कीमतों में वृद्धि: प्रभाव और सुझाव | Read this article in Hindi to learn about:- 1. कीमतों में वृद्धि का परिचय (Introduction to Rise in Prices) 2. कीमतों में वृद्धि के प्रभाव (Effects of Rise in Prices) 3. सामान्य सुझाव (General Suggestions).

कीमतों में वृद्धि का परिचय (Introduction to Rise in Prices):

भारत में आर्थिक आयोजन का मुख्य उद्देश्य कीमत स्थिरता के वातावरण में आर्थिक वृद्धि का संवर्धन है । कीमत विविधताएँ सामान्य आर्थिक स्थितियों की ओर सकेत करती है । कीमतों में परिवर्तन लागत और साधन गणनाओं को अव्यवस्थित करते हैं ।

अर्थव्यवस्था में विभिन्न असन्तुलनों की रचना होती है तथा वृद्धि के दर में बाधाएं आती हैं । इसलिये कीमतों का स्थायित्व आर्थिक नियोजन का एक महत्वपूर्ण तत्व है ।

आर्थिक वृद्धि और आयोजन की प्रक्रिया में कीमतों के बढ़ने की अन्तर्निहित प्रवृत्ति है । यदि समाज में निवेश की दर बचतों की दर से आगे दौड़ती है तो अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी दबावों की रचना होती है । इससे लागतों एवं कीमतों में सामान्य वृद्धि होती है और वेतन वस्तुओं पर दबाव बना रहता है ।

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कीमतों के स्थायित्व का अर्थ निश्चित कीमतें नहीं है । उत्पादन और विकास को प्रोत्साहित करने के लिये कुछ लचक भी आवश्यक है । ऐसा अनुमानित किया जाता है कि कीमतों में 1 से 2 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि कीमत स्थायित्व के अनुकूल होगी । रेंगती हुई स्फीति को सरपट दौड़ाने वाली बनाकर दौड़-पथ बनने की आज्ञा नहीं देनी चाहिये । संक्षेप में, कीमतें, आय, बचत, वेतनों, लागतों और लाभों को प्रभावित करती है । अतः कीमतों में उतार-चढ़ाव विशेषतया भारत जैसे विकासशील देश में सदा आर्थिक विकास की भावना के विपरीत जाता है ।

कीमतों में वृद्धि के प्रभाव (Effects of Rise in Prices):

भारत में कीमतों की वृद्धि के विशेष प्रभावों का वर्णन नीचे किया गया है:

1. आर्थिक विकास पर प्रभाव (Effects on Economic Development):

कीमतों में तीव्र वृद्धि किसी देश के आर्थिक विकास के लिये प्रासंगिक नहीं हैं क्योंकि बचतों और निवेश पर इसके विपरीत प्रभाव पड़ते हैं ।

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2. वेतनों में वृद्धि (Wage Spiral):

जैसे ही कीमतें बढ़ती हैं श्रमिक अधिक वेतन की मांग करते हैं, फलतः कीमतें और भी बढ़ती हैं । ऐसी स्थिति के अन्तर्गत श्रमिकों की क्षति पूर्ति के लिये वेतन बढ़ाये जाते हैं इसलिये कीमतों की वृद्धि अर्थव्यवस्था को क्षति पहुंचाती है ।

3. लागतों में वृद्धि (Rise in Cost):

कीमतों में वृद्धि के कारण निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र दोनों की परियोजनाओं की लागतों में वृद्धि हो जाती है । फलतः प्रत्येक योजना का व्यय, आरम्भ में निश्चित की गई राशि से बढ़ जाता है परन्तु भौतिक लक्ष्य तब भी पूरी तरह से प्राप्त नहीं होते ।

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4. धन का असमान वितरण (Unequal Distribution of Wealth):

मुद्रा स्फीति के दौरान उत्पादक और व्यापारी लाभ प्राप्त करते हैं जिसके परिणामस्वरूप अमीर लोग और भी अमीर हो जाते हैं तथा निर्धन अधिक निर्धन हो जाते हैं । इससे कुछ एक समृद्ध लोगों के हाथों में धन का केन्द्रीकरण हो जाता है ।

5. भुगतानों का सन्तुलन विपरीत हो जाता है (Adverse Balance of Payment):

मुद्रा स्फीति से पीडित देश में निर्यात अधिक महंगे हो जाते हैं तथा अन्य देशों के निर्यातों से प्रतियोगिता नहीं कर पाते । इसलिये निर्यातों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, कुछ निर्यात वांछित सीमा तक नहीं बढ़ पाते, अतः भुगतानों का सन्तुलन अहितकर बना रहता है ।

6. सट्टेबाजी और जमाखोरी (Speculation and Hoarding):

कीमतों में वृद्धि सट्टेबाजी और जमाखोरी को प्रोत्साहित करती है । सम्पूर्ण समाज स्कन्ध नीति से दुखी होता है ।

7. विदेशी निवेश पर प्रभाव (Effect on Foreign Investment):

कीमत वृद्धि का किसी देश के विदेशी निवेश पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । विदेशी निवेशकर्त्ता ऐसे देशों में निवेश नहीं करते जहां कीमतों में वृद्धि के कारण मुद्रा की कीमत घिर रही हो । मुद्रा की कीमत गिरने से निवेशकों को हानि उठानी पड़ती है ।

कीमतों में वृद्धि को रोकने के लिये सामान्य सुझाव (General Suggestions to Check Rise in Prices):

कीमतों में वृद्धि को रोकने के लिये निम्न सुझाव दिये गये हैं:

1. मुद्रा पूर्ति पर रोक

2. कृषि उत्पादन में वृद्धि

3. घाटे की वित्त व्यवस्था में कमी

4. उचित कीमतों की दुकानें

5. उपभोक्ताओं के संगठन

6. जनसंख्या नियन्त्रण

7. जमाखोरी पर रोक

8. उपभोक्ता वस्तुओं के निर्यात पर प्रतिबन्ध

9. प्रशासनिक कीमतों पर नियन्त्रण ।

स्फीति-विरोधी नीति अथवा कीमतों को नियन्त्रित करने सम्बन्धी सरकारी नीति (Anti-Inflationary Policy or Government Policy to Curb Prices):

जैसा कि हमने देखा है कि अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी प्रवृत्ति के लिये अनेक कारक उत्तरदायी हैं । इसलिये सरकार के लिये आवश्यक हो जाता है कि आवश्यक सुधारक उपाय उपलब्ध करे । भारत जैसे अल्प विकसित देश में मुद्रा स्फीति अथवा कीमतों की वृद्धि की समस्या पूर्णतया विकसित देशों जैसी नहीं है । इसलिये, विकसित देशों द्वारा अपनाये गये विभिन्न उपाय भारत द्वारा बिल्कुल नहीं अपनाये जाने चाहियें ।

तथापि, स्फीतिकारी प्रवृत्ति को नियन्त्रित करने के सम्बन्ध में सरकार द्वारा उठाये गये कुछ महत्त्वपूर्ण कदम निम्नलिखित अनुसार हैं:

1. मौद्रिक उपाय (Monetary Measures):

विकासशील देशों में मौद्रिक नीति का आधारभूत कार्य एक ओर तो बढ़ते हुये क्षेत्रों की साख आवश्यकताएं पूर्ण करना है तथा दूसरी ओर अनुत्पादक प्रयोग के लिये मुद्रा पूर्ति को नियन्त्रित करना है । इनसे आशा की जाती है कि नियन्त्रित विकास का मार्ग अपनायें । रिजर्व बैंक ने साख नियन्त्रण के मात्रात्मक एवं गुणवतात्मक दोनों प्रकार के उपाय प्रयुक्त किये हैं ।

परन्तु देश में इस समय विद्यमान परिस्थितियों में, ”मौद्रिक नीति,” जैसा कि रिजर्व बैंक के गवर्नर का कहना है, ”अनेक संस्थागत एवं अन्य सीमाओं पर आधारित है ।”

स्फीति-विरोधी उपाय के रूप में वर्ष 1974 में रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दर 7 से 9 प्रतिशत तक परिवर्तित किया था तथा वर्ष 1981 में 9 से 10 प्रतिशत किया गया तथा वर्ष 1981 में 10 से 11 प्रतिशत किया गया । वर्ष 1981 में आर. बी. आई. ने ‘रिजर्व बैंक’ (CRR) प्रतिशत से बढ़ा कर 8 प्रतिशत कर दिया । यह दर भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा आवश्यकतानुसार घटायी या बढ़ायी जाती है ।

2. राजकोषीय नीति (Fiscal Policy):

मुद्रा स्फीति को रोकने के लिये राजकोषीय नीति का प्रभावी प्रयोग किया जा सकता है । यह मौद्रिक नीति की आवश्यक सहायक है ।

वर्तमान स्थिति में राजकोषीय नीति के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं:

(क) आर्थिक विकास के लिये साधनों को गतिशील बनाना ताकि प्रत्येक प्रकार के घाटा व्यय को समाप्त किया जा सके ।

(ख) अनावश्यक उपयोग अनुत्पादक उत्पादन को नियन्त्रित करना ।

(ग) अधिक उत्पादन के लिये निर्मित प्रोत्साहन प्राप्त करना ।

(घ) वितरणात्मक न्याय प्राप्त करना ।

3. जमाखोरों, तस्करों और काला धन्धा करने वालों के विरुद्ध कार्यवाही (Action Against Hoarders, Smugglers and Block Marketers):

आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी नियन्त्रित वस्तुओं का काला धन्धा तथा तस्करी प्रायः कीमतों में वृद्धि का कारण बनते हैं । सरकार ने इन समाज विरोधी गतिविधियों के विरुद्ध विभिन्न पग उठाये हैं जो कम-से-कम कुछ समय के लिये तो बहुत प्रभावी प्रमाणित हुये । कीमत वृद्धि की प्रक्रिया रूक गई । किसी वस्तु का अभाव इसकी जमाखोरी को प्रेरित करता है ।

इस सामाजिक बुराई की समाप्ति के लिये वस्तुओं में सुधार आवश्यक है । लघु काल में आवश्यक वस्तुओं की माँग से निपटने के लिये उनका आयात किया जाना चाहिये तथा दीर्घकालिक समाधान के रूप में एक ओर तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सुधार किया जाना चाहिये तथा दूसरी ओर आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाना चाहिये ।

4. वितरण नीति (Distribution Policy):

सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दृढ़ करने का बहुत प्रयत्न किया है । सार्वजनिक वितरण प्रणाली दो काम करती है । यह कीमतों को नीचे रखने में सहायता करती है तथा निम्न आय वर्ग के लोगों को तुलनात्मक रूप में कम कीमतों पर आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध करती है ।

आवश्यक वस्तुओं के वितरण के लिये सरकार द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली का एक बहुत बड़ा नैटवर्क विकसित किया गया है तथा 500 मिलियन से अधिक जनसंख्या को प्रच्छन्न करने के लिये 4 लाख ‘उचित दाम’ की दुकानें पहले ही स्थापित हो चुकी हैं ।

5. उत्पादन नीति (Production Policy):

कोई भी योजना यदि अव्यवस्था के कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र दोनों क्षेत्रों में उत्पादन और उत्पादकता की वृद्धि का लक्ष्य नहीं रखता तो यह व्यर्थ है । कृषि क्षेत्र में उत्पादन बढाने के संस्थागत सुधारो के लिये तकनीकी सुधार आवश्यक है । कृषि क्षेत्र में उत्पादन की वृद्धि के लिये सहकारी कृषि को प्रोत्साहित किया जा रहा है ।

धरती में स्थायी सुधार के लिये किसानों को नाम मात्र ब्याज पर ऋण दिये जा रहे है । सुधरे हुये बीजों के वितरण की ओर ध्यान दिया जा रहा है, सिंचाई परियोजना के कार्यान्वयन को तीव्र किया जा रहा है । लघु काल में उत्पादन बढ़ाने तथा दीर्घकाल में अतिरिक्त क्षमता स्थापित करने के लिये कीटनाशकों, उर्वरकों तथा ट्रैक्टरों का प्रयोग किया जा रहा है ।

दूसरी ओर औद्योगिक उत्पादन बढ़ गया है । कुटीर एवं लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है । बड़े उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में लाने का यत्न किया जा रहा है । सरकार विभिन्न उद्योगों को वित्तीय सहायता दे रही है जो अपने उत्पादों का निर्यात कर सकते हैं ।

6. जनसंख्या नीति (Population Policy):

जनसंख्या वृद्धि की उच्च दर भी कीमतों की वृद्धि का कारण बनती है । जनसंख्या नियन्त्रण के लिये जन क्षमता में गिरावट की आवश्यकता होती है, अतः जनन क्षमता कम करने के अनेक उपाय किये जाने चाहियें । केवल जनसंख्या नियन्त्रण द्वारा ही दीर्घ काल में माँग स्थितियों को रोका जा सकता है जोकि कीमत स्थायित्व के लिये आवश्यक है ।

7. कीमत नीति (Price Policy):

कीमत नीति भी बढ़ती हुई कीमतों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । कीमत नीति को चाहिये कि कीमत स्थायित्व बनाये रखे । मांग को कुल पूर्ति के बराबर बनाया जाये । सभी आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिये इसे आवश्यक प्रोत्साहन उपलब्ध किये जाने चाहिये । इसे कृषि वस्तुओं की कीमतों, निर्मित वस्तुओं की कीमतों और विभिन्न सेवाओं की कीमतों के बीच कोई सतत् सम्बन्ध बनाये रखना चाहिये ।

8. आय नीति (Income Policy):

वर्तमान आय नीति, घरेलू कीमत स्थायित्व और कीमतों के स्थायित्व को कायम रखने के लिये सहायक नहीं है । विभिन्न कीमतों के बीच और कीमत ढांचे और आय ढांचे के बीच उचित सम्बन्ध का होना आवश्यक है । किसी भी कारक की आय में वृद्धि उत्पादकता में वृद्धि के अनुकूल होनी चाहिये । यह भी आवश्यक है कि मुद्रा पूर्ति में वृद्धि समाज की उचित आवश्यकताओं से अधिक नहीं होनी चाहिये जैसे उत्पादन में वृद्धि से सम्बन्धित व्यवहारों (Transactions) की मात्रा में वृद्धि और वर्तमान व्यवहारों के मुद्रीकरण में वृद्धि ।

रवाद्य मुदारकीति पर नियन्त्रण करने के उपाय (Measures to Curb Food Inflation):

पिछले कुछ सालो के दौरान, यह पाया गया है कि खाद्य सामग्री की कीमते तेजी से बढ़ती जा रही है । भारत की सरकार निरन्तर कीमत स्थिति की निगरानी करती है क्योंकि कीमत स्थिरता इसके एजेंडा पर शीर्ष पर रहता है इसलिए निर्यातों पर चयनित प्रतिबंध लगाकर और खाद्य सामग्री में भविष्य में व्यापार, चयनित खाद्य वस्तुओं पर शून्य इन्पुट शुल्क लगाकर, दालों और चीनी को सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा आयात की आज्ञा देकर, आयतित दालों के वितरण और PDS द्वारा खाने वाले तेल और Non-Levy चीनी के उच्चतम कोटे को जारी करके अनिवार्य वस्तुओं की कीमतों के कदम उठाती है ।

सरकार खाद्य वस्तुओं की चोरी करने वालों के विरुद्ध कार्यवाही करता है । इस प्रकार खाद्य मुद्रास्फीति को नियन्त्रित करने के उपाय निम्न में दिए गये ।

(क) मौदिक उपाय (Monetary Measures):

मौद्रिक नीति समीक्षा के अनुसार, RBI अर्थव्यवस्था की क्षमता के साथ स्थायी स्तरों की मांग को सामान्य करने के उचित कदम उठाती है । ताकि कीमतों में वृद्धि हुए बगैर विकास को किया जाये । यह पहले से ही कई बार इसके मुख्य नीति दरों को बढ़ाती है और दरों को घटाने के लिए Liquidity Adjustment काफी संकीर्ण है ।

अर्थव्यवस्था मार्च 2010 से तंग होने की गवाह रही है । 25 जनवरी 2011 को RBI की घोषणा के अनुसार, रेपो रेट और रिवर्स 6.5 प्रतिशत और 5.5 प्रतिशत क्रमवार है ।

(ख) राजस्व उपाय (Fiscal Measures):

आयात शुल्क WTO के प्रावधानों के अनुसार कम हुआ है । व्यापार की शुरुआत विशेष तौर पर खाद्य वस्तुओं की कीमत नियन्त्रण में सहायक है ।

(ग) प्रबंधकीय उपाय (Administrative Measures):

निगमित आयात, निर्यात नीति, खाद्य पदार्थों के बफर स्टॉक को बनाए रखना, बढ़ते उत्पादन की कोशिशें विपणन प्रणाली को बढ़ावा देना आदि, सरकार द्वारा कुछ प्रबंधकीय उपाय हैं ।