आर्थिक योजना: आर्थिक योजना के प्रकार | Read this article in Hindi to learn about the top eight types of economic planning. The types are:- 1. प्रजातान्त्रिक और सर्वसत्तात्मक आयोजन (Democratic and Totalitarian Planning) 2. व्यापक और आंशिक आयोजन (Comprehensive and Partial Planning) 3. स्थायी और संकटकालीन आयोजन (Permanent and Emergency Planning)  and a Few Others.

Type # 1. प्रजातान्त्रिक और सर्वसत्तात्मक आयोजन (Democratic and Totalitarian Planning):

प्रजातान्त्रिक आयोजन का अर्थ है आर्थिक व्यवस्था की वह प्रणाली जिसमें राज्य में निहित प्राधिकार सामान्य जनसमूहों के समर्थन पर आधारित होता है । हेक (Hayek) और लिप्पमैन (Lippman) ने कहा है कि आयोजन प्रजातन्त्र के प्रतिकूल है ।

इसलिये, प्रजातान्त्रिक आयोजन में राज्य उत्पादन के सभी साधनों का नियन्त्रण नहीं करता और प्रत्यक्ष रूप में निजी अर्थव्यवस्था के आर्थिक कार्यों को नियमित नहीं करना ।

प्रजातान्त्रिक आयोजन में, प्रजातान्त्रिक सरकार के दर्शन को सैद्धान्तिक आधार के रूप में स्वीकार किया जाता है । इस प्रकार के आयोजन के अन्तर्गत निजी क्षेत्र के निर्णय मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों द्वारा निर्धारित प्रोत्साहनों आंशिक नियन्त्रणों एवं प्रोत्साहनों द्वारा प्रभावित किये जाते हैं ।

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लोगों का योजना के निर्माण और कार्यान्वयन के लिये प्रत्येक पग पर सहयोग लिया जाता है । अन्य शब्दों में- लोग स्वयं संसद अथवा विधान सभा द्वारा स्वतन्त्र माहौल में परस्पर विचार-विमर्श द्वारा आयोजन की आवश्यकता, आयोजन के उद्देश्य, आयोजन की तकनीकों और उत्पादन के लक्ष्यों आदि का निर्णय करते हैं ।

स्वतन्त्रता विरोधी आयोजन के विपरीत, यह शक्ति अथवा दबाव पर आधारित नहीं है । वास्तव में प्रजातान्त्रिक आयोजन सरकारी हस्ताक्षेप के साथ पूँजीवाद से मेल खाती है । क्योंकि, प्रजातान्त्रिक आयोजन लोगों द्वारा लोगों के लिये और लोगों का आयोजन है, राज्य लोगों के प्रतिनिधि के रूप में सामने आता है परन्तु एक पृथक पहचान के रूप में नहीं ।

राज्य सरकार लोगों का मत जानने के लिये विस्तृत प्रचार करती है और देश में लोगों का सहयोग और सक्रिय समर्थन प्राप्त करने का पूरा प्रयत्न करती है । यह सभी संघर्षों की उपेक्षा करके निर्धन जनसमूहों के कल्याण के लिये विभिन्न मतों को समस्वर बनाने का प्रयास करती है ।

इसलिये विभिन्न अभिकरण, स्वैच्छिक समूह और अन्य समुदाय घनिष्टतापूर्वक जुड़े होते हैं और इसके संचालन के लिये पथ प्रदर्शन की भूमिका निभाते हैं । इसके अतिरिक्त योजना पर संसद, राज्य विधान सभाओं और निजी मंचों पर पूर्ण रूप से विचार विर्मश होता है ।

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योजना आयोग द्वारा तैयार की गई योजना को पूर्ण रूप में स्वीकार नहीं किया जाता वरन् उसे अस्वीकार अथवा संशोधित किया जा सकता है । अत: आयोजन को ऊपर से लोगों पर थोपा नहीं जाता बल्कि यह नीचे से आयोजन है ।

एक प्रजातान्त्रिक आयोजन में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच योजना के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये एक स्वस्थ प्रतियोगिता होती है । कीमत तन्त्र को उसकी भूमिका निभाने की इजाजत दी जाती है ।

यह सदैव शान्तिपूर्ण विधियों जैसे प्रगतिशील कराधान, समाज कल्याण की गतिविधियों पर सरकारी व्यय और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं द्वारा आय और धन की असमानताओं को दूर करने का लक्ष्य रखता है । लोग सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्वतन्त्रता का आनन्द उठाते हैं ।

भारत को प्रजातान्त्रिक आयोजन में अद्वितीय अनुभव है । योजनाओं का निर्माण और कार्यान्वयन लोगों के सक्रिय सहयोग से होता है । हमारी योजनाओं का निर्माण योजना आयोग द्वारा किया जाता है और योजना का मसौदा तैयार करने से पहले योजना के प्रस्तावों का विस्तृत प्रचार किया जाता है ताकि लोगों के विचार जाने जा सकें ।

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इन दस्तावेजों पर संसद के दोनों सदनों में पूर्ण चर्चा और विचार विमर्श होता है । राजनेता तथा विभिन्न विचारधाराओं से सम्बन्धित अन्य नेताओं तथा अर्थशास्त्रियों से परामर्श किया जाता है । ड्राफ्ट योजना के तैयार हो जाने पर इसे अन्तिम स्वीकृति के लिये संसद के सम्मुख पेश किया जाता है । अत: इस प्रकार यह विधि प्रजातान्त्रिक है ।

सर्वसत्तात्मक (सत्तावादी) आयोजन (Totalitarian (Authoritarian) Planning):

जब आयोजन किसी तानाशाह के अधीन अपनाया जाता है तो इसे सर्वसत्तात्मक आयोजन कहा जाता है । इस आयोजन के अधीन राज्य पूर्ण रूप से आर्थिक गतिविधियों को नियन्त्रित करता है, उत्पादन के साधनों और आर्थिक निर्णयों का नियन्त्रण भी राज्य के पास रहता है ।

उत्पादक साधनों के आवंटन में राज्य के पास अन्तिम अधिकार रहता है तथा वह केन्द्रीय प्राधिकरण के निर्देशों के निर्णय लेता है । लाभ अथवा उत्पादन निजी पूंजीपतियों की जेब में जाने के स्थान पर देश के निर्धन लोगों की समस्याओं के समाधान हेतु राज्य के पास जाता है ।

सर्वसत्तात्मक आयोजन, समस्त राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का पूर्ण समाजीकरण दर्शाता है । ऐसे आयोजन के अन्तर्गत योजनाओं का निर्माण, नियन्त्रण, वित्तीय प्रबन्ध और कार्यान्वयन राज्य द्वारा किया जाता है तथा लोगों की इसमें कोई भूमिका नहीं होती । इस प्रकार के सर्वसत्तात्मक आयोजन का वर्णन मारिस डॉब (Maurice Dobb) के लेखों में पाया जाता है ।

डिकिनसन (Dickinson) के विचारनुसार केन्द्रीय आयोजन की समाजवादी प्रणाली को पूंजीवादी प्रणाली पर वरीयता प्राप्त है क्योंकि समाजवादी प्रणाली में उत्पादन के समग्र साधनों पर समस्त समाज का स्वामित्व होता है जिसका संचालन राज्य द्वारा सामान्य योजना अनुसार किया जाता है ।

समृद्ध लोगों द्वारा निर्धन लोगों के शोषण का पूर्णतया विलोपन हो जाता है । महत्वपूर्ण आर्थिक निर्णय लेते समय, केन्द्रीय प्राधिकरण सामाजिक लाभों को अधिकतम बनाने का यन्त्र करता है । इस प्रकार ऐसा आयोजन निश्चित रूप में प्रजातान्त्रिक आयोजन से बेहतर है ।

परन्तु वास्तव में, सत्तावादी आयोजन में सब कुछ ठीक नहीं है । इसकी सफलता के लिये केन्द्रीय सरकार देश में विपक्ष के विरोध को दबाने के लिये उत्साह पूर्ण निर्णय लेती है । इसे शीघ्र और कुशल निर्णय लेने के योग्य होना चाहिये और मार्ग दर्शी सिद्धान्तों को संकीर्ण व्यक्तिगत अथवा वर्गों के हितों को छोड़कर समुदाय के विस्तृत हितों को ध्यान में रखना चाहिये ।

Type # 2. व्यापक और आंशिक आयोजन (Comprehensive and Partial Planning):

व्यापक आयोजन (Comprehensive Planning) सामान्य आयोजन जो समग्र अर्थव्यवस्था के लिये स्वयं को मुख्य समस्याओं से सम्बन्धित करती है, व्यापक आयोजन के रूप में जानी जाती है । इस प्रकार के आयोजन में देश के सभी आर्थिक पहलू एक व्यवस्थित तथा संघटित रूप में सम्मिलित होते हैं ।

यह समग्र साधन आवंटन और अर्थव्यवस्था के समग्र निवेश प्रतिरूप को भी प्रच्छन्न करता है । अत: यह साधनों की उपलब्धता और उनके प्रयोग पर विचार करता है । अर्थव्यवस्था में सन्तुलित वृद्धि को सुनिश्चित करने के लिये आदाओं और प्रदाओं को विस्तार से प्रस्तुत किया जाता है ।

एफ. ज्वेग (F. Zweig) साधारण आयोजन को इस आधार पर प्राथमिकता देते हैं कि एक नियम के रूप में विस्तृत आयोजन का साज-सामान, अधिक अफसरशाहीपूर्ण, भारी और धीमा होता है और अधिक कठोरता और उत्पादन पर अधिक व्यय की ओर ले जाता है ।

समाजवादी देशों की योजनाएं सामान्य रूप में बनाई जाती हैं जबकि यूगोस्लाविया एक अपवाद है । तथापि भारत, रूस और चीन की योजनाओं का स्वरूप सामान्य होता है ।

आंशिक आयोजन (Partial Planning):

व्यापक आयोजन के विपरीत, इस प्रकार का आयोजन तब किया जाता है जब अर्थव्यवस्था के कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर ही विचार किया जाता है । उदाहरणार्थ राज्य औद्योगिक क्षेत्र का उत्पादन बढ़ाने की योजना बना सकता है और कुछ नहीं । इसलिये, उत्पादन आयोजन आंशिक आयोजन होगा ।

अन्य शब्दों में आंशिक नियोजन अर्थव्यवस्था के असन्तुलन को ठीक करने के लिये किया जाता है । लुइस के अनुसार- ”आंशिक आयोजन एक खण्डीय आयोजन है जहां मांग और पूर्ति शक्तियां सन्तुलन से बाहर होती हैं ।”

संक्षेप में, आंशिक आयोजन कोई आयोजन नहीं होता अधिक प्रभावी होने के लिये आयोजन का व्यापक एवं सु-समन्वित होना आवश्यक है । राबिन्स के शब्दो- “जब आंशिक आयोजन होता है तो स्थिति, आयोजन बिल्कुल न होने से भी बदत्तर होती है ।”

Type # 3. स्थायी और संकटकालीन आयोजन (Permanent and Emergency Planning):

स्थायी आयोजन का अर्थ है दीर्घकालिक आयोजन, इसके लक्ष्य अधिक विस्तृत और महत्वाकांक्षी होते हैं । इसलिये आयोजन इस भाव से स्थायी हैं कि इसे कुछ समय के बाद छोड़ नहीं दिया जाता । इसके उद्देश्य अल्पकाल में प्राप्त नहीं होते बल्कि उनका निर्धारण लम्बे समय के लिये किया होता है ।

संक्षेप में, स्थायी आयोजन सामाजिक-आर्थिक सिद्धान्तों पर आधारित होता है । यह अधिक दूरदर्शी होता है और इस का क्षेत्र बहुत विस्तृत होता है । सोवियत यूनियन, यूगोस्लाविया, पूर्वी जर्मनी, पोलैंड, चीन और भारत स्थायी आयोजन के कुछ उदाहरण हैं ।

यह देश नियोजित विकास की विधि का त्याग नहीं करेंगे क्योंकि इसकी लाभप्रदता को देखते हुये वह इसे दृढ़ता से प्रमुख नीति मानते हैं । संकटकालीन आयोजन स्थायी आयोजन से बहुत भिन्न हैं । इसका स्वरूप पूर्णतया आकस्मिक होता है अत: इसे परिस्थितियों की विवशता के कारण अपनाया जाता है ।

किसी संकट कालीन स्थिति में अथवा विपत्ति के समय, यहां तक कि विकास की नियोजित तकनीकों में विश्वास न रखने वाले देश भी इस प्रकार के आयोजन का अनुकरण करने के लिये विवश हो जाते हैं । इसका मुख्य उद्देश्य अर्थव्यवस्था में कुछ अस्थायी कुसमायोजनों अथवा असन्तुलनों को सुधारना होता है ।

इसे देश के भीतर अथवा बाहर या तो राजनैतिक अव्यवस्थाओं अथवा कुछ आर्थिक अव्यवस्थाओं से निपटने के लिये अपनाया जाता है । यह या तो निरोधक अथवा पुनर्स्थापक होती हैं । संकट समाप्त हो जाने पर संकटकालीन आयोजन का त्याग कर दिया जाता है ।

इसलिये इसका स्वरूप अस्थायी होता है । इस प्रकार के नियोजन को पूंजीवादी देशों द्वारा 1930 के दशक में मन्दी के भय से अपनाया गया था । स्थायी और संकटकालीन नियोजन में अन्तर पूर्णतया स्पष्ट नहीं है । अन्तर केवल मात्रा का है । तथापि यदि संकटकालीन आयोजन लम्बे समय के लिये रहता है तो यह स्थायी आयोजन में परिवर्तित हो जाता है ।

Type # 4. संदर्श और अल्पकालिक आयोजन (Perspective and Short Term Planning):

समय अवधि के आधार पर, आयोजन संदर्श अथवा लघुकालिक, यथा वार्षिक आयोजन हो सकता है इस का अर्थ है दीर्घकालिक योजना को लघु अवधि वाली योजनाओं में पृथक करना । उदाहरणार्थ, एक पंचवर्षीय योजना के व्यापक ढांचे के भीतर छोटे समय के लिये योजना बनाई जा सकती है ।

अत: कार्यान्वयन के लिये विभिन्न दीर्घकालिक योजना लक्ष्यों को वार्षिक अथवा अन्य लघुकालिक योजनाओं में विभाजित किया जाता है । इस प्रकार के आयोजन का गुण यह है कि आर्थिक विकास की योजना को इसे देश की परिवर्तनशील स्थितियों के अनुसार बदला जा सकता है । पुन: लघुकालिक आयोजन के अन्तर्गत निष्पादन का बेहत्तर अनुमान लगाया जा सकता है ।

संदर्श आयोजन का अर्थ है अर्थव्यवस्था का दीर्घकालिक आयोजन जिसमें दीर्घकालिक लक्ष्यों का 15 से 25 वर्षों की अवधि के लिये अग्रिम निर्धारण किया जाता है । यह अर्थव्यवस्था के मुख्य क्षेत्रों के लिये उदार उद्देश्य और रणनीतियां निर्धारित करता है ।

यह विस्तृत नहीं हो सकता परन्तु इस लघुकालिक योजनाओं में जैसे पंचवर्षीय योजनाओं में विभाजित किया जा सकता है । अन्य शब्दों में, एक संदर्श योजना, दीर्घकालिक उद्देश्यों के संदर्भ में एक लघुकालिक योजना का प्रक्षेपण होती है ।

इसलिये संदर्श योजना एक लम्बी अवधि की योजना द्वारा प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्यों और लक्ष्यों से सम्बन्धित होती है । पी. सी. महालनोबिस (P.C. Mahalanobis) का मानना था कि संदर्श योजना आवश्यक रूप में एक सतत प्रक्रिया है ।

उसके अनुसार इसके दो विस्तृत पहलू हैं:

(क) परियोजना से सम्बन्धित वर्तमान आयोजन में पंचवर्षीय योजना के ढांचे में वार्षिक योजनाएं सम्मिलित होती हैं । क्रमिक पंचवर्षीय योजनाओं को स्वयं संदर्श आयोजन के एक बड़े ढांचे में फिट होना होता है जिसका विस्तृत समय अवधि 20 से 30 वर्ष अथवा उससे भी अधिक होती है ।

(ख) एक संदर्श योजना, अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक वृद्धि के तकनीकी और वैज्ञानिक पहलूओं से सम्बन्धित होती है । अध्ययनों और शोधों को इन व्यावहारिक समस्याओं के समाधान की ओर निर्दिष्ट किया जाना चाहिये ।

इसका स्वरूप परिचालन शोध की भान्ति होता है । यह प्राकृतिक और समाज विज्ञान दोनों के सभी क्षेत्रों में इन्जीनियरों, शिल्पवैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों सांख्यिकीविदों और श्रमिकों के सक्रिय सहयोग को आमन्त्रित करेगी ।

संदर्श आयोजन के गुण (Merits of Perspective Planning):

निम्नलिखित कारणों से संदर्श आयोजन का पक्ष लिया जाता है:

1. औद्योगिकी-करण एक दीर्घकालिक कार्यक्रम है, इसलिये इसे संदर्श आयोजन की आवश्यकता है ।

2. औद्योगिक एवं कृषि क्षेत्रों में सन्तुलित विकास की प्राप्ति के लिये इसकी आवश्यकता है ।

3. क्योंकि माँग और पूर्ति को दीर्घकालिक अवधि में अनुकूल बनाना होता है इसलिये संदर्श आयोजन अति उपयुक्त है ।

4. संदर्श आयोजन की आवश्यकता उत्पादन बढ़ाने, शैक्षिक आधार के विकास, मानवीय पूँजी और तकनीकी निपुणताओं की संस्थाओं को विकसित करने के लिये होती है ।

5. यह निर्यातों के विस्तार के लिये आवश्यक है ।

6. सन्तुलित क्षेत्रीय विकास की प्राप्ति केवल संदर्श आयोजन द्वारा की जा सकती है ।

संदर्श आयोजन के अवगुण (Demerits of Perspective Planning):

(i) कठोर होने के कारण, अप्रत्याशित परिस्थितियों से उत्पन्न होने वाला समन्वयन सम्भव नहीं है ।

(ii) एक बार निश्चित लक्ष्य को परिवर्तित करना कठिन होता है, अन्यथा आयोजन में विश्वास समाप्त हो जाता है ।

(iii) वर्तमान जटिल वातावरण में लक्ष्यों का अधिक उचित अनुमान लगाना कठिन होता है ।

(iv) प्रशासनिक रूप में सम्भव नहीं । अन्य शब्दों में इससे प्रशासन और लोगों में भ्रम, कटुता और पराजयवाद फैलता हैं ।

Type # 5. लोचपूर्ण और कठोर आयोजन (Flexible and Rigid Planning):

आयोजन में लोच का अर्थ है लक्ष्यों, उत्पादन और साधनों में समन्वय तथा पुर्नसमन्वय । इस प्रकार का आयोजन गतिशील होता है । योजनाकाल के दौरान देश नई प्रवृत्तियों को देखता है और नया अनुभव प्राप्त करता है ।

अत: परिवर्तित वातावरण के प्रकाश में आयोजन में सुधार एवं संशोधन किया जा सकता है । यदि किसी योजना को आधुनिक बनाना होता है तो इसमें उच्च संशोधन किया जाता है ।

उदाहरण के रूप में- दूसरी पंचवर्षीय योजना पहली पंचवर्षीय योजना की तुलना में अधिक लोचपूर्ण थी तथा तीसरी योजना और भी लोचपूर्ण थी जिसमें लक्ष्यों और नीतियों को बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार पुन: सूत्रबद्ध किया गया था । मध्यकालिक और संदर्भ आयोजन में लोचपूर्णता आवश्यक होती है ।

कठोर आयोजन (Rigid Planning):

उन निश्चित लक्ष्यों से व्यवहार करता है जो देश की किसी भी प्रतिकूल स्थिति में परिवर्तनीय नहीं होते । कठोर आयोजन विकासशील देशों के लिये अधिक प्रासंगिक नहीं है । कठोर आयोजन आधुनिक विश्व में बहुत कम पाया जाता है । जहां, यह बाद रखना आवश्यक है कि लोच आयोजन का एक आवश्यक गुण है ।

परन्तु लोच के नाम पर योजना की मौलिक संरचना के संशोधन को आज्ञा नहीं होनी चाहिये । यदि बार-बार परिवर्तन होगे तो सामान्य लोगों का विश्वास उठ जायेगा तथा आयोजन मात्र एक बिडम्बना बन कर रह जायेगा ।

अत: इसमें किसी प्रकार की अनिवार्यता अथवा कठोरता का होना आवश्यक है । मायरडल (Myrdal) ने योजना के आधारभूत ढांचे की रक्षा के लिये संवैधानिक प्रबन्धों का सुझाव दिया है ।

Type # 6. व्यावर्ती आयोजना और निश्चित आयोजन (Rolling and Fixed Planning):

व्यावर्ती आयोजन (Rolling Planning):

मिर्डल ने अपनी पुस्तक ‘Indian Economic Planning in its Broader Setting’ में विकासशील देशों के लिये व्यावर्ती आयोजन के विचार का सुझाव दिया । एक व्यावर्ती योजना में, हर वर्ष तीन नई योजनाएं बनायी जाती हैं और वर्तमान योजना नई योजना में शामिल हो जाती है ।

यह बदलती हुई परिस्थितियों के प्रकाश में योजना के लक्ष्यों के संशोधन में योजनाकर्ताओं की सहायता करेगी । प्रथम, एक योजना चालू वर्ष के लिये होती है जिसमें वार्षिक बजट और विदेशी विनिमय बजट शामिल होता है ।

द्वितीय, एक योजना कुछ वर्षों के लिये होती है जैसे तीन, चार अथवा पांच वर्षों के लिये, इसे प्रत्येक वर्ष अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं के अनुसार बदला जाता है । इसमें वह लक्ष्य और तकनीकें सम्मिलित होती हैं जिनका योजना काल के दौरान कीमत सम्बन्धों और कीमत नीतियों के साथ अनुकरण करना होता है ।

तृतीय, प्रतिवर्ष 10, 15, 20 या, इससे भी अधिक वर्षों के लिये एक संदर्श योजना प्रस्तुत की जाती है । जिसमें व्यापक उद्देश्यों का वर्णन किया जाता है और आगामी विकास की रूपरेखा बनाई जाती है ।

एक वर्षीय योजना को उसी वर्ष की नई तीन, चार अथवा पंचवर्षीय योजना में शामिल किया जाता है और इन दोनों को संदर्श योजना के प्रकाश में तैयार किया जाता है । संक्षेप में, व्यावर्ती योजना में, पहले वर्ष की योजना अनुवर्ती योजनाओं को आधार उपलब्ध कराती है ।

अत: इसमें अधिक अतिरिक्त कुछ नहीं होता । आयोजन का मौलिक विचार केवल मध्यकालिक योजना को प्रत्येक क्रमिक वर्ष में नवीनीकरण का होता है परन्तु योजना के समय के साथ आगे बढ़ने से वर्षों की संख्या वैसी ही रहती है ।

व्यावर्ती आयोजन की धारणा भारत के लिये नई नहीं है । इसने ऐसी योजनाओं का अनुभव सन 1962 में चीन के आक्रमण के पश्चात किया और देश को परिष्कृत शस्त्रों, गोला बारूद और युद्ध के अन्य साज-समान के निर्माण में शानदार आत्म निर्भरता प्राप्त हुई ।

पुन: व्यावर्ती योजना ने भारतीय आयोजन में 1 अप्रैल 1978 को जनता सरकार के शासन काल में प्रवेश किया और 1 अप्रैल 1980 को श्री मती इंदिरा गान्धी के सत्ता प्राप्त कर लेने पर इसका त्याग कर दिया गया ।

जनता सरकार के शासन काल में व्यावर्ती आयोजन ने आयोजन प्रणाली महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक परिवर्तन किये । प्रत्येक वर्ष एक वर्षीय योजना आती रही और योजनाओं के विद्यमान ढांचे में कोई पंच वर्षीय योजना नहीं थी ।

व्यावर्ती योजना को कुछ समर्थन इसलिये प्राप्त है कि इस का निर्माण उन कठोरताओं से निपटने के लिये किया गया था जिनका सामना निश्चित पाँच वर्षों की अवधि में किया जाता था ।

व्यावर्ती योजना में योजना के लक्ष्य, प्रक्षेपण और आवंटन निश्चित समय के लिये निर्धारित नहीं किये जाते, उदाहरणतया, पाँच वर्षों में प्रत्येक वर्ष देश के वातावरण में परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुये संशोधन किये जा सकते हैं ।

इस प्रकार व्यावर्ती योजना अधिक लोचपूर्ण है । व्यावर्ती योजना निरन्तर समय की आवश्यकता अनुसार पुन: समन्वय उपलब्ध करके अवरोधों के अवसरों का विलोपन कर देती हैं । सरल शब्दों में इसके द्विपरतीय लाभ है । एक तो उच्च निरशापूर्ण कठोरता के स्थान पर लचीलापन और दूसरे बदलती परिस्थितियों के प्रति अधिक अनुक्रियाशीलता ।

व्यावर्ती आयोजन की कुछ त्रुटियां हैं जिनका वर्णन नीचे किया गया है:

(i) सभी योजनाओं और लक्ष्यों का निर्माण निश्चितता के अभाव में अस्थायी आधार पर किया जाता है । जिससे अनिश्चितता और अस्थिरता रहती है ।

(ii) क्योंकि लक्ष्यों का प्रत्येक वर्ष संशोधन किया जाता है उन्हें निश्चित अवधि के प्राप्त करना सम्भव नहीं होता । बार-बार के यह परिवर्तन उचित हिसाब-किताब रखने हैं जो सन्तुलित विकास का सार भाग है ।

(iii) लक्ष्यों का निरन्तर संशोधन स्वयं आयोजन को वैसे ही छोड़ देता है क्योंकि इससे योजनाकर्त्ताओं और लोगों के बीच अवचबद्धता और उदासीनता की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है ।

(iv) व्यावर्ती योजना की सफलता दृढ़ संचार प्रणाली पर निर्भर करती है जबकि विशेषतया अल्पविकसित देशों में यह प्रणाली सुव्यवस्थित नहीं होती ।

(v) व्यावर्ती योजना का आरम्भण यथार्थ में वैज्ञानिक आयोजन और पूर्व निर्धारित लक्ष्यों के अनशासन का अन्त होता है जो निष्पादन के लिये कुछ आग्रह को आवश्यकता बनाता है । वास्तव में, यह अनिश्चितता और अस्पष्टता को जन्म देता है क्योंकि योजनायें परस्पर मिश्रित तथा अस्थायीवाद पर निर्भर करती है ।

राज कृष्ण कहते है- “….वास्तव में विकास वस्तुओं और नियोजन के प्रणाली विज्ञान में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला था ।” व्यावर्ती योजनाओं में सफलता प्राप्त करने के लिये, उपलब्धियों का नवीनतम ज्ञान तथा इसके साथ कार्यान्वयन में आने वाली बाधाओं का ज्ञान अनिवार्य है । परन्तु दुर्भाग्यवश, अल्पविकसित देशों में ऐसी सूचना का अभाव रहता है ।

निश्चित आयोजन (Fixed Planning):

निश्चित आयोजन, जैसा कि नाम सुझाव देता है, एक निश्चित अवधि की योजना है मान लो चार, पाँच अथवा सात वर्षों की । यह निश्चित उद्देश्यों और लक्ष्यों का निर्धारण करती है जिन्हें विशेष योजना अवधि के दौरान प्राप्त करना होता है ।

इसके अतिरिक्त, भौतिक लक्ष्य योजना के कुल व्यय के साथ निश्चित किये जाते हैं । सोवियत यूनियन और भारत में निश्चित स्वरूप वाला नियोजन है । निश्चित आयोजन के कुछ लाभ हैं तथा इसे व्यावर्ती योजना से अच्छा समझा जाता है ।

निश्चित आयोजन के लाभ:

(क) निश्चित आयोजन में, उद्देश्य एवं लक्ष्य सुस्पष्ट के होते हैं तथा उन्हें निश्चित समय के भीतर पूरा करना होता है । फलत: निजी और सार्वजनिक क्षेत्र दोनों ही परस्पर सहयोग द्वारा उन्हें प्राप्त करने के हर सम्भव प्रयत्न करते हैं ।

(ख) क्योंकि योजना एक निश्चित समय के लिये होती है भौतिक एवं वित्तीय साधनों का परिहार करने के प्रयत्न किये जाते हैं ।

(ग) निश्चित योजना अपनी सफलता के लिये सम्पूर्ण राजनैतिक इच्छा को सुनिश्चित करती है क्योंकि राजनैतिक दल इस तथ्य को जानते हैं कि योजना की सफलता अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में बहु-मुखी अवसर लायेगी ।

(घ) यह अर्थव्यवस्था में विकास सहित स्थायित्व लाने के लिये लाभप्रद है ।

निश्चित आयोजन की कमियां (Drawbacks of Fixed Planning):

(क) निश्चित आयोजन में सभी प्रकार के ऋणों, भारी कराधान, घाटे की वित्त व्यवस्था तथा अत्यधिक विदेशी सहायता द्वारा वित्तीय लक्ष्यों की प्राप्त के लिये कड़े प्रयत्न किये जाते हैं । अर्थव्यवस्था पर उनके प्रतिकूल प्रभावों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता

(ख) निश्चित आयोजन अर्थव्यवस्था में अप्रत्याशित परिवर्तनों और अन्य उत्तार-चढ़ाव को ध्यान में नहीं रखता । बाढ़, तूफान, अकाल अथवा अन्य ऐसे संकटकाल के दौरान इस प्रकार का आयोजन सदा कठिनाई में होता है तथा वास्तविक समस्या से निपटने में असमर्थ होता है ।

(ग) निर्धनता, बेरोजगारी जैसी कुछ समस्याओं को निश्चित योजना के अन्तर्गत समाप्त नहीं किया जा सकता है जबकि व्यावर्ती योजना एक संदर्श अवधि में इन समस्याओं का बेहत्तर ढंग से समाधान करने में सहायक हो सकती है ।

(घ) निश्चित योजना बड़ी परियोजनाओं के लिये अधिक प्रासंगिक नहीं होती जिनकी उत्पादन प्रक्रिया अवधि 10 से 20 वर्ष तक लम्बी होती है । इस उद्देश्य के लिये व्यावर्ती योजना में समायोजन की आवश्यकता होती है ।

(ङ) यह क्षेत्र के असमान और असन्तुलित विकास का कारण बनती है क्योंकि राजनैतिक नेता ऐसे क्षेत्रों में कहीं अधिक रुचि रखते हैं । इसलिये इसे ग्रामीण और पिछड़े हुये क्षेत्रों में उद्योगों के विकेन्द्रीकरण के आधार पर एक सन्तुलित क्षेत्रीय विकास नीति की आवश्यकता होती है । इस समस्या का ठीक समाधान व्यावर्ती योजना है न कि निश्चित योजनायें ।

Type # 7. क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन (Regional, National and International Planning):

क्षेत्र के आधार पर आयोजन को क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन के रूप में विभाजित किया जा सकता है ।

क्षेत्रीय आयोजन (Regional Planning):

क्षेत्रीय आयोजन, राष्ट्रीय आयोजन का एक भाग है । एक विशाल देश में जहां विविध और विस्तृत साधन हैं, वहां विस्तृत अन्तर भी हैं अत: योजनाओं को सम्पादित करने उनके कार्यान्वयन और निरीक्षण के लिये क्षेत्रीय विकेन्द्रीकरण आवश्यक हो जाता है ।

किसी विशेष क्षेत्र में विकेन्द्रीकृत आयोजन को क्षेत्रीय आयोजन कहा जा सकता है । अन्य शब्दों, में यह एक विशेष देश के क्षेत्र पर प्रयुक्त विकेन्द्रीकृत नियन्त्रण से सम्बन्धित है ।

इस प्रकार का आयोजन एक राष्ट्रीय योजना के ढांचे के भीतर किया जाता है ताकि ऐसे क्षेत्र की विशेष आवश्यकताओं और इसकी जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके । क्षेत्रीय प्राधिकरण को इस क्षेत्र से सम्बन्धित कुछ शक्तियां प्रदान की जाती हैं जैसे योजनाओं का निर्माण, कार्यान्वयन और निरीक्षण प्रत्येक देश जिसका क्षेत्रफल विस्तृत है उसे उच्च स्तरीय क्षेत्रीय विकेन्द्रीकरण की आवश्यकता होती है । -ज्वेग

इसलिये क्षेत्रीय आयोजन का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक क्षेत्र की सम्भावनाओं को सुनिश्चित कराना तथा विस्तृत देश में आर्थिक एवं सामाजिक अन्तरों का ठीक प्रकार से अनुमान लगाना और उन्हें सफलतापूर्वक ठीक करना है ।

क्षेत्र अपनी योजनाओं का निर्माण और संचालन स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं करते, बल्कि वह समग्र राष्ट्र की परस्पर निर्भर इकाइयां हैं । यह एक प्रयोगशाला का कार्य करते हैं जहां से आयोजन की तकनीक और उसकी कार्यप्रणाली सम्बन्धी ज्ञान राष्ट्रीय आयोजन में प्रयोग करने के लिये प्राप्त किया जा सकता है ।

एक नियोजित अर्थव्यवस्था में विभिन्न क्षेत्रों में निर्मित विभिन्न योजनाओं का समन्वय आवश्यक है । इस सम्बन्ध में जे. आर. बैलरबाई कहते है कि- “एक क्षेत्रीय योजना का बड़ी योजना के अनुकूल होना आवश्यक है ।” अत: क्षेत्रीय योजनाओं का राष्ट्रीय योजना पर अध्यारोपण किया जाता है । वे एक ही योजना के विभिन्न अंग हैं ।

क्षेत्रीय आयोजन की कुछ शर्तें हैं जो नीचे दी गई हैं:

(i) किसी विस्तृत देश में जहां इसकी प्राकृतिक सम्पदा में विविधताएं होती हैं वहां अनोखेपन करने और अप्रयुक्त सम्भावनाओं को विकसित करने के लिये क्षेत्रीय आयोजन उपयुक्त प्रतीत होता है ।

(ii) देश के पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिये क्षेत्रीय विकेन्द्रीकरण की आवश्यकता होती है ।

(iii) कृषि के विकास के लिये क्षेत्रीय आयोजन की आवश्यकता है ।

(iv) क्षेत्रीय महत्व रखने वाले उद्योगों को क्षेत्रीय आयोजन द्वारा विकसित किया जाना चाहिये ।

आधुनिक युग में, क्षेत्रीय आयोजन, विश्व में, विशेषतया उन देशों में जिन का विस्तृत क्षेत्रफल है, अधिक महत्वपूर्ण रूप में सामने आता है । यू. एस. एस. आर. में क्षेत्रीय विकेन्द्रीयकरण का प्रयोग एक अच्छे ढंग से महत्वपूर्ण सीमा तक किया गया ।

यूगोस्लाविया में, क्षेत्रीय आयोजनाओं को विस्तृत रूप में अपनाया गया है । इटली में भी उत्तरी और दक्षिण क्षेत्रों के सन्तुलित विकास के लिये इसका अनुकरण किया गया । इसी प्रकार फ्रांस और स्कैन्डीनावियन देशों ने अपने पिछड़े क्षेत्रों के विकास पर बल दिया । यू. एस. ए. में TAV एक अति उत्तम उदाहरण है ।

भारत जैसे विशाल एवं विकासशील देशों में क्षेत्रीय आयोजन की आवश्यकता है जहां भिन्न-भिन्न लक्षण, भिन्नताएं असन्तुलन और असमानताएं हैं । इसलिये, छोटे और मध्यस्तरीय उद्योगों के विकास के लिये क्षेत्रीय आयोजन विशेष रूप में आवश्यक है क्योंकि उनका प्राकृतिक रूप में विस्तृत फैलाव है ।

राज्य पुर्नगठन अधिनियम, 1956 के अधीन भारत को पांच भागों में विभाजित किया गया है अर्थात उत्तरीय, केन्द्रीय, पूर्वी, दक्षिणी और पश्चिमी । इसलिये भारत सरकार नियोजित क्षेत्रीय विकास प्राप्त करने की योजना बना रही है ।

संक्षेप में, राष्ट्रीय आयोजन और क्षेत्रीय आयोजन के बीच कोई अन्तर्विरोध नहीं है । बल्कि वह एक दूसरे के पूरक हैं । क्षेत्रीय आयोजन, तीव्रगति से राष्ट्रीय विकास प्राप्त करने का एक उपकरण है ।

राष्ट्रीय आयोजन (National Planning):

जब आर्थिक आयोजन का प्रयोग सम्पूर्ण राष्ट्र के लिये किया जाता है तो यह राष्ट्रीय आयोजन के रूप में जाना जाता है । यह सदैव एक सांझे सिद्धान्त के अन्तर्गत एक संयुक्त शासन के अधीन और साझे उद्देश्य से राष्ट्रीय सीमा से मेल खाता है ।

इसलिये राष्ट्रीय आयोजन का अनुकरण अपने ही ध्येय के रूप में किया जाता है । यह आर्थिक एवं राजनीतिक सीमा को दृढ़ करता है । राष्ट्रीय आयोजन का मुख्य उद्देश्य देश के उत्पादक साधनों का अति विवेकपूर्ण उपयोग होता है ।

अन्य शब्दों में, राष्ट्रीय आयोजन विश्व अर्थव्यवस्था के हित्तों की उपेक्षा करता है । यह भी कहा जाता है कि स्वतन्त्र राष्ट्रीय आयोजन अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को कम करता है ।

यह कल्पना करने का दृढ़ कारण प्रतीत होता है कि राष्ट्रीय क्षेत्रों के बीच आर्थिक गतिविधियों के आयोजन के स्वतन्त्र प्रयास सचेत रूप में अथवा अन्यथा राष्ट्रीय आयोजन की एक दृढ़ सत्तावादी प्रवृत्ति है । -राबिन्स

एक ऐसा देश जो आकार में छोटा है, प्राय: राष्ट्रीय आयोजन अपनाने से कम लाभ प्राप्त करता है क्योंकि वहाँ श्रम के विभाजन का क्षेत्र सीमित होता है और बाजार की सीमा भी संकीर्ण होती है । परन्तु इस तथ्य से यह अन्तिम निर्णय नहीं किया जा सकता कि एक बड़ी अर्थव्यवस्था आयोजन के अधिक बड़े लाभ प्राप्त करेगी ।

राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के आकार की सीमा का होना आवश्यक है । जितना बड़ा आकार होगा, राष्ट्रीय आयोजन के निर्माण, निरीक्षण और कार्यान्वयन की उतनी अधिक कठिनाइयां होगीं । अत: क्षेत्रीय आयोजन, आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने में राष्ट्रीय योजना की सहायता करता है ।

अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन (International Planning):

एक दृष्टि से, अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन का अर्थ ऐसी परिस्थितियों से है जिनमें एक सामूहिक रूप में सभी देशों की सम्पत्ति होते हैं । एक अन्य ढंग से, यह विभिन्न राष्ट्रीय इकाइयों के कुल साधनों के सामूहीकरण का मामला है । इसलिये, इसका अर्थ है आयोजन के क्षेत्र का विस्तार की अर्थव्यवस्थाओं का एक इकाई में विलय ।

ऐसे आयोजन में संलिप्त देश अपने अधिकारों और शक्तियों का एक भाग किसी अन्तर्राष्ट्रीय प्राधिकरण को सौंपे देते हैं जो विशिष्ट क्षेत्रों का निश्चित सीमाओं में नियन्त्रण करता है ।

अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन की प्रणाली डाक संघ जैसे सिद्धान्तों पर आधारित हो सकती है । हम एक से अधिक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की कल्पना कर सकते हैं जो राष्ट्रों की अन्तर्राष्ट्रीय का नियन्त्रण करती है । अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण अनेक संस्थाओं द्वारा भी किया जा सकता है जो स्वतन्त्र रूप में कार्य करने हुये ओर विश्व की विभिन्न राजधानियों में स्थित हो तथा विभिन्न आधारों पर करें । –ज्वेग

अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण अनेक संस्थाओं द्वारा स्वतन्त्र रूप में कार्य करते हुये तथा विश्व की विभिन्न राजधानियों में स्थित हो कर किया जा सकता है । व्यापार और सीमा शुल्कों पर सामान्य समझौता (GATT) द कोलम्बो प्लान, मार्शल प्लान, यूरोपियन कॉमन मार्कीट (ECM) काउन्सल फॉर म्यूच्युल इकनामिक्स असिस्टैन्स (COMECON) आदि अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन के पांच उदाहरण हैं ।

अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन के मुख्य उद्देश्यों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है:

(i) युद्ध से दूर रहने और शान्ति बनाये रखने के लिये,

(ii) पिछड़े देशों की आर्थिक विकास में सहायता के लिये वास्तव में, अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन राष्ट्रीय एकता और सांझे कल्याण के लिये साधनों के उपयोग के हेतु साधनों के सामूहन की बात हो सकती है ।

अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन की सफलता के लिये निम्नलिखित शर्तें आवश्यक हैं:

(क) उद्देश्य सीमित, सुपरिभाषित और युक्तियुक्त होना चाहिये ।

(ख) पृथक आर्थिक इकाईयों की कार्य प्रणाली तथा उनके जीवन यापन में कोई हस्तक्षेप नहीं ।

(ग) इसे राजनैतिक संघर्ष से परहेज करने और अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति स्थापित करने तथा नियोजित राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं के बीच वस्तुओं पूंजी और व्यक्तियों का घनिष्ट आर्थिक विनिमय का लक्ष्य रखना चाहिये ।

(घ) अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के कार्य केवल राष्ट्रीय योजनाओं के समन्वय तक सीमित रहने चाहिये ।

(ङ) अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन मशीनरी को कार्यपालिका की शक्तियां प्रदान करना आवश्यक है ।

(च) राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धाओं का विलोपन कर के राष्ट्रों के बीच परस्पर सहयोग समझ और मित्रता होनी चाहिये ।

(छ) शाक्तिशाली एवं बड़े राष्ट्रों द्वारा छोटे राष्ट्रों के शोषण का कोई भय नहीं होना चाहिये ।

Type # 8. चक्रीय विरोधी और विकास आयोजन (Anti-Cyclic and Development Planning):

चक्रीय विरोधी आयोजन का अर्थ है आर्थिक चक्रों के विरुद्ध आयोजन । इसका मौलिक उद्देश्य देश में प्रचलित सामाजिक-आर्थिक ढांचे के साथ आर्थिक स्थिरता की प्राप्ति है । सामाजिक-आर्थिक संरचना परिवर्तन के लिये बहुत समय लेती है ।

परिणामस्वरूप, योजना के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये नीतियों और अपनाये गये उपाय मुख्यत: बाजार यन्त्र द्वारा संचालित होते हैं । इसलिये, इसे कभी-कभी सुधारक आयोजन कहा जाता है क्योंकि यह अर्थव्यवस्था में बढ़ती हुई कुछ विपरीत प्रवृत्तियों को सुधारने का प्रयत्न करता है ।

वास्तव में, यह स्थायित्व के साथ पूर्ण रोजगार को बनाये रखने का यत्न करता है । इस प्रयोजन से, गुणक और त्वरक के बीच अन्योन्य क्रिया के परिणाम स्वरूप होने वाले चक्रीय उतार-चढ़ावों का अनुमान लगाया जाता है तथा फिर उनके संशोधन के लिये उपाय किये जाते हैं ।

सन 1929-30 के दौरान चक्रीय विरोधी आयोजन अपनाया गया था । The Blum Experiment of France (1936-37), the new Deal Experiment of U.S.A. (1933) चक्रीय विरोधी आयोजन के कुछ उदाहरण हैं ।

विकास आयोजन रोजगार के नये अवसर खोजने तथा आय और उत्पादन का स्तर बढ़ाने का यत्न करता है । वाटरस्टेन (Watersten) के अनुसार- ”इसमें निवेश और अन्य विकास कार्यों के सम्भव मार्गों गे चयनों की विवेकपूर्ण प्रणाली का प्रयोग सम्मिलित होता है ।”

जहां, यह कुछ पहलुओं में चक्रीय विरोधी आयोजन से भी मिलता-जुलता है । क्योंकि चक्रीय विरोधी आयोजन साधनों के पूर्ण रोजगार तथा सामाजिक-आर्थिक उन्नति का प्रयोग की विकसित देशों में विद्यमान संस्थाओं द्वारा होता है जबकि, विकास आयोजन, अल्पविकसित एवं पिछड़े देशों में संरचनात्मक अवरोधों को तोड़ कर आय और रोजगार के उच्च स्तर प्राप्त करने के यन्त्र करता है ।

इस सम्बन्ध में लुइस ने ठीक कहा है, अच्छी नीतियां सहायता करती है परन्तु सफलता सुनिश्चित नहीं करती । इस सम्बन्ध में विकास आयोजन औषध की भान्ति है, अच्छे चिकित्सक को कुछ लाभप्रद दाव-पेचों का ज्ञान होता हैं, परन्तु, फिर भी अनेक रोगी जिनके जीवित रहने की आशा होती हैं मर जाते हैं तथा अनेक जीवित रहते हैं जिनके मरने की सम्भावना होती है । –लुइस

हिग्गनज ने विकास आयोजन को चार भागों में विभाजित किया है:

(क) त्रुटिपूर्ण मौद्रिक राजकोषीय और विदेशी व्यापार नीतियों और एकाधिकारी अभ्यासों के संशोधन के लिये दोष मुक्त करने वाले प्रयत्न किये जायें ।

(ख) परियोजना आयोजन जिसके अन्तर्गत सरकार कुछ परियोजनाओं पर ध्यान केन्द्रित करती है जिन्हें उच्च प्राथमिकता की आवश्यकता होती है ।

(ग) क्षेत्रीय आयोजन जिसका अर्थ आगत-निर्गत की एक किस्म अथवा रेखीय प्रोग्रामिंग पर आधारित भविष्यवाणी पर हो सकता है जो समग्र अर्थव्यवस्था के विकास के पूर्व-निर्धारित लक्ष्य दर देती है अथवा उन सापेक्ष दरों की सिफारिश कर सकती है जिन पर विभिन्न क्षेत्रों को बढ़ना चाहिये, सम्भवत: वृद्धि किस प्रकार प्राप्त होनी चाहिए इसके लिये अतिरिक्त सुझावों के साथ ।

(घ) लक्ष्य आयोजन सार्वजनिक निवेश परियोजनाओं तकनीकी सहायता, श्रम शक्ति प्रशिक्षण, नये नियम और संस्थाएं और अतिरिक्त मात्रात्मक उत्पादन लक्ष्यों से सम्बन्धित होता है ।

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