हैरोड की आर्थिक विकास का सिद्धांत | Read this article in Hindi to learn about Harrod’s model of economic growth.
आर.एफ. हैरोड ने अपने शोध लेख Towards a Dynamic Economics (1948) में अर्थव्यवस्था की सतत् वृद्धि से संबंधित प्रावैगिक विश्लेषण प्रस्तुत किया । उनके अनुसार यदि सतत् वृद्धि अवरुद्ध होती है तो इससे अर्थव्यवस्था असंतुलन की दशा का अनुभव करेगी अत: सुदीर्घकालिक मुद्रा प्रसार या मुद्रा संकुचन की स्थितियाँ उत्पन्न होंगी ।
हैरोड के आर्थिक वृद्धि विश्लेषण में तीन मुख्य घटक हैं:
1. मानवशक्ति या जनसंख्या में होने वाली वृद्धि
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2. प्रति व्यक्ति उत्पादन जिसका निर्धारण तकनीक के स्तर या खोज द्वारा होता है, एवं
3. पूँजी संचय ।
हैरोड ने तकनीकी प्रगति को पूँजी गुणांक के परिवर्तन से अभिव्यक्त किया । पूंजी गुणांक से अभिप्राय है उत्पादन हेतु चाही जाने वाली पूँजी का अनुपात अर्थात् आय की वह दर जिसे बचाया व विनियोग किया जाता है, जबकि तकनीक का एक स्तर एवम जनसंख्या वृद्धि की दर दी हुई हो ।
पूँजी गुणांक के आधार पर हैरोड ने तकनीकी प्रगति के तीन रूप बतलाए:
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1. जब पूँजी गुणांक बढ़ता है अर्थात् K0/Y0 < Ki/Yi तब तकनीक श्रम बचत का रूप लेती है ।
2. जब पूंजी गुणांक गिरता है अर्थात् K0/Y0 < Ki/Yi, तब तकनीक पूँजी को अवशोषित करने वाली होती है ।
3. जब पूँजी गुणांक निष्क्रिय होता है अर्थात् K0/Y0 = Ki/Yi, तब तकनीकी प्रगति भी निष्क्रिय होती है, इस दशा में पूँजी के गुणांक अपरिवर्तनशील होते हैं ।
हैरोड ने सतत् वृद्धि की प्रक्रिया में पूँजी की आवश्यकताओं को महत्वपूर्ण माना । इसमें बचतों की प्रवृति का उल्लेख आवश्यक है ।
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बचतों को हैरोड निम्न तीन भागों में बाँटते हैं:
1. व्यक्तिगत बचतें जिनसे व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति होती है इसे Humpsaving कहा गया ।
2. उतराधिकार बचतें अर्थात् व्यक्तिगत बचत का वह भाग जिसे व्यक्ति अपने उत्तराधिकारियों के पास छोड़ जाता है ।
3. कारपोरेट बचतें जो व्यावसायिक फर्मों के द्वारा की गई बचते हैं ।
हैरोड के अनुसार स्थिर अवस्था में व्यक्तिगत एवम कारपोरेट बचतें शून्य होती है । केवल उत्तराधिकार बचतें धनात्मक होती हैं । स्थिर अवस्था में बचतों की कोई माँग नहीं होती । एक ऐसी अर्थव्यवस्था जहां जनसंख्या बढ़ रही हो पर तकनीकी प्रगति स्थिर हो, बढ़ती हुई पूँजी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए कुल बचतों का बढ़ना आवश्यक है । ऐसी प्रावैगिक दशा में व्यक्तिगत एवम कारपोरेट बचतें आय के साथ-साथ बढेंगी ।
हैरोड मान कर चलते हैं कि:
(i) किसी निश्चित समय में समाज की शुद्ध बचतें उस समय की आय का एक निश्चित अनुपात होती है । वास्तविक बचत अनुमानित बचत ३ बराबर होनी चाहिए । इसके साथ ही वास्तविक बचतें वास्तविक विनियोग के बराबर होती हैं ।
(ii) साहसी द्वारा किया गया विनियोग निर्णय उनके द्वारा प्राप्त पूर्व आय पर निर्भर करता है । चूँकि आय में वृद्धि के फलस्वरूप ही पूँजी बढ़ती है अत: पूँजी की मात्रा में वृद्धि होना विनियोग हेतु आवश्यक शर्त है । हैरोड के अनुसार मुख्य समस्या आय वृद्धि की दर के निर्धारकों को ज्ञात करना है ।
हैरोड का मॉडल वृद्धि की तीन दरों को परिभाषित करता है:
1. वृद्धि की वास्तविक दर जिसे G द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है । वृद्धि की वास्तविक दर G बचत की दर एवं पूँजी-उत्पाद दर के द्वारा निर्धारित होती है । यह वृद्धि की दर में अल्पकालीन चक्रीय परिवर्तनों को सूचित करती है ।
2. वृद्धि की आवश्यक दर वृद्धि की आवश्यक दर को Gw के द्वारा निरुपित किया गया । यह अर्थव्यवस्था में माप की पूर्ण क्षमता वृद्धि दर है । हैरोड के अनुसार- विकास की आवश्यक दर Gw, वह वृद्धि दर है जिसे परि प्राप्त कर लिया जाये तो व्यवसायी ऐसी मानसिक अवस्था में आ जाते हैं कि वह उसी प्रकार की प्रगति को बढ़ाने के लिए तत्पर रहते हैं ।
3. वृद्धि की प्राकृतिक दर वृद्धि को प्राकृतिक दर को Gn के द्वारा अभिव्यक्त किया गया । यह उत्पादन की ऐसी प्रवृति को सूचित करता है, जब पूर्ण रोजगार विद्यमान होता है तथा मुद्रा प्रसार नहीं होता । यह वृद्धि की वह दर है जो जनसंख्या वृद्धि व तकनीकी सुधारों द्वारा प्राप्त की जाती है । वृद्धि की प्राकृतिक दर को हैरोड ने अपने शोध लेख Second Essay in Dynamic Economics, (June 1960) में अनुकूलतम कल्याण की संज्ञा दी ।
आर्थिक वृद्धि के समीकरण:
हैरोड के मॉडल में पहला आधारभूत समीकरण बचत एवम् विनियोग के साम्य को निम्न प्रकार अभिव्यक्त करता है:
GC = s …(1)
जहाँ G = एक दिए हुए समय में आय की वास्तविक वृद्धि दर इसे आय में होने वाली वृद्धि ∆Y से कुल आय Y के अनुपात या ∆Y/Y द्वारा प्रदर्शित किया जाता है ।
C = पूँजी में शुद्ध वृद्धि इसे विनियोग I से आय में होने वाली वृद्धि ∆Y के अनुपात अर्थात् I/∆Y द्वारा प्रदर्शित किया जाता है ।
s = बचत की औसत प्रवृति जहाँ बचत को आय के अनुपात या S/Y निरूपित किया गया है । समीकरण में G, C व s के मान प्रतिस्थापित करने पर
बचत एवम् विनियोग को वास्तविक रूप से अभिव्यक्त किया गया है । यह स्पष्ट करता है कि वास्तविक बचतें वास्तविक विनियोग के बराबर होती हैं बचत एवम विनियोग के व्यवहार संबंधों को इस प्रकार हैरोड बचत व विनियोग के उपर्युक्त संबंध द्वारा अभिव्यक्त करता है । हैरोड के अनुसार बचतें आय के स्तर पर निर्भर करती हैं तथा विनियोग आय के वृद्धि की दर पर निर्भर करता है ।
हैरोड के अनुसार सतत् या अविरत वृद्धि के लिए आवश्यक है कि वृद्धि की वास्तविक दर बराबर हो वृद्धि की आवश्यक दर के अर्थात् माप में होने वाली वृद्धि की दर इतनी पर्याप्त हो जो उपक्रमी को उसके द्वारा किए गए वास्तविक विनियोग से संतुष्ट रख सके । उन्होंनें आय के व्यवहार को उपक्रमी के विनियोग निर्णयों का प्रत्युत्तर माना ।
इस संदर्भ में उन्होंने दो मान्यताओं का आधार लिया:
(i) किसी समय अवधि में शुद्ध बचतें उस अवधि में प्राप्त की गयी आय का निश्चित अनुपात होती हैं तथा
(ii) विनियोग आय में होने वाली वृद्धि की दर का समानुपाती होता है ।
स्पष्ट है कि हैरोड त्वरण सिद्धांत का विवेचन करते हैं जिसके अनुसार उत्पादन में होने वाली वृद्धि पूँजी के स्टाक में वृद्धि करती है जिसके द्वारा वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है । इससे अभिप्राय है कि उपक्रमी जो अपनी आय के एक अंश का विनियोग कर रहे है इस बात से प्रभावित होते है कि पूर्व अवधि में उत्पादन वृद्धि की दर क्या रही । उपक्रमी केवल तब संतुष्ट होगा जब बढ़ते हुए विनियोग से क्रमश: उसकी आय में वृद्धि होती रहे ।
कीजियन विश्लेषण में आय व रोजगार को तब संतुलन में कहा जाता है, जबकि नियोजित बचतें पूर्णत: नियोजित विनियोग का रूप ले लें । हैरोड के अनुसार इस प्रकार का विनियोग प्राकृतिक रूप से संभव नहीं होता । विनियोग को प्रेरित करने के लिए आवश्यक है कि आय में वृद्धि हो ।
इसे अभिव्यक्त करने के लिए हैरोड सतत् या अविरत वृद्धि की संतुलन दशा को निम्न प्रकार अभिव्यक्त करते हैं:
Gw. Cr = S …(2)
जहाँ Gw = वृद्धि की आवश्यक दर ΔY/Y है, जो विनियोग को उसके द्वारा किए गए वास्तविक विनियोग की मात्रा से संतुष्ट रखती है । इसे वृद्धि की पूर्ण क्षमता दर कहा गया है ।
Cr = पूँजी की वह मात्राएँ जो वृद्धि की आवश्यक दर को बनाए रखने के लिए पर्याप्त हैं ।
S = बचत की औसत प्रवृति
समीकरण (2) से स्पष्ट है कि वृद्धि की आवश्यक दर के सतत् व अविरत होने पर अर्थव्यवस्था अपनी क्षमता का पूर्ण उपयोग उस दशा में करती है जब आय S/Cr वार्षिक दर से बढ़े, क्योंकि G = S/Cr होता है । अत: यदि आय वृद्धि की आवश्यक दर के अनुरूप बढ़ती है तब पूँजी स्टाक का पूर्ण उपयोग सम्भव होगा अथवा उपक्रमी अपनी आय से सृजित होने वाली बचत को विनियोजित करना जारी रखेंगे । इस प्रकार Gw आय में स्वत: नियमित होने वाली वृद्धि को प्रदर्शित करता है ।
यदि अर्थव्यवस्था इस दर से बढ़े तो वह एक संतुलन पथ का अनुसरण करेगी । संक्षेप में- हैरोड का आधारभूत संतुलन यह प्रदर्शित करता है कि आर्थिक उन्नति का मात्र एक मार्ग है जिसे सतत या अविरत वृद्धि कहा जाता है ।
समीकरण (1) व (2) में s बराबर है । इससे अभिप्राय है कि वास्तविक बचतें नियोजित बचतों के बराबर होती हैं । अत: प्रावैगिक संतुलन हेतु समीकरण (1) व (2) से GC = Gw Cr
पूर्ण रोजगार संतुलन वृद्धि के लिए आवश्यक है कि वृद्धि की वास्तविक दर G बराबर हो बृद्धि की आवश्यक दर Gw के । इसके अनुरूप अर्थव्यवस्था सतत् या अविरत वृद्धि की दशा प्राप्त करेगी एवम वास्तविक पूँजी वस्तुएँ C सतत् वृद्धि हेतु आवश्यक पूँजी वस्तुओं Cr के बराबर रहेंगी ।
यदि G, Gw के बराबर नहीं है तो अर्थव्यवस्था साम्यावस्था में नहीं होगी । यदि वृद्धि की वास्तविक दर G, वृद्धि की आवश्यक दर Gw से अधिक हो अर्थात् G > Gw तब C का मूल्य Cr से कम होगा अर्थात् C < Cr । इस स्थिति में अर्थव्यवस्था संतुलन में नहीं होगी, क्योंकि स्टाक, वस्तुओं की कमी व अपर्याप्त उपकरणों की स्थिति दिखायी देगी ।
अर्थव्यवस्था सुदीर्घकालिक मुद्रा प्रसार की दशा को अभिव्यक्त करेगी । अत: पूँजीगत वस्तुओं की कमी बढ़ेगी तथा पूँजीगत वस्तुओं की वास्तविक मात्राएं, चाही जाने वाली पूँजीगत वस्तुओं की अपेक्षा अल्प होंगी (C < Cr) नियोजित या चाहे जाने वाले विनियोग के वास्तविक या Expost विनियोग C से अधिक होने पर समग्र माँग में कमी की दशाएँ दिखायी देती है ।
चित्र 1 में आय की वृद्धि दर को Y अक्ष में तथा समय को X अक्ष में दिखाया गया है । प्रारंभिक आय के पूर्ण रोजगार स्तर Yo पर वास्तविक वृद्धि दर व वृद्धि की आवश्यक दर, बिन्दु P तक साथ-साथ हैं । यहाँ समय t1 है । t1 समय के पश्चात G, Gw से अधिक होती जाती है ।
इसी प्रकार यदि वृद्धि की वास्तविक दर G, वृद्धि की आवश्यक दर Gw से कम हो अर्थात् G < Gw तब C का मूल्य Cr से अधिक होगा अर्थात् C > Cr । यह दशा पूँजीगत वस्तुओं की अधिकता को प्रदर्शित करती है ।
अर्थव्यवस्था सुदीर्घकालिक मुद्रा संकुचन की दशा को अभिव्यक्त करेगी जहाँ नियोजित विनियोग नियोजित बचतों की अपेक्षा कम हो जाता है । इससे स्पष्ट है कि इच्छित विनियोग वास्तविक विनियोग से कम है तथा समग्र माँग समग्र पूर्ति के सापेक्ष कम हो जाती है । इसे चित्र 2 से प्रदर्शित किया गया है जहाँ समय t1 के उपरांत Gw की तुलना में G कम है ।
हैरोड के अनुसार जब वृद्धि की वास्तविक दर G, वृद्धि की आवश्यक दर Gw से भिन्न होने लगती है तब असंतुलन बढ़ता चला जाता है । यदि G एवम Gw का संतुलन एक बार बिगड़ जाये तो यह स्वयं ठीक होने की प्रवृति नहीं रखता ।
अत: यदि G > Gw तब नियोजित विनियोग नियोजित बचत से अधिक होता है जिससे विस्तार प्रोत्साहित होता है ।
यदि G > Gw तब नियोजित विनियोग नियोजित बचत से कम होता है इससे संकुचनकारी शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं ।
उपर्युक्त स्थितियाँ का चित्रात्मक निरूपण संभव है । चित्र 3 में आय को X अक्ष तथा बचत व विनियोग को Y अक्ष में मापा गया है । OS रेखा बचत फलन को अभिव्यक्त करती है । रेखा I I1 विनियोग फलन I = Cr ∆Y को प्रदर्शित करती है । रेखा I I1 X अक्ष को बिंदु I1 पर छूती है जो पूर्व अवधि की आय को सूचित करता है । विनियोग रेखा I I1 का ढाल Cr के बराबर है तथा यह 45० से उच्च है, क्योंकि माना गया है कि Cr > 1 ।
चित्र से स्पष्ट है कि वर्तमान समय अवधि में बचत व विनियोग का संतुलन तब प्राप्त होता है जब आय का स्तर O I2, पूर्व समय की आय O I1 से I1 I2 अधिक है । अत: वृद्धि की आवश्यक दर Gw = ∆Y/Y = I1I2 / OI2 होगी ।
अगली समय अवधि t t1 में, O I2 पिछले समय की आय होगी तथा विनियोग रेखा I1 I1 से बदल कर I2 I2 हो जाएगी । चूँकि Cr अपरिवर्तित रहता है अत: I2 I2 रेखा I1 I1 के समानान्तर होती है । नया बचत विनियोग संतुलन उस बिंदु पर स्थापित होगा जहाँ I2 I2 रेखा OS रेखा को अर्न्तछेदित करेगी । P1 बिंदु पर आय का स्तर I3 है अत: P1 बिंदु पर t + 1 समय अवधि में वृद्धि की आवश्यक दर I2 I3 / OI3 होगी ।
ठीक इसी प्रकार t+ 2 समय अवधि में विनियोग फलन I3 I3 रेखा द्वारा दी है जिससे आय का OI4 स्तर प्राप्त होता है तथा वृद्धि की आवश्यक दर I3I4 / OI4 होती है ।
चित्र से स्पष्ट है कि I1I2 / OI2, I2I3 / OI3, I3I4 / OI4 समान त्रिभुजों की विशेषता के कारण एक दूसरे के समकक्ष होंगे । इससे अभिप्राय है कि जब तक S तथा Cr अपरिवर्ती रहते हैं, वृद्धि की आवश्यक दर एक अपरिवर्ती आनुपातिक दर पर प्राप्त होती रहेगी । समय के साथ-साथ विनियोग फलन दाएँ की ओर बढ़ता रहेगा तथा वृद्धि की आवश्यक दर तब तक बढ़ेगी जब तक बचत एवम विनियोग में संतुलन विद्यमान रहेगा ।
हैरोड के अनुसार विस्तार अनंत समय तक नहीं चलता । विस्तार की प्रक्रिया की एक उच्च सीमा होती है जिसका निर्धारण आधारभूत प्राकृतिक दशाओं जैसे जनसंख्या में वृद्धि, पूंजी का संचय, तकनीकी सुधार एवम कार्य व आराम की अधिमान अनुसूची के द्वारा नियत होता है । इस सीमा को पूर्ण रोजगार सीलिंग भी कहा जाता है । यह एक निश्चित सीमा नहीं है इसमें तब परिवर्तन किया जा सकता है जब आधारभूत संसाधनों में वृद्धि हो तथा तकनीकी प्रगति संभव बने ।
हैरोड के अनुसार वृद्धि की आवश्यक दर Gw वृद्धि की अधिकतम संभव दर हो । इस संदर्भ में हैरोड ने वृद्धि के एक अन्य स्वरूप को स्पष्ट किया जिसे वृद्धि की प्राकृतिक दर Gn कहा गया । वृद्धि की प्राकृतिक दर व्यापक चरों, जैसे- जनसंख्या तकनीक, प्राकृतिक संसाधनों एवं पूंजी संयन्त्रों पर निर्भर करती है ।
वस्तुत: Gn उच्चतम प्राप्य वृद्धि दर है जो अर्थव्यवस्था में विद्यमान संसाधनों के पूर्णत संभव रोजगार की दशा को अभिव्यक्त करता है ।
हैरोड के अनुसार वृद्धि की प्राकृतिक दर Gn एवम वृद्धि की आवश्यक दर Gw के एकरूप होने का प्रश्न ही नहीं उठता यह संभव है कि वृद्धि की आवश्यक दर ऐसी हो जिसे पूर्ण रोजगार की दशाओं के अधीन प्राप्त किया जाए । हैरोड ने इसे उचित आवश्यक दर कहा ।
सभी विद्यमान साधनों के पूर्ण रोजगार पर होने की संतुलन दर के लिए निम्न दशा का संतुष्ट होना आवश्यक है G = Gn = Gw
यदि इस समता में कोई विचलन दिखे तो अर्थव्यवस्था में अस्थायित्व उत्पन्न हो जाएगा तब सुदीर्घकालिक जड़ता, मुद्रा प्रसारिक एवम मुद्रा विस्फीति की दशा उत्पन्न होने लगेगी ।
G, Gw तथा Gn के मध्य असमता की निम्न स्थितियाँ संभव हैं:
1. यदि G > Gw तब विनियोग में बचतों की अपेक्षा तीव्र वृद्धि होगी । वास्तविक पूँजी दर (C) आवश्यक पूँजी दर (Cr) से कम हो जाएगी । अत: अर्थव्यवस्था में अधिक पूँजी की आवश्यकता पड़ती है । अतिरिक्त पूँजी, पूँजीगत संयत्र एवम मशीन आदि का प्रबंध करने पर वास्तविक वृद्धि दर G, वृद्धि की आवश्यक दर Gw से अधिक हो जाती है व मुद्रा प्रसार की दशा सामने आती है ।
2. यदि G < Gw हो, तब वास्तविक पूँजी दर C, पूँजी की आवश्यक दर Cr से अधिक होगी । पूँजीगत यन्त्रों, मशीनों की मांग कम होगी व विकास की वास्तविक दर गिरेगी । ऐसी स्थिति में बचतों में विनियोग की अपेक्षा तीव्र वृद्धि होगी तथा आय में होने वाली वृद्धि Gw से कम होगी ।
हैरोड के अनुसार Gw > Gn होने पर सुदीर्घकालिक जड़ता उत्पन्न होती है । ऐसी स्थिति में Gw > G, क्योंकि वृद्धि की वास्तविक दर की उच्च सीमा को वृद्धि की प्राकृतिक दर तय करती है ।
चित्र 4 से स्पष्ट है कि जब Gw > Gn हो तब C > Cr होता है तब पूँजीगत वस्तुओं की अधिकता हो जाती है, क्योंकि श्रमिकों की कमी पड़ जाती है । श्रमिकों की कम संख्या के कारण उत्पादन में होने वाली वृद्धि Gw के स्तर से निम्न होती है । इस स्थिति में मशीनों का कुशल प्रयोग नहीं होगा तथा अतिरिक्त क्षमता उत्पन्न होगी । इससे विनियोग, उत्पादन, रोजगार एवम आय पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा तथा अर्थव्यवस्था मंदी के चंगुल में फंस जाएगी ।
यदि Gw < Gn हो जब Gn > G होगा । इसे चित्र 5 में प्रदर्शित किया गया है । Gw < Cn होने पर C < Cr, अत: पूँजी वस्तुओं की कमी होगी तथा श्रम का आधिक्य होगा । वास्तविक विनियोग की तुलना में वांछित विनियोग की अधिकता के कारण लाभ अधिक उच्च होते हैं ऐसे में उपक्रमी अपने पूँजी स्टाक में वृद्धि करना चाहेंगे । अत: अर्थव्यवस्था में सुदीर्घकालिक मुद्रा प्रसार की दशा दिखायी देती है । ऐसी स्थिति में बचतें लाभप्रद होती है, क्योंकि इनसे वृद्धि की आवश्यक दर में वृद्धि संभव होती है ।
हैरोड ने स्पष्ट किया है कि मुद्रा प्रसारिक अंतराल की दशा में बचत लाभप्रद होती है तथा अवस्फीति कारक अंतराल की दशा में यह खतरा उत्पन्न करती है । एक उन्नत अर्थव्यवस्था में बचत की दर परिस्थितियों के अनुसार ऊपर नीचे गति करती रहती है ।
हैरोड के अनुसार यदि वृद्धि की उचित आवश्यक दर वृद्धि की प्राकृतिक दर से अधिक हो तब यह अर्थव्यवस्था हेतु अनुकूल नहीं । हैरोड के अनुसार प्रणाली में उतनी ही प्रगति संभव होगी जो वृद्धि की प्राकृतिक दर के द्वारा संभव हो । यदि वृद्धि की उचित आवश्यक दर वृद्धि की प्राकृतिक दर से अधिक हो तब मंदी की दशा उत्पन्न होगी । इससे वृद्धि की आवश्यक दर अपने नियत स्तर से कहीं नीचे आ जाएगी । वृद्धि की इस आवश्यक दर को तब ही कम किया जा सकता है जब तीव्र बेरोजगारी विद्यमान हो ।