदु से r* के ढाल पर खींची गयी रेखा Or* के द्वारा प्रदर्शित किया गया है ।

 

प्रारंभ में अर्थव्यवस्था ro > r* से शुरू करती है । माना पूँजी श्रम अनुपात संतुलन मूल्य से अधिक है जैसा कि बिंदु H से स्पष्ट है । इससे तात्पर्य यह है कि पूँजी, बहिर्जात रूप से निर्धारित श्रम की वृद्धि दर के सापेक्ष अधिक तेजी से बढ़ेगी । चूँकि उत्पादन, प्रथम श्रेणी के रेखीय समरूप फलन के अधीन किया जा रहा है अत: एक साधन के बढ़ते प्रयोग से घटते प्रतिफल की प्राप्ति होगी ।

इस प्रकार पूँजी के स्टाक में जितनी वृद्धि होती है उत्पादन उतनी तेजी से नहीं बढ़ता । यह असामनता को प्रदर्शित करता है । स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था को अविरल वृद्धि के लिए जितना विनियोग आवश्यक है उस मात्रा में वांछित बचतें प्राप्त नहीं हो रही हैं । पूँजी स्टाक में होने वाली सापेक्षिक कम वृद्धि K/L अनुपात को इस प्रकार कम करेगी कि r, r* की ओर गिरने लगेगा । यह कमी तब अनुपात संतुलन मूल्य की प्राप्ति न कर ले ।

अत: r > r* होने पर nr > sF (r, 1) होगा तथा समीकरण 6 से यह स्पष्ट होता है कि r, r* की ओर गिरेगा ।

दूसरी दशा में जब r < r* हो अर्थात पूँजी-श्रम अनुपात संतुलन स्तर से निम्न विद्यमान होता है जैसा चित्र में बिंदु L से दिखाया गया है । प्रथम श्रेणी के समरूप रेखीय उत्पादन फलन के अधीन उत्पादन होने पर पूँजी एवम उत्पादन एक से कम प्रतिशत से गिरता है अर्थात वांछित बचतें, विनियोग से अधिक हैं प्रदर्शित करती है ।

अतिरिक्त बचतों की अधिकता के कारण विनियोग इतने अधिक होते हैं जिससे पूँजी-श्रम अनुपात r* की ओर को बढ़ता है, क्योंकि पूँजी व श्रम दोनों में ही वृद्धि होती है । जिस अनुपात से श्रम शक्ति में वृद्धि हो रही है उसी दर से पूँजी में होने वाली वृद्धि से r, r* के सन्निकट होता जाता है । अत: r < r* होने पर nr < sF (r, 1) ऐसी दशा में r, r* की ओर बढ़ेगा ।

अत: r, r* के किसी भी ओर हो, उसकी यह प्रवृति होती है कि वह r* की ओर गति करें । स्पष्ट है कि संतुलन मूल्य r* स्थायी है । सोलोव के अनुसार पूँजी-श्रम अनुपात का प्रारंभिक मूल्य कुछ भी हो, यह प्रणाली प्राकृतिक दर से संतुलित वृद्धि की दशा की ओर विकास करेगी ।

यदि प्रारंभिक पूँजी अनुपात संतुलन दर से निम्न है तो पूँजी एवम् उत्पादन श्रम शक्ति के सापेक्ष तेजी से बढ़ेंगे जब तक कि संतुलन की प्राप्ति न हो जाए । यदि प्रारंभिक दर, साम्य मूल्य से अधिक है तो पूँजी एवम् उत्पादन श्रम की तुलना में धीमी गति से बढ़ेंगे । उत्पादन की वृद्धि हमेशा श्रम एवम पूँजी के मध्यवर्ती होती है ।

सोलोव ने स्पष्ट किया कि चित्र 1 में प्रदर्शित स्थायित्व अनिवार्य नहीं है । यह तो उत्पादकता वक्र sF (r, 1) के आकार पर निर्भर करती है । चित्र 1 में पूँजी एवम् उत्पादन के अविरल समायोजनों को संतुलित वृद्धि की दशाओं के अधीन देखा गया था । लेकिन इसके अतिरिक्त अन्य कई रूप या आकार भी संभव हैं । उदाहरण के लिए चित्र 3 को ध्यान में रखा गया जहाँ उत्पादकता वक्र sF (r, 1) रेखा nr को तीन बिंदुओं a, b, c पर अन्तर्छेदित करती है ।

अन्तर्छेदन के बिंदु a, b, c, x अक्ष में r की क्रमश: r1, r2, r3 दशाओं को प्रदर्शित करता है । चित्र में बिंदु r1 तथा r3 स्थायी संतुलन की दशा है, क्योंकि कुछ उत्पादकता वक्र sF (r, 1) रेखा nr के ऊपर से होकर जाती है, जबकि बिंदु r2 पर यह nr, के नीचे से होकर जा रही है ।

उपर्युक्त को समीकरण 6 की सहायता से भी स्पष्ट किया जा सकता है । r1 बिंदु पर यदि हम इस बिंदु से दाएँ की ओर जाएँ तो nr > SF (r, 1) अर्थात् r यहाँ ऋणात्मक है जिससे तात्पर्य कमी होती है । यदि हम इस बिंदु से बायीं ओर जाएँ तो sF (r, 1) > nr, अर्थात् r यहाँ धनात्मक है जिससे अभिप्राय है कि r बढ़ता है एवम् इसकी प्रवृति r1 बिंदु की ओर आने की होती है ।

स्पष्ट है कि यदि r1 बिंदु के बाएँ या दाएँ होने वाली कोई भी सूक्ष्म गति ऐसी दशाएँ उत्पन्न कर देती हैं जिससे पुन: r1 की ओर वापस आना संभव होता है । इससे प्रदर्शित होता है कि r1 एक स्थायी संतुलन है । r3 बिंदु को देखें जो अस्थिर संतुलन को प्रदर्शित करता है । उदाहरण के लिए- यदि हम r2 बिंदु से थोड़ा दाएँ की ओर गति करें तब समीकरण 6 के अनुसार sF (r, 1) जहाँ धनात्मक है अर्थात् r बढ़ रहा है ।

अत: इनकी ऐसी प्रवृति विद्यमान होगी कि वह r2 से हटकर तथा r3 की ओर गति करें यदि हम r2 बिन्दु से थोड़ा बायीं और गति करें तब nr > sF (r, 1) जहाँ r ऋणात्मक है अर्थात् r गिर रहा है । अत: इसकी ऐसी प्रवृति विद्यमान होगी कि वह r1 की ओर गति करें ।

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि बिन्दु r1 व r3 स्थायी संतुलन को प्रदर्शित करते हैं वही बिंदु अस्थायी या अस्थिर संतुलन को अभिव्यक्त करता है । अत: आरंभिक रूप से नियत पूँजी श्रम अनुपात दर प्रणाली पूँजी-श्रम अनुपात r1 या r3 पर संतुलित विकास की अवस्था को प्राप्त करेगी । यदि यह आरंभिक अनुपात O से r2 के मध्य कहीं है तब उचित संतुलित वृद्धि साम्यावस्था r1 बिंदु पर होगी लेकिन यदि आरंभिक अनुपात r2 से अधिक है तो संतुलित वृद्धि साम्यावस्था r3 बिंदु पर होगी ।


5. सोलोव के आर्थिक वृद्धि मॉडल की

आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Evaluation of Solow’s Model of Economic Growth):

सोलोव नव-प्रतिष्ठित अविरल वृद्धि के स्थायित्व का सरल समायोजन प्रस्तुत करते हैं । वस्तुत: यह हैरोड-डोमर मॉडल पर एक सुधार है । हैरोड-डोमर की भाँति यह स्थिर साधन अनुपातों की मान्यता पर आधारित न होकर गिरते हुए प्रतिफल की अवस्था को ध्यान में रखता है । सोलोव का मॉडल एक स्वचालित समायोजन को प्रस्तुत करता है जिससे संतुलन वृद्धि पथ को प्राप्त किया जा सकता । सोलोव श्रम की अधिकता के कारण सापेक्षिक साधन-कीमतों में होने वाले परिवर्तन को ध्यान में रखते हैं ।

सोलोव के मॉडल का सार यह है कि जब उत्पादन परिवर्ती अनुपातों एवम पैमाने के स्थिर प्रतिफल की अवस्था में होता है तो वृद्धि की प्राकृतिक एवम आवश्यक दर में कोई विरोध नहीं रह जाता । प्रणाली श्रम शक्ति की किसी भी दी हुई वृद्धि दर पर समायोजित हो सकती है तथा इस प्रकार अविरल आनुपातिक विस्तार की अवस्था को प्राप्त करती है ।

सोलोव के मॉडल में साधन कीमतों की पूर्ण लोचशीलता समायोजन प्रक्रिया के क्रियान्वित होने के लिए आवश्यक है । यदि साधन कीमतें दृढ़ हैं तो यह मॉडल उन्हीं कठिनाइयों का अनुभव करेगा जो हैरोड- डोमर मॉडल में पायी जाती है ।

साधन कीमतों की लोचशीलता को कई तत्व प्रभावित करते हैं, जैसे- मजदूरी, नियोजकों एवं श्रम संघों के आपसी समझौतों के कारण एक निश्चित उच्च व निम्न सीमा के मध्य बदलती रहती है । इस प्रकार ब्याज की दर भी तरलता जाल समस्या के कारण एक न्यूनतम स्तर से निम्न नहीं गिरती । इसके परिणामस्वरूप पूँजी उत्पादन अनुपात संतुलन वृद्धि की आवश्यकता के अनुरूप उच्च नहीं हो पाता ।

प्रो॰ अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक Growth Economics (1970) में स्पष्ट किया कि:

1. सोलोव का मॉडल वृद्धि की आवश्यक दर (Gw) एवम् वृद्धि की प्राकृतिक दर (Gn) के संतुलन की समस्या को ध्यान में रखता है तथा वास्तविक वृद्धि (G) व वृद्धि की आवश्यक दर (Gw) के मध्य संतुलन की समस्या पर विचार नहीं करता । सोलोव वृद्धि की आवश्यक दर (Gw) व वृद्धि की वास्तविक दर (G) के मध्य उपक्रमियों की प्रत्याशाओं के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले संतुलन की समस्या पर विचार नहीं करते ।

इस प्रकार वह विनियोग फलन की पूर्ण उपेक्षा करते है । एक बार जब सोलोव की मॉडल में विनियोग फलन को प्रस्तावित किया जाता है तो हैरोड के मॉडल में अस्थायित्व की समस्या दूर हो जाती है । अमर्त्य सेन के अनुसार वृद्धि के नवप्रतिष्ठित एवम नव-कीसियन विश्लेषण के मध्य आधारभूत अंतर श्रम व पूँजी की प्रतिस्थापनीयता की मान्यता पर आधारित न होकर विनियोग फलन एवम् भविष्य के प्रति उपक्रमियों की आकांक्षाओं की महत्वपूर्ण भूमिका पर समुचित ध्यान न दिए जाने से संबंधित है ।

2. प्रो. सोलोव ने पूँजी स्टाक की संरचना की उपेक्षा की । उन्होंने एक पूर्ण रूप से समरूप तथा लचीली पूँजी की कल्पना की, जबकि वास्तव में पूँजी वस्तुएँ पर्याप्त भिन्नता रखती है और इस भिन्न वस्तुओं को सम्पूर्णाक के रूप में देखना अवास्तविक है । सोलोव के मॉडल के अनुसार यदि पूँजी वस्तुएँ भिन्न-भिन्न प्रकार की हों तो ऐसे में सतत् या अविरल वृद्धि के पथ को प्राप्त करना संभव नहीं बन पाता ।

3. सोलोव का अविरल वृद्धि मॉडल तकनीकी प्रगति को श्रम वृद्धि कारक मान कर चलता है । यह हैरोड के तटस्थ तकनीकी प्रगति के विचार का ही विशेष रूप है । तटस्थ तकनीकी प्रगति के कोई अनुभव सिद्ध प्रमाण नहीं मिलते । इस कारण इसे व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता ।

4. सोलोव के मॉडल में तकनीकी प्रगति को एक बर्हिजात फलन माना गया है । इस प्रकार सोलोव व तकनीकी प्रगति को सीखने की प्रक्रिया शोध व पूँजी संचय से संबंधित नहीं करते । वास्तव में तकनीकी प्रगति एवम पूँजी संचय के मध्य एक निकट संबंध विद्यमान होता है । प्रो. निकोलस कालडोर एवं प्रो. ऐरो ने विशेष रूप से सीखने की प्रक्रिया का विवेचन किया ।


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