मौद्रिक नीति: अर्थ और पैरामीटर्स | Read this article in Hindi to learn about:- 1. मौद्रिक नीति का अर्थ (Meaning of Monetary Policy) 2. मौद्रिक नीति के प्राचल (Parameters of Monetary Policy) 3. मौद्रिक नीति के उपकरण (Instruments)
मौद्रिक नीति का अर्थ (Meaning of Monetary Policy):
एक संकीर्ण भाव में मुद्रा नीति का अर्थ है किसी देश के मौद्रिक उपाय एवं निर्णय जो मुद्रा की मात्रा को नियन्त्रित करने का लक्ष्य रखते हैं, ब्याज दरों को, सार्वजनिक व्यय को, मुद्रा और साख के प्रयोग को प्रभावित करते हैं जबकि, एक विस्तृत रूप में, यह मौद्रिक प्रणाली से सम्बन्धित है जो उन सब मौद्रिक और गैर-मौद्रिक उपायों और निर्णयों से व्यवहार करती है जिनके मौद्रिक प्रभाव हैं ।
इसलिये मौद्रिक नीति का अर्थ है वह उपाय जो आर्थिक व्यवस्था के दक्ष संचलन को सुनिश्चित करने के लिये तैयार किये गये हैं अथवा मुद्रा की पूर्ति, लागत और उपलब्धता पर इसके प्रभाव द्वारा विशेष उद्देश्यों का समूह ।
इस प्रयोजन से, मौद्रिक प्राधिकरण, मौद्रिक प्रपत्रों जैसे ब्याज दर, खुला बाजार प्रचलनों, सुरक्षित अनुपात में परिवर्तन और गुणवत्तात्मक साख नियन्त्रणों के जाने-बूझ और सचेत प्रबन्ध को सम्मिलित करता है ।
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मौद्रिक नीति की अवधारणा को निम्नलिखित भिन्न रूपों में परिभाषित किया गया है:
“संचरित मुद्रा की मात्रा के विस्तार और संकुचन का प्रबन्ध पूर्ण-रोजगार जैसे विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के स्पष्ट प्रयोजन से करना ।” -आर पी केन्ट
“अपने अधीन समाज की मौद्रिक व्यवस्था के प्रति राजनीतिक प्राधिकरण का रवैया ।” -पाल इन्जिग
”सामान्य आर्थिक नीति के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु, एक उपकरण के रूप में मुद्रा की पूर्ति को नियन्त्रित करने के लिये केन्द्रीय बैंकों को प्रयुक्त करने की नीति ।” -हैरी जी. जॉनसन
मौद्रिक नीति के प्राचल (Parameters of Monetary Policy):
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मौद्रिक नीति के तीन मुख्य प्राचल हैं जिनका नीचे वर्णन किया गया है:
(i) मुद्रा की पूर्ति,
(ii) मुद्रा की लागत अथवा ब्याज दर,
(iii) मुद्रा की उपलब्धता ।
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(i) मुद्रा की पूर्ति (Supply of Money):
यह मौद्रिक प्राधिकरण द्वारा जारी की गई मुद्रा और बैंकों में पड़े मांग जमा खातों से सम्बन्धित है । मुद्रा की न्यायसंगत पूर्ति की व्यवस्था के लिये केन्द्रीय बैंक को चाहिये कि नोट जारी करने के लोचपूर्ण ढंग अपनाए जैसे न्यूनतम सुरक्षित कोष विधि, वित्तीय संस्थाओं का विस्तार और सामान्य लोगों को बैंकों में अधिक कोष जमा करने के लिये उत्साहित करना ।
(ii) मुद्रा की लागत अथवा ब्याज दर (Cost of Money or Rate of Interest):
मुद्रा नीति का एक अन्य प्राचल मुद्रा की लागत अथवा ब्याज का दर है । अल्प विकसित देशों को ऐसी मुद्रा नीति अपनानी चाहिये जिससे कृषि और औद्योगिक क्षेत्र का संवर्धन हो ।
निस्सन्देह, जमाखोरों और सट्टेबाजों द्वारा इस विधि का दुरुपयोग किया गया है, परन्तु ब्याज दर की इस पक्षपाती नीति का अर्थव्यवस्था के प्राथमिकता वाले क्षेत्रों जैसे लघु उद्योगों में समर्थन किया गया है, दूसरी ओर अनुत्पादक क्षेत्रों से उच्च ब्याज लिया जाना चाहिये ।
कुल मांग को कम करने के लिये ब्याज का दर बढ़ाया जाना चाहिये । इसके परिणामस्वरूप मुद्रा की उपलब्धता कम होगी । मन्दी के दौरान ब्याज का दर कम कर दिया जाना चाहिये ताकि मुद्रा की उपलब्धता सरल हो जाये ।
(iii) मुद्रा की उपलब्धता (Availability of Money):
मुद्रा की उपलब्धता साख नियन्त्रण के सन्दर्भ में होती है । इसके लिये दो विधियां अपनाई जाती हैं अर्थात् मात्रात्मक साख नियन्त्रण और गुणवत्तात्मक साख नियन्त्रण ।
मौद्रिक नीति के उपकरण (Instruments of Monetary Policy):
उदार रूप में मौद्रिक नीति के उपकरण अथवा तकनीकों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:
(क) मात्रात्मक अथवा सामान्य विधि,
(ख) गुणवत्तात्मक अथवा चयनात्मक विधि ।
(क) मात्रात्मक अथवा सामान्य विधियां (Quantitative or General Methods):
1. बैंक दर अथवा बट्टा दर (Bank Rate or Discount Rate):
बैंक दर उस दर से सम्बन्धित है जिस पर केन्द्रीय बैंक व्यापारिक बैंकों को ऋण देने के लिये तैयार होता है तथा विशेष प्रकार की हुण्डियों को बट्टा तैयार होता है । अत: बैंक दर को परिवर्तित करके साख एवं अधिक मुद्रा पूर्ति को प्रभावित किया जा सकता है ।
अन्य शब्दों में, बैंक दर में वृद्धि ब्याज दर को बढ़ा देती है और बैंक दर में गिरावट ब्याज दर को कम कर देती है । स्फीति के दौरान, मौद्रिक प्राधिकरण, स्फीति को दबाने के लिये बैंक दर बढ़ा देता है । उच्च बैंक दर व्यापारिक बैंकों के साख विस्तार को रोकेगा ।
उनके पास कम आरक्षित कोष बचेगा जिससे उनकी साख देने की क्षमता प्रतिबन्धित होगी । इसके विपरीत मन्दी के दौरान बैंक दर को घटाया जाता है, व्यापारी से उभरने के लिये अधिक-से-अधिक ऋण लेना पसन्द करेगा । इसलिये बैंक दर अथवा बट्टा दर का प्रयोग दोनों प्रकार की स्थितियों में किया जा सकता है अर्थात स्फीति और मन्दी की स्थितियों में ।
2. खुले बाजार कार्य (Open Market Operations):
खुले बाजार कार्यों से, हमारा भाव है प्रतिभूतियों का विक्रय अथवा क्रय । जैसा कि हम जानते हैं कि व्यापारिक बैंकों की साख रचना की क्षमता बैंक के नगद आरक्षणों पर आधारित होती है । इस प्रकार मौद्रिक प्राधिकरण (केन्द्रीय बैंक), व्यापारिक बैंकों द्वारा साख रचना के आधार को प्रभावित करके साख को नियन्त्रित करता है ।
यदि देश में साख को कम करना है तो केन्द्रीय बैंक खुले बाजार में प्रतिभूतियां बेचना आरम्भ कर देता है । परिणामस्वरूप लोगों के पास मुद्रा की पूर्ति कम हो जायेगी क्योंकि वह व्यापारिक बैंकों से धन निकाल कर प्रतिभूतियां खरीदेंगे ।
नगद आरक्षण कम हो जायेंगे । यह स्फीति काल में होता है । मन्दी के दौरान जब कीमतें गिर रही होती हैं, केन्द्रीय बैंक प्रतिभूतियां खरीदता है परिणामस्वरूप साख एवं कुल मांग में वृद्धि होती है तथा कीमतें भी बढ़ती हैं ।
3. परिवर्तनीय आरक्षित अनुपात (Variable Reserve Ratio):
व्यापारिक बैंकों को एक प्रदत्त प्रतिशत नगद आरक्षित रूप में केन्द्रीय बैंक में रखना पड़ता है । उस नगद अनुपात के बदले में, यह व्यापारिक बैंकों को अपनी साख सुविधाओं को घटाने या बढ़ाने की आज्ञा देता है ।
यदि केन्द्रीय बैंक साख को संकुचित करना चाहता है (स्फीति काल के दौरान) तो यह नगद आरक्षित अनुपात को बढ़ा देता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यापारिक बैंकों के पास जमा राशि कम हो जाती है और उनकी साख की शक्ति कम हो जाती है ।
यदि अर्थव्यवस्था में मन्दी है तो व्यापारिक बैंकों की साख रचना की क्षमता को बढ़ाने के लिये आरक्षित अनुपात कम कर दिया जाता है । इसलिये परिवर्तनीय आरक्षित अनुपात का प्रयोग व्यापारिक बैंकों की साख रचना की क्षमता को बढ़ाने या कम करने के लिये किया जाता है ।
4. द्रवता में परिवर्तन (Change in Liquidity):
इस विधि अनुसार- प्रत्येक बैंक को अपनी जमा राशि का एक भाग नगदी के रूप में रखना पड़ता है । जब केन्द्रीय बैंक साख को संकुचित करना चाहता है तो यह द्रवता के अनुपात को बढ़ा देता है तथा विपरीत स्थिति में प्रतिकूल कार्य किया जाता है ।
(ख) गुणात्मक अथवा चयनात्मक विधियां (Qualitative or Selective Methods):
1. सीमान्त आवश्यकता में परिवर्तन (Change in Marginal Requirements):
इस विधि के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक कोष को नियन्त्रित और मुक्त करने के लिये सीमान्त आवश्यकताओं को परिवर्तित करता है । जब केन्द्रीय बैंक अनुभव करता है कि व्यापारियों द्वारा कुछ वस्तुओं की जमाखोरी के कारण कीमत बढ़ रही हैं, तब केन्द्रीय बैंक सीमान्त आवश्यकता को बढ़ाने की विधि द्वारा स्वीकृत साख को नियन्त्रित करता है (सीमान्त आवश्यकता सम्पदा के बाजार मूल्य और इसके अधिकतम ऋण मूल्य के बीच अन्तर है) ।
हम कल्पना करते हैं कि एक ऋण लेने वाला व्यक्ति 1000 रुपये की वस्तुएं किसी बैंक के पास गिरवी रख कर 800 रुपये की राशि ऋण के रूप में प्राप्त करता है तो सीमान्त आवश्यकता 200 रुपये अथवा 20 प्रतिशत है ।
यदि यह सीमान्त बढ़ा दिया जाता है तो ऋण प्राप्तकर्त्ता को एक प्रदत्त राशि का ऋण प्राप्त करने के लिये अधिक मूल्य की वस्तु गिरवी रखनी पड़ेगी । इससे मुद्रा पूर्ति कम हो जायेगी और स्फीति घटेगी ।
इसी प्रकार, मन्दी की स्थिति में, केन्द्रीय बैंक सीमान्त आवश्यकता को कम कर देता है जिससे व्यापारिक बैंकों की साख निर्माण क्षमता बढ़ जाती है । इसलिये स्फीति और मन्दी के दौरान, सीमान्त आवश्यकता, केन्द्रीय प्राधिकरण के हाथों में एक महत्वपूर्ण उपकरण है ।
2. उपभोक्ता साख का नियमन (Regulation of Consumer Credit):
स्फीति के दौरान इस विधि का अनुकरण उपभोक्ताओं के अधिक व्यय को नियन्त्रित करने के लिये किया जाता है । उपभोग व्यय को न्यूनतम बनाने के लिये प्राय: किराया-खरीद अथवा किश्तों की विधि का प्रयोग किया जाता है । इसके विपरीत मन्दी के दौरान अधिक साख सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाती हैं ताकि उपभोक्ता अधिक व्यय द्वारा अर्थव्यवस्था मन्दी से बाहर निकाले ।
3. सीधी कार्यवाही (Direct Action):
सीधी कार्यवाही को तब अपनाया जाता है जब कुछ व्यापारिक बैंक साख को नियन्त्रित करने के लिये केन्द्रीय बैंक से सहयोग नहीं करते, तब केन्द्रीय बैंक इन चूक-करने वाले बैंकों के विरुद्ध सीधी कार्यवाही करता है ।
केन्द्रीय बैंक अनेक प्रकार से निम्नलिखित ढंग से सीधी कार्यवाही कर सकता है:
(a) जो बैंक इसके निर्देशों का अनुसरण नहीं करते उन्हें दोबारा बट्टा (Rediscount) सुविधाओं से इन्कार कर दिया जाता है ।
(b) जो बैंक अपनी पूंजी एवं आरक्षण से अधिक सुविधा की मांग करते हैं उनके साथ भी ऐसी नीति का प्रयोग किया जा सकता है ।
(c) यह बैंक दर के अतिरिक्त दण्डात्मक दर भी ले सकता है ।
(d) दोषी संस्थाओं पर कड़े प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं ।
4. साख का नियन्त्रण (Rationing of Credit):
इस विधि के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक व्यापारिक बैंकों के लिये साख सुविधाओं की सीमा निर्धारित करता है । अन्तिम ऋणदाता होने के कारण केन्द्रीय बैंक उपलब्ध साख को आवेदकों के बीच वितरित करता है ।
साख का नियन्त्रण प्राय: निम्नलिखित चार ढंगों से किया जाता है:
(i) केन्द्रीय बैंक किसी बैंक को ऋण देने से इन्कार कर सकता है ।
(ii) केन्द्रीय बैंक, बैंकों को दिये जाने वाले ऋणों की राशि को कम कर सकता है ।
(iii) केन्द्रीय बैंक साख का कोटा निर्धारित कर सकता है ।
(iv) केन्द्रीय बैंक किसी विशेष उद्योग अथवा व्यापार को दिये जाने वाले ऋण की सीमा निर्धारित कर सकता है ।
5. नैतिक अनुनय अथवा परामर्श (Moral Persuasion or Advice):
हाल ही के वर्षों में केन्द्रीय बैंक ने अनुनय को साख नियन्त्रण के उपकरण के रूप में प्रयोग किया है । नैतिक प्रत्यायन एक सामान्य शब्द है जो विविध प्रकार की अनौपचारिक विधियों का वर्णन करता है जिनका प्रयोग केन्द्रीय बैंक द्वारा व्यापारिक बैंकों को एक विशेष ढंग से व्यवहार करने के लिए राजी करने के लिये किया जाता है ।
नैतिक प्रत्यायन निर्देश और प्रचार का रूप ले लेता है । वास्तव में नैतिक प्रत्यायन एक प्रकार का परामर्श होता है । इसमें अनिवार्यता का कोई तत्व नहीं होता । केन्द्रीय बैंक साख विस्तार के संकटपूर्ण परिणामों को ध्यान में रखते हुये अन्य वित्तीय संस्थाओं से सहयोग की आशा रखता है । इस विधि का प्रभाव केन्द्रीय बैंक की प्रतिष्ठा और व्यापारिक बैंकों द्वारा दिये गये सहयोग पर निर्भर करता है ।
6. प्रचार (Publicity):
प्रचार एक अन्य गुणात्मक तरीका है । इसका अर्थ है उन्हें केवल उस साख नीति के अनुसरण के लिये विवश करना जो अर्थव्यवस्था के हित में है । प्रचार प्राय: पत्रिकाओं और अखबारों का रूप लेता है ।
बैंकों को मौद्रिक नीति के विकास के सम्बन्ध में सूचित नहीं रखा जाता । केन्द्रीय बैंक इसे अर्थव्यवस्था के लिये अच्छा समझता है । इसलिये, इस विधि का मुख्य लक्ष्य बैंक समुदाय को जनमत के दबाव के नीचे लाना होता है ।