व्यापार की सुरक्षा नीति के पक्ष में तर्क | Read this article in Hindi to learn about the economic arguments in favour of protection policy of trade.
संरक्षण के पक्ष में दिये जाने वाले तर्कों को आर्थिक एवं अनार्थिक वर्गों में विभाजित किया जाता है ।
आर्थिक तर्क में यह संकल्पना ली जाती है कि संरक्षण से सामाजिक उत्पाद में वृद्धि होती है ।
संरक्षण के पक्ष में जो आर्थिक तर्क दिये जाते हैं उन्हें निम्न बिंदुओं के अधीन स्पष्ट किया जा सकता है:
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(a) शिशु उद्योग तर्क ।
(b) भुगतान सन्तुलन तर्क ।
(c) घरेलू बाजार तर्क ।
(d) बेरोजगारी कम करने का तर्क ।
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(e) प्रतिकारात्मक संरक्षण का तर्क ।
(f) उद्योगों में विविधता का तर्क ।
(g) राष्ट्रीय साधनों का सदुपयोग का तर्क।
(h) राशिपातन रोकने का तर्क ।
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(a) शिशु उद्योग तर्क (The Infant-Industry Argument):
शिशु उद्योग तर्क अस्थायी संरक्षण के लिए उपयुक्त समझा जाता है । 1791 में एलेक्जेंडर हैमिल्टन ने इसकी सिफारिश की एवं जर्मनी में इसके विचार को लिस्ट द्वारा सामने रखा गया । इस तर्क की विस्तृत व्याख्या हैबरलर (1936, 61) एवं वाइनर (1965) द्वारा की गई । शिशु उद्योग संरक्षण पर जौन स्टुअर्ट मिल के विचार उल्लेखनीय हैं ।
(i) जौन स्टुअर्ट मिल द्वारा शिशु उद्योग तर्क की व्याख्या:
मिल ने शिशु उद्योग तर्क का स्पष्ट विवेचन किया । एक नए एवं विकास कर रहे देश में उद्योगों को संरक्षण देना आवश्यक है, जिससे वह विदेशी प्रतिस्पर्द्धा से मुक्त रह सकें । मिल संरक्षण की नीति को तब ही उचित समझते हैं जबकि वह अस्थाई रूप से लगाई गई हो ।
संरक्षण उन्हीं उद्योगों को प्रदान किया जाना चाहिए जिनके बारे में यह आशा की जा सके कि वह एक निश्चित समय के उपरान्त बिना संरक्षण के अपना विकास कर पाएँगे ।
मिल के अनुसार संरक्षण पर्याप्त खोजबीन के पश्चात सावधानीपूर्वक ही दिया जाना चाहिए । सरकार को केवल उसी दशा में संरक्षण प्रदान करना चाहिए जब सरंक्षित उद्योग के विकास हेतु पर्याप्त मात्रा में आवश्यक साधन विद्यमान ही ।
शिशु उद्योगों को संरक्षण देने में अन्तर्निहित भावना यह है कि शिशु का पोषण करो, बालक को संरक्षण दो और वयस्क को स्वतन्त्र कर दो । कुछ उद्योगों के विकास के लिए देश में पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हो सकते है, परन्तु विदेशी प्रतिस्पर्द्धा के कारण यदि यह पनप न पा रहे ही तब यह आवश्यक हो जाता है कि इन्हें विदेशी प्रतियोगिता से संरक्षण प्रदान किया जाये ।
संरक्षण के द्वारा यह सम्भव है कि प्रारम्भ में लाभपूर्ण दशाएँ उत्पन्न न ही । शिशु उद्योग उत्पादन की प्रारम्भिक अवस्था में आन्तरिक एवं बाह्य मितव्ययिताएँ प्राप्त नहीं कर सकते । इसलिये वस्तु का उत्पादन अधिक लागत पर होता है, परन्तु दीर्घकालीन में जब यह उद्योग पूर्णत: स्वावलम्बी हो जाते है तो यह देश के लिए लाभप्रद होता है ।
ऐसी स्थिति तो निश्चिय ही देश के हित में है, परन्तु यदि एक बार शिशु उद्योग को संरक्षण प्रदान करने के पश्चात उसे समाज करना सम्भव न हो तो इससे देश को लाभ प्राप्त नहीं हो पाएँगे । यदि घरेलू उद्योगों को एक बार संरक्षण प्रदान कर उसे हटा पाना सम्भव न हो तो स्वावलम्बन की दृष्टि से संरक्षण का यह स्थाई रूप देश के हित में नहीं होगा ।
(ii) केम्प का स्पष्टीकरण:
मिल द्वारा किए गए परीक्षण के बारे में केम्प ने स्पष्ट किया है कि शिशु उद्योग संरक्षण में यह देखना आवश्यक हो जाता है कि क्या संरक्षण से देश अपनी दुर्बलताओं को दूर कर पाता है और समर्थ रूप से प्रतिस्पर्द्धा के योग्य बनता है ।
(iii) बेस्टेबल का परीक्षण:
बेस्टेबल ने यह शंका प्रकट की है कि मिल द्वारा किया गया परीक्षण एवं शिशु उद्योग संरक्षण के बारे में दिया गया तर्क आवश्यक होते हुए भी समर्थ नहीं है । उन्होंने यह स्पष्ट किया कि शिशु उद्योग को इतनी बचतें अवश्य एकत्रित कर लेनी चाहिएँ जिससे अर्थव्यवस्था में होने वाली हानि को क्षतिपूरित किया जा सके ।
प्रारम्भिक अवस्था में शिशु उद्योग की उत्पादन लागतें अधिक होती है जिससे उपभोक्ता को भी वस्तु का अधिक मूल्य देना पड़ता है । इस प्रकार प्रारम्भिक अवस्था में जो उच्च लागतें वहन की जा रही है वह भविष्य के लिए विनियोग की भाँति देखी जानी चाहिए जिनके प्रतिफल के रूप में भविष्य में अर्थव्यवस्था में लागतों की कमी सम्भव हो सके । इसे बेस्टेयल का परीक्षण कहते हैं ।
(iv) जौनसन की व्याख्या:
जौनसन ने यह स्पष्ट किया है कि तब भी, जबकि बेस्टेबल परीक्षण सिद्ध हो जाए, शिशु उद्योग तर्क की महत्ता इस आधार पर कम होने लगती है कि स्वतन्त्र प्रतियोगिता, विनियोग साधनों के सामाजिक रूप से असमर्थ आवण्टन को उत्पन्न करती है ।
(v) सीखने की प्रक्रिया की मितव्ययिताएँ एवं अनुकूलतम नीति:
शिशु उद्योग तर्क के पीछे जो आधारभूत विचार है वह यह है कि अध्यवसाय ही पूर्णता प्रदान करता है । अतः विकास को प्रारम्भिक अवस्था में शिशु उद्योग के बारे में यह मान लिया जाता है कि वह अपने हर एक के अनुभव से सीखेंगे । सीखने की यह प्रक्रिया सामान्य रूप से (पर आवश्यक रूप से नहीं) वाह्य मितव्ययिताओं को समाहित करता है ।
शिशु उद्योग को संरक्षण दिये बाने के तर्क की यह एक महत्वपूर्ण प्रवृति है । यह स्थैतिक बाह्य मितव्ययिताओं की दशा से भिन्न है । स्थैतिक बाह्यताएँ (जो मितव्ययिता और अमितव्ययिता हो सकती है) देश की तकनीक की स्थायी विशेषताओं को बताती हैं और स्थाई सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता का अनुभव करती हैं ।
दूसरी तरफ शिशु उद्योग तर्क एक गतिशील सीखने की प्रक्रिया से सम्बन्धित है जो बाह्य मितव्ययिताओं का सृजन एक निश्चित समय अवधि के अधीन करती है और इस प्रकार अस्थाई राजकीय हस्तक्षेप की वांछा रखती है ।
सीखने की प्रक्रिया में सृजित होने वाली मितव्ययिताएँ जब फर्म को आन्तरिक रूप से प्राप्त होती हैं तो सामान्य रूप से एडम स्मिथ का अदृश्य या छुपा हाथ, विनियोग साधनों के एक सामाजिक रूप से समर्थ आवण्टन का कारण बनता है और किसी शिशु को संरक्षण प्रदान करने के लिए सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं रहती ।
(vi) अपवाद की स्थितियाँ:
अपवाद की स्थितियों को कौरडन एवं जौनसन ने स्पष्ट किया है । इस प्रकार पूँजी बाजार अपूर्ण हो सकता है और इसके परिणामस्वरूप नए उद्योगों में विनियोग को वित्त प्रदान करने की लागत काफी अधिक हो सकती है या यह भी सम्भव है कि सामाजिक और निजी समय इस प्रकार पूंजी बाजार अपूर्ण हो सकता है और इसके परिणामस्वरूप नए उद्योगों में विनियोग को वित्त प्रदान करने की लागत काफी अधिक हो सकती है या यह भी सम्भव है कि सामाजिक और निजी समय अधिमान के मध्य अन्तर विद्यमान हो, जोखिम का अनुमान, सूचनाओं की प्राप्ति एवं दूरदर्शिता का अभाव सामने हो ।
परन्तु इन अपवादात्मक स्थितियों के बावजूद, प्रशुल्क संरक्षण उचित उत्तर नहीं है । वास्तव में इन दशाओं में द्वितीय श्रेष्ठ नीति है और ऐसी स्थिति में कल्याण में कमी होना सम्भव होता है ।
प्रथम श्रेष्ठ नीति:
अनुकूलतम हस्तक्षेप के सामान्य नियम का पालन करती है । सरकार उस बिन्दु पर हस्तक्षेप करती है जहां बाधाएँ उत्पन्न हो रही हैं । उदाहरण के लिए एक ऐसी दशा को ध्यान में रखा जा सकता है जहाँ एक अपूर्ण पूँजीगत बाजार में नए उद्योगों में विनियोग को वित्त प्रदान करने की लागत काफी अधिक हो । ऐसी दशा में इन उद्योगों को पूंजी का अनुदान देकर अनुकूलतम नीति का पालन किया जाना सम्भव होता है ।
(vii) बाह्यताओं का तर्क:
बाह्यताओं के तर्क को दो प्रकार से स्पष्ट किया जाता है । पहला विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि आवश्यक श्रम कौशल के अभाव में उपक्रमी अपनी श्रम-शक्ति को उचित प्रशिक्षण प्रदान करता है ।
इस तर्क के अनुसार श्रम-शक्ति में होने वाले सुधार के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाले कौशल का उपयोग वह उपक्रमी नहीं करता जो प्रशिक्षण की आवश्यक सुविधाएँ प्राथमिक स्तर पर प्रदान करता है बल्कि श्रम कौशल का लाभ ऐसे अन्य उपक्रमियों द्वारा उठाया जाता है जो उत्पादन के क्षेत्र में बाद में आते है तथा अधिक मजदूरी पर प्रशिक्षित श्रम को आकर्षित करने में सफल रहते हैं ।
इस प्रकार उपक्रमी द्वारा प्राप्त होने वाले निजी प्रतिफल आवश्यक रूप से सामाजिक प्रतिफल की दर से कम होते है । इस दशा में अनुकूलतम नीति प्रशुल्क संरक्षण नहीं है बल्कि श्रम-शक्ति को प्रशिक्षित करने में सहायता प्रदान किया जाना ।
बाह्यताओं से सम्बन्धित दूसरा तर्क उत्पादन तकनीक में ज्ञान के समावेश से सम्बन्धित है । भविष्य में लाभ प्राप्त करने के लिए वर्तमान समय में मानवीय पूँजी विनियोग करना आवश्यक होता है ।
एक बार जब उत्पादन को सुचारू रूप से नियमित करने के लिए आवश्यक कुशलता समुचित प्रशिक्षण द्वारा उत्पन्न हो जाती है तो इसका लाभ प्रायः उपक्रमीं उठाते हैं तो उत्पादन क्षेत्र में बाद में प्रवेश करते हैं । इस प्रकार उत्पादन प्रक्रिया में लगे प्रारम्भिक उपक्रमी विनियोग के द्वारा अधिक लाभ प्राप्त करने में समर्थ नहीं बन पाते ।
इस प्रकार उनकी निजी प्रतिफल की दर सामाजिक प्रतिफल की दर से कम होती है । प्रशुल्क संरक्षण इस प्रकार पुन द्वितीय श्रेष्ठ नीति बनती है और देश को लाभ प्राप्त करने की अपेक्षा बाधित करती है । अनुकूल नीति वह होगी जिसके अधीन सीखने की प्रक्रिया से जुड़े जनमानस को सहायता प्रदान की जाए ।
(viii) शिशु अर्थव्यवस्था संरक्षण:
शिशु उद्योग तर्क को सम्पूर्ण औद्योगिक क्षेत्र में लागू करने की स्थितियों का विवेचन भी किया जाता है । किसी देश के आर्थिक विकास को ध्यान में रखते हुए यह धारणा अधिक महर्त्वपूर्ण है कि केवल एक उद्योग में काम कर रही फर्मों द्वारा प्राप्त बाह्य मितव्ययिता ही पर्याप्त नहीं है बल्कि बाहय मितव्ययिताएँ तो सम्पूर्ण शिशु निर्माण क्षेत्र के स्थान पर शिशु अर्थव्यवस्था संरक्षण की की बात सोची जाती है । शिशु अर्थव्यवस्था संरक्षण के विचार को कौर्डर मेयर एवं मिरडल द्वारा व्याख्यायित किया गया है ।
(b) भुगतान सन्तुलन तर्क:
जब एक देश द्वारा किए जाने वाले निर्यात और आयात बराबर होते है जो व्यापार सन्तुलित होता है । परन्तु. जब एक देश आयात अधिक कर रहा हो और निर्यात कम हो रहे हों तो व्यापार असन्तुलन हो जाता है । भुगतान सन्तुलन एक समय में किसी एक अर्थव्यवस्था के कुल विदेशी लेन-देन का लेखा है ।
भुगतान सन्तुलन को दो प्रमुख मदों व्यापार तथा हस्तान्तरण में विभाजित किया जाता है । सामान्यत: भुगतान सन्तुलन को चालू खाते और पूँजी खाते के भागों में बांटा जाता है । जब चालू खाते के देनदारी एवं लेनदारी बराबर होते हैं तो भुगतान सन्तुलन साम्य में माना जाता है । जब चालू खाते में देनदारी पक्ष लेनदारी से अधिक होता है तो भुगतान सन्तुलन में घाटा होता है ।
यह घाटा निम्न प्रकार से पूरा किया जाता है:
(1) स्वर्ण के निर्यात द्वारा,
(2) विदेशों में अर्जित लाभ को स्थानान्तरित करके, एवं
(3) विदेशों से दीर्घकालीन या अल्पकालीन ऋण लेकर जिसको कि भविष्य में व्याव सहित चुकाना पडता है ।
इन तीनों को पूंजी खाते के प्रवाह कहा जाता है जो क्रेडिट एवं डेबिट के अन्तर को दूर करते है और भुगतान सन्तुलन के विवरण को सन्तुलित बनाते है ।
आर्थिक विकास की प्रक्रिया में यह सामान्य प्रवृति देखी जाती है कि प्रायः भुगतान सन्तुलन में असाम्यावस्था उत्पन्न हो जाती है । भुगतान सन्तुलन विकास के परिणामस्वरूप दो प्रकार से प्रभावित होता है ।
पहली बात तो यह है कि विकास योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु पूंजीगत वस्तुओं, तकनीकी ज्ञान एवं आवश्यक कच्चे पदार्थों की अधिक मात्रा का आयात आवश्यक होता है । दूसरी मुख्य प्रवृति यह दिखाती है कि विकास होने पर उपभोग प्रवृति बढती है ।
इसलिए ऐसी कई वस्तुएं जिनका पहले निर्यात किया जा रहा था अब घरेलू उपभोक्ताओं द्वारा उपभोग की जाती हैं । विकास की गति तीव्र होने पर भुगतान सन्तुलन की आसाम्यावस्था अप्रत्यक्ष रूप से आय प्रभाव एवं कीमत प्रभाव से भी सम्बन्धित होती है ।
विकास योजनाओं पर होने वाले अतिरिक्त व्यय विनियोग से उपभोक्ताओं की आय में वृद्धि होती है । आय के बढ़ने से उपभोग बढता है । यह उपभोग घरेलू एवं विदेशी वस्तुओं पर किया जाता है । कम विकसित देशों में आयात का सामान्त प्रवृति सामान्य रूप से उच्च होती है ।
बढ़ी हुई आय द्वारा बड़े उपभोग का प्रभाव भुगतान सन्तुलन पर मात्र आयातों के बढने से ही नहीं बल्कि निर्यातों के घटने से भी सम्बन्धित है । घरेलू बाजार में जब वस्तुओं की माँग बढती है तब उत्पादक विदेशी बाजारों में जहाँ अधिक प्रतिस्पर्द्धा होती है में निर्यात करने के प्रति उत्साही नहीं रहता ।
कम विकसित देशों में औद्योगीकरण प्रारम्भ होने पर सामान्यतः कीमतें तेजी से बढ़ती हैं । इसका कारण यह है कि विनियोग एवं उत्पादन के मध्य दीर्घ अवधि अन्तराल की उपस्थिति होती है ।
परिणामस्वरूप उपभोग की उच्च सीमान्त प्रवृति, तुलनात्मक रूप से बेलोच उत्पादन से सम्बन्धित हो जाती है । विकास योजनाओं की वित्त व्यवस्था करने में जब उपयुक्त पूंजी साधन न जुटाए जाएँ तो विकल्प के रूप में घाटे की वित्त व्यवस्था या न्यूनार्थ वित्त प्रबन्धन किया जाता है जिससे मुद्रा प्रसार होता है ।
विकास के लाभदायक प्रभाव, भुगतान सन्तुलन पर निश्चित रूप से पड़ते हैं क्योंकि उत्पादन के बढ़ने पर निर्यातों के परिमाण बढ़ते हैं तथा देश में उन वस्तुओं का भी उत्पादन होने की सम्भावना बढ़ती है जिनका पहले आयात किया जा रहा था ।
विकास की शैशवास्था में लाभप्रद प्रभावों की तुलना में अलाभप्रद प्रभाव अधिक मुखर होते हैं, क्योंकि नए उद्योगों में विनियोग होने पर मौद्रिक आय तो तुरन्त बढती है पर उत्पादन निश्चित समय अवधि के पश्चात् ही प्राप्त हो पाता है । इसलिए प्रायः व्यापार सन्तुलन विपरीत रहता है, विकास योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु देश को विदेशी पूंजी की आवश्यकता होती है ।
निर्यातों के सीमित होने के कारणवश ऋण और सहायता पर अधिक आश्रित रहा जाता है । भुगतान सन्तुलन की असाम्यावस्था एक आधारभूत समस्या है जो विदेशी व्यापार क्षेत्र में ऐसे दुष्चक्र को उत्पन्न करती है जिससे विकास प्रयासों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । कोई भी देश अनिश्चित काल तक भुगतान सन्तुलन की असाम्यावस्था को सहन नहीं कर सकता ।
भुगतान सन्तुलन की असाम्यावस्था कम विकसित देशों में विकास की प्रारम्भिक अवस्था में अनिवार्य हो सकती है, परन्तु इसे दीर्घकालीन प्रवृति के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता । असाम्य को दूर करने के लिए वित्तीय, मौद्रिक एवं व्यापारिक नीति का आश्रय लिया जाता है ।
(I) भुगतान सन्तुलन की असाम्यावस्था एवं व्यापार नीति:
व्यापारिक नीति के अन्तर्गत हम व्यापार से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित परिवर्तनों पर विचार करते है; जैसे- मात्रात्मक प्रतिबंध, आयात कर एवं राजकीय व्यापार की क्रियाएँ । भुगतान संतुलन की दृष्टि से व्यापारिक नीति अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष रूप से आयात और निर्यात को प्रभावित किया जाता है ।
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रतिबन्ध का महत्व बहुत व्यापक होता जा रहा है । विकासोन्मुख देशों में प्रतिबन्धात्मक उपाय व्यापार शाह का मुख्य अंग बन गए है । इसके अधीन राजकीय व्यापार, अभ्यंश एवं मात्रात्मक प्रतिबन्ध को शामिल किया जाता है । राजकीय व्यापार, बाजार की स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप करता है । कोई भी राज्य सना व्यापार का या कुछ वस्तुओं के व्यापार को नियन्त्रित एवं नियमित करता है ।
राजकीय व्यापार का उद्देश्य व्यापार की शर्तों में सुधार है जिसके दारा विदेशी व्यापार और आन्तरिक आर्थिक विकास में समन्वय किया जाता है । इसके द्वारा उपभोग और उत्पादन दोनों ही प्रवृतियों में परिवर्तन क्रिया जा सकता है तथा राष्ट्रीय सुरक्षा और सैन्य विकास की दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण है ।
राजकीय व्यापार के द्वारा व्यापार की शती में सुधार सम्भव है ।
कम विकसित देश कृषि प्रधान होते हैं । अत: इनके निर्यात सामान्यत: प्राथमिक वस्तुओं के एवं आयात पूंजीगत पदार्थों के होते है । प्राथमिक वस्तुओं के निर्यात में अनेक कठिनाइयाँ आती है । व्यक्तिगत व्यापार न तो संगठित होते है और विश्व बाजार में मूल्यों को प्रभावित करने की उनकी क्षमता सीमित होती है । दूसरी ओर कम विकसित देशों के आयात पूँजीगत पदार्थों के होते हैं । पूंजीगत पदार्थों को निर्यात करने वाले देश सामान्यत: पूर्ति पर अविकार रखते है । इस प्रकार कम विकसित देशों को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है जिसमें माँग और पूर्ति दोनों में ही एकाधिकार होता है ।
फलतः व्यापार की शर्तें प्रतिकूल हो जाती है । ऐसी दशा में राजकीय व्यापार द्वारा समस्या को सुलझाया जा सकता है । यहाँ यह ध्यान रखना पडेगा कि व्यापार की जाने वाली वस्तु की प्रकृति कैसी है ? क्या वस्तु विभेद कर पाना सम्भव है ? यदि वस्तु विभेद सम्भव हो, तब राजकीय व्यापार द्वारा वस्तु का अच्छा मूल्य प्राप्त किया जा सकता है ।
वस्तु विभेद के साथ ही यह भी देखना होगा कि विश्व अर्थव्यवस्था में राजकीय व्यापार कर रही अर्थव्यवस्था का प्रतिशत कितना है ? यदि एकाधिकार की स्थिति हो, तब मूल्यों को आसानी के साथ प्रभावित किया जा सकता है । यदि शुद्ध प्रतियोगिता है तब राजकीय व्यापार से अधिक लाभ प्राप्त नहीं हो पाएँगे ।
इसी प्रकार स्थानापन्न वस्तुओं को भी गन में रखना होगा । यदि वस्तुओं का प्रतिस्थापन सम्भव हो तो राजकीय व्यापार द्वारा स्थिति में सुधार सम्भव नहीं है । इस प्रकार राजकीय व्यापार से लाभ तब सम्भव होता है, जब एकाधिकार की स्थिति विद्यमान होती है तथा स्थानापन्न वस्तुओं का अभाव होता है । यह भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि यदि बाजार में विक्रेताओं का प्रभुत्व तो राजकीय व्यापार अधिक सहायक होगा ।
आर्थिक नियोजन की प्राथमिकताओं के अनुसार विदेशी व्यापार का नियंत्रण आवश्यक हो जाता है जो कि व्यक्तिगत व्यापारियों के द्वारा सम्भव नहीं है इसलिये राजकीय व्यापार के द्वारा विदेशी व्यापार का नियोजन आसानी से हो सकता है । राजकीय व्यापार जो कि प्रतिबन्ध का एक रूप है दूसरे देशों में आर्थिक सम्बन्धों को सीमित रखने में सहायक भी होता है ।
राजकीय व्यापार के द्वारा किसी भी अर्थव्यवस्था में उत्पादन एवं उपभोग की प्रवृतियों को प्रभावित किया जा सकता है । इसके द्वारा देश केवल उन्हीं वस्तुओं का आयात व निर्यात करता है जिसकी आवश्यकता विकास के लिए की जा रही हो ।
राजकीय व्यापार के अधीन उन वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जा सकता है जिनके उत्पादन की वृद्धि आवश्यक समझी जाती है । राजकीय व्यापार के द्वारा सैन्य एवं सामाजिक सामग्री प्राप्त करना सम्भव होता है जिन्हें केवल व्यापारिक आधार पर प्राप्त नहीं किया जा सकता ।
(II) भुगतान सन्तुलन समायोजन के उपाय:
भुगतान सन्तुलन में साम्यावस्था लाने के सरल उपाय के रूप में प्रशुल्क एवं आयात कोटा ध्यान में रखा जाता है । आयात अभ्यंश के द्वारा एक सीमित मात्रा से अधिक किसी वस्तु का आयात नहीं किया जाता अर्थात् आयात की मात्रा निश्चित कर दी जाती है ।
दूसरी तरफ प्रशुल्क के अधीन जब आयातों पर कर लगाया जाता है तो इससे आयात वस्तु का मूल्य अधिक हो जाता है । आयात मूल्य अधिक होने से आयातों में स्वत: कमी हो जाएगी तथा घरेलू उत्पादक को प्रोत्साहन प्राप्त होगा । इस प्रकार आयात कर से सरकार को वित्त की प्राप्ति होगी एवं उद्योगों को संरक्षण प्राप्त होगा । आयात कर एवं आयात कोटे से भुगतान में सन्तुलन स्थापित किया जाता है ।
व्यापार प्रतिबन्ध के अधीन आयात की जाने वाली वस्तु या उसके मूल्य को सीमित किया जाता है । इसके अन्तर्गत हम मात्रात्मक प्रतिबन्धों को लेते है जिससे आयात में कमी कर दी जाती है और जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव भुगतान सन्तुलन पर पड़ता है । व्यापारिक प्रतिबन्धों के दूसरे रूप में आयात की जाने वाली वस्तु के कुल मूल्य को निश्चित कर दिया जाता है ।
भुगतान सन्तुलन में साम्यावस्था लाने के लिए संरक्षण विशिष्ट हस्तान्तरणों को प्रभावित करते हैं । संरक्षणों को मुख्यतः मौद्रिक राजकोषीय एवं वाणिज्यिक वर्गों में बाँटा जाता है । मौद्रिक संरक्षण मुख्यतः विनिमय नियन्त्रण, अग्रिम जमा आवश्यकताओं एवं बहुल विनिमय दरों को समाहित करते हैं ।
राजकोषीय संरक्षण उन सभी कर एवं अनुदान व सहायता को समाहित करते हैं जो भुगतान सन्तुलन की विशिष्ट मदों को प्रभावित करते हैं । वाणिज्यिक नियंत्रण मात्रात्मक संरक्षणों एवं राज्य व्यापार की क्रियाओं को समाहित करते हैं जिससे वाणिज्यिक व्यापार का नियमन किया जाता है ।
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने संरक्षणात्मक उपायों को निज प्रकार वर्गीकृत किया है-व्यापार एवं भुगतान पर संरक्षण, बहुल करेन्सी विधियाँ, आयात सरचार्ज, अग्रिम जमा, निर्यात अनुदान व सहायता एवं द्विपक्षीय भुगतान समझौते ।
(c) घरेलू बाजार तर्क:
वास्तविक जीवन में स्वतन्त्र व्यापार की आदर्श स्थितियों का अनुभव नहीं किया जाता । इन आदर्श स्थितियों को पेरिटो अनुकूलता दशाओं द्वारा व्यक्त किया जाता है ।
पेरिटो अनुकूलता दशाओं के अनुसार घरेलू उत्पादन के हस्तान्तरण की सीमान्त दर MRTd बराबर होती है विदेशी व्यापार के हस्तान्तरण की सीमान्त दर MRTf के जो कि उपभोग में प्रतिस्थापन की सीमान्त दर MRS के बराबर होती है अर्थात् MRTd = MRTf = MRS ऐसी समानता के अभाव में अर्थव्यवस्था में वक्रताएँ उत्पन्न होती हैं तब सन्तुलन की प्राप्ति तब सम्भव होती है, जब उचित कर का आश्रय लिया जाये या अनुदान मदान किया जाये या इन देशों के संयोग को चुना जाये ।
यदि वक्रता या विखण्डन का MRS = MRTd = MRTf के द्वारा प्रदर्शित किया जाएगा । दूसरे शब्दों में विदेशी कीमतें हस्तान्तरण की सीमान्त दर के बराबर नहीं होंगी । ऐसी दशा में प्रशुल्क लगा कर स्थिति को सुधारा जा सकता है ।
यहाँ हम विदेशी बाजार में विखण्डन की स्थिति को ध्यान में रख रहे थे । अब यदि घरेलू बाजार में वक्रताओं या विखण्डन की उपस्थिति को ध्यान में रखा जाये तो ऐसी दशा में वस्तु कीमत अनुपात और हस्तान्तरण की सीमान्त दर एक दूसरे से भिन्न होंगी अर्थात् MRS = MRTf <> MRTd ।
घरेलू वक्रता या विखण्डन की स्थिति में पैरिटो अनुकूलता दशाएँ नहीं दिखतीं । पैरिटो अनुकूलता प्राप्त करने के लिए यदि हम विदेश व्यापार पर कर लगाए या अनुदान प्रदान करें तो एक असमानता को दूर करने में दूसरी उभर जायेगी । उदाहरण के लिए एक वांछित प्रशुल्क MRTf एवं MRTd को बराबर कर देगा पर इससे MRs व MRTd के मध्य की समतुल्यता नहीं बन पाएगी ।
इससे यह स्पष्ट है कि एक प्रशुल्क के द्वारा यह स्थिति उतनी श्रेष्ठ नहीं बन पाएगी जितनी स्वतन्त्र व्यापार की दशा में सम्भव था । इस दशा में एक उचित कर या उपभोग व उत्पादन पर अनुदान की सहायता से नीति निर्माता पैरिटी की अधिकतम कल्याण वाली दशा को प्राप्त करने में सक्षम होंगे ।
द्वितीय श्रेष्ठ सिद्धान्त के अधीन मीड, लिप्सी एवं लेंकेस्टर ने यह बात स्पष्ट की है । सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि घरेलू वक्रता या घरेलू उत्पादन या घरेलू साधनों के प्रयोग पर कर या अनुदान लगाना श्रेयस्कर होगा ।
(d) बेरोजगारी कम करने के लिए संरक्षण:
संरक्षण की नीति के अधीन यह प्रयास किया जाता है कि देश में व्याप्त बेरोजगारी को दूर किया जाये । जब घरेलू उद्योग द्वारा उत्पादित वस्तुओं को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में विदेशी वस्तुओं से प्रतिस्पर्द्धा करनी पडती है और घरेलू रूप से उत्पादित वस्तुओं की माँग पूर्णतया लोचदार नहीं होती, तब घरेलू उद्योग को बेरोजगारी का सामना करना पडता है ।
ऐसी दशा में आयात वस्तुओं पर प्रशुल्क कर लगा कर या वस्तुओं के आयात पर प्रतिबन्ध लगाकर घरेलू उत्पादकों को घरेलू माँग का अधिक भाग उपभोग करने का अवसर दिया जाता है ।
बेरोजगारी की दशा में अल्पकालीन संरक्षण, दीर्घकालीन संरक्षण के सापेक्ष अधिक प्रभावशाली होता है । संरक्षण की नीति के द्वारा एक देश की बेरोजगारी दूर हो सकती है, क्योंकि आयात सीमित किए जाने पर घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहन दिया जाएगा और यह सम्भव होगा कि बेकार अशक्ति को रोजगार के अवसर प्राप्त ही ।
स्वतन्त्र व्यापार के समर्थकों ने इस तर्क का खण्डन करते हुए कहा कि संरक्षण कुल बेकारी में कमी नहीं करता । उन्होंने स्पष्ट किया कि आयातों पर प्रतिबन्ध लगाने से निर्यातों में कमी होगी इसलिये निर्यात उद्योगों में बेरोजगारी बढेगी इसलिये इन्होंने कहा कि संरक्षण के द्वारा कुल बेकारी में कमी नहीं होगी । ही अस्थायी रूप से संरक्षण की नीति अपनाकर बेरोजगारी दूर करने का तात्कालिक समाधान खोजा जा सकता है । रोजगार की दृष्टि से संरक्षण का दीर्घकालीन परिणाम जिस रूप में होता है उसका अध्ययन हम संघर्ष से उत्पन्न बेकारी, व्यापार चक्र से उत्पन्न बेकारी एवं स्थायी बेचारी के अधीन कर सकते है ।
(i) संघर्ष से उत्पन्न बेकारी:
यदि मांग में कमी हो या प्रबन्धकों की अकुशलता के कारण फर्म में उत्पादन न हो पाए तो ऐसी दशा में श्रमिक बेकारी का सामना करता है । इसी प्रकार तकनीकी विकास रख कई संस्थाओं और नए उद्योगों के विकास के कारण पुराने उद्योगों की प्रतिस्पर्द्धात्मक शक्ति कम हो जाती है और उनके श्रमिक बेकार होने लगते है, यह तकनीकी बेकारी है ।
एक फर्म द्वारा उत्पादन सीमित किये जाने पर जब श्रमिक बेकार हो जाते है तो यह सम्भव है कि रोजगार के अवसर किसी नयी फर्म के द्वारा प्रदान किए जाएँ । यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि बेकार श्रम-शक्ति नए अवसर को तब तक प्राप्त नहीं करती, जब तक वह नए उद्योग में काम करने की योग्यता न रखें ।
इस प्रकार रोजगार के नए अवसर खोजने में भी कुछ समय लग सकता है । ऐसी स्थिति में श्रमिक एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रवास भी कर सकते है । संघर्ष बेरोजगारी की प्रवृति अस्थाई होते हुए भी हर अर्थव्यवस्था में दिखाई देती है । यह सम्भव है कि संघर्षज बेरोजगारी को प्रशुल्क की सहायता से दूर किया जाए पर यह समस्या का स्थाई समाधान नहीं है ।
(ii) व्यापार चक्र से उत्पन्न बेरोजगारी:
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में व्यापार चक्र की तेजी और मन्दी की दशाएँ बेरोजगारी उत्पन्न करती हैं । चक्रीय बेकारी को प्रशुल्क की सहायता से कम किया जा सकता है । मन्दी की दशा में प्रशुल्कों में वृद्धि की जाती है । संरक्षण की नीति चक्रीय बेकारी को पूरी तरह समाप्त नहीं करती ।
(iii) स्थायी बेरोजगारी:
स्थाई बेरोजगारी को संरक्षण के द्वारा कुछ सीमा तक दूर किया जा सकता है । स्थाई बेरोजगारी प्रायः मजदूरी की दर के उच्च होने से होती है इसलिये उच्च प्रशुल्क लगा कर इसे दूर किया जा सकता है ।
स्थाई बेकारी को दूर करने के लिए अनेक उद्योगों को संरक्षण देना आवश्यक होता है पर इससे यह सकट उत्पन्न होता है कि अन्य देश प्रतिकारात्मक उपाय अपना सकते है जिसके परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाले लाभ कम हो जाऐगे ।
संरक्षण की नीति तब सफल हो सकती है जब बेरोजगारी निर्यात उद्योगों में हो । संरक्षण की नीति का समर्थन इस आधार पर किया जाता है कि यह रोजगार बढ़ाने में सहायक होता है ।
अल्पकालीन प्रभावों के अधीन यदि प्रशुल्क लगाने से सरक्षित उद्योग की वस्तु, समान क्वालिटी की आयातित वस्तु के साथ प्रतियोगिता कर सकती है और यदि ऐसी वस्तु के लिए माँग पूर्णतया लोचदार नहीं है तो नि:सन्देह उद्योग में बेकारी कम हो जाएगी, क्योंकि आयात कर लगाने से देशी उत्पादन को प्रोत्साहन मिलेगा तथा बडे हुए उद्योगों में बेरोजगारी को खपाया जा सकेगा ।
उपर्युक्त तर्क की आलोचना करते हुए स्वतन्त्र व्यापार के समर्थकों ने कहा कि प्रशुल्क कुल बेकारी को घटाने में सहायक नहीं हो पाएंगे । उन्होंने यह संकल्पना ध्यान में रखी कि आयात निर्यात का भुगतान करते है । अत: आयातों के परिणामों में कमी होने का प्रभाव यह होगा कि विदेशी प्रतिकारात्मक उपायों की सम्भावना बढ़ जाएगी । इस प्रकार आयातों में कमी होने के परिणामस्वरूप प्राप्त लाभ सम्भव नहीं हो पाएँगे ।
स्वतन्त्र व्यापार के समर्थकों की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि आयातों में कमी होने पर निर्यातों में कमी होना आवश्यक नहीं है । यदि विदेशी माँग में कमी होती भी है तो यह सम्भव है कि घरेलू वस्तुओं की मांग देश में बढे ।
प्रशुल्क से आयातों में कमी होती है और आयात प्रतिस्पर्द्धी वस्तुओं में रोजगार बढ़ता है । इससे रोजगार सृजन करने वाली शक्तियाँ अन्य उद्योगों में भी रोजगार में वृद्धि करती है । परन्तु यह समस्या का सर्वोंत्तम समाधान नहीं है । उचित समाधान हेतु हमें प्रभावशीलता पर विचार करना होगा ।
आयातों में कमी होने पर दूसरे देश के निर्यात उद्योगों में बेरोजगारी बढ़ सकती है । इससे वहाँ आय कम होगी जिससे उसके आयात भी कम होंगे । आयातों के कम होने से आयातकर्ता देश में भी बेरोजगारी उत्पन्न होगी । यह कहा जाता है कि एक देश जो प्रशुल्क के माध्यम से रोजगार में वृद्धि कर रहा है वास्तव में बेरोजगारी का निर्यात कर रहा है ।
रोजगार पर विचार करते हुए हमें उपभोग पर पड़ने वाले प्रभावों को भी देखना होगा । संरक्षण लगाने पर मूल्य अधिक होने से उपभोग प्रवृति के कम होने की स्थिति उत्पन्न हो सकती है । संरक्षण की तुलना में मौद्रिक एवं वित्तीय नीति को रोजगार प्रदान करने के श्रेष्ठ उपाय के रूप में देखा जाता है ।
(e) प्रतिकारात्मक संरक्षण का तर्क:
जब एक देश के निर्यातों पर दूसरा देश कर लगाता है तो इसके प्रभाव को दूर करने के लिए प्रतिकारात्मक संरक्षण की नीति अपनाई जाती है । विदेशी बाजार में लगी हुई प्रतिकारात्मक नीतियों को देखते हुए एक देश व्यापार की उदारनीति का पालन करना अपने हित में नहीं पाता अत: प्रतिकारात्मक संरक्षण का आश्रय लिया जाता है । विश्व व्यापार में वृद्धि के दृष्टिकोण से इसकी उपादेयता पर सन्देह प्रकट किया जाता है ।
(f) उद्योगों में विविधता का तर्क:
विदेशी प्रतिस्पर्द्धा से घरेलू उद्योगों को मुक्त रखने के लिए संरक्षण की नीति अपनाई जाती है ताकि देश में स्वावलम्बन की भावना विद्यमान हो तथा अन्तिम रूप से अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भरता की अवस्था को प्राप्त करे । परन्तु यह तब ही सम्भव होगा, जबकि अनेक प्रकार के उद्योगों को पनपने का अवसर मिले ।
कुछ ही उद्योगों पर निर्भर होने से अर्थव्यवस्था असन्तुलित विकास प्राप्त करती है । इसलिये संरक्षण की नीति के द्वारा अधिक विविधता के आधार पर उद्योगों को विकसित करने का प्रयास किया जाता है । व्यावहारिक रूप से औद्योगिक विविधता, आर्थिक विकास हेतु अधिकाधिक विनियोग की आशा करती है ।
विविधता की नीति पर आश्रित होते हुए यह आवश्यक नहीं कि देश के साधनों का अनुकूलतम उपयोग सम्भव हो सके । उद्योगों में विविधता का तर्क ऐसी अर्थव्यवस्था हेतु सार्थक सिद्ध होता है जो बहुत विशिष्ट है । ऐसे देश जो कुछ ही प्राथमिक उत्पादों का निर्यात करते हैं और निर्मित वस्तुओं के लिए आयातों पर निर्भर रहते हैं, यह तर्क लागू नहीं हो पाता ।
(g) राष्ट्रीय साधनों का सदुपयोग का तर्क:
यह कहा जाता है कि स्वतन्त्र व्यापार से राष्ट्र के संसाधन शीघ्र नष्ट होने लगते है अतः राष्ट्रीय संसाधनों को सुरक्षित रखने के लिए संरक्षण की नीति का आश्रय लिया जाता है । इस प्रकार संरक्षण घरेलू बाजार को विकसित करने में सहायक बनता है ।
यह तर्क दिया जाता है कि जब देश में कृषि उत्पादन को संरक्षण दिया जाता है तभी औद्योगिक वस्तुओं का बाजार विकसित होता है । संरक्षण की नीति के द्वारा तात्कालिक रूप से घरेलू बाजार का विकास सम्भव है । पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार होने पर पारस्परिक निर्भरता के जो लाभ प्राप्त होते है वह सीमित हो जाएंगे ।
(h) राशिपातन रोकने का तर्क:
प्राय: विदेशी व्यापारी स्वदेश के विकासोन्मुख उद्योगों को हानि पहुँचाने के लिए अपनी वस्तु को घरेलू मूल्य से भी कम मूल्य पर बेचते हैं जिससे स्वदेशी प्रतिस्पर्द्धा पर टिक नहीं पाते । यह क्रिया राशिपतन कहलाती है । यहाँ यह बात ध्यान में रखनी है कि यदि राशिपतन की प्रवृति स्थायी है तो यह उपभोक्ता के लिए लाभदायक हो सकती है, क्योंकि उपभोक्ता को लागत से कम मूल्य पर वस्तुएँ प्राप्त होती है ।
राशिपतन जब आकस्मिक रूप से होता है तो यह घरेलू उद्योगों के सम्मुख संकट उत्पन्न कर सकता है । राशिपतन तब ही सम्भव होगा, जबकि एक देश उस वस्तु की अधिक मात्रा का उत्पादन एवं निर्यात करता हो । राशिपतन से किसी भी देश (जहां यह क्रिया सम्पन्न की जा रही हो) का उत्पादन स्थिति पर विपरीत प्रभाव पडता है । ऐसी स्थिति में संरक्षण को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया जाता है ।
संरक्षण की नीति का समर्थन देश की व्यापार शती में अनुकूलता लाने संकटकाल एवं बाजार की सुरक्षा करने, सौदेबाजी में लाभ प्राप्त करने, तकनीकी परिवर्तन से घरेलू इकाइयों की सुरक्षा करने, विनियोगों को बढ़ाने, राष्ट्रीय आचार की सुरक्षा हेतु । कुछ व्यवसायों को सुरक्षित रखने के लिए एवं सरकारी आगम में वृद्धि करने के उद्देश्य से किया जाता है ।