आर्थिक विकास के जोआन रॉबिन्सन का मॉडल | Read this article in Hindi to learn about:- 1. जोन रोबिंसन की आर्थिक वृद्धि मॉडल की प्रस्तावना (Introduction to Joan Robinson’s Model) 2. जोन रोबिंसन की आर्थिक वृद्धि मॉडल की मान्यताएँ (Assumptions of Joan Robinson’s Model) 3. विश्लेषण (Analysis) 4. विशेषताएँ (Merits) 5. सीमाएँ (Limitations) 6. रोबिंसन का मॉडल एवं अल्पविकसित देश (Model of Joan Robinson and Less Developed Economies).
Contents:
- जोन रोबिंसन की आर्थिक वृद्धि मॉडल की प्रस्तावना (Introduction to Joan Robinson’s Model)
- जोन रोबिंसन की आर्थिक वृद्धि मॉडल की मान्यताएँ (Assumptions of Joan Robinson’s Model)
- जोन रोबिंसन की आर्थिक वृद्धि मॉडल का विश्लेषण (Analysis of Joan Robinson’s Model)
- जोन रोबिंसन के मॉडल की विशेषताएँ (Merits of Joan Robinson’s Model)
- जोन रोबिंसन के मॉडल की सीमाएँ (Limitations of Joan Robinson’s Model)
- रोबिंसन का मॉडल एवं अल्पविकसित देश (Model of Joan Robinson and Less Developed Economies)
1. जोन रोबिंसन की आर्थिक वृद्धि मॉडल की प्रस्तावना (Introduction to Joan Robinson’s Model):
श्रीमती जोन रोबिंसन ने 1956 में अपने ग्रंथ The Accumulation of Capital में आर्थिक वृद्धि से सम्बन्धित व्याख्या जटिल रूप से प्रस्तुत की । इसमें पूँजी संचय बनाम आर्थिक वृद्धि से सम्बन्धित पक्षों को ध्यान में रखा गया था । बाद में अपनी पुस्तक Essays in the Theory of Economic Growth (1963) में उन्होंने अपने विश्लेषण की अपेक्षाकृत सरल व्याख्या प्रस्तुत की ।
श्रीमती जोन रोबिंसन ने प्रतिष्ठित मूल्य एवं वितरण सिद्धान्त को कींज के बचत-विनियोग सिद्धांत के साथ सम्बन्धित करते हुए आर्थिक वृद्धि का विश्लेषण किया । इनके मॉडल में वितरण एवं वृद्धि का सम्बन्ध, अंशत: लाभ की दर एवं पूँजी संचय की दशा से एवं अंशत: आय के वितरण के बचायी गयी आय के अनुपातों पर पड़े प्रभाव द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है ।
2. जोन रोबिंसन की आर्थिक वृद्धि मॉडल की मान्यताएँ (Assumptions of Joan Robinson’s Model):
ADVERTISEMENTS:
श्रीमती जोन रोबिसन मुख्यत: यह मानकर चलती हैं कि पूँजी निर्माण आय के वितरण पर निर्भर करता है तथा श्रम का प्रयोग मुख्यत: पूँजी एवं श्रम की पूर्ति पर निर्भर करता है ।
उन्होंने अपने विश्लेषण को निम्न मान्यताओं पर आधारित किया:
i. बंद अर्थव्यवस्था की कल्पना की गई है अर्थात् विदेश व्यापार की अनुपस्थिति है ।
ii. अबन्ध नीति विद्यमान है । आर्थिक क्रियाओं में सरकार की कोई भूमिका नहीं होती ।
ADVERTISEMENTS:
iii. उत्पादन के केवल दो साधन हैं पूँजी एवं श्रम । पूँजी एवं श्रम को एक निश्चित अनुपात में प्रयुक्त किया जाता है इससे अभिप्राय है कि कोई तकनीकी प्रगति नहीं होती ।
iv. उत्पादन के तकनीकी गुणांक स्थिर हैं । इससे अभिप्राय है कि पूँजी श्रम को स्थिर अनुपात में संयोजित किया जाता है जिससे उत्पादन का एक दिया हुआ स्तर प्राप्त हो सके । बाद के विश्लेषण में जोन रोबिंसन ने इस मान्यता में ढील दी ।
v. श्रम एक बहुल साधन है । उपक्रमी द्वारा अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल श्रम को रोजगार प्रदान किया जाता है ।
vi. कुल वास्तविक आय का वितरण श्रमिकों एवं उपक्रमियों के दो वर्गों में होता है । श्रमिक द्वारा अपनी आय को उपभोग पर व्यय किया जाता है और कोई बचत नहीं की जाती । उपक्रमी द्वारा लाभ से प्राप्त आय को पूँजीनिर्माण हेतु लगाया जाता है तथा उपभोग नहीं किया जाता ।
ADVERTISEMENTS:
vii. कीमत स्तर को स्थिर माना गया है ।
3. जोन रोबिंसन की आर्थिक वृद्धि मॉडल का विश्लेषण (Analysis of Joan Robinson’s Model):
श्रीमती जोन रोबिंसन के विश्लेषण को प्रो.के.के. कुरीहारा ने अपने अध्ययन The Keynesian Theory of Economic Development (1959) में गणितीय मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया ।
श्रीमती जोन रोबिंसन के अनुसार राष्ट्रीय आय कुल मजदूरी बिल एवं कुल लाभ का योग होता है । अर्थव्यवस्था में आय का वितरण उपक्रमियों एवं मजदूरी अर्जकों के मध्य होता है । विशुद्ध राष्ट्रीय आय इस प्रकार कुल लाभ (लाभ की दर से विनियोग की गयी पूँजी को गुणा कर) एवं कुल मजदूरी बिल (मजदूरी की दर से श्रमिकों की संख्या को गुणा कर) का योग होती है ।
यदि Y = शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद
N = रोजगार में लगे श्रमिकों की संख्या
K = पूँजी स्टॉक की मात्रा
W = मौद्रिक मजदूरी दर
π = सकल लाभ दर
P = उत्पादन की औसत कीमत
तब आय के वितरण को निम्न सूत्र द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है:
समीकरण (8) में ∆K/K, पूँजी की वृद्धि दर, (P – W/P) पूँजी के शुद्ध प्रतिफल एवं θ पूँजी-श्रम अनुपात को प्रदर्शित करता है । इससे स्पष्ट होता है कि पूँजी में वृद्धि की दर तब उच्च होगी यदि पूँजी का शुद्ध प्रतिफल पूँजी-श्रम दर के सापेक्ष अधिक अनुपात में बड़े ।
सन्तुलन की दशा लाभ की दर एवं पूंजी संचय के मध्य द्रि-पक्षीय सम्बन्ध को अभिव्यक्त करती है । यह स्पष्ट करती है कि किया जाने वाला पूँजी संचय मुख्यत: लाभ की उस दर को निर्दिष्ट करता है जिसे उपक्रमी अपने विनियोग से प्राप्त करने की आशा करते हैं । दूसरी तरफ सन्तुलन की दशा यह बताती है कि लाभ की दर स्वयं पूँजी संचय की दर को निदेशित करती है । इस प्रकार पूँजी संचय एवं लाभ एक दूसरे से चक्रीय रूप से सम्बन्धित हैं ।
स्वर्णयुग (Golden Ages):
श्रीमती जोन रोबिंसन ने आर्थिक वृद्धि पर जनसंख्या में होने वाली वृद्धि के प्रभाव की व्याख्या की । उन्होंने स्पष्ट किया कि पूँजी की वृद्धि दर ∆K/K के अतिरिक्त अर्थव्यवस्था की विकास दर, जनसंख्या की वृद्धि दर ∆N/N द्वारा निर्धारित होती है ।
अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार सन्तुलन की दशा में तब होगी जब जनसंख्या की वृद्धि दर, पूंजी की वृद्धि दर के समकक्ष हो, अर्थात् ∆N/N = ∆K/K । इस अवस्था को श्रीमती जोन रोबिंसन ने स्वर्ण युग की संज्ञा दी । उनके अनुसार जब तकनीकी प्रगति तटस्थ हो तथा उत्पादन के समय प्रतिरूप में कोई परिवर्तन लाए बिना सतत् रूप से उत्पादन बढ़ता है, प्रतियोगी यन्त्र स्वतन्त्रता- पूर्वक कार्य करता है, जनसंख्या सतत् दर से बढ़ती है तथा समस्त उपलब्ध श्रम को उत्पादक पूँजी प्रदान करने के लिए पूँजी संचय पर्याप्त तीव्रता से होता है ।
लाभ की दर स्थिर रहने की प्रवृति रखती है एवं प्रति व्यक्ति उत्पादन की वृद्धि के साथ-साथ वास्तविक मजदूरी में वृद्धि होती है । इस दशा में आर्थिक प्रणाली में कोई आन्तरिक अर्न्तविरोध विद्यमान नहीं होते तब कुल वार्षिक उत्पादन एवं पूँजी का स्टॉक श्रम शक्ति की वृद्धि दर एवं प्रति व्यक्ति उत्पादन की वृद्धि दर एक संयुक्त स्थिर अनुपात में बढ़ता है । इन दशाओं को हम स्वर्ण युग कह सकते हैं ।
राय हैरोड के अनुसार स्वर्ण युग ऐसी दशा को अभिव्यक्त करता है जब राष्ट्रीय आय की प्राकृतिक, आवश्यक एवं वृद्धि की वास्तविक दर एक समान होते हैं ।
पहली दशा में जनसंख्या वृद्धि की दर, पूँजी की वृद्धि दर से उच्च रहती है । इसके परिणामस्वरूप वृद्धिशील अर्द्धरोजगार की दशा उत्पन्न हो जाती है । अतिरेक श्रम के कारण मौद्रिक मजदूरी की दर कम होने लगेगी जिससे वास्तविक मजदूरी की दर भी गिरेगी । वास्तविक मजदूरी के निम्न होने के कारण लाभ की दर बढ़ेगी, अधिक पूँजी का संचय सम्भव होगा और यह पुन जनसंख्या वृद्धि की दर के बराबर हो जाएगा । ऐसी दशा में पुन: ‘स्वर्ग युग सन्तुलन’ स्थापित हो जाता है ।
यदि मौद्रिक मजदूरियों के दृढ़ होने के कारण वास्तविक मजदूरी नहीं गिरती या कीमत स्तर उसी अनुपात में कम होता है जिस अनुपात में मौद्रिक मजदूरी गिरी है तब सन्तुलनकारी प्रक्रिया कार्यशील नहीं रह पाएँगी । इससे अभिप्राय है कि स्वर्ण युग सन्तुलन स्थापित नहीं होगा तथा वृद्धिशील अर्द्ध बेकारी की दशा विद्यमान होगी ।
दूसरी दशा में पूँजी संचय की दर जनसंख्या वृद्धि की दर से अधिक होती है । इस स्थिति में अर्थव्यवस्था में श्रम की कमी एवं पूँजी संचय का अधिकता विद्यमान होती है । यह दशा सामान्य रूप से विकसित देशों से सम्बन्धित है । स्वर्ण युग सन्तुलन के पथ पर वापस आने की सम्भावना यहां इस कारण अधिक होती है, क्योंकि श्रम उत्पादकता में होने वाले परिवर्तन या पूँजी श्रम अनुपात के परिवर्तन से लाभ दर में वृद्धि सम्भव है और इस प्रकार पूँजी वृद्धि की दर बढ़ती है ।
स्पष्ट है कि तकनीकी सुधार एवं सभी उत्पादन फलनों को बदलते हुए अर्थव्यवस्था उच्च पूँजी-श्रम अनुपात पर सामंजस्य स्थापित कर लेता है । श्रीमती जोन रोबिंसन के अनुसार एक अर्थव्यवस्था स्वर्ण युग की स्थिति में तब होती है जब सम्भावित वृद्धि दर प्राप्त हो रहा है । सम्भावित वृद्धि दर पूँजी संचय की उस उच्च दर के दारा अभिव्यक्त हो सकती है जिसे लाभ की अपरिवर्तनीय दर पर स्थायी रूप से बनाए रखा जा सके ।
श्रीमती जोन रोबिंसन ने स्वर्ण युग को आर्थिक मोक्ष की विशेष दशा द्वारा निरूपित किया यह तब सम्भव होता है जब संचय की दर शून्य है, लाभ की दर भी शून्य है तथा उद्योग का समूचा उत्पादन मजदूरी की ओर प्रवाहित होता है इसके साथ ही उपभोग अपनी चरम अवस्था में पहुंच जाता है । इस प्रकार दी हुई तकनीकी दशाओं के अधीन उपभोग को अधिकतम किया जाना सम्भव होता है जिसे आर्थिक मोक्ष की दशा द्वारा अभिव्यक्त किया गया ।
4. जोन रोबिंसन के मॉडल की विशेषताएँ (Merits of Joan Robinson’s Model):
श्रीमती जोन रोविंसन के मॉडल की मुख्य विशेषताएं निम्नांकित हैं:
i. श्रीमती जोन रोबिंसन का मॉडल प्रतिष्ठित मूल्य एवं वितरण सिद्धांत को कींज के बचत-विनियोग सिद्धान्त से सम्बन्धित करता है । उन्होंने वितरण एवं वृद्धि के घनिष्ट सम्बन्ध को आय वितरण के प्रभावों एवं आय में से बचायी गयी बचतों के अनुपात द्वारा एवं लाभ की दर एवं पूँजी संचय के मर्ध्य सम्बन्धों द्वारा अभिव्यक्त किया ।
ii. श्रीमती जोन रोबिंसन ने पूँजी के मापन एवं पूंजी की संरचना सम्बन्धी पक्षों पर विशेष ध्यान दिया । उन्होंने पूँजी की एक रूपता एवं आघातवर्ध्यता के विचार को अनुचित माना ।
iii. श्रीमती जोन रोबिंसन ने सतत् या अविरत वृद्धि की दशाओं के वास्तविक विवेचन को प्रस्तुत किया । उन्होंने तुलनात्मक प्रावैगिकी के आधार पर व्याख्या प्रस्तुत की ।
iv. श्रीमती जोन रोबिंसन ने लाभ-मजदूरी सम्बन्ध एवं श्रम उत्पादकता के आधार पर विश्लेषण किया । इस कारण उनकी व्याख्या वास्तविक बाजार अर्थव्यवस्था के अधिक समीप हो जाती है ।
v. श्रीमती जोन रोबिंसन ने अर्द्धविकसित देशों को व्यावहारिक सलाह दी कि वह खेल के पूंजीवादी नियमों का अनुसरण न करें बल्कि एक मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाएं जहाँ मौद्रिक व वित्तीय नीतियों के द्वारा स्वायत्त विनियोग में वृद्धि की जानी सम्भव हो ।
5. जोन रोबिंसन के मॉडल की सीमाएँ (Limitations of Joan Robinson’s Model):
i. के.के. कुरिहारा ने स्पष्ट किया कि केन्ज के उपरान्त विकास अर्थशास्त्र के विवेचन में श्रीमती जोन रोबिंसन का योगदान यह रहा कि उन्होंने प्रतिष्ठित मूल्य एवं वितरण सिद्धान्त को केन्ज के बचत व विनियोग सिद्धान्त के साथ स्वीकृत किया । उनके मॉडल की यही विशेषता नीति पक्ष की सबसे बड़ी दुर्बलता बन जाती है ।
रोबिंसन के मॉडल में संशोधन करते हुए मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों को सम्मिलित किया जाना सम्भवन नहीं है जब तक मजदूरी एवं लाभ दर तथा पूँजी श्रम-अनुपात को व्यावसायिक नीति का उद्देश्य न समझा जाए । यह केवल पूर्णतया नियोजित अर्थव्यवस्था में ही सम्भव है ।
ii. श्रीमती जोन रोबिंसन के अनुसार एक अर्थव्यवस्था तब स्वर्ण युग की स्थिति में होती है जब सम्भावित वृद्धि अनुपात की प्राप्ति हो । सम्भावित वृद्धि अनुपात पूँजी संचय की उस उच्चतम दर का प्रतीक होता है जिसे लाभ की स्थिर दर पर स्थायी रूप से बनाए रखा जा सकता है ।
रोबिंसन ने स्वर्ण युग को एक आदर्श अवस्था नहीं माना, क्योंकि एक नवीन वृद्धि अनुपात नये स्वर्ण युग को सम्मव बना सकता है । स्थैतिक अवस्था स्वर्ण युग की एक विशिष्ट दशा है जिसे श्रीमती जोन रोबिंसन ने आर्थिक मोक्ष की अवस्था कहा क्योंकि इस अवस्था में उपभोग अपने उच्च स्तर पर होता है तथा तकनीकी दशाओं के अनुरूप इसे स्थायी रूप से बनाए रखना सम्भव है ।
प्रो.आर.एफ. काहन के अनुसार जोन रोबिंसन का स्वर्ण युग मात्र एक कल्पना है । यह तो सम्भव है कि एक देश स्वर्ण युग की भाँति विकास कर रहा हो किन्तु अल्पव्ययता एवं पूँजी की न्यूनता के कारण उत्पादन साधन इतने परम्परागत ही कि मजबूर होकर हमें यह कहना पड़े कि स्वर्ण युग एक सुन्दर मजाक से कम नहीं है ।
iii. श्रीमती जोन रोबिंसन का मॉडल बंद अर्थव्यवस्था की मान्यता पर आधारित है । वस्तुत: विदेशी व्यापार एवं पूँजी के प्रवाह किसी अल्प विकसित देश में वृद्धि दर को बढ़ाने में प्रभावी प्रस्तुत करते है जिन्हें खुली अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में ही देखा जाना सम्भव है ।
iv. श्रीमती जोन रोबिंसन उत्पादन के स्थिर गुणांकों की मान्यता लेती हैं, जबकि एक गतिशील अर्थव्यवस्था में तकनीकी परिवर्तनों की प्रकृति के अनुरूप श्रम व पूँजी की परस्पर स्थानापन्नता विद्यमान होती है ।
v. श्रीमती जोन रोबिंसन ने तकनीकी प्रगति को अनुपस्थित माना जो अव्यावहारीक है ।
vi. यह मॉडल स्थिर कीमत स्तर की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है ।
vii. श्रीमती जोन रोबिंसन की व्याख्या संस्थागत घटकों को दिया हुआ मानती है, जबकि किसी अर्थव्यवस्था का विकास किसी सीमा तक उसके सामाजिक परिवेश एवं सांस्कृतिक व संस्थागत परिवर्तनों पर निर्भर करता है ।
6. रोबिंसन का मॉडल एवं अल्पविकसित देश (Model of Joan Robinson and Less Developed Economies):
श्रीमती जोन रोबिंसन ने पूँजी निर्माण की दर एवं अर्थव्यवस्था के विकास पर जनसंख्या वृद्धि के प्रभाव का विश्लेषण किया जो अल्पविकसित देशों हेतु उपयोगी है । उन्होंने जनसंख्या वृद्धि की दर के पूँजी संचय दर से अधिक होने पर उत्पन्न असन्तुलन की स्थिति का विवेचन किया । इस प्रकार अल्पविकसित देशों में बेरोजगारी की समस्या के समाधान एवं पूर्ण रोजगार की प्राप्ति की स्थितियों के समझने हेतु उनका मॉडल प्रासंगिक है ।
कीनिथ के. कुनिहारा ने कहा कि श्रीमती जोन रोबिंसन का अबन्ध नीति वृद्धि विश्लेषण हैरोड-डोमर मॉडल के सापेक्ष इस तथ्य को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करता है कि एक अर्थव्यवस्था की बढ़ती हुई जनसंख्या एवं गतिशील तकनीक के अनुरूप स्थिर विकास की प्राप्ति के महत्वपूर्ण कार्य को निजी लाभ अर्जकों के हाथों में दे देना कितना खतरनाक, हास्यास्पद एवं असुरक्षित हो जाता है ।
इससे तात्पर्य है कि श्रीमती जोन रोबिंसन द्वारा प्रस्तुत पूँजी-वृद्धि विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि आर्थिक विकास की समस्या को पूँजीवादी नियमों के खेल पर आश्रित नहीं किया जाना चाहिए । उन्होंने अल्प विकसित देशों के लिए एक मिश्रित प्रणाली को उपयुक्त बताया जहाँ मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों के द्वारा स्वायत्त विनियोग को प्रोत्साहित करना सम्भव बने ।