मौद्रिक नीति: उपकरण और संकेतक | Read this article in Hindi to learn about:- 1. मौद्रिक नीति के मुख्य उपकरण (Major Instruments of Monetary Policy) 2. मौद्रिक नीति एवं गैर बैंक वित्तीय मध्यस्थ (Monetary Policy and Financial Intermediaries) 3. सूचक (Indicators) 4. अन्तराल (Lags) 5. तटस्थ मुद्रा नीति (Neutral Money Policy) 6. मौद्रिक नीति एवं भुगतान सन्तुलन (Monetary Policy and Balance of Payments) and Other Details.
मौद्रिक नीति के मुख्य उपकरण (Major Instruments of Monetary Policy):
मौद्रिक नीति के मुख्य उपकरण तीन है:
(1) खुले बाजार की क्रियाएँ ।
(2) बट्टे की दर ।
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(3) कोषों की आवश्यकता ।
खुले बाजार में सरकारी बॉण्ड की बिक्री से उपलब्ध बॉण्ड की पूर्ति में वृद्धि होती है जिससे बॉण्ड की कीमत कम होती है तथा ब्याज की प्रभावी दर बढ़ती है, क्योंकि ब्याज बॉण्ड के अभिमुख मूल्य तथा क्रय कीमत का अन्तर होती है । ब्याज की दर को बढ़ने से, अर्थव्यवस्था की गति मन्द पड़ जाती है ।
मुद्रा को उधार लेने के लिए व्यक्ति जितना अधिक भुगतान करेंगे, उतना ही कम वह उपभोग व विनियोग पर व्यय करेंगे । केन्द्रीय बैंक के क्रयों के विपरीत प्रभाव होते है । बट्टे की दर केन्द्रीय बैंक की वह दर है जिसे वह सदस्य बैंकों द्वारा उधार ली गई मुद्रा हेतु वसूल करता है ।
यदि बट्टे की दर में वृद्धि हो तब बैंक उधार लेने की कम इच्छा करेंगे तथा साख में विस्तार की अपनी कुशलता को सीमित ही रखेंगे, जबकि बट्टे की दर में कमी से बैंक अधिक उधार लेकर साख प्रदान करने में समर्थ होंगे ।
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कोषों की आवशकता जमाओं के उस प्रतिशत को सूचित करती है जिसे बैंक अवश्य ही नकद रूप में या केन्द्रीय बैंक में जमा के रूप में रखते हैं । इन आरक्षित कोषों की आवश्यकता जितनी अधिक होगी ऋण योग्य कोषों का विस्तार उतना ही कम होगा; आरक्षित कोष जितने कम होंगे, कोषों का विस्तार उतना ही अधिक होगा ।
मौद्रिक नीति के उपकरणों की कम विकसित देशों में असमर्थता (Major Instruments of Monetary Policy Frequently Ineffective in Less Developed Countries):
खुले बाजार की क्रियाएँ कम विकसित देशों में लगातार असमर्थ रही है,क्योंकि बॉण्ड धारक व्यक्ति बहुत सीमित होते है । व्यक्ति निजी विनियोग से अधिक उच्च प्रतिफल प्राप्त करने को बेहतर समझते हैं । वाणिज्यिक बैंक व्यापारिक क्रियाओं को वित्त प्रदान करते हुए दिए गए ऋणों से कमाई कर लेते है ।
मौद्रिक पूर्ति के नियमन हेतु बट्टे की दर तथा रिजर्व आवश्यकताएँ कमजोर उपकरण बने रहते है । ऐसे कम विकसित देशों में जहाँ रिजर्व निर्यात प्राप्तियों पर निर्भर करते है वहाँ बैंक आवश्यकताओं से अधिक रिजर्व बनाए रखते है ताकि उच्चावचनों से बचने के लिए घेराबन्दी की जा सके । इन दशाओं में, कोष आवश्यकताओं को कम करना भी बैंकों को सुरक्षित रहने की आशा प्रदान नहीं करता । सबसे मुख्य बात तो यह है कि जनसंख्या का बहुत छोटा-सा हिस्सा ही बैंक से लेन-देन करता है ।
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कम विकसित देशों में- (i) मुद्रा बाजार सीमित होता है अर्थात् गैर मौद्रिक क्षेत्र की बहुलता होती है । (ii) सौदे वस्तु विनिमय के आधार पर किए जाते हैं । आर्थिक क्रियाओं पर साख की लागत व इसकी उपलब्धता का प्रभाव नहीं पड़ता । (iii) साख का नकदी से अनुपात बहुत कम होता है । (iv) बॉण्ड बाजार बिल बाजार माँग क्या बाजार सीमित होते है । (v) बैंक व साख संस्थाओं में उचित तालमेल नहीं होता । संगठित बैंकिंग प्रणाली मात्र शहरों, महानगरों में विद्यमान होती है । गाँवों व कस्बों में कृषि, लघु उद्योग, दस्तकारी जैसे क्षेत्रों को साख प्राप्त नहीं हो पाती । (vi) संगठित क्षेत्र व घरेलू बैंकिंग के मध्य तालमेल नहीं होता । (vii) प्रतिभूति बाजार के अविकसित होने व्यक्तियों में बैंकिंग आदतों के न होने व बैंकिंग प्रणाली की दुर्बलताओं से साख नियन्त्रण के उपाय क्रम प्रभावशील होते है । (viii) मौद्रिक नीति नर्म प्रकृति की होती है । (ix) मौद्रिक नीति से सम्बन्धित निर्णयों व इसके क्रियान्वयन के परिणामस्वरूप देश के उत्पादन आय व व्यय पर पड़ने वाले प्रभाव में अन्तराल विद्यमान होते हैं ।
मौद्रिक नीति एवं गैर बैंक वित्तीय मध्यस्थ (Monetary Policy and Financial Intermediaries):
गैर बैकिंग वित्तीय मध्यस्थों द्वारा प्राथमिक प्रतिभूतियों का क्रय किया जाता है तथा गैर मौद्रिक दावे जैसे- बचत जमा, शेयर, इक्विटी व अन्य देनदारियों को अपने विरुद्ध उत्पन्न करती है । यह बचत बैंक बचत व ऋण संस्थाओं, बीमा कम्पनियों, साख यूनियनों, भूमि बैंक एवं डाक बचत प्रणाली के द्वारा सम्भव होते हैं ।
कुल तरलता के संचालन एवं मौद्रिक नीति के प्रभावपूर्ण क्रियान्वयन हेतु जरूरी है कि केन्द्रीय बैंक के नियत्रणों को गैर-बैकिंग मध्यवर्तियों पर भी लागू किया जाये । सामान्यतः यह कहा जाता है कि केन्द्रीय बैंक के विनयमन मुख्यतः व्यापारिक बैंकों पर क्रियान्वित होते है अतः गैर बैंक वित्तीय मध्यस्थों की दृष्टि से वह दुर्बल हो जाते है ।
इसके दो मुख्य पक्ष हैं-पहला अल्पकालीन या चक्रीय व दूसरा दीर्घकालीन । अल्पकालीन पक्ष में गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं के तीव्र गति से विकसित होने पर मुद्रा की चलन गति में वृद्धि होती है । ऐसा नहीं है कि गैर बैकिंग वित्तीय संस्थाओं के गतिशील होने पर मौद्रिक नीति दुर्बल पड़ जाएगी ।
वस्तुतः केन्द्रीय बैंक द्वारा मुद्रा की मात्रा को वाणिज्यिक बैंकों को प्रदान की गई कोषों की मात्रा को तय कर नियंत्रित करता है । मुद्रा प्रसार की अवधि में केन्द्रीय बैंक के निर्देशानुसार वाणिज्यिक बैंक ऋण प्राप्त करने वालों के लिए साख की शर्तों को दृढ़ करते हैं व ऋणों पर ब्याज की दर को बड़ा देते है ।
अब यदि वाणिज्यिक बैंक ही साख का स्रोत हों तो ऐसी दशा में प्रतिबन्धात्मक मौद्रिक नीति प्रभावकारी हो जाती है । परन्तु साख की प्राप्ति अन्य स्रोतों से भी सम्भव होती जिन पर केन्द्रीय बैंक के मात्रात्मक नियन्त्रण प्रभावी नहीं हो पाते ।
इससे प्रतिबन्धात्मक मौद्रिक नीति की प्रभावशीलता कम हो जाती है, क्योंकि सार्वजनिक ऋण एवं सरकारी प्रतिभूतियों का बाजार काफी व्यापक होता है । यह भी ध्यान देना होगा कि जब कभी साख हेतु व्यक्तिगत माँग विस्तृत होती है तो कोषों का परिणाम कम होने पर भी अधिक ऋण प्रदान करने के लक्ष्य से वित्तीय संस्थाएँ अपने पास रखी सरकारी प्रतिभूतियों का विक्रय कर देती है ।
तब मुद्रा के चलन वेग में वृद्धि होती है व परम्परागत मौद्रिक नीति दुर्बल हो जाती है । ऐसे में समाधान यह ही है कि वाणिज्यिक बैंकों व गैर-बैंकिंग वित्त संस्थाओं के कारगर तालमेल को बनाए रखा जाए जिससे मुद्रा की चलन गति पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण हो सके ।
केन्द्रीय बैंक के नियन्त्रणों को गैर-बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थों पर क्रियान्वित करते हुए जहाँ कुल तरलता को नियन्त्रित किया जा सकता है वहीं मौद्रिक नीति को प्रभावपूर्ण भी बनाया जा सकता है । प्रो॰ वारेन स्मिथ व ऐली शैपिरो यह नहीं मानते कि गैर-बैंकिंग संस्थाएं केन्द्रीय बैंक की मुद्रा प्रसार विरोधी प्रतिबन्धात्मक नीति को रोकती है । अतः उन्होंने ऐसी संस्थाओं पर केन्द्रीय बैंक के नियन्त्रण को उचित नहीं माना ।
मौद्रिक नीति की प्रभावशीलता इस पक्ष से भी सम्बन्धित है कि गैर-बैकिंग वित्तीय मध्यस्थों भी NBFI की साख सुजन में क्या भूमिका है ? यदि मौद्रिक पूर्ति में करेन्सी एवं माँग जमाओं को सम्मिलित किया जाये तो गैर-बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थों की साख निर्माण में कोई भूमिका नहीं है । परन्तु यदि मौद्रिक पूर्ति में गैर-बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थों की जमाएँ सम्मिलित हैं तो वह साख निर्माण कर सकती है ।
गुरले एवं शॉ अपने अध्ययन Money in a Theory of Finance (1968) में स्पष्ट करते है कि वाणिज्यिक बैंकों की तरह गैर-बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थ साख का निर्माण कर सकते हैं । लेकिन वाणिज्यिक बैंकों के सापेक्ष उनकी साख सृजन क्षमता सीमित होती है ।
वाणिज्यिक बैंकों के प्रसंग में तरलता का रिसाव कम होता है, दूसरी और गैर-बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थों के सम्बन्ध में तरलता का रिसाव अधिक होता है । साख सृजन में गैर-बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थों की सार्थकता तब बढ़ जाती है जब उनकी साख गतिविवियाँ वाणिज्यिक बैंकों के सहयोग में की जाएँ ।
मौद्रिक नीति के सूचक (Indicators of Monetary Policy):
मौद्रिक नीति के सूचक मुख्यतः तीन हैं:
(1) मौद्रिक आधार या उच्च स्तरीय मुद्रा
(2) बैंक देनदारियाँ तथा परिसम्पत्तियों
(3) अल्पकालीन ब्याज की दरें
मौद्रिक नीति के सूचकों द्वारा यह निर्धारित होता है कि वह विस्तारकारी है या संरक्षात्मक है । इन सूचकों से मौद्रिक नीति की शक्ति एवं दिशा के बारे में जानकारी मिलती है । इन सूचकों में मौद्रिक आधार इस कारण महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें होने वाला परिवर्तन अन्य के सापेक्ष मौद्रिक अधिकारी के नियन्त्रण में होता है लेकिन समग्र रूप से यह नीति निर्धारण नहीं करता ।
दूसरा सूचक बैंक दायित्व व परिसम्पत्तियों हैं । अल्पकालीन ब्याज की दरें यदि उच्च होंगी तब इससे मौद्रिक नीति के सामान्य उद्देश्यों को प्राप्त करने में कठिनाई होगी ।
उदाहरण हेतु यदि मुद्रा की माँग बढती है और इससे ब्याज की दर बढती है तब उत्पादन कम हो सकता है, क्योंकि विनियोगी सापेक्षिक रूप से कम साख उधार लेंगे । दूसरी ओर यदि कुल माँग बढती है व इससे ब्याज की दर बढती है तब उत्पादन व रोजगार में वृद्धि होगी ।
यदि मौद्रिक अधिकारियों को-
(1) मौद्रिक उपकरणों की सही समझ न हो,
(2) किस समय कौन-सा सूचक प्रयोग किया जाए का ज्ञान न हो और या फिर,
(3) अर्थव्यवस्था को बर्हिजात घटक प्रभावित कर रहे हों, तथा
(4) सूचक मौद्रिक लक्ष्यों व उद्देश्य से संबन्धित न हो तब इनसे आन्तरिक स्थायित्व व बाह्य सन्तुलन प्राप्त करने में बाधाएँ उत्पन्न होती हैं ।
मौद्रिक नीति के अन्तराल (Lags of Monetary Policy):
मौद्रिक नीति को लागू करने में अन्तराल दिखाई देते है । मौद्रिक नीति में होने वाले परिवर्तन से कुल व्यय में होने वाला परिवर्तन सह-सम्बन्धित नहीं होता बल्कि इनके बीच में मौद्रिक पूर्ति, मुद्रा की लागत व मुद्रा की उपलब्धि का प्रभाव पडता है ।
देखना यह है कि मौद्रिक नीति में होने वाले परिवर्तन का प्रयुत्तर व्यावसायिक बैंक किस प्रकार देते हैं । व्यावसायिक बैंकों द्वारा मौद्रिक नीति में होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव निर्भर करता है उनके वर्तमान कोषों की दशा, ब्याज दर की आशंसा एवं ऋणों की माँग जैसे घटकों पर जो नीति में परिवर्तन से तुरन्त या कुछ विलम्ब के साथ समायोजन कर सकते है ।
व्यावसायिक बैंकों द्वारा विनियोग सूची के समायोजन में जितना अधिक समय लगेगा मौद्रिक नीति में परिवर्तन के अन्तराल उतनी ही लम्बी समय अवधि के होंगे ।
मौद्रिक नीति में होने वाले अन्तराल सामान्यतः चार प्रकार के होते हैं:
(i) पहचान अन्तराल
(ii) क्रिया अन्तराल
(iii) आन्तरिक अन्तराल
(iv) बाह्य उान्तराल
(i) पहचान अन्तराल (Recognition Lag):
अर्थव्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों की पहचान में कुछ समय लगता है जिसके लिए नीतियों में बदलाव करना पड़ता है । उदाहरण के लिए आरम्भिक समय में परिवर्तन हुआ जिसकी पहचान समय में की गई । अत: t2 – t1 समय अवधि का अन्तराल पहचान अन्तराल कहलाती है ।
(ii) क्रिया अन्तराल (Action Lag):
मौद्रिक नीति में परिवर्तन के परिणामस्वरूप वह समयावधि जिसमें समायोजन सम्भव हो किया अन्तराल कहलाता है । यह कई घटकों से प्रभावित होती है, जैसे- (i) यह ज्ञात करना कि परिवर्तन के कारण क्या थे, (ii) जो परिवर्तन हुए उनके लिए मौद्रिक नीति का कौन-सा संयोग उपयुक्त रहेगा, (iii) समायोजन हेतु निर्दिष्ट नीतियों की तैयारी में नीति निर्धारकों दारा लगा समय, (iv) राजनीतिक दबाव एवं प्रशासनिक विलम्ब, (v) इस परिवर्तन से मौद्रिक नीति आर्थिक विकास के किन पक्षों को विपरीत रूप से प्रभावित कर सकती है ।
(iii) आन्तरिक अन्तराल (Inside Lag):
यह पहचान अन्तराल तथा किया अन्तराल का योग होती है । रैनलैट के अनुसार आन्तरिक अन्तराल मुख्यतः आँकडों को एकत्रित करने, उनके विश्लेषण, प्रशासनिक घटकों के साथ नीति विनिमय जैसे घटकों पर निर्भर करता है ।
आन्तरिक अन्तराल की अवधि इस बात पर निर्भर करती है कि परिवर्तनों को मापने का आधार क्या है, यह आधार अन्य घटकों से किस प्रकार की अन्तनिर्भरता रखते हैं, नीति निर्माता समायोजन के प्रति कितनी तत्परता रखते हैं ।
(iv) बाह्य अन्तराल (Outside Lag):
नीतियों में होने वाले परिवर्तनों से अर्थव्यवस्था में उत्पन्न होने वाली हलचल तथा कुल आय, व्यय इत्यादि व्यापक चरों पर पडने वाले प्रभाव बाह्य अन्तराल द्वारा सूचित किए जाते हैं ।
अर्थशास्त्रियों ने अनुभव सिद्ध अवलोकन के द्वारा स्पष्ट किया है कि बाह्य अन्तराल की समय अवधि 3 माह से 1.5 वर्ष, आन्तरिक अन्तराल की समय अवधि मेयर के अनुसार 6 माह, मैल्टजर के अनुसार 2 माह, विलिस के अनुसार 1.5 माह, कैरेकन व सोलोव के अनुसार 2 माह है । क्रिया अन्तराल की समय अवधि शून्य व विशेष चक्रीय परिवर्तन की पहचान करने में लगभग 3 माह का समय लगता है
तटस्थ मुद्रा नीति (Neutral Money Policy):
प्रो॰ राबर्टसन, प्रो० हायेक एवं विकस्टीड के मतानुसार सबसे बेहतर प्रणाली वह है जो तटस्थ रहे । यदि मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन ही तो आर्थिक प्रणाली में उच्चावन उत्पन्न होते है । नवीन मुद्रा के सृजन व निष्क्रिय परिसम्पत्तियों को बाहर निकालने से तेजी की दशाएँ उत्पन्न होती हैं ।
दूसरी ओर जमाखोरी व मुद्रा को संकुचित करने से मन्दी की दशा उत्पन्न होती है । अत: मुद्रा की तटस्थता से आशय यह है कि वह उत्पादन की क्षमता उत्पादन की छपता उत्पादन की लागत व उपभोक्ता के अधिमान जैसे पक्षों से छेड़छाड़ न करें ।
मुद्रा का उद्देश्य मात्र इतना हो कि वह विनिमय के हस्तान्तरणों को सम्भव बनाए तथा अर्थव्यवस्था की गति में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न होने दे अतः मुद्रा की मात्रा इस प्रकार संरक्षित की जाए कि वह कुल उत्पादन क्रय-विक्रय या हस्तान्तरणों, वस्तु व सेवाओं की कीमतों या मूल्य को एक सक्षम वस्तु विनिमय प्रणाली की भांति यथावत् रखे । संक्षेप में, हर परिस्थिति एवं समय अवधि में मुद्रा की मात्रा स्थिर रहे, क्योंकि मुद्रा की पूर्ति में परिवर्तनों से ही एक देश में चक्रीय उच्चावचन उत्पन्न होते हैं ।
वस्तुतः यह मापदण्ड:
(i) मुद्रा के परिणाम सिद्धान्त पर आधारित है जो वर्तमान की आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं के अनुकूल नहीं है ।
(ii) मुद्रा की तटस्थता आवश्यक रूप से कीमत स्थायित्व को सुनिश्चित नहीं करती, क्योंकि तकनीकी वैज्ञानिक व प्रबन्धकीय कुशलताएँ उत्पादकता वृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करती हैं । ऐसे में यदि मुद्रा को तटस्थ रखा जाये तो मन्दी की दशा उत्पन्न हो जाएगी ।
(iii) मंदी के समय यह नीति लागू नहीं होती, क्योंकि मौद्रिक पूर्ति अपरिवर्तित रहने व वस्तु व सेवाओं का परिणाम कम होने के बावजूद कीमतें गिरती है ।
(iv) वस्तुतः यह नीति अबन्ध नीति पर आधारित रही जिसमें एक स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था में पूर्ण प्रतियोगिता की मान्यता ली जबकि आज समर्थ मौद्रिक नियन्त्रणों को लागू करने में केन्द्रीय बैंक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है ।
प्रो॰ हायेक ने स्पष्ट किया कि तटस्थ मुद्रा से आशय मुद्रा की मात्रा को स्थिर रखने से नहीं है अर्थात् यह कीमत स्थायित्व की नीति नहीं बल्कि इसके अधीन मुद्रा के चलन वेग के परिवर्तनों को समायोजित करने के लिए साम्य बनाया जाता है ।
तटस्थ मुद्रा नीति में आर्थिक संरचना में तकनीक, जनसंख्या, औद्योगिक ढाँचे के एकीकरण से उत्पन्न परिवर्तनों के दुष्प्रभाव कम करने का प्रयास होता है । प्रो॰ किंज के अनुसार, मौद्रिक पूर्ति में परिवर्तन पूर्ण रोजगार से पूर्व वास्तविक चरों में हलचल उत्पन्न कर सकते हैं । ऐसी अवस्था में मुद्रा तटस्थ नहीं होगी ।
मुद्रा केवल दो स्थितियों में तटस्थ होगी:
(1) यदि मुद्रा का माँग फलन पूर्णतया लोचदार है व तरलता जाल विद्यमान है तब मौद्रिक पूर्ति में होने वाली वृद्धि से ब्याज की दर एवं वास्तविक चरों पर कोई प्रभाव नहीं पडेगा ।
(2) यदि व्यय पर ब्याज का प्रभाव नहीं पडता या यह ब्याज बेलोच हो तब मौद्रिक पूर्ति में परिवर्तन से ब्याज की दर कम हो सकती है लेकिन, बचत, विनियोग व उपभोग पूर्ववत् बने रह सकते हैं ।
पैटिनकिन के अनुसार, मुद्रा की तटस्थता वह दशा है जब मुद्रा की मात्रा में इस प्रकार परिवर्तन हो कि वस्तुओं की साम्य कीमतों में आनुपातिक परिवर्तन सम्भव बने परन्तु साम्य व्याज की दर में कोई परिवर्तन न हो । उन्होंने स्पष्ट किया कि मुद्रा की मात्रा को दुगना करने से सामान्यतः सन्तुलन के सापेक्ष कीमतों और ब्याज की दरों पर प्रभाव पडने की आशा होती है ।
विशेषतः ऋण प्राप्तकर्त्ताओं द्वारा चयन की गई वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि होगी, जबकि ऋणदाताओं द्वारा चयनित वस्तुओं की सापेक्ष कीमतें गिर जाएंगी । अब ब्याज की दर में होने वाली वृद्धि या कमी इस तथ्य पर निर्भर करेगी कि दोनों एक-दूसरे की विरोधी शक्तियों में अधिक प्रभाव किसका है ?
ऋणदाता की खराब दशा से बॉण्डों की माँग में कमी या फिर ऋण प्राप्तकर्त्ताओं की दशा में सुधार से बॉण्डों की पूर्ति में कमी । यदि यह माना जाये कि प्रत्येक व्यक्ति की आरम्भिक मुद्रा व बॉण्डों की रखी मात्रा को दुगना करने से अर्थव्यवस्था का साम्य भंग होता है ।
तब साम्य दुगनी मुद्रा कीमतों व अपरिवर्तित ब्याज दर के साथ पुन. दोबारा स्थापित होगा । कारण यह है कि सापेक्षिक कीमतें, ब्याज की दर, वास्तविक आय, प्रारम्भ में जमा वास्तविक बॉण्ड व प्रारम्भ की रखी मुद्रा मात्रा वही रहेंगी जो आरम्भ में साम्य की दशा में विद्यमान थीं ।
अतः वस्तुओं, बॉण्डों की वास्तविक मात्राओं की अतिरिक्त माँग भी उतनी ही होनी चाहिए जितनी कि वह प्रारम्भिक अवस्था में थी अर्थात् उनमें से प्रत्येक शून्य होना चाहिए । यदि मुद्रा भ्रम न है। तथा पुराने ऋणों का दुबारा मूल्यांकन किया जाये तो मुद्रा मात्रा में एकसमान वृद्धि से वस्तु की साम्य कीमतों में आनुपातिक वृद्धि होती है व ब्याज की साम्य दर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।
मिल्टन फ्रीडमैन का मत है कि मौद्रिक नीति अत्यन्त सीमित समय के लिए ब्याज की दर एवंरोजगार के स्तर को एक स्तर पर स्थिर रख सकती है । यदि अल्पकाल में मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि की जाए तो इससे मौद्रिक व वास्तविक ब्याज की दरों में कमी हो जाएगी, ऐसे में मुद्रा तटस्थ नहीं रह पाएगी ।
दीर्घकाल में मौद्रिक पूर्ति में वृद्धि कीमतों में वृद्धि करती है । यदि भावी एवं वास्तविक मुद्रा प्रसार की दरें बराबर हैं जो वास्तविक रोजगार व उत्पादन के स्तरों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । ऐसी दशा में दीर्धकाल में मुद्रा तटस्थ नहीं रहेगी ।
गुरले व शा ने अपने अध्ययन Money in a Theory of Finance में स्पष्ट किया कि उस दशा में जब समस्त मुद्रा आन्तरिक मुद्रा के रूप में हो (तात्पर्य यह कि यह वित्तीय संस्था के विरुद्ध दावों से बनी हो तब अर्थव्यवस्था में गतिशील वास्तविक चरों पर मुद्रा तटस्थ रहती है) ।
पर जब केन्द्रीय बैंक मुद्रा के भण्डारों की वृद्धि हेतु व्यावसायिक बॉण्डों का क्रय करें तो बॉण्डों की कुल मौद्रिक मात्रा वस्तुओं की कीमतों व नकद मजदूरी दरों के साथ-साथ आनुपातिक रूप से बढ़ेगी अर्थात् मौद्रिक विस्तार के बावजूद ब्याज की दर सहित अर्थव्यवस्था के चर अप्रभावित रहेंगे ।
दूसरी ओर जब आन्तरिक व बाह्य मुद्रा का संयोग उपस्थित हो तो मुद्रा-तटस्थ नहीं रहेगी ऐसी दशा में मौद्रिक अधिकारियों द्वारा व्यावसायिक बॉण्डों के क्रय से मुद्रा भण्डार में वृद्धि होती है तब कीमत, मजदूरी की नकद दरों व मौद्रिक बॉण्ड में आनुपातिक वृद्धि होती है ।
ऐसे में व्यय करने वाली इकाइयों के पास मुद्रा की सांपेक्षित रूप से अधिक मात्रा रहती है । वास्तविक बॉण्डों का भाग अधिक होता है । ऐसे में साम्य ब्याज की दर कम होती है व मुद्रा आर्थिक प्रणाली के चरों पर तटस्थता रहित प्रभाव डालती है ।
प्रो॰ गुरले व शा के विचारों का समर्थन प्रो॰ हैरी जानसन ने भी किया । परन्तु मैटजरलर मुद्रा की तटस्थता के विचार का खण्डन करते हैं । उन्होंने कहा कि पूर्ण रोजगार की दशा में आरम्भिक रूप से आय व ब्याज की दरें साम्य पर होती हैं ।
जब केन्द्रीय बैंक व्यावसायिक बॉण्डों का क्रय करता है तब मौद्रिक भण्डार बढता है । ऐसे में यदि ब्याज की दर गिर जाए तो पहले के सापेक्ष आय बढ़ जाएगी । इससे मुद्रा प्रसार बढेगा । वास्तविक शेष प्रभाव से साम्य तो पूर्ण रोजगार स्तर पर होगा ब्याज की दरें गिर जाएँगी । यह स्पष्ट करेगा कि मुद्रा तटस्थ नहीं है ।
विनिमय दर स्थायित्व एवं मौद्रिक नीति (Exchange Rate Stability and Monetary Policy):
विनिमय दर में होने वाला अस्थायित्व कई अवांछित प्रभावों को उत्पन्न करता है; जैसे- (i) विश्व बाजार में करेन्सी का मूल्य कम होना, (ii) सट्टे की क्रियाएँ, तथा (iii) पूंजी का विदेशों को बर्हिप्रवाह ।
मौद्रिक नीति के अधीन विनिमय दर स्थायित्व का उद्देश्य स्वर्णमान के अधीन एक देश के भुगतान सन्तुलन के समायोजन में सहायक होता है ।
एक संरक्षित मौद्रिक नीति एक देश के भुगतान सन्तुलन के असाम्य को निम्न प्रकार कम कर सकती है:
(1) यह देश में माँग में कमी करती है जिससे आयातों के साथ-साथ घरेलू वस्तुओं की माँग भी कम होती है ।
(2) घरेलू माँग में होने वाला ह्रास मुद्रा प्रसार की दर को कम करता है जिससे घाटा वहन कर रहे देश के निर्यात विदेश में सस्ते होते है ।
(3) ब्याज की दरें बढती है जिससे विदेशी, घाटेवाले देश में अधिक विनियोग के इच्छुक रहते है ।
इन नीति का दोष यह है कि-
(a) विनिमय स्थायित्व आन्तरिक कीमत स्थायित्व की शर्त पर प्राप्त होता है । घरेलू कीमत स्तर में होने वाले उच्चावचन अथवा मुद्रा की क्रय-शक्ति में होने वाले परिवर्तन एक देश में कई विकृतियाँ उत्पन्न करते हैं तब देश हेतु जरूरी हो जाता है कि वह आन्तरिक कीमत स्थायित्व बनाए रखे ।
(b) स्थिर विनिमय दरों के अधीन मुद्रा-प्रसार व मुद्रा-संकुचन की प्रवृत्ति एक देश से दूसरे देश को संक्रमित होती है ।
वस्तुस्थिति तो यह है कि अब न तो स्वर्णमान प्रणाली विद्यमान है तथा विश्व के देश अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के सदस्य बन इन समस्याओं का समाधान पा रहे हैं । ऐसे में मौद्रिक नीति का विनिमय स्थायित्व उद्देश्य प्रभावी नहीं बन पाता ।
मौद्रिक नीति एवं भुगतान सन्तुलन (Monetary Policy and Balance of Payments):
सामान्यतः मौद्रिक चर दृश्य व्यापार के सन्तुलन में अधिक परिवर्तन नहीं करते । आयात फलन तथा विदेश द्वारा की गई निर्यात माँग पर मौद्रिक परिवर्तनों का सीमित प्रभाव पड़ता है ।
चालू खाते की अदृश्य मद जो मौद्रिक परिवर्तनों से प्रभावित होती है वह ब्याज, लाभ एवं लाभांश हैं । यदि अल्पकालीन ब्याज की दरों में परिवर्तन होता है तब विदेश को किए जाने वाले भुगतान बढते हैं । लेकिन इसे विदेशी पूंजी के अन्तर्प्रवाह से समायोजित किया जा सकता है ।
वस्तुतः मौद्रिक दर जिसमें बैंक दर भी सम्मिलित है में होने वाली वृद्धि से देश की करेन्सी में स्थायित्व आता है जिससे अल्पकालीन कोषों का सट्टे की ओर अन्तर्प्रवाह होता है, दूसरी ओर यह सम्भावना भी होती है कि मुद्रा दर के बढने से देश की करेन्सी दबाव में आ जाती है और उस पर अवमूल्यन का संकट आ सकता है ।
इस स्थिति में विदेशी पूँजी का सट्टाजनित बर्हिप्रवाह हो सकता है । मुद्रा दरों में वृद्धि का दीर्घकालीन पूँजी प्रवाहों पर धनात्मक प्रभाव भी पड़ सकता है ।
कीमत स्थायित्व तेजी व मन्दी की दशाएँ एवं मौद्रिक नीति:
पूँजीवादी व्यवस्था में मौद्रिक प्रणाली का दोष यह है कि कीमतों में उच्चावचन व चक्रीय परिवर्तन होते रहते है । ऐसे में मौद्रिक नीति का उद्देश्य कीमत स्थायित्व बनाए रखना तथा केन्द्रीय बैंक द्वारा उचित साख नियमन कर व्यवसाय क्रियाओं के सामान्य स्तर को अनुरक्षित करना होता है । प्रो॰ गुस्ताव कैसल व प्रो॰ कीज ने इस पक्ष को महत्वपूर्ण माना ।
कीमत स्थायित्वकारी नीतियों के पक्ष में तर्क दिया जाता है कि:
(1) इससे उत्पादन एवं वितरण की क्रियाएं सहज होती है । यदि कीमत अस्थायित्व रहा तो मुद्रा-प्रसार व संकुचन की विकृतियाँ सामने आने लगेंगी ।
(2) एक देश में कीमतों में होने वाला तीव्र परिवर्तन देश के आन्तरिक स्थायित्व एवं बाह्य सन्तुलन के लिए खतरा होता है । इससे शेष विश्व के साथ सम्बन्ध कटु होने की सम्भावना होती है ।
(3) कीमत स्थायित्व की नीति चक्रीय उच्चावचनों को न्यून करती है व अवांछित साख विस्तार पर नियन्त्रण किया जा सकता है ।
(4) कीमत स्थायित्व होने पर आर्थिक स्थायित्व सम्भव बनते हैं व चक्रीय उच्चावचनों को कम किया जाना सम्भव बनता है । साथ ही अनियन्त्रित साख विस्तार या संकुचन पर रोक लगती है ।
(5) कीमत स्थायित्व होने पर राष्ट्रीय आय का समतापूर्ण वितरण सम्भव बनता है ।
(6) आन्तरिक कीमतों में स्थायित्व होने पर समुदाय के आर्थिक कल्याण में वृद्धि सम्भव बनती है ।
कीमत स्थायित्व की नीति के विरुद्ध तर्क:
(i) यह निर्धारित किया जाना कठिन है कि स्थायित्व हेतु किस कीमत को निर्धारित किया जाये ।
(ii) इस नीति में व्यवसायी वर्ग को कीमत प्रेरणाएँ नहीं मिल पातीं जिससे उत्पादन की क्रियाएँ जड होने लगती है ।
(iii) यह नीति सापेक्षिक कीमतों की महत्ता को स्वीकार नहीं करती और न ही बाजार अर्थव्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों को ध्यान में रखती हे ।
(iv) इस नीति के अधीन केन्द्रीय बैंक समूचे रूप से देश में साख के परिमाण को समर्थ रूप से नियन्त्रित नहीं कर सकता, क्योंकि वित्तीय क्रियाओं पर गैर-बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थों का प्रभाव रहता है ।
कीमत स्थायित्व के स्थान पर कुछ अर्थशास्त्रियों ने धीमे मुद्रा-प्रसार की नीति को उचित माना है जिससे- (a) अर्द्धबेकारी व मन्दी दूर होती है । कीमतों में धीमी वृद्धि से प्रेरित होकर उपक्रमी अपने व्यवसाय का विस्तार करते है जिससे रोजगार बढता है । बढती हुई कीमतों के साथ यदि अधिकारी सस्ती मुद्रा नीति को मन्दी निवारक उपाय के रूप में अपनाएँ तो मन्दी का जोखिम काफी कम किया जा सकता है । (b) कुछ अर्थशास्त्री जिनमें सेमुअलसन मुख्य हैं, तर्क देते हैं कि बढती कीमतें न केवल उत्पादन बढ़ाती है बल्कि इससे उपभोग भी बढता है । इसलिए धीमा मुद्रा-प्रसार उत्पादन, विनियोग व रोजगार की दृष्टि से बेहतर होता है ।
मुद्रा प्रसार एवं तेजी की दशा में मौद्रिक नीति की समर्थता (Effectiveness of Monetary Policy in Inflation and Boom):
मुद्रा-प्रसार की दशा में सामान्यतः कुल माँग बढ़ती है । मुद्रा-प्रसार को नियन्त्रित करने के लिए मौद्रिक नीति यह लक्ष्य रखती है कि मुद्रा की पूर्ति में कमी की जाए एवं ब्याज की दरों की संरचना को उच्च किया जाये । मुद्रा व साख सम्बन्धी उपायों के तालमेल से मुद्रा-प्रसार रहित पूर्ण रोजगार सन्तुलन के उददेश्य को प्राप्त किया जा सकता है ।
मुद्रा-प्रसार विरोधी मौद्रिक नीति के कियान्वयन में आने वाली कठिनाइयाँ निम्न हैं:
(i) उचित मौद्रिक नीति के चयन में अनिश्चितता बनी रहती है । मौद्रिक नीति की सफलता इस तथ्य पर निर्भर करती है कि चयन की गई नीति के परिणाम कितनी समय अवधि के अन्तराल में प्राप्त होंगे ।
मिल्टन फ्रीडमैन का मत है कि मौद्रिक तरीकों को या तो विलम्ब से या फिर काफी अधिक मात्रा में प्रयोग किया जाता है । दोनों ही स्थितियों में अनिश्चितता के रहते इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होता ।
(ii) अस्थायित्व का जोखिम विद्यमान रहता है । मुद्रा-प्रसार को नियन्त्रित करने वाले कठोर उपाय वित्त बाजार में अस्थिरता उत्पन्न कर देते है जिससे व्यवसाय पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । दूसरी ओर यदि मौद्रिक नीति सीमित रूप से प्रतिबन्ध लगाए तो मुद्रा-प्रसार पर रोक नहीं लग पाती ।
(iii) इसमें विभेदपूर्ण व्यवहार का संकट विद्यमान रहता है । मौद्रिक नीति के द्वारा लगाए गए प्रतिबन्ध अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों के साथ भेदभाव पूर्ण रहते हैं; जैसे-कुछ विशिष्ट व्यवसाय, गृह निर्माण, आवासीय योजनाएँ इत्यादि ।
(iv) वाणिज्यिक बैंकों के निवेश पोर्टफोलियो समायोजन में परेशानी उत्पन्न होती है । वाणिज्यिक बैंक प्रतिबन्धात्मक मौद्रिक नीति की दशा में अपने खाताधारकों के ऋणों की माँग को पूरा करने के लिए सरकारी प्रतिभूतियों का विक्रय करते हैं ।
बैंकों की निवेश अनुसूची में सरकारी प्रतिभूतियों के बदले ऋणों का प्रतिस्थापन होने पर मुद्रा पूर्ति में कोई परिवर्तन न होने पर भी किसी भी किसी सीमा तक निष्क्रिय जमाओं के सक्रिय जमाओं में परिवर्तन को सूचित करेगा ।
यदि बैंकों द्वारा प्रतिभूतियों को बेचा जाता है तो इसके परिणामस्वरूप प्रतिभूतियों की कीमतों की कीमतें कम होंगी व उन पर मिलने वाला व्याज बढने की प्रवृत्ति रखेगा । प्रश्न यह है कि ब्याज की दर में होने वाली वृद्धि अल्पकाल के लिए होगी या दीर्घकाल के लिए ।
यदि यह अल्पकाल से सम्बन्धित है तब बैंक नकदी की तुलना में प्रतिभूतियों को अपने पास रखना चाहेंगे । यदि ब्याज की दर में वृद्धि दीर्घकाल तक सम्भावित हो तो उन्हें इससे अधिक आय मिलेगी जिससे वह पूंजी हानियों को क्षतिपूरित कर पाएंगे ।
पुन: यदि ऋणों की मांग कम हो तो वाणिज्यिक बैंक सरकारी प्रतिभूतियाँ क्रय करेंगे लेकिन उस कीमत से कम पर जिस पर उनके द्वारा यह बेची गई थी । स्पष्ट है कि दोनों ही परिस्थितियों में उन्हें लाभ प्राप्त होगा । परन्तु वाणिज्यिक बैंकों द्वारा निवेश अनुसूची में किए समायोजनों से मुद्रा के चलन वेग में वृद्धि होगी और मुद्रा-प्रसार व तेजी की अवस्था को प्रतिबन्धित करने वाली मौद्रिक नीति का कोई प्रभाव नहीं पडेगा ।
(v) केन्द्रीय बैंक द्वारा मुद्रा पूर्ति व इसकी लागत पर लगाए जाने वाले प्रतिबन्ध मुद्रा की चलन गति में परिवर्तनों से क्षतिपूरित हो सकते हैं । मुद्रा-प्रसार की देश में व्यवसायी, वितरक को लाभ प्राप्त होने की अधिक सम्भावना होती है व फर्मों की बिक्री बढती है ।
इस स्थिति में वाणिज्यिक बैंकों की कोशिश होती है कि सीमित नकद कोष होते हुए भी वह अपनी गतिविधियाँ बढ़ाएं । तब मुद्रा या साख की चलन गति को बढाकर केन्द्रीय बैंक मौद्रिक पूर्ति को सीमित रखने या साख की लागत को बढ़ाने जैसा उपाय बेअसर हो जाता है ।
(vi) गैर बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थों जैसे कि बीमा कम्पनियाँ, बचत व ऋण संस्थाएँ, बचत बैंक जैसी संस्थाओं का विकास होने पर मौद्रिक निमन्त्रण शिथिल पड़ने लगते हैं । इसका कारण यह है कि इन संस्थाओं के द्वारा भी अपनी जमा राशियों पर ब्याज दर बड़ा दी जाती है ।
दूसरा इन संस्थाओं द्वारा विनियोग अनुसूचियों का समायोजन वाणिज्यिक बैंकों की भाँति किया जाता है । इस प्रकार वाणिज्यिक बैंकों से जमा राशियाँ गैर-बैंकिग संस्थाओं की ओर विवर्तित होती हैं । उपलब्ध कोषों का अधिक समर्थ प्रयोग करने से मौद्रिक नीति की प्रभावशीलता में कमी हो जाती है । इसके साथ ही ऋणों के प्रबन्ध में केन्द्रीय बैंक को प्रतिबन्धात्मक मौद्रिक नीति छोडनी पडती है ।
मन्दीकाल एवं मौद्रिक नीति (Period of Recession and Monetary Policy):
माँग प्रेरित मुद्रा-प्रसार के नियन्त्रण हेतु मौद्रिक प्रतिबन्धों का उपयोग सफल रहा था परन्तु 1930 की महामन्दी में मौद्रिक प्रणाली के विखण्डन से मौद्रिक प्रतिबन्ध प्रभावी नहीं रहे । 1950 के दशक में मौद्रिक नीति को प्रतिसार व धीमे मुद्रा-संकुचन से मुक्ति पाने हेतु उचित समझा गया । परन्तु यदि मुद्रा-संकुचन तीव्र है तब मौद्रिक नीति द्वारा समायोजन कठिन है ।
इस दशा में केन्द्रीय बैंक निम्न बट्टा दरों, खुले बाजार की क्रियाओं व वाणिज्यिक बैंकों के अधिक नकद अधिशेष द्वारा ऋणदाताओं के विभिन्न वर्गों को अपेक्षाकृत अधिक नकदी प्रदान कराने में समर्थ होता है । लेकिन यह देखा गया है कि साख की अधिक आपूर्ति व सरल शर्तों के बावजूद भी वास्तविक आय के कम होने व बेरोजगारी बढ़ने की दशा में उपभोक्ता एवं विनियोगी दोनों अपने क्रयों को टालने की कोशिश करते है ।
व्यवसाय की दशा में अनिश्चितता, गिरती वृद्धि दरों की दशा में किये जाने वाले विनियोग सीमित हो जाते हैं । इस प्रकार बचत व विनियोग में अन्तर बदता जाता है । अब यदि सस्ती मुद्रा नीति का सहारा लिया जाए व व्याव की दर को गिरने दिया जाये तो भी बचत व विनियोग का अन्तराल दूर नहीं हो पाता इससे मन्दी के दबाव बढ़ते रहते है । साख यदि सुलभ रूप से प्राप्त होते रहती है तो मुद्रा-संकुचन की दशा में कुछ सुधार होता
सस्ती मुद्रा नीति (Cheap Money Policy):
प्रो॰ कीज ने मौद्रिक नीति में वृद्धि एवं कम ब्याज दरों की नीति को विकसित देशों में व्याप्त मन्दी के निवारण हेतु बेहतर उपाय माना तथा इसे सस्ती मुद्रा नीति कहा गया । अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक सुधार में निम्न ब्याज दरों को महत्वपूर्ण समझा गया ।
इसके प्रति निम्न तर्क दिए गए:
(1) सस्ती मुद्रा नीति द्वारा बैंकिंग प्रणाली उत्पादकता की वृद्धि हेतु व्यवसायों को अधिक ऋण लेने के लिए प्रेरित कर सकती है जिससे अतिरिक्त उत्पादन क्षमता का अनुकूलतम प्रयोग किया जा सके ।
(2) सार्वजनिक उपयोगिता व विनिर्माण उद्योगों हेतु निम ब्याज दर उल्लेरक की भूमिका प्रस्तुत
(3) ब्याज की दरों में होने वाली कमी से परिसम्पत्तियों के पूंजी मूल्यों में वृद्धि होती है जिससे बॉण्डों, प्रतिभूति व अन्य वित्तीय उपकरणों की ओर विनियोग का प्रवाह होता है ।
(4) ब्याज की न्यून दरें उद्यमियों की बचत को विनियोग में रूपान्तरित करने की प्रेरणा देती है तथा बचतों के संचय पर रोक लगाती है ।
(5) ब्याज की न्यून दरों से सार्वजनिक ऋण पर व्याज को भुगतानों का दबाव कम होता है साथ ही यह सरकारी प्रतिभूतियों की कीमतों में वृद्धि करते हैं जिससे नए ऋणों के दिए जाने की सम्भावना बढ़ती है । सरकारी प्रतिभूतियों में विश्वास भावी वृद्धि दरों हेतु अनुकूल होता है ।
(6) ब्याज को कम करने की नीति मजदूरी में कमी के सापेक्ष अधिक प्रभावी है । कारण यह है कि मजदूरी की कमी जहों कुल माँग में ह्रास करती है वहीं कम ब्याज दर कुल माँग में वृद्धि करती है । मजदूरी की कटौती का श्रम संघ विरोध करते है व संगठित क्षेत्र की तुलना में असंगठित क्षेत्र के श्रमिक शोषण के चक्र में फेंसते है ।
(7) कम ब्याज दर नीति से उपभोग प्रवृत्ति उत्साहित होती है । गुरु-निर्माण, कार, स्कूटर, कम्प्यूटर, फ्रिज, वाशिंग मशीन जैसी टिकाऊ घरेलू वस्तुओं हेतु आसान शती व कम ब्याज दरों पर प्राप्त ऋण उपभोग में वृद्धि कर उत्पादकता की वृद्धि व आय सृजन में महत्वपूर्ण होती है ।
कम ब्याज दर नीति विकासशील देशों उपयुक्त नहीं मानी जाती । इन देशों हेतु ब्याज की उच्च दर या महँगी मुद्रा नीति को उचित माना जाता ।
इसके कारण निम्न है:
(1) ब्याज की उच्च दर बचतों को प्रोत्साहित करती है जिससे कम विकसित देशों में पूंजी निर्माण संभव होता है । ब्याज की उच्च दर ऋण पर प्राप्त नकदी से किए जाने वाले उपभोग को नियन्त्रित करती है ।
(2) ब्याज की उच्च दर से अनुत्पादक व सट्टाजनित क्रियाओं पर रोक लगती है ।
(3) ब्याज की उच्च दर से विकासशील देशों में विदेशी पूंजी के अप्रवाह सम्भव होते है जिससे भुगतान सन्तुलन समायोजन में मदद मिलती है ।
(4) ब्याज की उच्च दरें व्यय को कम करते हुए मुद्रा प्रसारिक दबावों को कम करती हैं ।
(5) विकासशील देशों में बैंकों एवं वित्त संस्थाओं का संकेन्द्रण बड़े शहरों में होता है । आवश्यकता इस बात की है कि ग्रामीण क्षेत्रों तक इन संस्थाओं का जाल बिछाया जाये । उच्च ब्याज दर की नीति से बैंक व अन्य संस्थाएं पिछडे व सुदूरवर्ती क्षेत्रों तक अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार कर वित्तीय स्थायित्व में सहायक होती हैं ।