उद्योगों की असंतुलित विकास रणनीति | Read this article in Hindi to learn about:- 1. असन्तुलित वृद्धि का अर्थ (Meaning of Unbalanced Growth) 2. असन्तुलित वृद्धि की नीति का समर्थन करने के कारण (Reasons in Favour of Unbalanced Growth Strategy) 3. हर्षमैन रणनीति (Hirshman’s Strategy) and Other Details.
Contents:
- असन्तुलित वृद्धि का अर्थ (Meaning of Unbalanced Growth)
- असन्तुलित वृद्धि की नीति का समर्थन करने के कारण (Reasons in Favour of Unbalanced Growth Strategy)
- हर्षमैन की असन्तुलित वृद्धि रणनीति (Hirshman’s Strategy for Unbalanced Growth)
- असन्तुलित वृद्धि का पथ (Path of Unbalanced Growth)
- असन्तुलित वृद्धि का चित्रात्मक निरूपण (Diagrammatic Representation of Unbalanced Growth)
- असन्तुलित वृद्धि का आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Appraisal of Unbalanced Growth)
1. असन्तुलित वृद्धि का अर्थ (Meaning of Unbalanced Growth):
असन्तुलित वृद्धि अर्थव्यवस्था के कुछ चुने हुए प्राथमिकता युक्त उद्योगों में विनियोगों के केन्द्रीयकरण की नीति है । विकास के प्रारम्भिक चरणों में उन क्षेत्रों में विनियोग किया जाना चाहिए जो भविष्य में बढ़ती हुई वृद्धि दरों को प्रदर्शित करें । असन्तुलित विकास के द्वारा अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण उद्योगों या क्षेत्रों में किया भारी विनियोग विकास की प्रक्रिया को गतिशील करता है ।
अविकसित देशों में संसाधनों की सीमितता मुख्य समस्या है । सीटोवस्की इसी कारण दुर्लभ पूँजी एवं मानवशक्ति संसाधनों को कुछ मुख्य उद्योगों में केन्द्रीकृत करने पर जोर देते थे । एच.डब्ल्यू. सिंगर ने असन्तुलित वृद्धि को विकास का प्राकृतिक पथ माना । हर्षमैन के अनुसार आर्थिक विकास असन्तुलनों की एक शृंखला के कारण होता है ।
2. असन्तुलित वृद्धि की नीति का समर्थन करने के कारण (Reasons in Favour of Unbalance Growth Strategy):
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एतिहासिक अवलोकन एवं अनुभव सिद्ध प्रमाणों से पुष्ट होता है कि वृद्धि की प्रक्रिया सन्तुलित नहीं होती बल्कि यह असन्तुलनों को समाहित करती है । अन्य क्षेत्रों के सापेक्ष एक क्षेत्र अधिक तेजी से विकास करता है तथा अन्य क्षेत्र या तो इसका अनुसरण करना चाहते है या उससे आगे निकल जाना चाहते है । असन्तुलनों के द्वारा विकास की प्रक्रिया में उत्तेजना प्राप्त होती है जिससे और अधिक असन्तुलन एवं उत्तेजना बढ़ती है । यूरोपीय देशों में औद्योगिक क्रान्ति के पीछे भी असन्तुलित विकास की प्रवृति देखी गयी । इसी कारण हर्षमैन का मत है कि विकास नीति को सामान्यत असन्तुलनों को समाप्त करने के बजाय उन्हें जीवित रखने पर आधारित होना चाहिए । यदि अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना है तो विकास नीति का काम तनाव, गैरआनुपातिकताओं एवं असन्तुलनों को बनाए रखना होना चाहिए ।
सन्तुलित वृद्धि विश्लेषण की आलोचना इस आधार पर भी की जाती है कि बड़े धक्के या प्रबल प्रयास के अधीन किए गए विनियोगों से उत्पादन की मौद्रिक एवं वास्तविक लागतों में वृद्धि होती है । अविकसित देशों में उपयुक्त पूँजी यन्त्रों कुशलता, सस्ती विद्युत, वित्त एवं अन्य कच्चे पदार्थों की कमी होती है, ऐसे में आर्थिक रूप से लाभप्रद विनियोग किया जाना सम्भव नहीं बनता ।
संक्षेप में सन्तुलित वृद्धि विश्लेषण अर्द्धविकसित देशों की क्षमताओं के अवास्तविक मूल्यांकन अर्द्धविकसित देशों में साधनों की गैर आनुपातिकता की समस्या संसाधनों की सीमितता नियोजन तप्त की अक्षमता जैसे पक्षों के आधार पर उपयोगी नहीं माना जाता ।
असन्तुलित वृद्धि के द्वारा सन्तुलित वृद्धि की कठिनाइयों एवं संकटों से बचा जा सकता है । असन्तुलित वृद्धि की नीति अर्द्धविकसित देशों में निर्धनता के विषम दुश्चक्र को खण्डित करने के लिए अधिक उपयोगी मानी जाती है ।
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अर्द्धविकसित देशों में सन्तुलित वृद्धि विश्लेषण इनकी क्षमताओं को इनकी सृजनात्मक कुशलताएँ जाने बिना अवास्तविक प्रत्याशाओं के साथ सम्बन्धित कर देती है । अर्द्धविकसित देशों में कुशलता एवं पूंजी संसाधनों का अभाव होता है, जबकि सन्तुलित वृद्धि का सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि कुशलता एवं उपक्रम योग्यता से वंचित मानवशक्ति अत्यन्त कम समय में कौशल निर्माण एवं उपक्रम प्रवृति प्राप्त करने में सफल बन जाएगी तथा इस अवस्था में पहुँच जाएगी जिससे नये उद्योगों की शृंखला को प्रारम्भ किया जा सके ।
इसी कारण प्रो. सिंगर ने सन्तुलित वृद्धि विश्लेषण को आर्थिक साहित्य में महत्वपूर्ण पठन सामग्री तो माना लेकिन अर्द्धविकसित देशों के लिए एक धुंधली तस्वीर की संज्ञा दी । कारण यह था कि समरूपी विकास के लिए जो संसाधन आवश्यक है उनकी सीमितता व्यापक रूप से अनुभव की जाती है ।
असन्तुलित विकास नीति का समर्थन करने वालों में अलबर्ट ओ. हर्षमैन मुख्य हैं । हर्षमैन ने अपनी पुस्तक The Strategy of Economic Development (1969) में असन्तुलित विकास की रणनीति एवं इसकी व्यावहारिकता का विश्लेषण किया । पाल स्ट्रीटन ने अपने विश्लेषण Unbalanced Growth (1961) में सन्तुलित एवं असन्तुलित वृद्धि की रणनीतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण करते हुए असन्तुलित वृद्धि को आर्थिक वृद्धि हेतु अधिक उपयुक्त बताया ।
हैंस सिंगर द्वारा The Concept of Balanced Growth and Economic Development Theory and Facts (1958) एवं मारकस फ्लेमिंग ने External Economies and the Doctrine of Balanced Growth लेख में असन्तुलित विकास का समर्थन किया गया । प्रो. डब्ल्यू. डब्ल्यू. रोस्टव ने भी कुछ चुने हुए क्षेत्रों के सन्दर्भ में असन्तुलित वृद्धि विश्लेषण का पक्ष लिया ।
3. हर्षमैन की असन्तुलित वृद्धि रणनीति (Hirshman’s Strategy for Unbalanced Growth):
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हर्षमैन के अनुसार विकास की सर्वश्रेष्ठ विधि एक पूर्व निर्धारित संरचना के अनुरूप विचारपूर्वक अर्थव्यवस्था को असन्तुलित करने से है । यदि अर्थव्यवस्था में हमेशा आगे की ओर गति करनी हो तो विकास नीति का कर्त्तव्य तनाव, गैर आनुपातिकता एवं असन्तुलन बनाए रखना है… इस प्रकार सन्तुलन से दूर लाने वाली स्थिति विकास की एक आदर्श प्रवृति है जिसके अधीन विकास की प्रत्येक स्थिति एक पूर्व असन्तुलन से प्रेरित होती है तथा इस प्रकार एक नए असन्तुलन का सृजन करती है जो पुन होने वाली गति की आवश्यकता रखता है । विभिन्न क्षेत्रों का असमान विकास तीव्र विकास की दशाओं को उत्पन्न करता है ।
हर्षमैन ने विकास की प्रक्रिया को असन्तुलनों की शृंखला के द्वारा विश्लेषित किया । इस प्रकार एक असन्तुलन विकास की गति को आगे बढ़ाता है जिससे पुन: असन्तुलन उत्पन्न होता है । यह प्रक्रिया चलती रहती है जिसे सी-सौ प्रगति के द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है । हर्षमैन ने स्पष्ट किया कि जब नयी परियोजनाओं को प्रारम्भ किया जाता है तब वह उन बाह्य मितव्ययिताओं से लाभान्वित होती है जो पिछली परियोजनाओं के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई ।
नयी परियोजनाएँ नवीन बाह्य मितव्ययिताओं का सृजन करती है जिनका विदोहन क्रमश: अगले क्रम में किया जाता है । कुछ परियोजनाएँ ऐसी होती है जो बाह्य मितव्ययिता को सृजित करने की अपेक्षा इनका अधिक इनका अधिक प्रयोग करती है, इन्हें विनियोगों की केन्द्रित शृंखला कहा जाता है ।
यह सामाजिक दृष्टि से कम वांछनीय होती हैं । इन्हें प्रेरित विनियोग के नाम से भी जाना जाता है । दूसरी तरफ कुछ परियोजनाएँ ऐसी होती है जो बाह्य मितव्ययिता के प्रयोग की अपेक्षा इनका अधिक सृजन करती है; इन्हें विनियोगों की विचित्रता युक्त शृंखला कहा जाता है । यह निजी लाभ की अपेक्षा सामाजिक आवश्यकताओं व इच्छाओं की दृष्टि से उपयुक्त हैं ।
विकास नीति की दृष्टि से अर्थव्यवस्था हेतु दो तरीके प्रासंगिक बनते हैं:
(i) विनियोगों की केन्द्रित शृंखला को प्रतिबन्धित करना- जो बाह्य मितव्ययिता को सृजित करने की अपेक्षा इनका अधिक प्रयोग करती है ।
(ii) विनियोगों की विभिन्नता युक्त शृंखला को प्रोत्साहित करना- जो बाह्य मितव्ययिता के प्रयोग की अपेक्षा इनका अधिक सृजन करती हैं ।
इस प्रकार अर्थव्यवस्था में असन्तुलन द्वारा विकास सम्भव किया जाता है ।
4. असन्तुलित वृद्धि का पथ (Path of Unbalanced Growth):
असन्तुलित वृद्धि के पथ को प्रेरित विनियोग पूरकता एवं वाह्य मितव्ययिता के द्वारा विश्लेषित किया जा सकता है ।
प्रेरित विनियोग की धारणा गुणक के विचार के समकक्ष है । प्रत्येक विनियोग के परिणामस्वरूप अगले विनियोगों की शृंखला प्रेरित होती है । पूरकता से आशय एक ऐसी दशा से है जहाँ A का बढ़ा हुआ उत्पादन 8 की उपलब्ध पूर्ति में वृद्धि हेतु दबाव उत्पन्न करता है ।
यदि B एक निजी रूप से उत्पादित वस्तु अथवा सेवा है तो यह दबाव के घरेलू उत्पादन की वृद्धि या इसके आयात को प्रोत्साहित करता है, क्योंकि इसकी पूर्ति उपलब्ध कराने में उत्पादक या व्यापारी निजी लाभ प्राप्त करेगा । यदि B एक निजी रूप से उत्पादित वस्तु नहीं है तो यह दबाव मात्र व्यक्ति को प्राप्त होने वाले लाभ से नहीं बल्कि B को उपलब्ध कराने वाले राजनीतिक दबाव के रूप में सामने आएगा ।
यह दशा ऐसी सार्वजनिक सेवाओं यथा शिक्षा, न्याय, कानून, पानी, बिजली, यातायात, बैंकिंग सुविधा के प्रबन्ध से सम्बन्धित होगी । इस प्रकार पूरकता विकास की बाधाओं, कमियों व दुर्बलता के प्रति शिकायतों के रूप में सामने आती है । इन्हें दूर करने के लिए की जाने वाली क्रियाएँ लाभ के उद्देश्य से नहीं जनसमूह की आवाज व दबाव के रूप में उभरती हैं ।
पूरकताओं के कारण एक उद्योग या क्षेत्र में किया गया विनियोग अन्य उद्योग या क्षेत्रों में विनियोग को प्रेरित करता है । नए उद्योग बहुधा बाह्य मितव्ययिताओं का उपभोग करते हैं जो पिछले उद्योगों द्वारा सृजित किए गए थे तथा ऐसी बाह्य मितव्ययिताओं को उत्पन्न करते हैं जिनका उपभोग भविष्य में किया जाएगा । हर्षमैन के अनुसार एक आदर्श दशा वह है, जबकि एक असन्तुलन विकास की गति का कारण बनता है जिससे पुन: समान असन्तुलन उत्पन्न होता है ।
इस प्रकार यह प्रकिया चलती रहती है:
दो सम्बन्धित क्रियाएँ – प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाएँ एवं सामाजिक उपरिमद पूँजी (Two Related Activities – Directly Productive Activities and Social Overhead Capital):
प्रो. हर्षमैन के अनुसार अर्द्धविकसित देशों में वास्तविक दुर्लभता संसाधनों की नहीं बल्कि उस कुशलता की है जो इन्हें कार्य में लगाती है ।
उन्होंने आरम्भिक विनियोग को दो सम्बन्धित क्रियाओं में विभाजित किया:
(i) प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाएँ या DPA,
(ii) सामाजिक उपरिमद पूँजी या SOC
एक अर्द्धविकसित देश असन्तुलित वृद्धि की नीति को दो प्रकार से लागू कर सकता है:
आरम्भिक विनियोग को प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाओं में संयोजित करके या प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाओं में लगाकर । इन दोनों में से किसी भी प्रकार का विनियोग प्रेरित निर्णय के अतिरिक्त प्रतिफल को अतिरिक्त विनियोग एवं उत्पादन के रूप में प्रदान करता है ।
हर्षमैन ने स्पष्ट किया कि प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाओं एवं सामाजिक उपरिमद पूँजी को एक साथ बढ़ाया जाना सम्भव नहीं है, क्योंकि साधनों के उपयोग की कुशलता सीमित होती है । अत: विस्तार की प्रक्रिया के उस क्रम को निर्धारित करना नियोजन सम्बन्धी मुख्य समस्या है जो प्रेरित विनियोग निर्णयों को अधिकतम करें ।
सामाजिक उपरिमद पूँजी एवं प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाओं की सन्तुलित वृद्धि अर्द्धविकसित देशों में न तो प्राप्त की जा सकनी सम्भव है और न यह वांछित ही है । वृद्धि की दर तब तीव्र हो सकती है जब अर्थव्यवस्था में असन्तुलन विद्यमान हों विशेष रूप से उन प्रेरणाओं एवं दबावों के कारण जिन्हें स्थापित किया जा रहा है ।
अर्थव्यवस्था को असन्तुलित करने के लिए हर्षमैन ने दो वैकल्पिक विधियों को प्रस्तुत किया:
(I) सामाजिक उपरिमद पूँजी के द्वारा अर्थव्यवस्था को असन्तुलित करना,
(II) प्रत्यक्ष रूप से उत्पादकीय क्रियाओं द्वारा अर्थव्यवस्था को असन्तुलित करना ।
(I) सामाजिक उपरिमद पूँजी के द्वारा अर्थव्यवस्था को असन्तुलित करना:
सामाजिक उपरिमद पूँजी को सामान्यत: उन आधारभूत सेवाओं के द्वारा परिभाषित किया जाता है जिनके बिना प्राथमिक द्वितीयक व तृतीयक उत्पादक क्रियाएँ कार्य नहीं करती ।
सामाजिक उपरिमद पूँजी को संकीर्ण एवं ध्यापक अर्थों में स्पष्ट किया जाना सम्भव है । संकीर्ण अर्थों में SOC के अर्न्तगत यातायात एवं शक्ति को सम्मिलित किया जाता है, जबकि ध्यापक अर्थों में इसके अधीन सभी सार्वजनिक सेवाएँ सम्मिलित है, जैसे- शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, यातायात, संवादवहन, शक्ति, जलपूर्ति, सिंचाई, न्याय एवं कानून इत्यादि ।
सामाजिक उपरिमद पूँजी के अन्तर्गत होने वाली क्रियाओं की दशाएँ निम्नांकित हैं:
(i) इस क्रिया के द्वारा उपलब्ध सेवाएं व आर्थिक क्रियाओं की एक व्यापक किस्म ।
(ii) सभी देशों में उपलब्ध सेवाएँ किसी सार्वजनिक नियन्त्रण के अधीन हो ।
(iii) सेवाओं का आयात किया जाना सम्भव न हो ।
(iv) इन सेवाओं को उपलब्ध कराने वाला विनियोग तकनीकी अविभाव्यताओं के साथ-साथ उच्च पूँजी उत्पाद अनुपात को प्रदर्शित करें ।
सामाजिक उपरिमद पूँजी में किया गया भारी विनियोग प्रत्यक्ष रूप से उत्पादकीय क्रियाओं में निजी विनियोग को प्रेरित करता है । उदाहरण के लिए देश में सड़क-रेल की व्यवस्था एवं सस्ती दरों पर बिजली उपलब्ध कराने पर छोटे औद्योगिक उपक्रमों में विनियोग प्रोत्साहित होता है । यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सामाजिक उपरिमद पूंजी में किया विनियोग अपने आप अन्तिम उत्पाद का उत्पादन नहीं करता, लेकिन यह प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाओं में किए गए विनियोग के लिए सहायक होता है ।
सामाजिक उपरिमद पूँजी से प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाओं की ओर होने वाली क्रियाओं का सृजन लाभ की प्रत्याशाओं के द्वारा होता है । हर्षमैन ने इस प्रक्रिया को SOC की अतिरिक्त क्षमता के द्वारा होने वाले विकास की संज्ञा दी है ।
(II) प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाओं द्वारा अर्थव्यवस्था को असन्तुलित करना:
प्रारम्भ में प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाओं को स्थापित करके भी अर्थव्यवस्था को असन्तुलित किया जा सकता है । यदि प्रारम्भ में प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाओं DPA को स्थापित किया जाए तो उत्पादन की लागत के अधिक होने की सम्भावना बढ़ती है, क्योंकि सामाजिक उपरिमद पूँजी का अभाव होता है ।
लेकिन यह दशा लम्बे समय तक नहीं चलती, क्योंकि राजनीतिक दबाव उठ खड़े होते हैं जो सरकार को इस बात के लिए बाह्य करते है कि वह सामाजिक उपरिमद पूँजी SOC में विनियोग करें । इस प्रकार राजनीतिक दबाव DPA से SOC की ओर ले जाने की प्रवृति रखते हैं । हर्षमैन ने इस प्रक्रिया को SOC की कमी के द्वारा होने वाले विकास की संज्ञा दी है ।
5. असन्तुलित वृद्धि का चित्रात्मक निरूपण (Diagrammatic Representation of Unbalanced Growth):
असन्तुलित वृद्धि की व्यवस्था के चित्रात्मक निरूपण हेतु सामाजिक उपरिमद पूँजी SOC एवं प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाओं को ध्यान में रखा जाता है । SOC में किए गए विनियोग को Y-अक्ष में तथा DPA में किए गए विनियोग की मात्रा को X-अक्ष में प्रदर्शित किया गया है ।
एक निश्चित समय में SOC व DPA के विभिन्न संयोगों के द्वारा प्राप्त उत्पादन सम उत्पाद वक्र IQ1, IQ2, IQ3 से प्रदर्शित करते है । जैसे-जैसे समउत्पाद वक्र IQ1 से IQ2 व IQ3 की ओर बड़े यह सकल राष्ट्रीय उत्पाद के स्तर को प्रदर्शित करता है । सैद्धान्तिक सरलता हेतु वक्रों को इस प्रकार खींचा गया है । कि इनके अनुकूलता बिन्दु 45० रेखा पर पड़ते हैं । 45० रेखा DPA एवं SOC की सन्तुलित वृद्धि को प्रदर्शित करती है ।
अर्द्धविकसित देशों में साधनों के उपयोग की क्षमता सीमित होती है इस कारण का एक रूप विस्तार सम्भव नहीं होता अत: उन विस्तार की दशाओं को निर्धारित किया जाता है जो निर्णय लेने की क्षमता को अधिकतम करते हैं ।
SOC की अतिरिक्त क्षमता के द्वारा विकास की दशा को निम्न प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है । अर्थव्यवस्था के विकास पथ को चित्र में AA1BB2C के द्वारा दिखाया गया है । A1 बिन्दु से आरम्भ करते हुए SOC में A1 तक वृद्धि होती है जो DPA में वृद्धि को आकर्षित करती है जब तक कि 8 बिन्दु पर सन्तुलन की प्राप्ति न हो जाए ।
B बिन्दु पर अर्थव्यवस्था सकल राष्ट्रीय उत्पाद के उच्च स्तर को बताती है । सकल राष्ट्रीय उत्पाद के बढ़ने पर सरकार SOC में पुन: विनियोग करती है जिससे SOC बिन्दु B2 तक बढ़ता है । SOC की यह वृद्धि DPA को प्रेरित करती है तथा अर्थव्यवस्था C बिन्दु पर सन्तुलन में आती है ।
यदि अर्थव्यवस्था SOC की कमी के द्वारा विकास का पथ अपनाए तब इसे AB1BC1C के द्वारा दिखाया जाता है । इस दशा में DPA बिन्दु A से B1 तक बढ़ाया जाता है । सन्तुलन की प्राप्ति हेतु SOC में वृद्धि A से A1 एवं फिर A1 से B तक की जाती है । यदि DPA में पुन: C1 तक वृद्धि हो तब SOC तब तक बढ़ेगा जब तक कि बिन्दु C की प्राप्ति न हो जाए ।
हर्षमैन के अनुसार SOC की अतिरिक्त क्षमता के द्वारा विकास की प्रवृति स्वयं उपजने वाली एवं शीघ्र इस अर्थ में होती है कि यह अधिक नियमित एवं सतत् होती है । अपेक्षाकृत कुछ समय के उपरान्त सम्भव होगा, क्योंकि राजनीतिक दबाव उत्पन्न होने में कुछ विलम्ब होता है जिस कारण SOC के समायोजन में देरी हो जाती है ।
विकास के दोनों पथ प्रेरणाओं एवं दबावों को उत्पन्न करते हैं । इनकी सापेक्षिक क्षमता का मूल्यांकन मुख्यत: उपक्रमशीलता तथा राजनीतिक एवं जन दबाव के प्रति अधिकारियों के प्रत्युत्तर पर निर्भर करता है । हर्षमैन के अनुसार विकास के दोनों पथों के मध्य का आधारभूत अन्तर मुख्यत: प्रोत्साहन के प्रकार पर निर्भर करता है ।
अतिरिक्त SOC क्षमता आवश्यक रूप से अनुमोदन की प्रवृति रखती है । यह DPA की ओर विनियोग आमन्त्रित करती है, जबकि दूसरी तरफ SOC की कमी विवश करती है, क्योंकि यह सुधार हेतु किए जाने वाले प्रयासों के लिए उन लोगों पर निर्भर है जो इसके अभाव से पीडित हैं । अत: उन स्थितियों में जहाँ प्रेरणाओं का अभाव है, विकास हेतु अतिरिक्त क्षमताओं की कमी एक बेहतर उपाय होगा ।
जब DPA में विनियोग बढ़ता है तब SOC की सुविधाओं के लिए दबाव बढ़ेगा । इस प्रकार की नीति की सीमाएं तकनीकी घटकों द्वारा नियत होती हैं, क्योंकि SOC की एक न्यूनतम मात्रा DPA के एक दिए हुए स्तर हेतु पूर्व आवश्यकता है । अर्द्धविकसित एवं पिछड़े हुए क्षेत्रों में जहाँ SOC बिल्कुल नहीं या अत्यन्त न्यून मात्रा में होता है विकास को केवल दु०ए की अतिरिक्त क्षमताओं के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है ।
हर्षमैन के अनुसार SOC की कमी के द्वारा विकास एक अर्द्धविकसित देश के पिछड़े हुए क्षेत्रों हेतु अत्यधिक प्रासंगिक सिद्ध होता है ।
शृंखलाएँ:
अग्रगामी एवं विमुखी:
हर्षमैन ने अर्द्धविकसित देशों में असन्तुलित वृद्धि की रणनीति को अपनाए जाने का सुझाव दिया । उत्पादन करने के लिए विनियोग परियोजना मुख्यत: अग्रगामी एवं विमुखी सम्बन्धों या शृंखलाओं द्वारा निर्दिष्ट की जाती है ।
(i) शृंखला क्या है?
शृंखला को सर्वप्रथम हर्षमैन एवं बाद में सीटोवस्की ने उन सम्बन्धों के द्वारा अभिव्यक्त किया जिसके द्वारा एक उद्योग प्राकृतिक रूप से अन्य के साथ विकसित होता है एक शृंखला विमुखी एवं अग्रगामी होती है ।
विमुखी शृंखला ऐसे सम्बन्धों को अभिव्यक्त करती है जो एक वस्तु की वास्तविक उत्पादन प्रक्रिया द्वारा प्राप्त होती है । अग्रगामी शृंखला उत्पादन के नए क्षेत्र को सूचित करती है जो एक अन्तिम रूप से तैयार उत्पाद द्वारा प्राप्त होती है ।
विमुखी शृंखला का उदाहरण एक नये खुले ट्रांजिस्टर रेडियो कारखाने के प्रत्युतर में खोले जाने वाले बैटरी के उपक्रम या टेलिविजन उद्योग के फलने-फूलने पर विकसित होने वाले एंटेना के उपक्रम से है । एक अग्रगामी शृंखला का उदाहरण दुग्ध संयन्त्र है जो धीरे-धीरे मिल्क पाउडर, पनीर, आइसक्रीम या चाकलेट का उत्पादन भी प्रारम्भ करता है ।
(ii) शृंखला एवं असन्तुलित वृद्धि सिद्धान्त:
असन्तुलित वृद्धि सिद्धान्त शृंखलाओं के द्वारा यह प्रदर्शित करता है कि एक उद्योग किस प्रकार दूसरे उद्योग की ओर स्वतन्त्र विनियोग के प्रोत्साहन में सहायक बनता है । उद्योगों के मध्य शृंखला उपक्रमियों को क्रमिक रूप से बढते हुए अवसरों को उपलब्ध कराने में सहायक बनती है ।
हर्षमैन के अनुसार सामान्य रूप से एक विशिष्ट विनियोग परियोजना अग्रगामी एवं विमुखी शृंखलाओं दोनों को समाहित करती है । इस प्रकार एक विशिष्ट विनियोग परियोजना में किया विनियोग अधिकतम कुल शृंखला को उत्पन्न करता है । अधिकतम शृंखला प्रदान करने वाली परियोजना का स्वरूप प्रत्येक देश में भिन्न-भिन्न होता है एवं इसके बारे में सूचनाएँ आदा प्रदा अध्ययनों के द्वारा ज्ञात होती हैं ।
इटली, जापान एवं अमेरिका के विविध उद्योगों में किए अध्ययन द्वारा हर्षमैन ने लौह एवं इस्पात उद्योग में उच्चतम संयुक्त शृंखला की उपस्थिति दिखायी । अर्द्धविकसित देशों में उन्होंने लौह एवं इस्पात उद्योगों की स्थापना को कुल रखता प्रभाव की दृष्टि से उपयुक्त बतलाया ।
अधिकांश अर्द्धविकसित देश प्राथमिक रूप से कृषि प्रधान है जहाँ कृषि परम्परागत विधि से की जाती है । परम्परागत कृषि द्वारा विमुखी शृंखला का निर्माण नहीं होता । इसी प्रकार अग्रगामी शृंखला प्रभाव भी दुर्बल होते हैं, क्योंकि कृषि उत्पादन का बड़ा अनुपात प्रत्यक्ष उपभोग या निर्यात में रखा जाता है ।
इसके साथ ही कृषि से सम्बन्धित उद्योग जैसे फ्लोर मिल रेशा रस्सी इत्यादि की संख्या भी उत्पादन के सापेक्ष कम होती जाती है । इसी कारण हर्षमैन ने स्पष्ट किया कि अर्द्धविकसित देशों में अर्न्तनिर्भरता व शृंखलाओं की अनुपस्थिति होती है । कृषि में दुर्बल शृंखला प्रभाव एवं विनिर्माण क्षेत्र में सबल शृंखला प्रभावों के कारण अर्द्धविकसित देश औद्योगीकरण कार्यक्रम का चयन करते हैं ।
हर्षमैन के अनुसार औद्योगीकरण केवल उन उद्योगों से प्रारम्भ हो सकता है जो अन्तिम बात प्रदान करते हैं क्योंकि मध्यवर्ती वस्तुओं के लिए बाजार विद्यमान नहीं होता ।
इससे अभिप्राय है कि दो प्रकार के उद्योगों को स्थापित किया जा सकता है:
(i) ऐसे उद्योग जो घरेलू या आयातित प्राथमिक उत्पादों को अन्तिम माँग हेतु चाही जाने वाली वस्तु के रूप में बदलते है ।
(ii) ऐसे उद्योग जो आयातित अर्द्धनिर्मित वस्तुओं को अन्तिम माँग हेतु चाही जाने वाली वस्तु के रूप में बदलते हैं ।
इतिहास साक्षी है कि द्वितीय औद्योगिक क्रान्ति के समय पश्चिमी देशों ने घरेलू एवं आयातित प्राथमिक उत्पादों को ऐसी वस्तुओं के रूप में विनिर्मित किया जिनकी अन्तिम रूप से माँग की जा रही थी । इस कारण कपड़ा, लोहा, इस्पात जैसे कुछ उद्योग बहुत तेजी के साथ फले-फूले ।
अर्द्धविकसित देशों में सामान्यत: अर्द्धनिर्मित वस्तुओं को ऐसी वस्तुओं के रूप में रूपान्तरित करने की स्थिति दिखायी दी जिनकी माँग अन्तिम रूप से की जा रही है । विदेशों से आयात किए गए अर्द्धनिर्मित उत्पाद को अन्तिम रूप से तैयार किया जाता है । इस प्रकार के उद्योगों में रसायन एवं औषधि, टेलीविजन, स्कूटर उपयोगी इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएँ हैं जहाँ स्क्रू ड़ाइवर तकनीक के द्वारा वस्तुओं को अन्तिम रूप दिया जाता है ।
आयातित अर्द्धनिर्मित वस्तुओं के उपयोग द्वारा निर्मित वस्तु बनाने के उद्योग अर्द्धविकसित देशों में पहले स्थापित कर दिए जाते है जिसे हर्षमैन ने Enclave Import Industry कहा । इन उद्योगों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह विमुखी शृंखलाओं के प्रभाव उत्पन्न करते हैं ।
हर्षमैन के अनुसार अर्द्धविकसित देशों के उद्योगों की प्रवृतियों का अनुभव सिद्ध अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि इन देशों में किया गया औद्योगीकरण अर्द्धनिर्मित वस्तुओं को अन्तिम रूप से तैयार करने वाले उद्योगों की स्थापना के उपरान्त मध्यवर्ती वस्तुओं के उत्पादन एवं फिर आधारभूत औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन करता है ।
इस प्रकार औद्योगीकरण कृषि के विकास के लिए समुचित प्रेरणा उत्पन्न करता है । हर्षमैन के अनुसार अर्द्धविकसित देशों के द्वारा अग्रगामी सुखला प्रभाव उत्पन्न होते हैं, जबकि Enclave Import Industry सुदृढ़ विमुखी शृंखलाओं को उत्पन्न करती है जो उद्योगों व कृषि क्षेत्र हेतु प्रोत्साहन व प्रेरणादायक होता है ।
Enclave Import Industry सम्बन्धी तर्क के आधार पर हर्षमैन आयातों को ऐसा महत्वपूर्ण फलन मानते हैं जो माँग उत्पन्न करता है तथा देश के उपक्रमियों को अनुसंधान की प्रेरणा देता है । उनके अनुसार Enclave Import Industry प्रारम्भिक अवस्थाओं में ही अर्द्धविकसित देशों के लिए उद्योग के विकास की भूमिका बनाता है । हर्षमैन के अनुसार अर्द्धविकसित देशों के लिए आयातों पर प्रतिबन्ध की नीति उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से औद्योगीकरण पर पड़ने वाले आयातों के प्रेरक प्रभाव लुप्त हो जाएँगे ।
यह ध्यान रखना आवश्यक है कि विकास की एक सम्यक अवस्था में ही संरक्षण या आयात प्रतिस्थापक उद्योगों को अनुदान देने की नीति अपनायी जानी चाहिए । यदि विकास की आरम्भिक अवस्था में ही आयात प्रतिस्थापक उद्योगों को प्रोत्साहित किया जाये तो देश में औद्योगीकरण की प्रक्रिया गतिरोध का अनुभव करती है तथा Enclave Import Industry द्वारा प्राप्त होने वाले विपरीत शृंखला प्रभाव के लाभ प्राप्त नहीं हो पाएँगे । देश के बाजार के पर्याप्त विकास के उपरान्त ही देश को आयातित वस्तुओं का उत्पादन करना चाहिए । हर्षमैन देश के आर्थिक विकास में निर्यातों की महत्वपूर्ण भूमिका को प्रस्तावित करते है ।
हर्षमैन के उपर्युक्त विश्लेषण की कुछ सीमाएँ भी है । आयातित वस्तुओं द्वारा अर्द्धावकसित देश ऐसे क्षेत्रों में भी उद्योगों को स्थापित कर पाने में सफलता प्राप्त करता है जहाँ बाजार सीमित है तथा तकनीकी ज्ञान व संगठनात्मक कुशलता का अभाव है ।
लेकिन कुछ ऐसे पक्ष भी हैं जो घरेलू अर्थव्यवस्था के विकास पर विपरीत प्रभाव डालते है । घरेलू उद्योगों की स्थापना प्राय: इस कारण नहीं होती कि यह मान लिया जाता है कि विदेशी आयातित वस्तुओं की गुणवत्ता श्रेष्ठ होती है । उद्योगों को प्राप्त होने वाली आदाओं का देश में ही उत्पादन प्रारम्भ होने पर घरेलू प्रतिस्पर्द्धा का खतरा भी बढ़ जाता है ।
6. असन्तुलित वृद्धि का आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Appraisal of Unbalanced Growth):
हर्षमैन द्वारा प्रतिपादित असन्तुलित वृद्धि का विश्लेषण अविकसित देशों में आर्थिक विकास की गति को त्वरण प्रदान करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इसका सबसे सबल पक्ष इसका व्यावहारिक होना एवं विकास नियोजन के पक्षों को ध्यान में रखना है ।
असन्तुलित वृद्धि विश्लेषण में विकास की बाधाओं तनाव दबाब कसाव तथा इन्हें दूर करने की प्रेरणाओं एवं शृंखलाओं का समुचित विवेचन किया गया है । अर्द्धविकसित देशों में संसाधनों की कमी एवं उपक्रमशीलता की कुशलताओं के अभाव के मुख्य बिन्दुओं को विकास की कमी के यथार्थ से सम्बन्धित करते हुए असन्तुलित वृद्धि को उपयुक्त रणनीति माना गया है । इसके बावजूद भी यह सिद्धान्त अर्द्धविकसित देशों के परिप्रेक्ष्य में निम्न घटकों की उपस्थिति को ध्यान में नहीं रखता ।
(i) असन्तुलनों की बनावट, दिशा एवं समयबद्धता पर ध्यान नहीं:
पाल स्ट्रीटन के अनुसार यह सिद्धान्त असन्तुलनों की बनावट, दिशा एवं समयबद्धता पर ध्यान नहीं देता । असन्तुलन वांछित दृष्टिकोण को उत्पन्न करता है लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्न असन्तुलनों के उत्पन्न होने से नहीं बल्कि इस बात से सम्बन्धित है कि असन्तुलनों का अनुकूलतम अंश क्या हो ? त्वरित वृद्धि क लिए असन्तुलन कहाँ हो तथा कितना हो ?
(ii) असन्तुलित वृद्धि की रणनीति ऐसे देश हेत उपयुक्त है जहाँ राज्य के द्वारा नियमन व नियन्त्रण लगाए जाने सम्भव हैं । समाजवादी देशों के लिए यह रणनीति सफल है जहाँ विकास के प्रारम्भिक चरणों में उपभोग को एक उचित स्तर पर अनुरक्षित किया जाता है ।
इस प्रकार उपभोक्ता वस्तु उद्योगों को स्थापित करते हुए राज्य द्वारा देश के आर्थिक अतिरेक को पूँजी वस्तु उद्योगों की ओर विनियोजित किया जाता है । मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देशों में इस रणनीति की उपयोगिता सीमित है, इसका कारण यह है कि उत्पादन की प्रणाली में राज्य का नियन्त्रण कम होता है ।
राज्य ऐसी स्थिति में नहीं होता कि वह असन्तुलनों की उपयुक्त सुखला उत्पन्न कर पाए । बाजार शक्तियाँ इस कार्य को कुशलता के साथ इस कारण नहीं कर पाती, क्योंकि वह काफी दुर्बल होती है । इन कारणों से अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्र बाधाओं का सामना करते है जिससे आर्थिक विकास की प्रक्रिया अवरुद्ध होती है ।
(iii) अवरोधों पर ध्यान नहीं:
पाल स्ट्रीटन के अनुसार यह सिद्धान्त विस्तार के प्रेरक घटकों पर ध्यान देती है लेकिन असन्तुलित वृद्धि के द्वारा उत्पन्न अवरोधों पर विचार नहीं करती । विकास की प्रक्रिया में एक असन्तुलन उत्पन्न होने पर हर्षमैन दृष्टिकोण सम्बन्धी अवरोध को ध्यान में नहीं रखते ।
वास्तविकता तो यह है कि जब असन्तुलन के द्वारा विकास आरम्भ किया जाता है तब इससे वस्तुओं की कमी, अभाव एवं विविध तनाव उत्पन्न होते है जिससे व्यवसाय सम्बन्धी दृष्टिकोण प्रभावित होता है । असन्तुलित विकास की प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाले तनाव, दबाव व कसाव इतने अधिक भी हो सकते है कि यह विकास की प्रक्रिया पर विपरीत प्रभाव डालें ।
संक्षेप में पाल स्ट्रीटन के अनुसार यह सिद्धान्त असन्तुलन के द्वारा उत्पन्न बाधाओं, अवरोधों एवं दृष्टिकोण का महत्व कम आंकता है । यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि अभाव से निजी हित उत्पन्न होते है जिनसे एकाधिकारी लाभ की वृद्धि होती है ।
(iv) साधन गतिशीलता का अभाव:
सन्तुलन की प्रक्रिया में प्रेरित विनियोग तब व्यावहारिक हो सकते है जबकि ससाधन आन्तरिक रूप से गतिशील हों परन्तु यह देखा गया कि अर्द्धविकसित देशों में साधन गतिशीलता का अभाव होता है ।
(v) विनियोग निर्णयों को अधिक महत्व:
हर्षमैन के विश्लेषण में विनियोग निर्णयों के अधिकतम होने की दशा पर ही विचार किया गया है, जबकि अर्द्धविकसित देशों में प्रशासनिक प्रबन्धकीय एवं नीतिगत निर्णय भी महत्वपूर्ण होते है ।
(vi) मुद्रा प्रसारिक दबावों का खतरा:
असन्तुलित वृद्धि का सबसे बड़ा दोष यह भी है कि यह मुद्रा प्रासरिक दबावों को उत्पन्न करता है । अर्द्धविकसित देशों में कीमत नियन्त्रित करना कठिन होता है, क्योंकि सरकार मौद्रिक व राजनीतिक उपायों को कुशलता के साथ लागू करने में अकुशल होती है ।
(vii) कृषि पर ध्यान नहीं:
असन्तुलित विकास की व्यूह नीति कृषि क्षेत्र पर समुचित ध्यान नहीं देती । एक अधिक जनसंख्या वाले व कृषि आधारित अर्द्धविकसित देश में कृषि क्षेत्र को प्राथमिकता न देना अर्थव्यवस्था के विकास को भी अवरुद्ध कर सकता है ।
कृषि वस्तुएँ विशेष रूप से मजदूरी वस्तुओं का अभाव देश के औद्योगीकरण कार्यक्रमों हेतु कच्चे माल की कमी का सकट उत्पन्न कर देता है । जब तक कृषि क्षेत्र की आय तेजी से नहीं बढ़ेगी तब तक औद्योगिक वस्तुओं का बाजार सीमित रहेगा । कृषि उत्पादन की कमी इसकी कीमतों में वृद्धि करती है ।
(viii) असन्तुलित विकास की विधि अपव्यय को जन्म देती है, क्योंकि इसके अधीन फालतू उत्पादन क्षमता को बनाए रखना पड़ता है ।
(ix) शृंखला प्रभाव का विवेचन दोषपूर्ण है, क्योंकि यह अर्द्धविकसित देशों से सम्बन्धित आँकड़ों पर आधारित नहीं । अर्द्धविकसित देशों में आर्थिक एवं सामाजिक उपरिमद पूँजी के अभाव के कारण शृंखला प्रभाव अत्यन्त दुर्बल होते है ।