भारत में कृषि मूल्य निर्धारण नीति | Read this article in Hindi to learn about the agricultural pricing policy adopted in India.

सरकार द्वारा महत्वपूर्ण कृषि कीमतों की वसूली एवं समर्थन, कीमतें कृषि लागत एवं कीमत आयोग की संस्तुतियों के आधार पर निर्धारित की जाती है ।

कीमत आयोग सामान्यतः निम्नांकित तथ्यों के आधार पर संस्तुति करता है:

(i) उत्पादन की मात्रा,

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(ii) बाजार कीमतों में परिवर्तन,

(iii) निविष्टि उत्पादन में समानता,

(iv) अन्तर-फसल कीमतों में समानता,

(v) औद्योगिक लागत ढाँचे पर प्रभाव,

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(vi) सामान्य कीमत स्तर,

(vii) अन्तर्राष्ट्रीय बाजार की दशा ।

कृषि फसलों की वसूली एवं न्यूनतम समर्थन मूल्यों को निर्धारित करने में मुख्य कारक उत्पादन लागत है । उत्पादन लागत के अनुमान हेतु सी॰ एच॰ हनुमन्तराव की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन 1990 में किया गया था जिससे कृषकों के हितों की रक्षा करने तथा फसल के बाजार में आने से पूर्व ही समर्थन मूल्यों का समायोजन करने की नीति प्रस्तावित की ।

समिति द्वारा मुख्यतः निम्न पक्षों पर विचार किया गया:

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(i) मजदूरी का मूल्यांकन वास्तविक मजदूरी के सापेक्ष सांविधिक न्यूनतम मजदूरी या वास्तविक मजदूरी दर के आधार पर किया जाना ।

(ii) वसूली समर्थन कीमतों की घोषणा एवं बाजार में फसल आने से पहले ही के बीच के मध्य निविष्टि लागतों में वृद्धि के लिए बुआई मौसम से पहले घोषित वसूली व न्यूनतम समर्थन कीमतों को समायोजित करना ।

(iii) कृषकों द्वारा किए गए प्रबन्धकीय एवं उद्यमवृत्ति कार्यों को निविष्टि के रूप में शामिल करना तथा इन्हें लागत की एक मद के रूप में मानना ।

15 मार्च 1990 को सरकार को प्रस्तुत की गयी अन्तरिम रिपोर्ट में विशेषज्ञ समिति ने निम्न संस्तुतियाँ कीं:

(i) बुआई मौसम से पूर्व घोषित वसूली/न्यूनतम समर्थन कीमतों में कटाई सत्र की अवधि में हो सकने वाली उत्पादन लागत की सम्भावित वृद्धि के लिए व्यवस्था की जानी चाहिए ।

कृषि लागत एवं कीमत आयोग को फसल के बाजार में आने से पहले निविष्टि लागतों की अनुमानित वृद्धि प्रत्याशित वृद्धि से अधिक होती है तो वसूली व न्यूनतम समर्थन कीमतों को समायोजित करना चाहिए ।

(ii) निविष्टि कीमतों के बारे में पूर्ण विवरण प्रकाशित करना चाहिए ।

(iii) किसानों की प्रबन्ध निविष्ट का आकलन करने के उद्देश्य से भुगतान की गयी राशि को 10 प्रतिशत बढ़ाया जाना चाहिए व इस घटक को जोड़ कर एक अलग लागत (C3) की गणना करनी चाहिए ।

कृषि नीति तैयार करने एवं उसके क्रियान्वयन हेतु सरकार को सलाह देने के लिए श्री शरद जोशी की अध्यक्षता में कृषि मंत्रालय में गठित एक स्थायी सलाहकार समिति ने मजदूरी मूल्यांकन के बारे में यह निर्णय लिया कि-

(a) मजदूरी मूल्यांकन का आधार सांविधिक मजदूरी दर अथवा वास्तविक बाजार दर, इनमें से जो भी अधिक हो, होनी चाहिए ।

(b) कृषि लागत व मूल्य आयोग को देश के अलग-अलग भागों में न्यूनतम मजदूरी लागू करने के लिए प्रत्येक वर्ष मजदूरी में वृद्धि का मूल्यांकन करना चाहिए ।

सरकार द्वारा खाद्यान्न के लिए धान, मोटे अनाज, दाल, गेहूँ, तिलहन, रुई, जूट, गन्ने के न्यूनतम समर्थन कीमतों की घोषणा की जाती है । खाद्यान्न, चीनी, खाद्य तेल व दालों में बाजार हस्तक्षेप अभियान चलाया जा रहा है ।

खाद्यान्न अभियान का मुख्य उद्देश्य किसानों से खरीदारी कर सार्वजनिक वितरण प्रणाली को खाद्यान्नों को नियमित आपूर्ति करें ।

खाद्यान्न कीमतों में होने वाली उच्चावचनों को नियन्त्रित किया जाए । खाद्यान्नों की वसूली सरकार द्वारा निर्धारित कीमतों पर भारतीय खाद्य निगम द्वारा एवं राज्य एजेन्सियों द्वारा की जाती है । ऐसे में क्रय खाद्य आपूर्ति के पर्याप्त भण्डार बनाए रखने में सरकार को सहायता प्रदान करते है ।

प्राप्त किया गया खाद्यान्न सरकार द्वारा निर्धारित कीमतों पर उचित दर की दुकानों के माध्यम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली व कल्याण योजनाओं के अधीन वितरित किया जाता है । इनकी कीमतों को आर्थिक लागत से कम रखा गया है जिससे समाज के निर्धन वर्ग इनको आसानी से प्राप्त कर सकें ।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अधीन वर्तमान समय में 36 लाख से अधिक फुटकर उचित दर की दुकानें है जो सरकार द्वारा नियत दर पर चावल, गेहूँ चीनी, खाद्य तेल, मिट्‌टी के तेल जैसी आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति करती है । यह कीमतें सामान्यत: बाजार कीमतों से कम होती है ।

उपभोक्ताओं के लिए राशन की मात्रा के मानकों के सम्बन्ध में राज्य सरकारी द्वारा निर्णय किया जाता है । स्वीकृत जनजाति विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत गेहूँ और चावल उन जनजाति क्षेत्रों में रहने वाले निवासियों को विशेष अर्थ सहायता प्राप्त कीमतों पर प्रदान किये जाते है ।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली की कुछ सीमाएँ एवं कमियों है इनमें से कुछ कारण विशेष क्षेत्रों तक पहुँचने में कठिनाई, वस्तुओं की समय पर पूर्ति न होना वितरण में अत्यधिक आर्थिक सहायता प्रदान करने से सम्बन्धित है ।

औद्योगिक उत्पादों के सम्बन्ध में प्रशासित कीमतें (Administered Prices Related with Industrial Products):

प्रशासित मदों के अर्न्तगत सात वस्तु समूह यथा पेट्रोलियम, क्रूड व प्राकृतिक गैस, खनिज तेल (पेट्रोलियम उत्पाद), कोयला खनन, विद्युत, उर्वरक, लोहा व इस्पात तथा अलौह धातुएँ प्रशासित मदों के अधीन आती है । कोयला और कोक की खदान कीमतें केन्द्रीय सरकार द्वारा निर्धारित की जाती है । लोहे और इस्पात की कीमतों पर सांविधिक या अन्य प्रकार का कोई नियन्त्रण नहीं है ।

ये संयुक्त संयन्त्र समिति द्वारा निर्धारित समय पर घोषित की जाती है । इस समिति द्वारा घोषित की जाने वाली कीमतें देश में एकीकृत इस्पात संयन्त्रों द्वारा उत्पादित लोहे एवं इस्पात की प्रमुख वस्तुओं पर लागू होती हैं ।

दोबारा रोलिंग करने वाले रोलर, छोटे इस्पात सयय व मिश्र धातु उत्पादक इत्यादि अपने उत्पादों के सम्बन्ध में कीमतें स्वयं ही निर्धारित करते हैं । संयुक्त संयन्त्र समिति लोहे और इस्पात की वस्तुओं की कीमतों में संशोधन मुख्यतः कोयला, विद्युत, रेलभाड़ा इत्यादि व उत्पाद शुल्क जैसी लेवियों की निविष्टियों की लागत में वृद्धि को पूरा करने के लिए करती है ।

अलौह धातुएँ (एल्युमिनियम को छोड़कर) ताँबा, जिंक, सिक्का व निकल का अधिकांशतः आयात किया जाता है । इनकी कीमतें, अन्तर्राष्ट्रीय कीमतों और विनिमय दरों में परिवर्तन को समाहित करने के लिए समय-समय पर संशोधित की जाती है ।

पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में 1989-90 के अन्त में संशोधन किया गया तथा घरेलू प्रयोग की एल॰ पी॰ जी॰ को छोडकर 15 अक्टूबर, 1990 से 25 प्रतिशत खाडी अभिभार लेवी लगाकर संशोधित किया गया था ।

यह संशोधन अंशत: अगस्त, 1990 से खाड़ी सकट के कारण अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल व पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि के कारण अतिरिक्त लागतों को पूरा करने के लिए किया गया था ।

1990 के दशक के उत्तरार्द्ध से ही कीमतें तेजी से बढी है । मुद्रा स्फीतिकारी दबावों में वृद्धि अधिकांशतः वृहत आर्थिक असन्तुलनों के बने रहने के कारण है । यह राजकोषीय एवं भुगतान सन्तुलन की दशा पर पड़े खाड़ी सकट के प्रभाव के कारण और गम्भीर हो गए है ।

भुगतान सन्तुलन की कठिन स्थिति के कारण आवश्यक वस्तुओं के आयात के जरिए किए जाने वाले आपूर्ति प्रबन्ध पर अधिक प्रभाव पड़ा है । इस स्थिति में अर्थव्यवस्था में सट्‌टेबाजी की प्रवृत्तियाँ मजबूत हुई है ।

कठोर मौद्रिक अनुशासन के साथ राजकोषीय घाटे में पर्याप्त कमी द्वारा वृहत आर्थिक सन्तुलन स्थापित करने तथा आवश्यक व संवेदनशील वस्तुओं की पूर्ति तथा मांग का न्यायोचित समायोजन करने के लिए सरकार के दृढ़ निश्चय की आवश्यकता है ।

वर्तमान पूंजी भण्डार की उत्पादकता बढाने व आर्थिक सहायता का तर्क संगत प्रबन्ध करने के लिए तत्काल प्रयास किए जाने आवश्यक हैं । उत्पादन के लिए प्रोत्साहन देना व भुगतान सन्तुलन में निरन्तर असमायोजनों को ठीक करना वस्तुओं के मूल्य निर्धारण नीति का दोहरा उद्देश्य होना चाहिए ।

1990 के दशक के आरम्भ से ही कृषि में वास्तविक सकल पूंजी निर्माण में वृद्धि हुई तथा 1980 के वर्षों में दिखाई दे रही नकारात्मक वृद्धि दरों के विपरीत 6.5 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर प्राप्त हुई जो 1997 के उपरान्त पुन: गिरने लगी थीं ।

नवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) के दृष्टिकोण-पत्र में आठवीं योजना अवधि में कृषि आधारभूत विनियोग लक्ष्यों कमी की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया था । कृषि कीमतों में होने वाली तीव्र वृद्धि योजना के आरम्भ से ही परिलक्षित होने लगी थी । इसलिए यह आवश्यक समझा गया कि दीर्घ अवधि संस्थागत वित्त जहाँ बढ़ी हुई मात्रा में प्राप्त होगा, तब ही व्यापार व लाभ की अनुकूल शर्तों के कारण कृषि में अधिक निजी निवेश आकृष्ट होगा ।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली सहित खाद्यान्नों की कुल निकासी में हो रही कमी को देखते हुए दिसम्बर, 1966 से सार्वजनिक वितरण प्रणाली को युक्तिसंगत बनाने के लिए नए नीतिगत उपयों की घोषणा की गई । 1995-96 में कृषि क्षेत्र की नकरात्मक वृद्धि की टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं और गैर-टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं के लिए ग्रामीण माँग में वृद्धि के संकुचन में मुख्य भूमिका रही है ।

वस्तुतः टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं की माँग उच्च वृद्धि की चक्रीय पद्धति का अनुसरण करती है जिसके बाद कुछ सुधार होता है । 1995-96 में पूर्ति पक्ष के तत्त्वों के कारण मूल्यों पर दबाव पड़ा ।

खनिज तेल और बिजली के मूल्यों में किए गए समायोजन, कोयले की कीमत में किए गए अविनियमन, चावल व गेहूँ व निर्गम मूल्य में की गई वृद्धि के कारक मुद्रा स्फीति की अर्न्तनिहित दर या प्रमुख मुद्रा स्फीति में वृद्धि हुई ।

थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मूल्यों की समूह वार प्रवृति का विश्लेषण यह प्रदर्शित करता है कि इंधन समूह में सर्वाधिक तथा फिर प्राथमिक वस्तु समूह व विनिर्मित उत्पाद समूह में वृद्धि हुई । कीमतों में स्थिरता तथा मूल्य वृद्धि की सम्भावनाओं को नियन्त्रित करने के लिए 1997-98 के बजट से कृषि उत्पादों पर से नियन्त्रणों को कुछ सीमा तक समाप्त कर शुरूआत कर दी गई ।

1990 के दशक के आरम्भ से ही थोक मूल्य सूचकांक की वृद्धि दर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक औद्योगिक कामगार की तुलना में अधिक रही । 1952-53 से 1996-97 तक की अवधि में थोक मूल्य सूचकांक तथा उपभोक्ता मूल्य सूचकांक औद्योगिक कामगार के मध्य संरचनात्मक सम्बन्धों के विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि दोनों सूचकांकों में मुद्रा-स्फीति दरों के बीच कुछ अवस्थाओं में तेजी-कमी की प्रवृति दिखाई दी है जो दीर्घकाल में धीरे-धीरे बराबर हो जाती है ।

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक औद्योगिक कामगार के केन्द्रवार आँकडे यह प्रदर्शित करते है कि केन्द्रों के बीच मुद्रा-स्फीति दर के वितरण में परिवर्तनीयता रही है । जिन 70 केन्द्रों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक औद्योगिक कामगार तैयार किया गया उनमें से 11 केन्द्रों में 1996-97 की अवधि में 7.6 प्रतिशत से कम मूल्य वृद्धि देखी गई, जबकि इसकी तुलना में 1995-96 में ऐसे 6 केन्द्र थे तथा 26 केन्द्रों में 2 अंकों की मूल्य वृद्धि देखी गई, जबकि 1995-96 में ऐसे 32 केन्द्र थे ।

लक्ष्यित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (Targeted Public Distribution System):

 

सार्वजनिक वितरण प्रणाली सरकारी नीति का एक महत्वपूर्ण तत्व है और इसका लक्ष्य निर्धन को उचित मूल्य पर आवश्यक खाद्यान्न उपलब्ध कराना तथा खाद्यान के खुले बाजार मूल्यों को स्थिर रखना है ।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत केन्द्र सरकार ने 6 आवश्यक जिन्सों की वसूली तथा राज्य सरकारी व संघ राज्य क्षेत्रों को जनसमूह में उनका वितरण किये जाने हेतु आपूर्ति करने की जिम्मेदारी अपने हाथ में ली ।

ये छह वस्तुएँ थीं- गेहूँ चावल, चीनी, खाद्य तेल, मिट्‌टी का तेल तथा साफ्ट कोक । उचित मूल्य की दुकानों के नेटवर्क तथा एक व्यापक भौगोलिक दायरे में उसके विद्यमान होने के बावजूद खाद्य अर्थव्यवस्था के प्रबन्ध में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की भूमिका अक्सर वाद-विवाद का विषय रही है ।

निर्धन व्यक्तियों को पर्याप्त से भी कम समर्थन व अनुचित शहरीन्मुखता का इस प्रणाली की प्रमुख कमजोरी के रूप में बार-बार उल्लेख किया जाता है । इन कमियों को दूर करने के लिए सरकार ने 1 जून, 1997 से लक्ष्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागू करने की घोषणा की । अधिकांश राज्यों एवं संघ राज्य क्षेत्रों में अब इस योजना का क्रियान्वयन आरम्भ किया गया ।

अनुमान था कि इससे निर्धनता की रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले 32 करोड़ व्यक्ति लाभान्वित होंगे लक्ष्यित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत निर्धनता की रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों की पहचान की जाएगी तथा उन्हें अलग कार्ड जारी किये जाएँगे ।

लक्ष्यित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत केन्द्रीय निर्गम मूल्य निर्धारित किए जाएँगे जिनके अनुसार गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले और निर्धन रेखा से ऊपर जीवन-यापन करने वाले उपभोक्ताओं के लिए भिन्न मूल्य ढाँचा होगा ।

लक्ष्यित सार्वजनिक वितरण प्रणाली से सम्बन्धित दो महत्वपूर्ण पक्ष विशेष ध्यान देने योग्य हैं । पहला, गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों की सही-सही पहचान करके लक्ष्यित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के क्रियान्वयन की कठिनाई । दूसरा खाद्य सब्सिडी की राशि एवं समग्र राजकोषीय स्थिति के लिए उसकी प्रासंगिकता ।

खाद्य सब्सिडी की राशि 1980-81 के 650 करोड़ रुपये से बढ़कर 1996-97 में 6,066 करोड़ रुपये हो गयी । लक्ष्यित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के क्रियान्वयन का अर्थ होगा । खाद्य सब्सिडी बिलों का 1997-98 की अवधि में 8,300 करोड़ रुपये से अधिक होना ।

वर्तमान राजकोषीय स्थिति में बढी हुई सब्सिडी का अर्थ केन्द्रीय सरकार के व्यय में अन्य स्थान पर कमी करना होगा । यह महत्वपूर्ण है कि सरकारी व्यय में इस प्रकार की कटौती को कृषि में निवेश परिव्यय पर लागू न करके चालू उपभोग व्यय पर लागू किया जाये ।

यद्यपि कृषि में निवेश व्यय में किसी भी प्रकार की कमी किया जाना कृषि क्षेत्र की भावी विकास सम्भावनाओं के लिए हितकारी नहीं होगा । सब्सिडी भार को न्यूनतम करने की दृष्टि से सरकार 1999 से गरीबी रेखा से ऊपर जीवन-यापन करने वाले उपभोक्ताओं के सम्बन्ध में दी जा रही सब्सिडी को क्रमशः समाप्त करने जा रही है ।

25 दिसम्बर 2000 में अन्त्योदय योजना लागू की गई जिसके अन्तर्गत 1 करोड़ निर्धन परिवारों की पहचान कर उन्हें प्रति माह 25 कि॰ ग्रा॰ खाद्यान्न उपलब्ध करना था । जनवरी 2006 में निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों के लिए खाद्यान्न की मात्रा 30 कि॰ ग्रा॰ व निर्धनता रेखा से ऊपर के परिवारों हेतु 20 कि॰ ग्रा॰ कर दी गई ।

अन्त्योदय अन्न योजना का विस्तार की अब इसके अन्तर्गत 2.5 करोड़ निर्धनतम परिवार हैं । 2 फरवरी 2006 से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम चलाया गया जिसमें सितम्बर 2001 से चले सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना व नवम्बर 2004 से चले नेशनल फूडफार वर्क कार्यक्रम को सम्मिलित कर लिया गया ।

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