गरीबी उन्मूलन कैसे करें: रणनीतियां और कार्यक्रम | Read this article in Hindi to learn about the strategies and programmes adopted for eradicating poverty.

निर्धनता दूर करने के उपाय (Strategies for Eradicating Poverty):

निर्धनता की समस्या को दूर करने के लिए उन दशाओं को सुधारना आवश्यक है जिनके कारण निर्धनता उत्पन्न होती है ।

इसके मुख्य पक्ष निम्न हैं:

1. विश्व बैंक के विशेषज्ञों के अनुसार विकासशील देशों में आर्थिक विकास हेतु नियोजन का उद्देश्य विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनों की दशा सुधारने से सम्बन्धित होना चाहिए ।

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इस उददेश्य को प्राप्त करने के लिए निम्न कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया जाना आवश्यक है:

(i) एकीकृत ग्राम विकास कार्यक्रम ।

(ii) ग्रामीण क्षेत्रों में विद्युतीकरण के कार्यक्रम ।

(iii) सिंचाई सुविषाओं में विस्तार ।

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(iv) बेहतर साफ-सफाई व स्वच्छता कार्यक्रम ।

(v) प्राथमिक शिक्षा का प्रसार ।

(vi) ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि विकास, सड़क निर्माण, यातायात के साधनों व वेयर हाउसिंग सुविधाओं में वृद्धि ।

(vii) गाँवों में रोजगार के नये अवसरों का सृजन ।

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स्पष्ट है कि निर्धनों की भौतिक दशा में प्रत्यक्ष सुधार की रणनीति अपनाई जाये न कि औद्योगीकरण के द्वारा होने वाले धीमे प्रभावों की प्रतीक्षा की जाये जिसे Trickle Down Effect कहा जाता है ।

2. कृषि विकास एवं निर्धनता का निवारण:

कृषि विकास एवं निर्धनता के मध्य प्रत्यक्ष सह-सम्बन्ध दिखायी देता है । भारत में वह राज्य जहाँ कृषि उत्पादकता तेजी से बढ़ी है वहाँ ग्रामीण निर्धनता का स्तर अल्प देखा गया है । दूसरी ओर महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु जैसे औद्योगिक रूप से समृद्ध राज्यों में निर्धनता रेखा से नीचे निवास कर रही जनसंख्या का प्रतिशत काफी अल्प है । संक्षेप में निर्धनता को दूर करने का एकमात्र दृश्य हल कृषि उत्पादकता में किये जाने वाला सुधार है ।

भारत में साठवें दशक के उत्तरार्द्ध में हरित क्रान्ति की नयी कृषि रणनीति अपनायी गयी । जिसके फलस्वरूप खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि हुई । लेकिन हरित क्रान्ति की रणनीति पर यह आक्षेप लगा कि इसने देश में पूँजीवादी कृषि की वृद्धि को ही प्रोत्साहित किया है, आय की विषमताएँ बढ़ायी है, ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी में वृद्धि की है; क्योंकि श्रम के स्थान पर कृषि यन्त्रों का प्रयोग बढ़ा तथा वर्ग संघर्ष व सामाजिक तनाव को बढ़ावा मिला ।

संक्षेप में, कृषि विकास के अधीन हरित क्रान्ति की सफलता कुछ क्षेत्र विशेषों तक ही सीमित रहीं । इससे कुलक वर्ग को अधिक लाभ पहुँचा । निर्धनता व बेरोजगारी की मूल समस्या पर इसका अधिक प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि हरित क्रान्ति लघु व सीमान्त कृषकों तक पहुंच पाती व ऐसे भूमि क्षेत्रों को भी ध्यान में रखती जहाँ भूमि उपज न्यून है तब यह ग्रामीण जन निर्धनता व बेरोजगारी की दोहरी समस्या का निराकरण करने में सफल हो पाती ।

3. निर्धनता के निवारण के लिए सूक्ष्म स्तरीय क्रियात्मक कार्यक्रम:

निर्धनता के निवारण के लिए विकास की रणनीति को नीचे से नियोजन पर आधारित होना आवश्यक है । नियोजन वस्तुत: जनता की साझेदारी द्वारा ही सम्भव है जिसमें सामान्य व्यक्तियों द्वारा निर्णय लिए जाये तथा इनका क्रियान्वयन किया जाये । इस प्रकार सूक्ष्म स्तरीय नियोजन को स्वीकार करते हुए आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति को महत्ता प्रदान की जाये । अभाव, भुखमरी, कुपोषण से ग्रस्त व्यक्तियों की जीवन दशा को सुधारने के प्रयास किए जाएँ । निर्धनता की समस्या को वस्तुत: ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों से सम्बद्ध रह दूर किया जा सकता है जिसमें स्वैच्छिक संगठनों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।

4. आधारभूत आवश्यकताओं की विधि:

ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धन निवास करते हैं । अत: ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के सफल क्रियान्वयन द्वारा इनका जीवन-स्तर सुधर सकता है ।

Poverty Curtain पुस्तक के चर्चित अर्थशास्त्री महबूब उल हक ने Meeting the basic needs of People में लिखा है कि विकास के दीर्घकालीन स्वरूप को चार सिद्धान्तों पर आश्रित होना चाहिए:

पहला- विकास की आधारभूत समस्या को निर्धनता पर प्रहार के रूप में पुनर्व्याख्यायित किया जाना आवश्यक है ।

दूसरा- इसके में उपभोग नियोजन को रखा जाना चाहिए, उत्पादन नियोजन को बढ़ाना चाहिए ।

तीसरा- अधिक उत्पादन व बेहतर वितरण को साथ-साथ रखा जाना चाहिए । तथा चौथा- रोजगार को एक मुख्य उद्देश्य माना जाना चाहिए ।

कई विकासशील देशों द्वारा आधारभूत आवश्यकताओं पर विनियोग करते हुए प्राथमिक शिक्षा, आधारभूत स्वास्थ्य सुविधा, पेयजल, ग्रामीण सड़क, ग्रामीण आवास, ग्रामीण विद्युतीकरण के कार्यक्रम चलाए गए इससे ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्ता सुधार तो हुआ परन्तु यह निर्धनता के मूल कारण पर प्रहार करने की रणनीति नहीं बन पायी ।

5. सीमान्त प्रदेशों में प्रेरित प्रवास:

ब्राजील, मलेशिया व इण्डोनेशिया जैसे देशों ने गहन जनसंख्या प्रदेशों से भूमि पर जनसंख्या का दबाव कम करने के लिए सीमान्त क्षेत्रों में प्रवास को प्रेरित करने का व बसाव की विधि को अपनाया तथा सफलता पायी ऐसे कुछ प्रयास भारत में भी हुए पर वह सफल नहीं हो पाए ।

6. ग्रामीण एवं कुटीर उद्योग व हस्तशिल्प का विकास:

बी.एल. मेहता के अनुसार- निर्धनता के निवारण हेतु ग्रामीण एवं लघु कुटीर उद्योगों एवं ग्रामीण हस्तशिल्प का विकास किया जाना चाहिए । ग्रामीण औद्योगिकीकरण कार्यक्रम संचालित कर ही बेरोजगारी का समाधान खोजा जा सकता है । इसके लिए ग्राम स्तर पर लघु कुटीर उद्योगों को स्थापित करने के अधिक प्रयास करने होंगे तथा इन्हें संसाधन, वित्त व बाजार की समस्त सुविधाएँ प्रदान करनी होंगी ।

लघु उद्योगों में शोध व विकास को प्रोत्साहित करना आवश्यक है जिससे उत्पादित वस्तुएँ गुणवत्ता की दृष्टि से श्रेष्ठ रहें । दांडेकर एवं रथ ने अपनी पुस्तक में श्रम गहन घरेलू उद्योग स्थापित करते हुए निर्षनता का समाधान प्रस्तुत किया है । चीन एवं जापान ने भी लघु कुटीर उद्योगों का विकास कर निर्धनता दूर करने के सफल कार्यक्रम आयोजित किए है ।

चीन में गरीबी, भुखमरी व बेरोजगारी को दूर करने के लिए कम्यून प्रणाली व विकास की रणनीति के अधीन नीचे से नियोजन को प्राथमिकता दी गई इसके अधीन सर्वप्रथम कृषि एवं ग्रामीण आधार को समुन्नत किया गया ।

7. एकीकृत ग्रामीण विकास:

निर्धनता के निवारण की अधिक सुस्पष्ट एवं महत्वपूर्ण नीति एकीकृत ग्रामीण विकास है । इसके द्वारा उत्पादकता वृद्धि, ग्रामीण जनसंख्या के जीवन-स्तर में सुधार एवं स्वावलम्बन युक्त विकास किया जाना सम्भव है ।

वाटरस्टोन के अनुसार– एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के आधारभूत घटक निम्नांकित हैं:

(i) श्रम गहन कृषि विकास ।

(ii) रोजगार सृजन करने वाले लघु सार्वजनिक कार्य ।

(iii) लघु स्तरीय, श्रम गहन छोटे उद्योग जिनकी स्थापना कृषि फार्मों के निकट की जाती है ।

(iv) निर्णय लेने में ग्रामीण व्यक्तियों का सहयोग ।

(v) ग्रामीण विकास को सहायता देने के लिए स्थानीय कस्बों, शहरों का विकास ।

(vi) उचित संस्थागत प्रबन्ध ।

Rohovot Approach के अनुसार- एकीकृत ग्रामीण विकास हेतु निम्न पक्षों को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है:

(1) कृषि उत्पादकता में वृद्धि ग्रामीण विकास की एक पूर्व शर्त है जिसके लिए निम्न पक्ष ध्यान में रखे जाने होंगे:

(अ) फार्म इकाइयों का विविधीकरण ।

(ब) संगठन की आधारभूत इकाई- एक छोटी फार्म इकाई जो एक परिवार से सम्बन्धित हो ।

(स) सहायक प्रणाली का साथ-साथ विकास करना ।

(द) कृषकों के द्वारा व कृषकों के लिए संगठन बनाना ।

8. वृद्धि केन्द्र रणनीति:

एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रमों का एक दुर्बल एवं छूटा हुआ पक्ष यह है कि इसमें स्थान विशेष पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता अर्थात् क्षेत्रीय कार्यक्रम व परियोजनाओं का निर्माण करते हुए न तो ग्रामीण स्थल विशेष को ध्यान रखा जाता है और न ही शहरी औद्योगिक स्थानों में हो रही गतिविधि से इसे जोड़ा जाता है ।

अत: यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जो कार्यक्रम या परियोजनाएँ विकास हेतु तैयार की जा रही हैं वह किस स्थान विशेष पर क्रियान्वित की जाएंगी तथा वहाँ अन्तर्संरचनात्मक व सामाजिक सुविधाओं की दशा कैसी है । इस बात को मुख्य मानते हुए कई अर्थशास्तियों ने ग्रामीण वृद्धि केन्द्र के विकास को ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के संचालन व क्रियान्वयन की दृष्टि से ध्यान में रखा ।

जॉनसन के अनुसार- भारत में गाँवों के निकट शहरों के बाजार का विकास किया जाना चाहिए जिससे यह केन्द्र ग्रामीण उत्पादों के लिए बाजार बन सकें । आदाओं का समुचित वितरण इनके द्वारा सम्भव हो तथा यह स्थल उपभोक्ता वस्तुओं के प्रदर्शन का केन्द्र भी बने । आर.पी. मिश्र के अनुसार गाँवों एवं शहरों के बीच की दूरी को कम करने के लिए कस्बों का विकास करना आवश्यक है ।

वास्तव में ग्रामीण विकास परियोजनाएँ इस कारण सफल नहीं बन पायी, क्योंकि ग्रामीण विपणन सुविधा व भण्डार की सुविधाओं का अभाव विद्यमान है । ग्रामीण वृद्धि केन्द्र का विचार वस्तुत: यूनाइटेड नेशन्स रिचर्स इन्स्टीट्‌यूट फार सोशियल डेवलपमेंट के द्वारा 1960 के दशक में की रणनीति से प्रस्फुटित हुआ ।

वृद्धि से सम्बन्धित केन्द्रीय पक्ष Growth Foci को- i. ग्रोथ पोल, ii. वृद्धि केन्द्र, iii. वृद्धि बिन्दु, iv. सेवा केन्द्र एवं v. केन्दीय ग्राम में वर्गीकृत किया । 1970 के दशक में भारत सरकार ने फोर्ड फाउण्डेशन की वृद्धि केन्द्र रणनीति के अधीन 21 मुख्य क्षेत्रों का चुनाव भी किया परन्तु यह योजना क्रियान्वयन की दृष्टि से कमजोर रहीं ।

9. स्वावलम्बन पर आधारित विधि:

इस विधि में स्वावलम्बन पर आधारित विकास को महत्त्व दिया जाता है अर्थात् क्षेत्रीय विकास का लक्ष्य स्वावलम्बी समुदायों को सृजित करना है । इस विधि में सहयोग व स्वैच्छिक स्व-सहायता को सफलता की कुंजी माना जाता है । अर्थव्यवस्था के विविधीकरण के द्वारा बढ़ते उत्पादन एवं क्षेत्रीय व अन्तक्षेंत्रीय बाजारों के विस्तार जीवन की गुणवत्ता में सुधार, पारिस्थितिकी व पर्यावरण सन्तुलन तथा स्वावलम्बन के सिद्धान्त को इस विधि के मुख्य घटक के रूप में स्वीकार किया जाता है ।

भारत में निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम (Poverty Removal Programme in India):

भारत की पाँचवी पंचवर्षीय योजना में निर्धनता से मुक्ति को मुख्य उद्देश्य माना गया । पाँचवीं योजना (1974-79) में -निर्धनता का निवारण,  स्वावलम्बन की प्राप्ति, आय की विषमताओं में कमी,  निर्धनों के उपभोग स्तर में वृद्धि के मुख्य लक्ष्य नियत किए गए थे ।

छटवीं पंचवर्षीय योजना (1980-85) में भी निर्धनता के निवारण को महत्ता प्रदान की गयी । विकास कार्यक्रमों में न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रमों पर अधिक ध्यान दिया गया । इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की सामाजिक आर्थिक अन्तर्संरचना को सुदृढ़ करने, ग्रामीण निर्धनता का निवारण एवं क्षेत्रीय विषमताओं को कम करने के लिए विशिष्ट कार्यक्रम संचालित किये ।

छठी योजना के मुख्य लक्ष निम्नांकित थे:

i. निर्धनता व बेरोजगारी के प्रभाव को तेजी से कम करना ।

ii. सामाजिक व आर्थिक रूप से विपन्न जनसख्या के जीवन-स्तर में सुधार करना जिसके लिए न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम चलाना जो देश के सभी भागों में एक नियत अवघि के राष्ट्रीय रूप से स्वीकृत प्रभावों को पूर्ण करें ।

iii. निर्धनों के हित में सार्वजनिक नीतियों एवं सेवाओं को सुदृढ बनाना जिससे आय व सम्पत्ति की असमानताओं में कमी हो सके ।

iv. क्षेत्रीय विषमताओं में कमी करना ।

सातवीं योजना (1985-1990) में खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि, रोजगार अवसरों में वृद्धि, आधुनिकीकरण, स्वावलम्बन व सामाजिक न्याय के आधारभूत सिद्धान्त के आधार पर उत्पादकता में वृद्धि आने पर बल दिया गया जिससे निर्धनता पर प्रत्यक्ष प्रहार सम्भव हो ।

भारत में योजना आयोग द्वारा निर्धनता रेखा के निर्दिष्टीकरण हेतु पोषण की न्यूनतम आवश्यकताओं का आधार लिया गया है । इसके अधीन पोषण के आधार पर न्यूनतम सन्तुलित आहार को एक औसत व्यक्ति के लिए निर्दिष्ट किया जाता है तथा इसकी लागत ज्ञात की जाती है । इस प्रकार भोजन का कुल व्यय से अनुपात ज्ञात किया जाता है जिससे आवश्यक न्यूनतम व्यय की गणना की जा सके ।

दूसरा आधार है जिसमें मानव के शरीर को स्वस्थ रखने की ऊर्जा लागत तय की जाती है । वह व्यक्ति जो 12 BMR सीमा से कम खाद्यान्नों का प्रयोग करते है किसी न किसी प्रकार के अभाव से पीड़ित रहते है अर्थात् वह व्यक्ति जो 1486 कैलोरी से कम प्राप्त कर रहे हैं इस वर्ग में आएँगे ।

बर्धान ने The Pattern of Income Distribution में लिखा है कि भारत में 54 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या व शहरी जनसंख्या का 41 प्रतिशत भाग निर्धनता की रेखा से नीचे निवास करता है । योजना आयोग के अनुसार 1977-78 में 48 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या व 41 प्रतिशत शहरी जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे थी ।

सातवीं योजना में खाद्यान्न उत्पादन की बेहतर सम्भावनाओं को एवं रोजगार प्रेरित निर्धनता निवारण नीति कार्यक्रमों के संचालन के आधार पर यह अनुमान लगाया गया था कि निर्धनता का अनुपात 1984-85 के 37 प्रतिशत से गिरकर 1989-90 में 26 प्रतिशत हो जाएगा ।

आठवीं योजना (1992-1997) में बेरोजगारी, निरक्षरता, अस्वस्थता व कमजोर व गरीब वर्गों के रहन-सहन की स्थितियों में गिरावट की ओर ध्यान देते हुए न्याय संगत सामाजिक स्थिति के पुनरुस्थापन पर बल दिया गया । यह सुनिश्चित किया गया कि योजना के केन्द्र में, आम लोगों की आवश्यकताएँ व उनका जीवन-स्तर सुधार का लक्ष्य रहे ।

इसके लिए काम के अधिकार, ग्रामीण विकास की अनिवार्यता, विकेन्द्रीकरण व एकीकृत क्षेत्र आयोजना कृषि का विकास, शहरी गरीबी व बेरोजगारी का निवारण व सामाजिक विकास शिक्षा व स्वास्थ्य के स्तर में परिवर्तन, खाद्य व सामाजिक सुरक्षा का बेहतर स्थिति व जनसंख्या नियन्त्रण की रणनीति प्रस्तावित की गयी ।

आठवीं पंचवर्षीय योजना में नियोजित विकास हेतु ‘मानव विकास’ को मुख्य रूप से ध्यान में रखा गया । नवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) के उद्देश्यों में कृषि एवं ग्रामीण विकास को प्राथमिकता दी गयी जिससे यथेष्ट उत्पादक रोजगार का सृजन हो तथा निर्धनता का निराकरण हो ।

नवीं योजना में समता के साथ वृद्धि के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राज्य नीति के चार महत्वपूर्ण आयाम निर्धारित किए गए:

(अ) निवासियों के जीवन की गुणवत्ता,

(ब) उत्पादक रोजगार का सृजन,

(स) क्षेत्रीय सन्तुलन,

(द) स्वावलम्बन ।

नवीं पंचवर्षीय योजना में उन स्कीमों को प्राथमिकता प्रदान की गयी जिससे- 1. निर्धन व्यक्तियों, 2. महिलाओं, बच्चों व समाज के कमजोर वर्गों, 3. पिछड़े वर्गों का अधिक विकास हो । योजना हेतु निर्दिष्ट स्कीमों के श्रमगहन होने पर जोर दिया गया जिससे दीर्घकालीन धारणीय लाभ प्राप्त हो ।

इन योजनाओं से उत्पादक परिसम्पत्तियों का सृजन हो तथा यह सेवा प्रधान हो । इसके लिए क्रमिक रूप से होने वाले सुधार वैधानिक ढाँचे में परिवर्तन संस्थागत विकास सहभागिता विधि का विकास एवं स्वयं संचालन को प्राथमिकता दी गयी ।

दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) के तत्व निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों के द्वारा गरीबी को 19.3 प्रतिशत तक न्यून किए जाने का लक्ष्य रखा गया । योजना आयोग के अनुमान हैं कि गरीबी रेखा से नीचे निवास कर रहे व्यक्तियों का प्रतिशत 1990 के मध्य तक 35 प्रतिशत एवं वर्ष 2,000 में 26 प्रतिशत था ।

प्राथमिक शिक्षा में सार्वभौमिक वृद्धि तथा साक्षरता दर को वर्ष 2007 तक 6.5 प्रतिशत से बढ़ा कर 7.2 प्रतिशत किया जाना था । इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सकल राष्ट्रीय उत्पाद की वार्षिक वृद्धि 6 प्रतिशत से बढ़ा कर 8 प्रतिशत, की जानी है । जी.डी.पी. का 28.4 प्रतिशत निवेश करना एवं घरेलू बचतदर जी.डी.पी. की 26.8 प्रतिशत होनी है ।

1991-2001 में जनसंख्या वृद्धि दर 21.3 प्रतिशत रही जिसे 2001-2011 की अवधि में घटा कर 16.2 प्रतिशत पर लाना है । वर्ष 2007 तक साक्षरता दर बढ़ा कर 75 प्रतिशत की जानी है । इसके लिए प्राथमिक शिक्षा में सार्वभौमिक वृद्धि व साक्षरता दर को 2002 के 6.5 प्रतिशत से बढ़ा कर 7.2 प्रतिशत किया जाना है ।

दसवीं पंचवर्षीय योजना में 8 प्रतिशत वार्षिक विकास का लक्ष्य रखा गया । इसके साथ प्रस्तावित संचालन योग्य लक्ष्य निर्धनता उन्मूलन हेतु तय किए गए हैं । प्राथमिक शिक्षा व साथरता दर में वृद्धि करना, शिशु व मातृ मृत्यु दर को कम करना व रोजगार में वृद्धि इसके अन्य लक्ष्य हैं शिशु मृत्यु दर को 45 प्रतिशत तक लाये जाने व 2002-07 की अवधि ग पांच करोड़ रोजगार सृजन का लक्ष्य रखा गया है । दसवीं योजना में राज्य स्तरों पर लक्ष्यों का निर्धारण किया जाएगा और इसे इस प्रकार क्रियान्वित किया जाना है कि आर्थिक व सामाजिक विकास में राज्यों के बीच का अंतर समाप्त हो जाए ।

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