भारत में आर्थिक सुधारों के दायरे का विस्तार | Read this article in Hindi to learn about the extension of the scope of economic reforms.
नरसिम्हा राव सरकार को उत्तराधिकार में मिली भारतीय अर्थव्यवस्था विध्वंस के कगार पर थी । देश ने भुगतानों के सन्तुलन में असाधारण संकट का अनुभव किया तथा विदेशी विनिमय के भण्डार खाली हो गये । अन्तर्राष्ट्रीय विश्वास का पतन हो चुका था । औद्योगिक उत्पादन गिर रहा था तथा मुद्रा स्फीति की दर 17 प्रतिशत तक पहुंच गयी जोकि सभी समयों के स्तर से ऊँची थी ।
स्थिति पर काबू पाने के लिये सरकार ने वर्ष 1991-92 से आर्थिक सुधारों के विभिन उपायों का आरम्भण किया ।
सुधारों की नीतियों में निम्नलिखित सम्मिलित हैं:
ADVERTISEMENTS:
(i) उद्योग को अधिक प्रतियोगी प्रोत्साहन उपलब्ध करवाने के लिये औद्योगिक नीति (1991) के सुधार ।
(ii) सार्वजनिक क्षेत्र को आत्म-निर्भर एवं इसके निष्पादन में सुधार उपलब्ध करवाने के लिये सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार ।
(iii) निर्यातों के संवर्धन तथा भुगतानों के सन्तुलन के संकट से निपटने के लिये व्यापारिक नीति में सुधार ।
(iv) राजकोषीय सुधारों द्वारा समष्टि-आर्थिक स्थिरीकरण ।
ADVERTISEMENTS:
इन सब सुधारों को अपना कर भारत ने विदेशी भुगतानों में सामान्यता को पुन: स्थापित किया है । इनसे स्फीतिकारी प्रभावों की मात्रा में कमी हुई है । इसके अतिरिक्त औद्योगिक उत्पादन की प्रवृत्ति भी परिवर्तित हो गई है । आर्थिक सुधारों के क्षेत्र को विस्तृत करने के लिये सरकार ने अगले बजट में भी आर्थिक सुधारों के नये उपाय अपनाये ।
सबसे अधिक महत्वपूर्ण नीति उपाय निम्नलिखित हैं:
(i) वर्ष 1992-97 और 1997-2002 की निर्यात-आयात नीति का आरम्भ तथा अप्रैल 1998 में इनमें संशोधन ।
(ii) सार्वजनिक क्षेत्र में विनिवेशन ।
ADVERTISEMENTS:
(iii) राजकोषीय स्थिरीकरण ।
(iv) कर सुधारों की नीति ।
(v) रुपये की पूर्ण विनियमता (1993-94) ।
(vi) चालू खाते की विनियमता (1994-95) ।
(vii) आशिक पूंजी खाते की विनियमता (1996-97) ।
इस सरकार द्वारा अनुसरित आर्थिक मुक्ति मुख्यतः राजकोषीय अनुशासन और संरचनात्मक सुधारों के दो स्तम्भों पर आधारित थी । यदि सुधार की इस प्रवृत्ति का पूर्ण भावना के साथ अनुसरण किया जाता है तो समीप भविष्य में हम अधिक निर्यात क्षेत्र में अभी कोई विशेष सुधार नजर नहीं आ रहे । भारतीय उद्योगों को नई स्थितियों के साथ ढलने में कुछ समय लगेगा तथा शीघ्र ही यह अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता प्राप्त करने के योग्य हो जायेगा ।
आर्थिक सुधारों की दूसरी पीढ़ी (Second Generation Economic Reforms):
आर्थिक सुधारो को आगे बढाने तथा आर्थिक सुधारों का आनन्द भोगने के लिये भारत निश्चित काल में सुधारों की दूसरी पीढ़ी लाने के लिए वचनबद्ध है । प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 27 नवम्बर 2001 में आर्थिक सुधारों पर एक कैबिनेट कमेटी का गठन किया ।
इस उच्च अधिकारों वाली समिति के सदस्यों में सम्मिलित थे- गृह मन्त्री, वित्त मन्त्री, वाणिज्य मन्त्री, कानून, ग्रामीण विकास, विनिवेशन, कृषि मन्त्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष । परिषद् ने निर्देशन एवं संस्थागत सुधारों द्वारा अर्थव्यवस्था को प्रगति के मार्ग पर लाने के उपायों पर विचार किया ।
संक्षेप में दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों ने राजकोषीय, वित्तीय, संरचनात्मक, श्रम कानूनों में सुधारों आदि पर विशेष बल दिया । राजकोषीय सुधारों ने आयकर के आधार को विस्तृत करने तथा उत्पादन एवं सीमा शुल्कों के ढांचे को व्यवस्थित करने का कार्य आरम्भ किया । मुख्य वित्तीय क्षेत्र के सुधारों में सम्मिलित है-निजी कम्पनियों को बीमा क्षेत्र में प्रवेश और विदेशी बैंकों को भारत में अपनी शाखाएं खोलने की इजाजत ।
(i) नई विकास युक्ति (New Growth Strategy):
वित्त मन्त्री ने अपने वर्ष 2000-01 के बजट भाषण में शीघ्र ही दूसरी पीढ़ी के सुधारो को आरम्भ करने का समर्थन किया । उनके अनुसार, ”विकास अपने आप में केवल एक लक्ष्य नहीं है, यह हमारे लोगों के लिये रोजगार के अवसर बढ़ाने तथा उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाने का एक वाहन है । दीर्घकालीन तथा विस्तृत आधार वाली वृद्धि के साथ हमारे सभी कार्यक्रम जैसे ग्रामीण विकास सड़कों का निर्माण, गृह निर्माण, ज्ञान आधारित उद्योगों का संवर्धन और मानवीय साधनों की गुणवत्ता को बढ़ाना आदि से रोजगार के विस्तार को दृढ़ बढ़ावा मिलेगा, हमारे देश में निर्धनता का इससे बड़ा कोई अन्य उपचार नहीं हो सकता ।”
नई वृद्धि युक्ति के उद्देश्य संक्षेप में नीचे दिये गये हैं:
(i) हमारे देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास की नींव को सुदृढ़ करना, विशेष रूप में कृषि तथा उससे सम्बन्धित गतिविधियों को सुदृढ़ बनाना ।
(ii) देश के विभिन्न परम्परागत उद्योगों जैसे वस्तु, चमड़ा, कृषि-संसाधन तथा लघु क्षेत्रीय उद्योग को दृढ़ एवं आधुनिक बनाना ।
(iii) नये ज्ञान आधारित उद्योगों जैसे इन्कोटैक, बायोटैक्नोलोजी और फार्मास्युटकल की सम्भावनाओं को बढाना ।
(iv) मानवीय साधनों के विकास और अन्य सामाजिक कार्यक्रमों और शिक्षा सम्बन्धी नीतियों और अन्य सामाजिक सेवाओं को उच्च प्राथमिकता देना । निर्धन तथा समाज के कमजोर वर्गों की ओर विशेष ध्यान देना ।
(v) बिजली, सड़कों, रेलवे, वायु मार्गों, बन्दरगाहों और दूर-संचार के सम्बन्ध में संरचनात्मक त्रुटियों को सुधारने में निरन्तर प्रयास करना ।
(vi) निर्यातों की तीव्र वृद्धि, उच्च विदेशी निवेश तथा विदेशी ऋण के प्रबन्ध की तर्कसंगत व्यवस्था द्वारा विश्व की अर्थव्यवस्था में भारतीय भूमिका को दृढ़ करना ।
(vii) राजकोषीय अनुशासन के लिये एक विश्वसनीय ढांचे की स्थापना ।
पुन: 2001-02 के बजट ने दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों के लिये एक व्यापक कार्य सूची तैयार की ।
तदानुसार विस्तृत युक्तियां निम्नलिखित हैं:
(i) कृषि क्षेत्र के सुधारों को तेज करना तथा खाद्य वित्त व्यवस्था का उत्तम प्रबन्ध ।
(ii) संरचनात्मक निवेश को तीव्र करना, वित्तीय क्षेत्र और पूजी बाजारों के निरन्तर सुधार तथा आर्थिक गतिविधियों को रोकने वाले व्यर्थ नियन्त्रणों को दूर करके संरचनात्मक सुधारों को गहरा करना ।
(iii) उत्तम शिक्षा अवसरों और सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रमों द्वारा मानवीय विकास की प्राप्ति ।
(iv) अनुत्पादक व्यय पर कड़ा नियन्त्रण लगाना, वित्तीय सहायताओं को तर्क संगत बनाना तथा सरकारी व्यय की गुणवत्ता में सुधार ।
(v) निजीकरण की प्रक्रिया को तीव्र करना तथा सार्वजनिक उद्यमों का पुनर्निर्माण ।
(vi) कर आधार को विस्तृत करके तथा उचित एवं निष्पक्ष करों द्वारा राजस्व को बढ़ाना ।
इसी प्रकार वर्ष 2002-03 में इन नीतियों को सभी स्तरों पर लागू करके उन्हें दृढ़ बनाने का लक्ष्य रखा गया ।
बजट ने इस प्रक्रिया को सुधारों की एक युक्ति द्वारा राज्यों तक ले जाने का प्रस्ताव रखा जिनमें सम्मिलित है:
(i) कृषि एवं खाद्य अर्थव्यवस्था को महत्व देना जारी रखना ।
(ii) संरचना में सार्वजनिक एवं निजी निवेश को बढ़ाना ।
(iii) वित्तीय क्षेत्र एवं पूंजी बाजारों को दृढ़ करना ।
(iv) संरचनात्मक सुधारों को गहरा करना और औद्योगिक वृद्धि को पुन: उत्पादित करना ।
(v) निर्धनों के लिये सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था ।
(vi) केन्द्र एवं प्रान्तीय स्तरों पर कर सुधारों को दृढ़ करना तथा राजकोषीय समन्वयन जारी रखना । यद्यपि, यह जानना आवश्यक है कि आर्थिक सुधारों के पहले दशक में देश ने थोड़ी सी उच्च वृद्धि दर का अनुभव किया, जोकि 6 प्रतिशत से 7 प्रतिशत के बीच थी ।
इसके अतिरिक्त अग्रलिखित का भी अनुभव किया गया । विदेशी विनिमय की वस्तुएं तैयार करना, निर्यात-आयात को सुधारना तथा राजकोषीय घाटे को 1990-91 में सकल घरेलू उत्पाद को 6.6 प्रतिशत से घटा कर वर्ष 2001-02 तक प्रतिशत करना । इस प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुये, वित्त मन्त्री ने अवलोकन किया कि अगला दशक भारत का विकास-दशक होगा ।
इसी समय यह देखा गया कि आर्थिक सुधारों की पहली स्थिति में औद्योगिक क्षेत्र को प्राथमिकता मिली तथा कृषि क्षेत्र की सम्भावनाओं की अवहेलना की गई । इस प्रकार यह कहा जाता है कि सुधारों की पहली स्थिति के दौरान प्रच्छन्नता की सीमा बहुत संकीर्ण एवं असन्तोषजनक थे ।
इसलिये दूसरी पीढ़ी के सुधारों को अपनी प्रच्छन्नता बढ़ा कर कृषि एवं लघु स्तरीय उद्योगों को अपने में सम्मिलित करना चाहिये, क्योंकि इससे रोजगार के अधिक अवसर उत्पन्न होंगे तथा देश में निर्धनता कम होगी ।
(ii) निर्धनता को घटाना (Reduction of Poverty):
पहली पीढ़ी के सुधार निर्धनता उन्मूलन में बुरी तरह से असफल रहे । योजना आयोग के सदस्य डॉ. एस. पी. गुप्ता ने निर्धनता एवं कुल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में प्रतिकूल सम्बन्ध में स्थापना की । उसने गरीबी रेखा के नीचे की जनसंख्या (BPL) की ओर ध्यान आकर्षित करते हुये कहा कि यह वर्ष 1993-94 में 35.07 प्रतिशत से बढ़ कर 1997 में 37.23 प्रतिशत तक पहुँच गई जबकि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 69 प्रतिशत प्रति वर्ष था ।
विश्व विकास रिपोर्ट 2000-01 में वर्णन किया गया है कि ($1 प्रतिदिन अन्तर्राष्ट्रीय निर्धनता रेखा का माप मानते हुये) लगभग 44.2 प्रतिशत भारत की जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे थी । इस अंक को मानते हुये 419 मिलियन लोग भारत में अत्यन्त निर्धनता में रहते हैं, विश्व के कुल निर्धन लोगों में इसका भाग 34.95 प्रतिशत बनता है । अतः भारत अपने गरीबी हटाओ कार्यक्रमों में असफल रहा है, परन्तु जो कुछ इसने प्राप्त किया है वह समस्या से निपटने के लिये पर्याप्त नहीं ।
इसी प्रकार विश्व बैंक की ‘कन्टरी एसीसटैन्स स्ट्रेटजी’ (CAS) पर मध्यावधि उन्नति ने देखा कि भारत ने पिछले दशक में निर्धनता घटाओ के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति की है । इसे अपने प्रयासों को और तेज करने की आवश्यकता होगी । यदि इसे अन्तर्राष्ट्रीय समाज द्वारा स्वीकृत सहस्त्रब्दि विकास लक्ष्यों (MDGS) को प्राप्त करना है ।
विवरण में आगे कहा गया, ”भारत 1990 के दशक में निर्धनता कम करने में प्राप्त की गई शानदार उन्नति के लिये गर्व महसूस कर सकता है जिसके कारण बहुत से जीवन प्रभावित हुये हैं । परन्तु अभी भी निर्धन लोगों को मौलिक सेवाएं उपलब्ध करवाने तथा आय में वृद्धि के चालू दरों को बनाये रखने के लिये जोकि सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये आवश्यक है, बहुत प्रयासों की आवश्यकता है । आर्थिक वृद्धि को बढ़ाना अथवा आर्थिक विकास दर को बनाये रखना भी राजकोषीय स्थिति के स्थिरीकरण, समायोजन, तीव्र संरचनात्मक सुधार तथा सुधरे हुये प्रशासन के बिना कठिन है ।”
उसी समय यह कहा गया कि भारी राजकोषीय घाटों की पूर्ति के कारण वृद्धि की सम्भावनाएँ कम हुई हैं तथा संरचनात्मक सुधारों के कार्यान्वयन की गति धीमी हुई है ।
सभी-तथ्यों को ध्यान में रखते हुये, दूसरी पीढ़ी के सुधारों को निर्धनता घटाने के लिये निम्नलिखित बातें अपनी युक्ति में जोड़नी चाहिये:
(क) आय की निर्धनता को दूर करने के लिये आय कमाने के अवसरों को बढाना चाहिये ।
(ख) विभिन्न स्कीमें करके निर्धनों को सशक्त करना ।
(ग) निर्धनता उन्मूलन का ठीक ढंग से कार्यान्वयन ताकि कार्यक्रमों के लाभ लक्षित वर्ग तक पहुंच सके ।
(घ) अस्वस्थता, संक्रामक रोगों, प्राकृतिक आपदों एवं हिंसा के कारण उत्पन्न जोखिमों से निपटने के लिये सुरक्षा उपलब्ध करवाना ।
(iii) सामाजिक क्षेत्र में सुधार (Reforms in Social Sector):
सुधारों की दूसरी पीढ़ी के अन्तर्गत सामाजिक क्षेत्र की धारणा ने बहुत महत्व प्राप्त किया । भारत सरकार सामाजिक क्षेत्र जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण, जल पूर्ति, सफाई, निवास, ग्रामीण विकास, पोषण आहार, न्यूनतम मौलिक सेवाएं और समान कल्याण आदि के क्षेत्रों में भारी व्यय कर रही है ।
पहले, सुधारों की पहली पीढ़ी के दौरान सरकार राजकोषीय घाटों के कारण सामाजिक क्षेत्र में निवेश नहीं कर पाई । अब, वर्तमान स्थिति में सरकार ने सामाजिक क्षेत्र तथा योजनाबन्दी जैसे शिथिल क्षेत्रों की पहचान की है जिससे शिक्षा, स्वास्थ्य तथा निर्धनता कम करने जैसे कार्यक्रमों द्वारा सामाजिक क्षेत्र के विकास पर पर्याप्त बल दिया जा सके ।
इससे सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में सकारात्मक योगदान के लिये निर्धन लोगों के कौशल एवं योग्यताओं के सुधार में सहायता मिलेगी ।
(iv) राजकोषीय युक्ति (Fiscal Strategy):
वर्ष 1990 के दशक के दौरान राजकोषीय घाटों को ध्यान में रखते हुये, दूसरी पीढ़ी के सुधारों को एक विस्तृत राजकोषीय युक्ति का गठन करना चाहिये जिससे केन्द्र एवं प्रान्तों के बढ़ते हुये राजस्व घाटों की चुनौती का सामना किया जा सके ।
दूसरी पीडी के सुधारों की राजकोषीय युक्ति में निम्नलिखित मौलिक तत्त्व सम्मिलित हैं:
(a) अगले तीन से चार वर्षों के दौरान शून्य राजस्व घाटों की प्राप्ति ।
(b) केन्द्र के लिये राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 3 प्रतिशत तक घटाना तथा राज्यों के लिये 2 प्रतिशत तक घटाना ।
(c) सार्वजनिक क्षेत्र में हानि उठा रहे उद्यमों के लिये विनिवेशन कार्यक्रम जारी रखना ।
(d) कृषि क्षेत्र और उससे सम्बन्धित गतिविधियों एवं ग्रामीण विकास की वृद्धि के प्रोत्साहन के लिये ग्रामीण संरचना पर पूंजीगत व्यय को बढाना ।
(e) समाज के समृद्ध एवं खुशहाल वर्ग को लाभ पहुंचा रही गुण-रहित आर्थिक सहायताओं और छुपी हुई आर्थिक सहायताओं की मात्रा को कम करना ।
(f) केन्द्र एवं प्रान्तों द्वारा कायम रखी गई विभिन्न सामाजिक एवं आर्थिक सेवाओं में उत्तम लागत वसूली के लिये वातावरण तैयार करना ।
(v) नीति निर्देशन में परिवर्तन (Change in Policy Direction):
आर्थिक सुधारों की पहली स्थिति केवल सीमित विषयों जैसे उद्योग और कार्पोरेट सैक्टर को प्रच्छन्न करती है ।
अतः दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों ने नीति निर्देशन में निम्नलिखित परिवर्तन किये हैं:
(a) रोजगार के अवसरों को बढाने के लिये दूसरी पीढ़ी के सुधारों को अपना कर विस्तार कृषि एवं लघु स्तरीय उद्योगों तक बढाना चाहिये ।
(b) ग्रामीण विकास युक्ति को उच्च प्राथमिकता दी जाये ।
(c) शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्र पर पर्याप्त निवेश किये जाये ।
(d) केन्द्र एवं प्रान्तों के राजकोषीय घाटों को कम करने के प्रयत्न किये जायें ताकि शून्य राजस्व घाटे की प्राप्ति हो सके, इसके लिए सरकार को निम्नलिखित कदम शीघ्र उठाने चाहिये:
i. प्रशासनिक व्यय को नियन्त्रित करना,
ii. गुणहीन आर्थिक सहायताएं कम करना,
iii. हानि पर चल रहे उद्योगों में विनिवेश की नीति अपनाना,
iv. सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई सेवाओं की लागत वसूली को सुधारना,
v. राज्य बिजली बोर्डों तथा राज्यों की सड़क यातायात परियोजनाओं के कार्यों को सुधारना,
vi. सार्वजनिक ऋण के बोझ को कम करना,
vii. कृषि कर एवं सेवा कर लगा कर कर-आधार को विस्तृत करना,
viii. कर प्रशासन को दृढ़ बना कर कर-वंचना को रोकना,
ix. अतिरिक्त साधनों की गतिशीलता,
x. सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की उत्पादिकता को बढ़ाना ।
(vi) वित्तीय क्षेत्र के सुधार (Financial Sector Reforms):
देश के वित्तीय क्षेत्र को एक साथ निम्नलिखित पांच विभिन्न स्तरों पर सुलझाना पड़ेगा:
(a) इन कम्पनियों के लोक-नियन्त्रण के लिये,
(b) संस्थागत संरचना,
(c) इन कम्पनियों की तकनीकी उत्पत्ति,
(d) बैंकों और बीमा कम्पनियों के कर्मचारियों की मनोदशा में आवश्यक परिवर्तन लाना ताकि उनका ग्राहकों के प्रति दृष्टिकोण परिवर्तित हो,
(e) प्रतियोगितात्मक वातावरण तैयार करना ।
(vii) श्रम कानूनों में परिवर्तन (Changes in Labour Law):
दूसरी पीढ़ी के सुधारों में श्रम कानून सुधार ने महत्व प्राप्त किया । वर्ष 1999 में सरकार ने श्री रविन्द्र वर्मा की अध्यक्षता में दूसरे श्रम आयोग की स्थापना की, यह आयोग व्यवस्थित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों के वर्तमान श्रम कानूनों को तर्क-संगत बनाने के लिये सुझाव देगा तथा अव्यवस्थित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों के लिये न्यूनतम सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये कानून बनाने के सम्बन्ध में सुझाव देगा ।
यह श्रमिकों को न्यूनतम छुट्टी, सुरक्षा, श्रमिक कल्याण तथा श्रमिकों के स्वास्थ्य और सुरक्षा का ध्यान रखेगा । आयोग ने अपनी रिपोर्ट में श्रमिकों से सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर विचार रखे जैसे इच्छा अनुसार काम करने का अधिकार भेदभाव के विरुद्ध अधिकार, बाल श्रम का निषेध और श्रम प्रशासन आदि ।
आयोग ने इन संस्थाओं की स्थापना का सुझाव दिया:
(i) केन्द्रीय उद्यमों के लिये केन्द्रीय श्रम सम्पर्क आयोग,
(ii) प्रान्तीय स्तर के उद्यमों के लिये प्रान्त श्राप सम्पर्क उग्रयोग तथा
(iii) पूर्व कथित आयोगों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई के लिये एक राष्ट्रीय श्रम सम्पर्क आयोग ।
कम्पनियों को बन्द करने के सम्बन्ध में, आयोग ने कम्पनियों बने बन्द करने की आज्ञा दे दी तथा श्रमिकों को पर्याप्त क्षतिपूर्ति उपलब्ध करवाने के सुझाव दिये गये । इस प्रकार ऐसी संस्था के बन्द होने के प्रकरण में जहां कर्मचारियों की संख्या 300 अथवा अधिक है, वहां कम्पनी का स्वामी कम्पनी के बन्द होने से 90 दिन पहले सरकार से आज्ञा लेगा ।
यदि प्रार्थना पत्र मिलने से 60 दिनों के अन्दर सम्बन्धित अधिकारी द्वारा कम्पनी बन्द करने की इजाजत नहीं की जाती तो मान लिया जायेगा कि इजाजत मिल गई है ।
आयोग ने इन्स्ट्रियल डिसप्यूटस एक्ट तथा केन्द्रीय लेबर एक्ट के संशोधन का सुझाव दिया, कार्य समय में वृद्धि, छुट्टियों की संख्या घटाना, व्यापार संघों की कार्यशैली के नये आदर्श तथा सात नये श्रम नियम बना कर श्रम नियमों की व्यवस्थित करने सम्बन्धी संशोधन भी किये गये ।
श्रम कानूनों के सुधारों के सम्बन्ध में, मन्त्रियों के वर्ग की रिपोर्ट को, 22 फरवरी 2002 को हुई कैबिनेट की मीटिंग में प्रस्तुत किया गया । कैबिनेट ने वित्त मन्त्री द्वारा वर्ष 2001-02 का बजट पेश करते समय किये गये वायदे को स्वीकृत किया ।
श्रम कानून सुधारों के प्रारूप में प्रस्तावित परिवर्तन में निम्नलिखित उपवाक्य हैं:
1. एक हजार से कम कर्मचारियों वाली इकाइयां सरकारी स्वीकृति लिये बिना बन्द की जा सकती है ।
2. सभी आकस्मिक हड़तालें अवैध होगी, लोक उपयोगी सेवाओं में काम करने वाले कर्मचारियों को 45 दिनों का नोटिस तथा अन्य स्थानों पर 30 दिन का नोटिस देना पड़ेगा ।
3. एक स्वामी प्रतिवर्ष दो प्रतिशत स्टाफ को इनके उत्पादन के आधार पर सेवा मुक्त कर सकता है ।
4. छटनी के प्रकरण में एक स्वामी को कर्मचारियों द्वारा पूरे किये गये प्रत्येक वर्ष के पीछे 45 दिनों का वेतन देना पड़ेगा जोकि पहले केवल 15 दिनों का था ।
5. नियुक्तिकर्ता (स्वामी) यदि औद्योगिक सम्बन्धों के नियमों का उल्लंघन करता है तो उसे 6 महीने का कारावास और 2000 रुपये जुर्माना हो सकता है ।
श्रम सुधारों की उपरोक्त व्यवस्थाओं की प्रक्रिया यद्यपि 1000 श्रमिकों वाली हानिकारक इकाइयों को सरकार से स्वीकृति लिये बिना स्वामी को इन्हें बन्द करने की इजाजत देती है । इसमें कुछ उपाय हैं जो श्रम-सहायक हैं तथा उद्योग प्रबन्धकों द्वारा पसन्द नहीं किये जायेंगे ।
भारत सरकार ने 28, 29 सितम्बर 2002 को बहुत से विवादास्पद विषयों पर परिचर्चा के लिये भारतीय श्रमिक कान्फैंस (ILC) बुलाई । आई.एल.सी. ने एक राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा प्राधिकरण का सुझाव दिया जो प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में कार्य करेगा, श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा पर अधिक सरकारी व्यय, त्रिपक्षीय योगदानों से विशेष कोष तथा बहुत सी अन्य श्रम कल्याण योजनाओं के भी सुझाव दिये गये ।
इसने श्रम कानूनों के सरलीकरण तथा तर्क संगत बनाने सम्बन्धी आवश्यकता पर बल दिया जिससे लघुस्तरीय उद्योग वैश्वीकरण की चुनौतियों का सामना करने के योग्य हो जाये ।
(viii) अन्य सुधार (Other Reforms):
दूसरी पीढ़ी के सुधारों के अन्तर्गत भारत सरकार ने व्यापार एवं विदेशी निवेश, सार्वजनिक क्षेत्र के सुधार जिससे कौशल में वृद्धि हो और वृद्धि-मुक्त पूजी उत्पादन अनुपात (ICOR) कम हो, बीमा क्षेत्र में नियमनीकरण वाली संरचना, बैंकिंग, पूजी बाजार, विद्युत, पोर्ट, तार संचार आदि क्षेत्रों में सुधारों के प्रस्ताव रखे । इसने निजी क्षेत्र में बीमा क्षेत्र के प्रवेश का पक्ष किया ।