मौद्रिक और वित्तीय नीतियों के बीच संघर्ष | Read this article in Hindi to learn about the conflict between monetary and fiscal policies.

मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों को जब बाह्य व आन्तरिक सन्तुलन की प्राप्ति के लिए लागू किया जाता है, तब विवाद की दशा सामने आती है । इस विवाद पर मीड ने व्याख्या की । मीड के अनुसार मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों को लागू करने में विवाद की स्थिति सामने आती है जोकि घरेलू देश एवं विदेश की आर्थिक परिस्थिति पर निर्भर करती है ।

मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों को लागू करने के विषय में प्रो॰ मुण्डल ने अपने विचार प्रस्तुत किये । उन्होंने इन नीतियों के विविध प्रभावों को एक ओर आय के स्तर पर तो दूसरी ओर भुगतान सन्तुलन कर देखा । प्रो॰ मीड ने मौद्रिक और राजकोषीय नीति के जिस विवाद की ओर ध्यान आकृष्ट किया । वह प्रो॰ मुण्डल के अनुसार मौद्रिक और राजकोषीय नीति के एक उचित संयोग द्वारा दूर की जा सकती है ।

मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों के आन्तरिक एवं बाह्य सन्तुलन पर भिन्न-भिन्न प्रभाव पडते हैं । इसलिए उन दशाओं को जानना आवश्यक हो जाता है जिनमें एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए विशिष्ट नीति को लागू किया जाये ।

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प्रो॰ जे॰ ई॰ मीड की व्याख्या:

आन्तरिक एवं बाह्य सन्तुलन की प्राप्ति में मौद्रिक एवं राजकोषीय नीति के मध्य विवाद की व्याख्या में प्रो॰ मीड यह मानकर चलते हैं कि:

(1) आयात की सीमान्त प्रवृति धनात्मक है और उनका योग इकाई से कम है ।

(2) देश पृथक् रूप से स्थायित्व की दशा में है ।

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(3) विकास की दशाओं को ध्यान में रखा जा रहा है ।

मीड ने अपनी व्याख्या को दो देशों के एक ऐसे विश्व में प्रस्तुत किया जहाँ घरेलू आर्थिक दशाएँ अवस्फीतिकारी या मुद्रा प्रसारिक है तथा बेरोजगारी की दर शून्य है । किसी एक या दूसरे देश में भुगतान सन्तुलन घाटे या अतिरेक की स्थिति में है । दो देशों में आन्तरिक एवं बाह्य सन्तुलन प्राप्त करने के लिए विविध सम्भावित दशाओं एवं नीतियों के संयोगों को तालिका 52.3 द्वारा प्रदर्शित किया गया है ।

उपर्युक्त तालिका में निम्न स्थितियाँ महत्वपूर्ण हैं:

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(1) प्रतिसार-अतिरेक प्राप्त कर रहा देश-विस्तारवादी नीति:

Row 1 में जब दोनों देश प्रतिसार की स्थिति में हैं, तब अतिरेक प्राप्त कर रहे देश में घरेलू व्यय में की गई वृद्धि से दोनों देशों में आन्तरिक एवं बाह्य सन्तुलन की प्राप्ति होगी । इस उद्देश्य हेतु विस्तारवादी राजकोषीय एवं मौद्रिक नीति दोनों देशों में लागू की जाएगी ।

(2) प्रतिसार-घाटा वहन कर रहा देश: नीतियों में विवाद:

प्रतिसार की दशा में घाटा प्राप्त कर रहा देश नीतियों को लागू करने में विवाद का अनुभव करता है, क्योंकि उसे आन्तरिक सन्तुलन के लिए घरेलू व्यय में वृद्धि (D+) करनी पड़ेगी । जबकि दूसरी तरफ बाह्य सन्तुलन के लिए देश को व्यय में कमी (D) करनी पड़ेगी ।

यदि वह व्यय में वृद्धि करता है तो उसके भुगतान सन्तुलन में घाटा होगा । ऐसी दशा में, जबकि प्रतिसार विश्वव्यापी हो, तब अतिरेक प्राप्त कर रहे देश में घरेलू व्यय में वृद्धि करना अत्यन्त आवश्यक होगा ।

(3) प्रतिसार-अतिरेक प्राप्त कर रहा देश-घरेलू व्यय में वृद्धि:

Row 2 में अतिरेक प्राप्त कर रहे देश में प्रतिसार है । आन्तरिक एवं बाह्य सन्तुलन प्राप्त करने के लिए घरेलू व्यय में वृद्धि की नीति अपनाई जाएगी ।

(4) मुद्रा प्रसार-घाटा प्राप्त कर रहा देश : घरेलू व्यय में कमी:

Row 2 में घाटा प्राप्त कर रहा देश मुद्रा प्रसार का अनुभव करता है । आन्तरिक एवं बाह्य सन्तुलन प्राप्त करने के लिए घरेलू व्यय में कमी की नीति अपनाई जाएगी । स्पष्ट है कि Row 2 में जब अतिरेक प्राप्त कर रहे देश में प्रतिसार एवं घाटा प्राप्त कर रहे देश में मुद्रा प्रसार की दशा विद्यमान है, इसलिए अतिरेक प्राप्त करने वाले देश में घरेलू व्यय में वृद्धि की नीति अपनाई एवं घाटे वाले देश में घरेलू व्यय में कमी की नीति अपनाई जाएगी ।

इस दशा में घरेलू व्यय में वृद्धि एवं घरेलू व्यय में कमी करने की नीति को जब दोनों देश क्रमश: एक साथ अपनाते हैं तब उन्हें निश्चित रूप से लाभ होता है ।

(5) अतिरेक प्राप्त कर रहे देश में मुद्रा प्रसारिक दबाव एवं घाटे वाले देश में प्रतिसार:

जब अतिरेक प्राप्त कर रहे देश में मुद्रा प्रसारिक दबाव तथा घाटे वाले देश में प्रतिसार की स्थिति विद्यमान हो, तब ऐसी दशा में उपयुक्त नीति को चुनना काफी कठिन होता है । ऐसी दशा में सन्तुलन स्थापित करने के लिए दोनों देशों में घरेलू नीतियों को वांछित संयोग उपयोगी नहीं होता ।

बाह्य सन्तुलन प्राप्त करने हेतु यदि अतिरेक प्राप्त कर रहे देश में घरेलू व्यय को कम किया जाए तथा घाटे वाले देश में घरेलू व्यय में वृद्धि की जाये तो मुद्रा प्रसारिक दबाव व प्रतिसार की स्थितियाँ दोनों देशों में और अधिक गम्भीर दशा को उत्पन्न कर देंगी ।

यह एक ऐसी दशा है जिसमें असन्तुलन को पूर्ण रूप से समाप्त कर पाना सम्भव नहीं होगा । यदि बढते हुए बाह्य सन्तुलन को अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक कोषों की कमी के द्वारा समायोजित नहीं किया जा सका तो ऐसी दशा में मुद्रा प्रसारिक दबाव या अवस्फीति और अधिक बढ जाती है, तब भुगतानों पर संरक्षण लगाकर या विनिमय दर समायोजन की नीति अपना कर साम्यावस्था स्थापित करने में भी अवरोध उत्पन्न होते है । अतः यह दशा नीति निर्धारकों के सामने चुनौती बन जाती है ।

(6) मुद्रा प्रसार, बेरोजगारी और बाह्य संतुलन:

यदि आन्तरिक सन्तुलन को प्राप्त करने के लिए शून्य बेरोजगारी एवं पूर्ण कीमत स्थायित्व की मान्यता को ध्यान में रखते है तो यह समस्या का अति सरलीकरण है । विशेष रूप से उन्नत औद्योगिक देशों में मुद्रा प्रसार एवं बेरोजगारी की प्रवृति साथ-साथ देखी जाती है ।

ऐसे में नीति निर्धारण करते हुए जो समस्या सामने आती है वह सामाजिक रूप से स्वीकार्य मुद्रा प्रसार एवं बेरोजगारी की ऐसी दर को ध्यान में रखती है जो बाह्य सन्तुलन की प्राप्ति से सम्बन्धित रह सके ।

मुद्रा प्रसार बेरोजगारी और बाहय सन्तुलन की व्याख्या को चित्र 52.6 की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है । X-अक्ष में बेरोजगारी एवं Y-अक्ष में मुद्रा प्रसार की दर प्रदर्शित की गई है । l0, l1 व l2 वक्र नीति निर्धारकों के प्रतिमानों को प्रदर्शित करता है जो मुद्रा प्रसार एवं बेरोजगारी को ध्यान में रखकर तय किए जाएंगे । यह तटस्थता वक्र है । प्रत्येक तटस्थता वक्र मुद्रा प्रसार एवं बेरोजगारी के मध्य ऐसे सम्बन्धों को अभिव्यक्त करता है जो अधिकारियों को समान रूप से स्वीकार्य है ।

ऐसे वक्र जो मूल बिन्दु के समीप हैं मूल बिन्दु से दूर स्थित वक्रों की तुलना में अधिक पसन्द किए जाएँगे । इससे तात्पर्य है कि बेरोजगारी की दर के साथ मुद्रा प्रसार की निम्न दर l0 वक्र पर है । उदासीनता वक्रों में प्रदर्शित प्रतिमान देश में विद्यमान जनसंख्या की सामाजिक इच्छा को प्रदर्शित करता है जिसे नीति निर्धारण में अधिकारियों द्वारा ध्यान में रखा जाता है ।

चित्र 52.6 में मुद्रा प्रसार एवं बेरोजगारी के मध्य सम्बन्ध जिसे Trade off कहा जाता है प्रदर्शित किया जाता है तथा इस सम्बन्ध को फिलिप्स वक्र के नाम से जाना जाता है । उदासीनता वक्र I0, I1 तथा I2 मुद्रा प्रसार तथा बेरोजगारी के ऐसे संयोगों को निरूपित करते है जो नीति निर्धारकों द्वारा स्वीकार किये जाते हैं ।

अनुकूलतम दशा का स्पष्टीकरण:

चित्र 52.6 में बिन्दु 8 मुद्रा प्रसार की अतिरेक दशा बिन्दु C पर अतिरेक दशा तथा बिन्दु A अनुकूलतम मुद्रा प्रसार बेरोजगारी के संयोग को प्रदर्शित करते हैं । मुद्रा प्रसार एवं बेरोजगारी के एक उचित संयोग का चयन करने में फिलिप्स वक्र एक ऐसा बिन्दु चुनता है जो निम्नतम उदासीनता वक्र को स्पर्श करता है । इसे चित्र में बिन्दु A द्वारा दिखाया गया है ।

इस प्रकार मुद्रा प्रसार एवं बेरोजगारी के साथ पूर्ण रोजगार की दशा को बिन्दु A पर दिखाया जाना सम्भव होता है, क्योंकि यह एक अनुकूलतम दशा है । A बिन्दु पर विद्यमान सम्बन्ध एवं अधिकारियों के प्रतिमान को PP तथा II1 रेखा द्वारा दिखाया गया है ।

बाह्य सन्तुलन का उद्देश्य:

अब हम चित्र 52.6 को बाला सन्तुलन के लिए अतिरिक्त नीति उद्देश्य के सन्दर्भ में व्याख्यायित करते है । इस उद्देश्य के लिए माना कि दो देशों के विश्व में. दोनों देश समान फिलिप्स वक्र पर निवास कर रहे है और दोनों देशों के नीति निर्धारकों के प्रतिमान फलन एक है ।

चित्र में दो अतिरिक्त बिन्दु B व C को प्रदर्शित किया गया है जो फिलिप्स वक्र पर विद्यमान हैं । यह माना गया है कि बिन्दु B अतिरिक्त मुद्रा प्रसार को तथा बिन्दु C अतिरिक्त बेरोजगारी को प्रदर्शित करता है । हम यह भी मान कर चलते हैं कि बिन्दु A पर दोनों देश आंतरिक एवं बाह्य सन्तुलन की प्राप्ति कर सकने में समर्थ है ।

अत: इस प्रकार B व C बिन्दुओं के द्वारा भुगतान सन्तुलन के घाटे अथवा अतिरेक को प्रदर्शित किया जाना सम्भव बनता है जिसे दूर करने के लिए अधिकारी A बिन्दु पर आने का प्रयास करते है ।