नई आर्थिक नीति: उपलब्धियां और कमियां | Read this article in Hindi to learn about the achievements and shortcomings of new economic policy.
नई आर्थिक नीति की प्राप्तियां (Achievements of New Economic Policy):
1. राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि (Increase in National Product):
नई आर्थिक नीति के अस्तित्व में स्पाने से पहले, वास्तविक राष्ट्रीय आय का दर 47 प्रतिशत था । नई आर्थिक नीति लागू होने पर वृद्धि दर 0.6 प्रतिशत तक घट गया । वर्ष 1992-93 में वृद्धि दर 49 प्रतिशत तक बढ़ा तथा वर्ष 1993-94 में पुन: 42 प्रतिशत तक गिर गया । यद्यपि वर्ष 1994-95 में वृद्धि दर ने 6.7 प्रतिशत तक वृद्धि दर का अनुभव किया ।
2. आयात (Imports):
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नई आर्थिक नीति के सन्दर्भ में आयाता के वृद्धि दर ने विस्तृत परिवर्तनों का अनुभव किया । वर्ष 1991-92 में आयातों का वृद्धि दर 11 प्रतिशत तक गिरा, जबकि वर्ष 1990-91 में यह 22 प्रतिशत था । लेकिन अगले वर्ष 1992-93 में यह 32.4 प्रतिशत तक उछला तथा उसके पश्चात् वर्ष 1993-94 में 15 प्रतिशत तक गिर गया । यद्यपि 1994-95 के वित्तीय वर्ष में आयातों का वृद्धि दर 23 प्रतिशत था ।
3. राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit):
नई आर्थिक नीति का मुख्य लक्ष्य था आर्थिक घाटे का कुल घरेलू उत्पाद के तीन प्रतिशत तक लाना । वर्ष 1991-92 में राजकोषीय घाटा 5.9 प्रतिशत तक नीचे आया और वर्ष 1992-93 में 5.2 प्रतिशत तक चला गया । निःसन्देह नई आर्थिक नीति के आरम्भण से राजकोषीय घाटा कम हुआ है, परन्तु अभी भी सरकार अपने लक्ष्य से बहुत दूर है जैसे कि वर्ष 1993-94 में राजकोषीय घाटा 8.3 प्रतिशत तक बढ़ा जबकि लक्ष्य 4.7 प्रतिशत था ।
इसके अतिरिक्त वर्ष 1994-95 में यह 5.4 प्रतिशत तक पहुँच गया । वर्ष 1996-97 में यह 4.1 प्रतिशत, वर्ष 1999-2000 में प्रतिशत और 2001-02 में 5.7 प्रतिशत था ।
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4. विदेशी मुद्रा भण्डार (Foreign Currency Reserve):
नये आर्थिक सुधारों का विदेशी मौद्रिक भण्डारों के पक्ष में प्रभाव है जोकि 4,388 करोड़ रुपयों की सीमा तक गिर गये थे, परन्तु नई आर्थिक सुधारों के कारण विदेशी विनिमय भण्डार 66,006 करोड रुपयों तक बढ गये हैं ।
5. कृषि उत्पादन (Agricultural Production):
नये आर्थिक सुधारों का कृषि उत्पादन पर अच्छा प्रभाव पड़ा है । नये आर्थिक सुधारो के कार्यान्वयन से पहले, कृषि उत्पादन का वृद्धि दर तीन प्रतिशत था, परन्तु वर्ष 1991-92 में वृद्धि दर 1.9 प्रतिशत तक नीचे आ गया । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि ऊपर वर्णन किये गये लगातार दो वर्षों में उपरोक्त वृद्धि दर ने 4.5 प्रतिशत की नीचे की प्रवृत्ति का अनुभव किया । वर्ष 2000-01 में कृषि उत्पादन का वृद्धि दर 5.7 प्रतिशत तक बढ़ गया ।
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6. विदेशी निवेश (Foreign Investment):
नई आर्थिक नीति की उदार प्रवृति के कारण विदेशी पूजी निवेश में क्रमिक वृद्धि हुई है । वर्ष 1990 में 128 करोड़ रुपयों के सीधे विदेशी निवेश के प्रस्ताव सरकार द्वारा स्वीकृत किये गये । लगातार वर्ष 1991, 1992, 1993, 1994 के लिये क्रमशः 535 करोड़ रुपये, 3,888 करोड़ रुपये, 8,859 करोड़ रुपये और 8,954 करोड़ रुपयों के प्रस्तावों की स्वीकृति मिली ।
7. व्यापारिक वातावरण का निर्माण (Creation of Business Environment):
नये आर्थिक सुधारों के कार्यान्वयन से निवेश वातावरण में पर्याप्त सुधार हुआ 10 अप्रैल से अक्तूबर 1992 तक गैर-सरकारी पब्लिक लिमिटेड कम्पनियों द्वारा दी गई कार्पोरेट पूंजी अक्तूबर 1991 से 67 प्रतिशत अधिक थी । वर्ष 1991-92 के पहले दस महीनों में वित्तीय संस्थाओं द्वारा दिये गये ऋण, पिछले वर्ष इसी समय के दौरान दिये गये ऋणों से 49 प्रतिशत अधिक थे । कृषि को कुल संस्थागत साख वर्ष 2000-01 में पिछले वर्ष की तुलना में 24.1 प्रतिशत बढ़ गई ।
8. अन्तर्राष्ट्रीय विश्वास (International Confidence):
अन्तर्राष्ट्रीय विश्वास पुन: प्राप्त हो गया क्योंकि विदेशी निवेशक कई क्षेत्रों में निवेश के लिये सक्रिय रुचि दिखाने लगे हैं जिनमें महत्वपूर्ण संरचनात्मक क्षेत्र जैसे पावर तथा पैट्रोलियम भी सम्मिलित थे । नई विदेशी निवेश नीति के आरम्भण के कारण, सरकार ने अगस्त 1991 से दिसम्बर 1993 तक 3467 विदेशी सहायता वाले प्रस्तावों को स्वीकृति दी जिसमें 1565 विदेशी इक्यूटी की भागीदारी वाले प्रकरण भी शामिल थे ।
विदेशी निवेश प्रस्तावों में स्वीकृत भागों का कुल मूल्य 1229 बिलियन रुपये था जोकि वर्ष 1981-90 के दौरान स्वीकृत 12.7 मिलियन के विदेशी निवेश का दस गुणा से अधिक था । इसके अतिरिक्त लगभग 80 प्रतिशत स्वीकृतियां प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में थीं । विदेशी निवेश तथा विभागीय निवेश जोकि वर्ष 1991-92 में कठिनता से 150 मिलियन थे वर्ष 2000-01 में $ 5.09 बिलियन के लगभग बढ़ गये ।
अगस्त 1991 से दिसम्बर 1998 तक सरकार ने कुल 1,93,648 करोड़ रुपयों के सीधे विदेशी निवेश की स्वीकृति दी है तथा लगभग 19,000 निवेश आशय प्राप्त किये । वर्ष 1991 से 1998 के दौरान विदेशी सीधे निवेश का वास्तविक बहाव का अनुमान 42,173 करोड़ रुपये था जोकि कुल स्वीकृतियों का 21.7 प्रतिशत था ।
9. लाभों में वृद्धि (Increase in Profits):
वर्ष 2002-03 के दौरान सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के संचालित लाभ 13,793 करोड़ रुपये रिकार्ड किये गये जोकि पिछले वर्ष से 729 करोड़ रुपयों की (5.58 प्रतिशत) की वृद्धि दर्शाते हैं । लाभ-प्रदत्ता के कारण सेवा व्यय बढ़ाना, वृद्धि को संस्थापन खर्चों में रखना, स्टॉक की उत्पादकता में सुधार, निवेश पर अच्छी प्राप्ति तथा सुधरा हुआ नगदी प्रबन्धन थे ।
परन्तु कार्य न कर रही सम्पत्ति (Non-Performing Assets – NPA) के लिये 7,950 करोड़ रुपयों की व्यवस्था करने के पश्चात् सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंकों ने अपने निष्पादन को सुधारा है । उन्होंने 1999-2000 तक 5,114 करोड़ रुपयों तक लाभ कमाये, परन्तु 2000-2001 में यही राशि 43,17 करोड़ रुपयों तक कम हो गई ।
वर्ष 1990-91 के दौरान, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का कुल शुद्ध लाभ 2,292 करोड़ रुपयों से बढ़ कर वर्ष 1999-2000 तक 14,600 करोड़ रुपयों तक पहुंच गया । इसी प्रकार वर्ष 1999-2000 में लाभ कमा रहे उद्यमों की संख्या 134 रिकार्ड की गई जबकि वर्ष 1990-91 में इनकी संख्या 123 थी ।
नई आर्थिक नीति की त्रुटियां (Shortcomings of the New Economic Policy):
नये आर्थिक सुधार आलोचना से मुक्त नहीं हैं ।
इन सुधारों की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है:
1. मुद्रा स्फीति के नियन्त्रण में असमर्थ (Unable to Control Inflation):
नये आर्थिक सुधारों के विरुद्ध सबसे गम्भीर आलोचना यह है कि यह सुधार मुद्रा स्फीति को नियन्त्रित करने में पूर्णतया असफल रहे हैं । यद्यपि भारत सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को अगस्त 1991 तक अपने ज्ञापन में सकेत किया है कि यह थोक मूल्य सूचक को नियन्त्रित करेगी कि यह वर्ष 1991-92 में 9 प्रतिशत तक बड़े ।
फिर भी इस समय के दौरान मुद्रा स्फीति 13 प्रतिशत के स्तर तक पहुच गई । बाद में, अप्रैल 1993 में मुद्रा स्फीति का दर सफलतापूर्वक घट कर 6.5 प्रतिशत तक रह गया, परन्तु वर्ष 1994-95 में वही दर पुन: बढ कर 11.0 प्रतिशत तक पहुंच गया । अतः स्फीति सम्बन्धी आशाएँ पूरी नहीं हुई तथा यदि सरकारी व्ययों पर नियन्त्रण न किया गया तो अर्थव्यवस्था पर दबाव पड़ सकता है ।
परन्तु केवल वर्ष 1995-96 के दौरान सरकार के मुद्रा स्फीति के नियन्त्रण सम्बन्धी उपायों के परिणाम मिलने आरम्भ हुये तथा मार्च 1996 में मुद्रा स्फीति 4.49 प्रतिशत तक पहुँच गई । वर्ष 2002 में यह लगभग 1.38 प्रतिशत थी, निःसन्देह यह एक बड़ी प्राप्ति थी ।
2. राजकोषीय घाटों पर कोई नियन्त्रण नहीं (No Control over Fiscal Deficits):
बहुत से प्रयत्नों के बावजूद वास्तविक राजकोषीय घाटों को नियन्त्रित नहीं किया जा सका । 2 जुलाई वर्ष 1993 को वित्त मन्त्रालय द्वारा जारी एक परिचर्चा ”आर्थिक सुधार – दो वर्ष बाद तथा आने वाले समय के लिये कार्य” में राजकोषीय घाटे को वर्ष 1992-93 में 5-6 प्रतिशत से घटा कर वर्ष 1996-97 में तीन प्रतिशत तक लाने पर जोर दिया गया, जिसके लिये ऋण माफ करने पर पाबन्दी, वित्तीय सहायताओं पर कटौती और अन्य उपायों के साथ व्यय को नियन्त्रण करना आदि उपाय किये गये ।
कुल घरेलू उत्पाद की प्रतिशतता के रूप में, वास्तविक राजकोषीय घाटा वर्ष 1990-91 में 8.4 प्रतिशत से घट कर वर्ष 1991-92 में 5 प्रतिशत रह गया तथा फिर वर्ष 1992-93 में 5.25 प्रतिशत परन्तु वर्ष 1993-94 में 7.4 प्रतिशत तक बढ़ गया । वर्ष 1994-95 के दौरान राजकोषीय घाटा 6.5 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गया और वर्ष 1995-96 में यह 5.9 प्रतिशत तक घट गया ।
वर्ष 1995-96 में वास्तविक बजटीय घाटा 7,600 करोड़ रुपयों के स्तर तक पहुँच गया जबकि लक्षित राशि 5,000 करोड रुपये था वर्ष 2000-01 में राजकोषीय घाटा 5.5 प्रतिशत के स्तर तक पहुंच गया और वर्ष 2001-02 में प्रतिशत था । इस प्रकार, आर्थिक सुधार राजकोषीय घाटे की वृद्धि और बजटों में बजटीय घाटों को नियन्त्रित करने में असफल रहे तथा स्फीतिकारी प्रवृत्तियों को बल मिला ।
3. श्रमिकों की छंटनी (Retrenchment of Workers):
बेरोजगारी के सन्दर्भ में नीतियों का प्रभाव दर्शाता है कि श्रमिकों की बडे स्तर पर छटनी हुई है । केवल राष्ट्रीय वस्त्र निगम द्वारा 50,000 श्रमिकों की छंटनी की संभावना है । इसके अतिरिक्त स्वैच्छिक सेवा मुक्ति की योजनाएं बहुत से सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में आरम्भ की गई हैं ।
इस प्रकार सार्वजनिक क्षेत्र स्टॉफ के आधिक्य और अनावश्यकता के आधार पर और निजी क्षेत्र आधुनिकीकरण और तकनीकी उन्नति के बहाने से धीरे-धीरे स्टॉफ की छटनी कर रहा है अथवा स्टॉफ को स्वैच्छिक सेवा मुक्ति योजनाओं जैसे ‘गोल्डन हैण्ड शेक’ आदि द्वारा सेवा मुक्ति स्वीकार करने के लिये विवश कर रहा है ।
इस प्रकार संरचनात्मक समन्वयन से उत्पन्न होने वाली बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है जिस पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिये । प्रो. पी.एन. धर का कहना है कि ”उदारवाद का सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के उद्योगों पर दीर्घकालीन प्रभाव कर्मचारियों की छंटनी’अतिरिक्त श्रमिकों को पुन: रोजगार, सुधारो की सफलता के लिये कठिन समस्या पेश कर रहा है ।”
वास्तव में, आर्थिक पुनर्निर्माण के कुप्रभाव के कारण व्यर्थ हुये अथवा छंटनी किये गये कर्मचारियों को पुन: रोजगार दिलाने के सम्बन्ध में सरकार अभी कोई दृढ़ वैकल्पिक प्रस्ताव गठित करने में सफल नहीं है जैसा कि इसने राष्ट्रीय व्यापार संघ के नेताओं से वायदा किया था ।
तत्कालीन वित्त मन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कलकत्ता चैम्बर ऑफ कामर्स द्वारा आयोजित एक गोष्ठी में कहा था कि सुधारों को श्रमिक विरोधी न माना जाये ”यह छंटनी का कार्यक्रम नहीं है बल्कि यह लोगों की कियाशील ऊर्जा को जागत करके उन्हें एक नये युग में लाने का प्रयत्न है ।”
4. उचित तालमेल का अभाव (Lack of Proper Co-Ordination):
आर्थिक सुधारों की आलोचना उनमें आवश्यक तालमेल न होने के कारण भी की जाती है । सुधार कार्यक्रमों का कार्यान्वयन करते समय जो भी परिवर्तन वित्त मन्त्रालय द्वारा सुझाये जाते हैं उनको, रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के परामर्श से रोका भी जा सकता है । सुधार कार्यक्रमों के अनियमन एवं अनियन्त्रण की विभिन्न योजनाएं आसानी से स्वीकार नहीं की जा सकतीं अथवा अफसरशाही आसानी से सुधारो की प्रक्रिया में अवरोध नहीं खड़े कर सकती ।
इसलिये भारत सरकार को संशोधित नियमों और उपनियमों को व्यवस्थित करके सभी त्रुटियों को समाप्त करना होगा ताकि भारतीय एवं विदेशी निवेशकों को एक, सहायक वातावरण उपलब्ध करवाया जा सके । डॉ मनमोहन सिंह ने ‘फाइनेशियल एक्सप्रैस’ के एक साक्षात्कार में 20 जून, 1992 को अपना दृष्टिकोण पेश करते हुये कहा कि वास्तविक संगठनात्मक समस्या अफसरवाद अथवा नागरिक सेवाओं के साथ नहीं बल्कि राजनैतिक प्रणाली से है । ”यदि राजनैतिक प्रणाली में कोई समस्या है तो नागरिक सेवाएं उनके प्रभाव को कम करने का प्रयत्न करती है ।”
5. विश्व बैंक के सामने घुटने टेकना (Surrender before World Bank):
कई क्षेत्रों में इस आधार पर आलोचना की जा रही है की नई आर्थिक सुधार नीति ने विश्व बैंक-आई.एम.एफ के सामने घुटने टेक दिये है । भारतीय सरकार ने ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से बड़ी मात्रा में ऋण प्राप्त करने के लिये अपनी प्रभुसत्ता का आत्म-समर्पण कर दिया है ।
आयात शुल्कों को वापिस लेकर व्यापारिक नीतियों का उदारीकरण (जैसा कि आलोचकों द्वारा कहा जाता है) विकसित देशों से आयातों को सुविधाजनक बनाने के लिये किया जा रहा है विशेष रूप में यू. एस. ए. से जिसकी अर्थव्यवस्था मन्दे का अनुभव कर रही है । इस प्रकार की आलोचना पूर्ण रूप में आधार-रहित नहीं हो सकती और न ही राजनैतिक आधारों पर प्रेरित हो सकती है ।
इस प्रकार सरकार को अपनी प्रभुसत्ता बनाये रखने अथवा देश आर्थिक हितों की रक्षा के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये ताकि यह बाहरी दबाव के अधीन कोई ऐसी नीति न बनाये तथा आत्म-निर्भरता की प्राप्ति के लिये अपनी दीर्घकालीन युक्ति को कमजोर न होने दे ।
डॉ सिंह ने आगे कहा कि सुधार किसी भी प्रकार ”आत्म-निर्भरता की ओर कार्य के लिये निषेध” नहीं है । पूंजी एवं तकनीक की विश्वस्तरीय गतिशीलता ने नये अवसर उपलब्ध करवा कर विश्व बाजार को संकुचित कर दिया है ।
6. लघु कालीन (Short Period):
आर्थिक सुधारों के विरुद्ध एक और आलोचना यह है कि इन नीतियों के प्रभाव को जानना अभी सम्भव नहीं, क्योंकि चार वर्षों का समय अर्थव्यवस्था के नवीनीकरण के लिये बहुत थोड़ा है । प्रान्तीय सरकार एवं नागरिक सेवाओं के आर्थिक सुधारों में अड़चनें डालने सम्बन्धी प्रत्येक स्तर पर शिकायतें हैं ।
पी. बी. ब्रह्मानन्द के विचारों के साथ इस परिचर्चा को समाप्त करना आवश्यक है क्योंकि इसमें चेतावनी दी गयी है कि पुन: समन्वयन की प्रक्रिया को पूरा किये बिना, सुधारों को समय से पहले अपनाना भारतीय अर्थव्यवस्था को ”आर्थिक संकट के गम्भीर भंवर में धकेल” सकता है ।
इस प्रकार सरकार को पुन: समन्वयन की प्रक्रिया को पूरा कर के ही आर्थिक सुधारों के नीति उपाय प्रस्तुत करने चाहियें । उसने आगे कहा कि जब तक बचत अनुपात पर्याप्त मात्रा में नहीं बढता और वास्तविक निर्यात वृद्धि तेज नहीं होती, तो देश की अर्थव्यवस्था के लातीनी अमरीका (Latin American) मार्ग पर जाने कई सम्भावनाएँ रहती हैं जिसके कारण मुद्रा स्फीति की दर बहुत बढ जाती है तथा सामाजिक अन्याय का विस्तार होता है ।
सारांश (Conclusion):
निःसन्देह, सन्तोष के लिये कोई स्थान नहीं, वर्तमान .स्थिति निराशापूर्ण है । राजकोषीय असन्तुलन अभी बहुत अधिक है । बाहरी ऋण और ऋण सेवा का भार निरन्तर बढ़ रहा है । विशेष रूप में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से ऋण लेने के बाद स्थिति और भी चिन्ताजनक हो गई है । पुन: निर्माण कार्यक्रम की समाप्ति के पश्चात् औद्योगिक बेरोजगारी कई गुणा बढ़ सकती है तथा रुग्ण इकाइयों संख्या बहुत है ।
सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की कार्य कुशलता तथा उनके द्वारा साधन अर्जित करने की क्षमता बहुत है । यदि राजकोषीय अनुशासन नहीं बनाये रखा जाता तो स्फीतिकारी दबाव आसानी से पुन: खड़े हो सकता हैं । अतः समष्टि-आर्थिक कौशल को स्तर पर बनाये रखने के लिये पूरा ध्यान दिया जाना चाहिये ।
देश द्वारा सामना किये रहे वर्तमान आर्थिक संकट को ध्यान में रखते हुये, जनसाधारण को, राजनैतिक विचारकर्ताओं तथा अर्थशास्त्रियों को अपने मतभेद छोड़ कर अर्थव्यवस्था को दृढ़ सहयोग देना चाहिये । कार्य-संस्कृति का विकास समय की अत्याधिक आवश्यकता है ।
अन्य सभी विचारों पर तर्क-संगता की धारणा हावी होनी चाहिये । सभी औद्योगिक एवं संरचनात्मक परियोजनाओं को हर हालत में आत्म-निर्भरता के स्तर पहुंचना चाहिये । इस विषय पर कोई समझौता नहीं होना चाहिये । प्रतियोगिता शक्ति प्राप्त तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता करने के लिये ”जीवन योग्यता अथवा आत्म-निर्भरता धारणा का पुन: प्रतिष्ठापन” बहुत आवश्यक है ।
विश्व भर में आर्थिक सुधारों के वर्तमान युग के अधीन, यहां तक कि चीन तथा स्वतन्त्र राज्यों के कॉमन वैल्थ (CIS) राज्यों ने इनमें भाग लेना आरम्भ कर दिया है, स्थिति में भारत अपने पारम्परिक आदर्शों विचारो के साथ अलग नहीं रह सकता ।
अतः भविष्य में आर्थिक सुधारों के बहुत उपाय के लिये पूरा ध्यान दिया चाहिये ताकि इससे कोई प्रकोपन न हो अथवा देश की अर्थव्यवस्था पर कोई प्रतिकूल न पड़े जिससे इन सुधारों के पहले सभी प्रभाव निष्फल जायें और इनसे लाखों की आशाओं को धक्का लगे ।