राज और सेन का आर्थिक विकास का मॉडल | Read this article in Hindi to learn about:- 1. राज व सेन के मॉडल का परिचय (Introduction to Raj and Sen’s Model) 2. राज व सेन के मॉडल की मान्यताएँ (Assumptions of Raj and Sen’s Model) 3. क्षेत्रीय संरचना (Sectoral Structure) and Other Details.
Contents:
- राज व सेन के मॉडल का परिचय (Introduction to Raj and Sen’s Model)
- राज व सेन के मॉडल की मान्यताएँ (Assumptions of Raj and Sen’s Model)
- राज व सेन के मॉडल की क्षेत्रीय संरचना (Sectoral Structure of Raj and Sen’s Model)
- राज व सेन मॉडल के समीकरण (Equations of Raj and Sen’s Model)
- राज व सेन मॉडल के नीतियों के निहितार्थ-भविष्य में पड़ने वाले प्रभाव (Policy Implications of Raj and Sen’s Model)
- राज एवं सेन के मॉडल का मूल्यांकन (Appraisal of Raj and Sen’s Model)
1. राज व सेन के मॉडल का परिचय (Introduction to Raj and Sen’s Model):
प्रो॰ एन॰ राज तथा अमर्त्य कुमार सेन का मॉडल गतिहीन अथवा अवरुद्ध निर्यातों की दशा में आर्थिक वृद्धि की वैकल्पिक प्रतिकृतियों का विवेचन प्रस्तुत करता है । यह मॉडल कींजियन समग्र प्रणाली एवं विस्तृत आदा-प्रदा प्रणाली के मॉडलों के मध्यवर्ती पथ का अनुसरण करता है ।
राज व सेन का मॉडल कीजियन प्रकार के मॉडलों अर्थात् हैरोड-डोमर मॉडल से इस दृष्टि में आगे है कि ये उच्च प्रवृत्ति के कारण अविरत वृद्धि के कई संरचनागत पक्षों को छिपा देते है तथा बहुत सामान्य प्रकृति का होने के कारण इन मॉडलों के नीतिगत निहितार्थ ज्ञात करने कठिन होते हैं । क्षेत्रीय विभाजनों द्वारा इनका निर्माण नियोजन की उपयुक्तता का औचित्य सिद्ध करता है ।
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लियोन्टीफ की तरह के आदा-प्रदा मॉडल यद्यपि नियोजन नीतियों के लिए बहुत उपयोगी होते है परन्तु व्यक्तिगत मदों की विस्तृत आदा-प्रदा लियोन्टीफ तालिका का प्रयोग कर उससे निष्कर्ष प्राप्त करना कठिन होता है ।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना के महालनोबीस मॉडल में देश में किए जा रहे विनियोग की वृद्धि दर का पूंजी वस्तु क्षेत्र में उत्पादन की वृद्धि दर के साथ सम्बन्ध निर्दिष्ट किया गया था । इसके प्रभाव इस सन्निहित मान्यता पर आधारित थे कि घरेलू पूंजी वस्तु उद्योगों का उत्पादन, निर्यातों के बदले प्राप्त पूंजी वस्तुओं के आयातों से पूरित नहीं किया जा सकता ।
इस प्रकार राज व सेन का मॉडल कुछ ऐसी निश्चित वृद्धि की समस्याओं से सम्बन्धित है जब निर्यात प्राप्तियाँ अवरुद्ध होती है अतः यह प्रो॰ महालनोबीस के चार-क्षेत्र मॉडल की दिशा का अनुसरण करता है ।
2. राज व सेन के मॉडल की मान्यताएँ (Assumptions of Raj and Sen’s Model):
राज व सेन का मॉडल यह मान कर चलता है कि:
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i. प्राथमिक वस्तुओं का उत्पादन करने वाले देश (जिनमें तेल उत्पादक देशों को सम्मिलित नहीं किया गया है) इस स्थिति में नहीं है कि वह उस समय अवधि में जब विकास की प्रवृत्तियों या अनुकृत्तियों से सम्बन्धित निर्णय लिए जा रहे हों, अपनी निर्यात प्राप्तियों में वृद्धि करने की स्थिति में नहीं होते ।
ii. इस चरम मान्यता के अधीन कि प्राथमिक उत्पादक देश निर्यातों के द्वारा अपनी प्रप्तियाँ बढा सकने में समर्थ नहीं होते राज व सेन ने विकास के उन वैकल्पिक स्वरूपों की चर्चा की जो इन अर्थव्यवस्थाओं में विद्यमान थे और वृद्धि हेतु प्रभावपूर्ण भी ।
iii. यह मान्यता कि निर्यात प्राप्तियाँ अवरूद्ध है से यह आशय नहीं है कि देश के निर्यात उद्योगों के उत्पादन पक्ष में गतिरोध विद्यमान है । बल्कि यह माना गया है कि निर्यात प्राप्तियों में अवरुद्धता माँग पक्ष की सीमाओं से उत्पन्न होती है, क्यों ऐसी अनिश्चितताएँ विद्यमान होती है जिससे वस्तु के निर्यात प्रभावित होते हैं ।
3. राज व सेन के मॉडल की क्षेत्रीय संरचना (Sectoral Structure of Raj and Sen’s Model):
प्रो॰ महालनोबीस ने अपने चार-क्षेत्र मॉडल में अर्थव्यवस्था को तीन प्रकार के उपभोक्ता वस्तु क्षेत्रों तथा एक विनियोग वस्तु क्षेत्र के वृहत वर्ग (K क्षेत्र) में विभाजित किया ।
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अतः यह मॉडल उपभोग वस्तुओं को उत्पादित करने वाली विनियोग वस्तुओं एवं विनियोग वस्तुओं को उत्पादित करने वाली विनियोग वस्तुओं के मध्य भेद करता है । राज एवं सेन ने अपने मॉडल की क्षेत्रीय संरचना में मध्यवर्ती वस्तुओं को सम्मिलित किया ।
नियोजन हेतु नीतियों के प्रभाव को व्युत्पादित करने की सुविधा हेतु अर्थव्यवस्था को चार क्षेत्रों में विभाजित किया गया:
1. उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र C ।
2. उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र हेतु विनियोग वस्तुएं I ।
3. कच्चा माल व विनियोग वस्तु क्षेत्र R ।
4. मशीनरी क्षेत्र M, जिसमें I, R व M हेतु विनियोग वस्तुएँ सम्मिलित इस वर्गीकरण के आधार पर लौह एवं इस्पात संयंत्रों या प्लाण्ट को मध्यवर्ती वस्तुओं में शामिल किया गया न कि विनियोग वस्तुओं के वर्ग में । क्षेत्रगत विभाजन के इस वर्गीकरण द्वारा एक ओर कच्चा माल व मध्यवर्ती वस्तुओं व दूसरी ओर मशीन के मध्य स्पष्ट विभाजन संभव होता है ।
मशीनों को पुन: दो प्रकारों में विभाजित किया गया:
i. जो प्रत्यक्ष रूप से उपभोक्ता वस्तु उत्पादित करती हैं ।
ii. जो केवल आर्थिक मशीनें उत्पादित करती है ।
इस क्षेत्रगत विभाजन के आधार पर चारों क्षेत्रों को निम्न तालिका द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है:
राज व सेन के मॉडल में उपभोक्ता वस्तुओं को उत्पादित करने वाली मशीनों तथा केवल अधिक मशीन उत्पादित करने वाली मशीनों के मध्य भेद किया गया है (जिससे महालनोबीस के मॉडल की तरह βk के निर्धारण की समस्या उत्पन्न नहीं होती) ।
राज व सेन के मॉडल में प्रत्येक क्षेत्र के उत्पाद की माँग निर्भर करती है अन्य क्षेत्रों द्वारा किए गए उत्पादन पर (अतः औद्योगिक सम्बन्धों की विशेषताओं की सामान्य अन्तनिर्भरता के भंवर जैसी समस्या विद्यमान नहीं होती) ।
महालनोबीस के मॉडल में माना गया था कि βc > βk अर्थात् उत्पादन में सीमांत वृद्धि, जो पूंजी स्टाक में होने वाले वृद्धिमान योग द्वारा प्राप्त होती है, पूंजी-वस्तु क्षेत्र के सापेक्ष उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र में अधिक उच्च होती है । राज व सेन के मॉडल में ऐसी कोई मान्यता नहीं मानी गई है ।
4. राज व सेन मॉडल के समीकरण (Equations of Raj and Sen’s Model):
क्षेत्र C के उत्पादों की माँग निर्भर करती है I, R, M व C द्वारा किए गए उत्पादन के निरपेक्ष आकार पर ।
स्थायित्व हेतु विचार योग्य दशा में C = D ।
जहाँ D = उपभोक्ता वस्तुओं की माँग है ।
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की अनुपस्थिति में, उपभोक्ता वस्तुओं का कुल उत्पादन बराबर होता है तीनों क्षेत्रों द्वारा उपभोग होने वाली आवश्यकताओं के योग के, अत:
समीकरण 1 C = (1 + M + C)a
इस समीकरण में क्षेत्र R के द्वारा उत्पादित उत्पादन को दाई ओर सम्मिलित नहीं किया गया है जिससे दोहरी गणना न हो सके, क्योंकि इसका मूल्य I, M व C के मूल्यों में पहले से ही सम्मिलित है ।
चूंकि I वस्तुओं की मांग पर निर्भर करती है, C क्षेत्र के द्वारा किए गए उत्पादन की वृद्धि दर पर इसलिए विनियोग, उपभोक्ता उत्पादन (dC/dt) में परिवर्तन की दर के अनुपाती होगा । यह सम्बन्ध स्टाक एवं प्रवाह का है ।
अतः समीकरण 2 को dC/dt . i = I के रूप में लिखा जा सकता है जहाँ i = क्षेत्र C के लिए पूंजी-स्टाक-उत्पादन-प्रवाह अनुपात है ।
R वस्तुओं की माँग निर्भर करती है सभी क्षेत्रों के उत्पादन के निरपेक्ष आकार पर अतः कच्चे माल का उत्पादन सभी क्षेत्रों के उत्पादन से संबंधित होगा । यह मानते हुए कि एक समय अवधि में, प्रत्येक क्षेत्र के उत्पादन की प्रति इकाई r का भाग समान कच्चे माल को समाहित करता है ।
हम निम्न सम्बन्ध ज्ञात करते है:
समीकरण 3:
(C + I + R + M)r = R
अंततः M वस्तुओं के लिए माँग निर्भर करती है I, R व M क्षेत्र में होने वाली वृद्धि की दरों पर अर्थात् यह निर्भर करेगी dI/dt, dR/dt, तथा dM/dt पर ।
एक निश्चित समय अवधि में, तीनों क्षेत्रों के लिए समान स्टाक-उत्पादन-प्रवाह अनुपात (m) की मान्यता लेने पर:
समीकरण 4:
M = (dI/dt + dR/dt + dM/dt) m
उपर्युक्त चारों समीकरणों को दो मैट्रिक्स के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है जहाँ पहली मैट्रिक्स चालू आदा प्रवाह एवं दूसरी मैट्रिक्स पूँजी स्टाक की है:
अविरत वृद्धि की आवश्यकता को देखते हुए, मॉडल में कोई स्वतन्त्रता नहीं है इसलिए यह एक निर्णय मॉडल का रूप नहीं ले सकता । अतः अर्थव्यवस्था में विभिन्न क्षेत्रों के मध्य विस्तार का अतर कुछ परिवर्तित मान्यताओं द्वारा प्रकट किया गया-
(1) उपभोग का नियत्रंण सार्वजनिक नीति; जैसे- करारोपण, राशनिंग के द्वारा संभव है ।
(2) प्रत्येक दशा में चाहे जाने वाले का मूल्य वास्तविक रूप से प्राप्त होता है, भले ही रोजगार का स्तर कुछ भी हो तथा यह विभिन्न क्षेत्रों के मध्य विनियोग के आवंटन पर निर्भर करता है ।
(3) आरंभिक दशा में, क्षेत्र I एवं M अस्तित्व में नहीं आते । क्षेत्र C के लिए पूंजी का निश्चित स्टाक होता है तथा इससे सम्बन्धित क्षेत्र म के लिए भी जो अस्तित्व में बने रहता है तथा इसकी क्षमता में कोई वृद्धि नहीं होती ।
(4) घरेलू एवं विदेशी अदाओं के लिए समान उत्पादन गुणांक r, m तथा i विद्यमान होते है ।
(5) उत्पादन के एक भाग का निर्यात करते हुए, विदेशी विनिमय ह की एक निश्चित मात्रा प्रत्येक वर्ष कमाई जाती है अर्थात् स्वतन्त्र रूप से उपयोग होने वाला स्रोत इस रूप में उपलब्ध होता है ।
(6) निर्यातों में भावी विस्तार की कोई गुंजाइश नहीं होती ।
(7) कोई समय अवधि अंतराल विद्यमान नहीं है ।
5. राज व सेन मॉडल के नीतियों के निहितार्थ-भविष्य में पड़ने वाले प्रभाव (Policy Implications of Raj and Sen’s Model):
विनियोग की विभिन्न प्रवृत्तियों या अनुकृतियों के परिणामस्वरूप वृद्धि के व्यवहार में भिन्नताएं दिखाई देती है । इससे उपभोग का व्यवहार बदलता है. क्योंकि अधिमानों एवं परिस्थितियों में स्पष्ट परिवर्तन दिखाई देते हैं । राज व सेन ने क्षेत्रों की भूमिका के अध्ययन को स्पष्ट करने के लिए अर्न्तराष्ट्रीय व्यापार के प्रभावों की प्रस्तावना रखी ।
राज व सेन ने यह प्रदर्शित करने का प्रयास किया कि एक समय अवधि में पूंजी स्टाक की वृद्धि व उपभोग उस क्रम में बदलती है जिसके अन्तर्गत विभिन्न क्षेत्रों के मध्य स्वतन्त्ररूप से उपभोग होने वाले संसाधनों (अर्थात् F) के प्रवाह का आवंटन विभिन्न क्षेत्रों के मध्य किया जाता है ।
विनियोग की विभिन्न प्रवृत्तियों या अनुकृतियों से वृद्धि का समय पथ चार संभावित विकल्पों के अधीन प्रभावित होता है अर्थात् राज व सेन के अनुसार विभिन्न क्षेत्रों के मध्य स्वतन्त्र रूप से उपयोग होने वाले संसाधनों F को पूर्णतः आयात की ओर निम्न चार वैकल्पिक उद्देश्यों के प्रति प्रवाहित किया जाता है:
(a) विकल्प (1) C वस्तुओं की ओर ।
(b) विकल्प (2) C क्षेत्र के लिए I व R वस्तुओं को ।
(c) विकल्प (3) I व R क्षेत्र के लिए M वस्तुओं को ।
(d) विकल्प (4) M क्षेत्र के लिए M वस्तुओं को ।
(a) विकल्प (1) C वस्तुओं की और:
पहले विकल्प में यह माना गया कि समस्त विदेशी विनिमय को केवल उपभोक्ता वस्तुओं के आयात में प्रयोग किया जाता है अर्थात प्रत्येक वर्ष F सीमा तक केवल उपभोक्ता वस्तुओं का आयात किया जाता है ।
इस दशा में उत्पादन के आधार में कोई विस्तार नहीं होगा । अतः यह कहा जा सकता है कि यदि अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र के फैलाने में विदेशी विनिमय प्राप्तियों का प्रयोग किया जाए तो एक समय अवधि में उपभोग की वृद्धि की दर शून्य होगी, अर्थात् dc/dt = 0 जहाँ dc/dt एक समय अवधि में वृद्धि की दर को सूचित करती है ।
(b) विकल्प (2) C क्षेत्र के लिए I व R वस्तुओं को:
दूसरे विकल्प में यह माना जाता है कि विदेशी विनिमय का प्रयोग केवल I वस्तुओं एवं तत्सम्बंधित R वस्तुओं के आयात हेतु प्रयुक्त किया जाता है । इस दशा में, अर्थव्यवस्था का विस्तार I व R वस्तुओं का आयात द्वारा होगा ।
सर्वप्रथम, माना कि R वस्तुओं का आयात नहीं किया जाता अर्थात् r = 0 । इससे यह अर्थ निकलता है कि इस दशा में समूचे विदेशी विनिमय का उपयोग विनिमय वस्तुओं के आयात द्वारा किया जाएगा अर्थात् I = F,
अत: समीकरण 2 से (dc/dt)i = F या dc/dt = F/i
F तथा i दोनों स्थिर एवं दिये हुए है अत: उपभोग एक समय अवधि में स्थिर निरपेक्ष दर से बढेगा ।
जब, R वस्तुओं को I वस्तुओं के साथ आयात किया जाने लगता है तब इस स्थिति में थोडा बदलाव होता है । अब विदेशी विनिमय, इस दशा में I व R वस्तुओं की ओर वितरित होता है अतः I + R = F,
जब उपभोक्ता वस्तु उत्पादन (C) बढता है तथा F/r, dc/dt → 0 की ओर उन्मुख होता है । यह एक ऐसी दशा है, जबकि समूचा F, R वस्तुओं के आयात में लगा दिया जाता है ।
अतः जब R का प्रवेश होता है तो अधिक से अधिक F, I की तुलना में R की ओर दिशा बदल देता है अर्थात् अधिकाधिक R वस्तुओं का आयात किया जाता है जब तक वह सीमा न आ जाए जहाँ उपभोग का निरपेक्ष आकार c = F/r है । इस बिंदु से आगे कोई I वस्तु का आयात नहीं किया जाएगा तथा समस्त विदेशी विनिमय का प्रयोग R के आयात में किया जाएगा ।
उपर्युक्त कारण से स्पष्ट है कि:
जब I वस्तुएँ अर्थव्यवस्था में बढती हैं तब C वस्तुओं का उत्पादन साथ-साथ बढता है । लेकिन C वस्तुओं में होने वाली वृद्धि साथ-साथ R वस्तुओं की बढ़ती हुई पूर्ति चाहेगी ।
इस विकल्प में, M वस्तुओं की बढ़ती हुई पूर्ति चाहेगी । इस विकल्प में, M वस्तुओं के आयात की कोई गुंजाइश नहीं है जिसे घरेलू रूप से ही उत्पादित किया जा सकता है यह R वस्तुएँ है । इससे अभिप्राय यह है कि R वस्तुओं को आयात द्वारा ही प्राप्त किया जा सकेगा ।
एक समय ऐसा आएगा जब उपलब्ध समस्त विदेशी विनियोग का प्रयोग आयात हेतु किया जाएगा । ऐसे में I वस्तुओं में वृद्धि करने के लिए गुंजाइश नहीं होगी । अतः C क्षेत्र के निरपेक्ष आकार में वृद्धि के साथ, R वस्तुओं की आवश्यकता बढ़ेगी तब भी जब उपभोग में होने वाली वृद्धि की दर स्थिर हो ।
उपभोग में वृद्धि की निरपेक्ष दर इसके परिणामस्वरूप, एक समय अवधि में गिरेगी तथा अतः में शून्य होने की प्रवृत्ति रखेगी । ठीक इसी समय R वस्तुओं की आवश्यकताएँ भी इस प्रक्रिया में रोक लगाएंगी ।
यदि यह कच्चा माल एवं मध्यवर्ती उत्पाद पूर्णतः आयात किया जाए तब वृद्धि की निरपेक्ष दर को बनाए रखना या इसका अनुरक्षण असंभव हो जाएगा । अतः इस दशा में निष्कर्ष यह है कि आरंभिक स्तर पर dc/dt धनात्मक होता है तथा c के उन्नत स्तरों पर शून्य हो जाता है ।
(c) विकल्प (3) I व R क्षेत्र के लिए M वस्तुओं को:
तीसरे विकल्प में, यह माना जाता है कि M वस्तुओं के आयात के लिए विदेशी विनिमय के एक दिए हुए प्रवाह का प्रयोग किया जाता है । इनके द्वारा I व R वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है ।
M वस्तुओं का आयात इस दशा में I व R वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि करेगा जिसके परिणामस्वरूप इन क्षेत्रों की अपनी-अपनी समताएँ भी एक समय अवधि में बढेगी । चूंकि M वस्तुओं का कोई घरेलू उत्पादन नहीं होता, अत: M = 0, dM/dt = 0
F. r. m अतिरिक्त R वस्तुओं की आवश्यकता है जो इन मशीनों के संचालित होने के लिए जरुरी होगा । (F. r) मशीनों की वह मात्रा है जो आवश्यक है तथा जिनका आयात किया जाएगा । F मशीनों की मात्रा का आयात करने से R अतिरिक्त वस्तुओं की आवश्यकता पूर्ति संभव होगी ।
(F . r) शुद्ध उपलब्ध विदेशी विनिमय है जिससे R वस्तुओं की आवश्यकता पूर्ति संभव की जा सकेगी । इस विकल्प में, R वस्तुओं की बढ़ती आवश्यकताओं को M वस्तुओं के आयात द्वारा पूर्ण किया जाएगा, जिनके द्वारा इनका उत्पादन किया जाता है । हम यह पाते हैं कि R वस्तुओं की माँग एक समय अवधि में स्वयं बढ़ने की प्रवृति रखती है ।
अब एक ऐसी अवस्था आएगी जब समस्त M वस्तुएँ जिनका आयात किया जा सकता है, आवश्यक रूप से इस प्रकार की होंगी जिनकी जरूरत I वस्तुओं के उत्पादन में होता है । ऐसी अवस्था आने के बिंदु पर M वस्तुओं के उत्पादन के लिए M वस्तुओं का अतिरिक्त आयात नहीं करना पडेगा ।
इस बिंदु के बाद, R वस्तुओं में वृद्धि की दर एक निश्चित निर्धारित गति पर स्थिर हो जाएगी । इसका प्रभाव यह होगा कि C वस्तुओं का उत्पादन भी एक स्थिर निरपेक्ष दर पर बढ़ने लगेगा । संक्षिप्त एवं स्पष्ट रूप से हम यह कह सकते हैं कि विकल्प dc/dt धनात्मक है और एक समय अवधि में गिरती हुई दर से बढता है । अंतत. dc/dt स्थिर हो जाएगा जब d2c/d2t = 0 होगा ।
(d) विकल्प (4) M क्षेत्र के लिए M वस्तुओं को:
प्रो॰ राज व सेन के द्वारा वर्णित चौथे व अंतिम विकल्प में यह संभावना व्यक्त की गई कि विदेशी विनिमय F की उपलब्ध मात्रा का प्रवाह केवल M वस्तुओं के आयात हेतु किया जाएगा जिससे घरेलू अर्थव्यवस्था में अधिक M वस्तुओं का उत्पादन किया जाए । इसका उदाहरण मशीन टूल्स, यंत्र कल पुर्जे, उपकरण हैं । इनका प्रयोग I व R वस्तुओं के उत्पादन हेतु किया जाता है । अत:
उपभोग में वृद्धि की निरपेक्ष दर d2c/dt2, इस प्रकार समय के अनुरूप एक गिरती हुई दर से बढ़ेगी और अंत में स्थिर हो जाएगी, अत: d3c/dt3 = 0 । इस बिंदु पर समूचा शुद्ध उपलब्ध विदेशी विनिमय M वस्तुओं के आयात में व्यय किया जाएगा जिससे प्रति वर्ष M वस्तुओं का अधिक प्रवाह इस प्रकार हो कि उससे C क्षेत्र के लिए R वस्तुओं का उत्पादन संभव किया जा सके, जिसकी वृद्धि की दर स्वयं में एक समय अवधि के अन्तर्गत तेजी से बढती है ।
संक्षेप में, इस विकल्प के अन्तर्गत:
dc/dt एक बढती हुई दर से बढता है, लेकिन,
d2c/dt2 स्थिर होने की प्रवृत्ति रखता है, लेकिन
d3c/dt3 समय के चलते गिरता है और अंतत: शून्य हो जाता है ।
वैकल्पिक वृद्धि पथों का नीति निहितार्थ : भविष में पड़ने वाले प्रभाव (Policy Implications of Alternative Growth Paths):
उपर्युक्त वर्णित वैकल्पिक वृद्धि पथों को जब अर्थव्यवस्था के केन्द्रीय क्षेत्र प की दृश्य वृद्धि दरों के संदर्भ में, भविष्य में पड़ने वाले प्रभावों की दृष्टि से ध्यान में रखा जाये ।
तब निम्न सार निकलता है:
(i) यदि पहली अनुकृति का अनुसरण किया जाये तब निरपेक्ष उपभोग स्थिर रहता है ।
(ii) दूसरे विकल्प में C वस्तुओं की वृद्धि की निरपेक्ष दर गिरती है तथा एक समय अवधि के उपरांत शून्य हो जाती है ।
(iii) इस दर को स्थिर बनाए रखने के लिए तीसरे विकल्प को अपनाया जाता है ।
(iv) एक स्थिर निरपेक्ष दर में इसे बढ़ाने के लिए चौथे विकल्प को अपनाया जाता है ।
राज एवं सेन के मॉडल का सार, इस प्रकार, निम्न है:
जिस प्रकार की अर्थव्यवस्था का मॉडल में चित्रण किया गया है, उसमें स्थिर उपयोग या इसकी वृद्धि दर या दीर्घ समय अवधि में वृद्धि की दर की स्थिर दर से होने वाली वृद्धि । प्रत्येक अगली दशा पूर्ववर्त्ती दशा से बेहतर होती है ।
हालांकि यह दशा अल्पकाल में विपरीत होती है तथा बेहतर दशाएँ दीर्घकाल में तब प्राप्त होती है जब विदेशी विनिमय की सीमित मात्रा को पूंजी वस्तुओं के क्रय पर व्यय किया जाये न कि कच्चे माल या उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद पर अतः चौथी प्रतिकृति या विकल्प की दशा में, अर्थव्यवस्था में प्रत्येक अवस्था में उत्पादन किया जाएगा तथा किसी क्षेत्र के उत्पादन को बढाने के लिए आयात करने की आवश्यकता नहीं होगी ।
ऐसा निश्चित कथन इस संकल्पना पर आधारित है कि M वस्तुएँ निश्चित ही अन्य M वस्तुओं का उत्पादन कर सकती हैं । अतः जब देश में M उद्योग स्थापित किए जाते है तब सभी प्रकार का उत्पादन करना संभव होता है ।
इस प्रकार की चुनी हुई नीति, निर्भर करती है उस समय अवधि पर जो आवश्यक है या उन दीर्घकालीन प्रभावों पर जो अल्पकाल के फलों की क्षतिपूर्ति करें । यह कई कारकों पर निर्भर होती है जिसमें विभिन्न प्रकार के विनियोगों द्वारा प्राप्त उत्पादकता के मध्य समय अवधि अंतराल सम्मिलित होते हैं ।
6. राज एवं सेन के मॉडल का मूल्यांकन (Appraisal of Raj and Sen’s Model):
i. राज एवं सेन का मॉडल उच्च रूप से नियंत्रित मान्यताओं पर आश्रित है । इस मॉडल में शेष विश्व के साथ विभिन्न क्षेत्रों के अर्न्तसम्बन्ध को जिस रूप में अपनाया गया है व्यवहार में वह कहीं अधिक जटिल है ।
ii. मॉडल में माना गया है कि M वस्तुओं के द्वारा केवल M वस्तुओं का उत्पादन होता है जो अव्यावहारिक है । यह भी संभव हो सकता है कि C वस्तुएँ, M वस्तुओं का उत्पादन करें ।
iii. मॉडल में माना गया है कि M वस्तुऐं प्रत्यक्ष रूप से C वस्तुओं का उत्पादन नहीं कर सकती यह व्यवहार में सत्य नहीं है, क्योंकि कई उपभोक्ता वस्तुएँ; जैसे- कार, रेफ्रिजरेटर इत्यादि का उत्पादन M वस्तुओं के द्वारा किया जाता है ।
iv. मॉडल में माना गया है कि संसाधन बहुलताओं की कोई सीमा नहीं होती । वस्तुओं का घरेलू उत्पादन प्रत्यक्ष रूप से इन्हीं पर निर्भर करता है व यदि देश में पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं हों तब कई वस्तुओं का उत्पादन संभव नहीं बन पाएगा ।
v. यह माना गया है कि बचत की सीमांत प्रवृत्ति को करारोपण व उपभोग इत्यादि पर भौतिक नियंत्रणों के द्वारा समायोजित किया जाता है । वस्तुतः इस प्रकार की क्रिया काफी कठिनाई से संभव हो पाती है ।
vi. प्रो॰ जगदीश भगवती के अनुसार राज व सेन की व्याख्या का उद्देश्य स्थिर निर्यात प्राप्तियों वाले देश में आयात व घरेलू उत्पादन की नीतियों के द्वारा वृद्धि दर प्राप्त करने का लक्ष्य रखती है । रूपान्तरण की कुछ घरेलू एवं विदेशी दरें जैसे r, m व i वास्तविक नीति निर्णयों को किस प्रकार प्राप्त करेंगी यह विवेचन हास्यास्पद व भौंडे रूप से प्रस्तुत किया गया है ।