अविकसित देशों में विकास की प्रक्रिया | Read this article in Hindi to learn about Simon Kuznets’s explanation to the process of development in underdeveloped countries.
प्रो॰ साइमन कुजनेटस ने विभिन्न देशों को दो वर्गों में निर्दिष्ट किया:
1. अर्द्धविकसित एवं
2. विकसित देश ।
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इन देशों के मध्य भेद का आधार जीवन-स्तर था । अर्द्धविकसित एवं विकसित देशों के बीच विभाजन रेखा अर्द्धविकसित देशों में विद्यमान सीमान्त प्रति व्यक्ति आय के आधार पर खींची गई ।
इस प्रकार कुजनेट्स द्वारा निर्दिष्ट अर्द्धविकसित देशों में एशिया के अधिक जनसंख्या वाले देश जिनमें चीन, भारत, पाकिस्तान, इण्डोनेशिया, बर्मा, दक्षिणी कोरिया व अफ्रीका के कुछ देश सम्मिलित थे । विकसित देशों में यू॰ एस॰ ए॰ कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, यू॰ के॰, स्विटजरलैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम तथा नीदरलैण्ड मुख्य थे ।
विकास की प्रक्रिया (Process of Development):
औद्योगीकरण से पूर्व विकसित देशों की स्थिति के सापेक्ष अविकसित देशों की दशा दुर्बल ही रही है । उनकी आर्थिक वृद्धि में भाषाएँ दुश्चक्र की तरह कार्यरत रहीं । परन्तु दूसरी तरफ यह भी देखा गया कि अर्द्धविकसित देशों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया के विलम्ब से आरम्भ होने के कारण उन्हें कुछ लाभ भी प्राप्त हुए है ।
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इस सन्दर्भ में प्रो॰ कुजनेट्स ने निम्न दो पक्षों को महत्वपूर्ण माना:
1. तकनीकी ज्ञान के समृद्ध भण्डार एवं प्राविधिक कुशलता तक पहुँच ।
2. विकसित देशों की संख्या में होने वाली वृद्धि तथा उनके द्वारा अधिक आर्थिक उपलब्धियों प्राप्त करना ।
पिछली शताब्दी में आधारभूत एवं व्यावहारिक व प्रायोगिक ज्ञान में होने वाले अभिनव परिवर्तनों से उत्पादन की तकनीक व प्रक्रियाएँ मात्रात्मक व गुणात्मक स्तर पर सुधरती गईं । विकसित देशों में खोज व आविष्कार द्वारा सामाजिक व तकनीकी ज्ञान की अभिवृद्धि से इन देशों की विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव हुई ।
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कृषि क्षेत्र में हुई तकनीकी खोजें मुख्यतः उन्नत देशों में हुई जो श्रम बचत उपायों से सम्बन्धित थीं । यह पाया गया कि अर्द्धविकसित देशों में श्रम एक दुर्लभ साधन नहीं है तथा पूंजी काफी सीमित है । परन्तु कई तकनीकी व सामाजिक नव-प्रवर्तनों को वर्तमान के अर्द्धविकसित देशों में कुछ सुधारों के दारा प्रत्यारोपित करना सम्भव बना । यह भी पाया गया कि तकनीकी व सामाजिक ज्ञान की उपलब्धता एक आवश्यकता है परन्तु आर्थिक वृद्धि को जारी रखने की समर्थ दशा नहीं है ।
आवश्यक दशा तो एक ओर पूंजी व अन्य पदार्थ आदाओं की उपलब्धता से सम्बन्धित है तो दूसरी ओर सामाजिक परिवर्तनों को प्रभावित करने की इच्छा व तीव्रता से । अर्द्धविकसित देशों में पूंजी संसाधनों का अभाव एवं सामाजिक परिवर्तनों के प्रति प्रतिरोध विकास की प्रक्रिया में जटिलताएँ उत्पन्न करता है ।
यदि प्रति व्यक्ति उत्पादन में होने वाली अविरत वृद्धि द्वारा आर्थिक वृद्धि के संकेत मिलते है तब ऐसी दशा में यह सम्भव है कि तकनीकी व सामाजिक नव-प्रवर्तनों की काफी अधिक उपलब्धता अर्द्धविकसित देशों की वृद्धि प्रक्रिया को जटिल बना दे ।
इस पक्ष को प्रो॰ कुजनेट्स ने निम्न दो तर्कों के द्वारा स्पष्ट किया:
1. यदि औषधि एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में हो रहे नव-प्रवर्तनों एवं आविष्कारों के प्रभाव का मूल्यांकन किया जाये तो यह प्रवृत्ति दिखाई देती है कि यह नव-प्रवर्तन एक विशेष दिशा की ओर ही झुकाव रखते हैं अर्थात् इनकी अभिमुखता मृत्यु दरों में कमी से सम्बन्धित रहती है ।
वहीं जन्म दर में कमी के पक्ष की ओर कम ध्यान दिया जाता है । चिकित्सा अनुसन्धान की दिशा में की गई ऐसी खोज से यह सम्भव होता है कि अर्द्धविकसित देश अपनी मृत्यु दरों को वर्तमान विकसित देशों के पूर्व औद्योगीकरण स्तर पर ले आएँ ।
दूसरी ओर जन्म दरों में काफी उच्च रहने की प्रवृत्ति देखी गई व कुछ दशाओं में यह बड़ी भी । इससे अर्द्धविकसित देशों में जनसंख्या वृद्धि की दरें काफी तीव्र व आक्रामक बनीं । ऐसे में अर्द्धविकसित देशों में जनसंख्या का दबाव विकसित देशों के पूर्व उद्योग स्तर से कहीं अधिक पाया गया जिसने आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया में संसाधनों की बेकारी की दशा को उत्पन्न किया ।
2. दूसरा प्रभाव, प्रदर्शन प्रभाव है । इस प्रभाव के अधीन अर्द्धविकसित देशों में विकसित देशों के उपयोग एवं उत्पादन प्रवृत्तियों की नकल या अनुसरण करने की दशा दिखाई देती है । प्राय: प्रदर्शन प्रभाव, उत्पादन पक्ष के सापेक्ष उपभोग पक्ष में अधिक प्रभावी होता है ।
यातायात व संवादवहन की बढ़ती सुविधाओं से अर्द्धविकसित देशों के नागरिक विकसित देशों की उपभोग प्रवृतियों व उच्च जीवन-स्तर शैली से प्रभावित होकर उनका अनुसरण करते हैं । इससे अर्द्धविकसित देशों में भी उपभोग स्तर तेजी से बढ़ता है व बचतें न्यून होती जाती हैं । इससे पूंजी निर्माण की प्रक्रिया मन्द पडती है व विनियोग पर पडने वाला विपरीत प्रभाव आर्थिक विकास हेतु बाधाकारक बन जाता है ।
विकसित देशों में होने वाली आर्थिक वृद्धि ने अर्द्धविकसित देशों की विकास प्रक्रिया को कई संदर्भों में प्रभावित किया है । इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है-उनके निर्यातों की बढ़ती हुई मांग, पूँजी विनियोग एवं अनुदान ।
पिछली सदी से विकसित देशों की प्रति व्यक्ति एवं कुल आय में अर्द्धविकसित देशों के सापेक्ष कई गुना वृद्धि हुई है । अब यदि अर्द्धविकसित देशों के उत्पादों के लिए विकसित देशों की माँग को अर्द्धविकसित देशों की कुल आय का फलन मान लिया जाये तो विकसित देशों हेतु यह सम्भव है कि वह अर्द्धविकसित देशों को पर्याप्त निर्यात बाजार उपलब्ध कराए ।
विकसित देशों से अर्द्धविकसित देशों की ओर होने वाली पूंजी का प्रवाह अर्द्धविकसित देशों में आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया को त्वरित करने में सहायक होती है लेकिन यह देखा गया है कि अर्द्धविकसित देशों के निर्यात सापेक्षिक रूप से अधिक बढ नहीं पाते ।
विकसित देशों के उत्पादन में आयातों के अनुपात की प्रवृति यह स्पष्ट करती है कि आयातों की वृद्धि सीमित ही हुई इसलिए विकसित से अर्द्धविकसित देशों की ओर पूंजी का प्रवाह कम हुआ ।
प्रो॰ कुजनेट्स ने विकसित देशों के वृद्धि अनुभवों से भविष्य में पड़ने वाले नीतिगत प्रभावों पर व्याख्या दी । इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है- कृषि क्रान्ति के द्वारा कृषि की प्रति व्यक्ति उत्पादकता में होने वाली विशाल वृद्धि । इसी प्रकार विनिर्माण एवं यातायात सुविधाओं के साथ संवादवहन साधन तेजी से बड़े ।
विकास के साथ-साथ शहरों की संख्या बड़ी । साथ ही परिवार द्वारा संचालित व व्यक्तिगत स्वामित्व द्वारा प्रबन्धित आर्थिक इकाइयों के स्थान पर व्यावसायिक कारपोरेशन फले फूले । दूसरी ओर वृद्धि की प्रक्रिया में जनांकिकीय व सामाजिक परिवर्तनों की गति ने जनन दर व मृत्यु दर में उल्लेखनीय परिवर्तन किए ।
श्रमिकों की कुशलता में वृद्धि हुई । प्रशिक्षण व गुणवत्ता सुधार के अधिक अवसर उत्पन्न हुए । इसके साथ ही अन्य संस्थागत व दृष्टिकोण सम्बन्धित अनुकृतियों में बदलाव हुआ ।
यह प्रवृत्तियाँ आर्थिक विकास हेतु सामान्य एवं औद्योगिक प्रणाली हेतु विशिष्ट रूप से महत्वपूर्ण बनी । भले ही वह यू॰ एस॰ ए॰ जैसी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था हो या जापान जैसी पोषित अर्थव्यवस्था और या फिर रूस जैसी पूर्णतः राज्य प्रबन्धित प्रणाली ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सभी औद्योगिक प्रणालियों की सम्पूर्णता के लिए तकनीकी एवं सामाजिक परिवर्तन अपरिहार्य रहे जिनसे स्थायित्व की प्राप्ति सम्भव बनी । इन देशों का आकार, उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व आर्थिक पिछड़ेपन के उनके सापेक्षिक अंश ने उन विधियों व तरीकों के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया जिनके अधीन वृद्धि की प्रक्रिया को संयोजित किया गया था ।
आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Evaluation):
प्रो॰ कुजनेट्स ने मत व्यक्त किया था कि विकसित देशों की वृद्धि प्रवृत्तियों के द्वारा वर्तमान समय की अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्थाओं की दशाओं का भावी अनुमान नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि इन देशों की पारिवारिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि पूर्णतः भिन्न होती है ।
उन्होंने मुख्यतः इस बात पर ध्यान केन्द्रित किया कि अर्द्धविकसित देशों की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं संस्थागत पृष्ठभूमि विकसित देशों की पूर्व औद्योगीकरण दशा से बिल्कुल भिन्न होती है जिससे अर्द्धविकसित देश कई संस्थागत, संरचनात्मक व गुणात्मक स्तर की बाधाओं का सामना करते है ।
प्रति व्यक्ति आय के न्यून स्तरों के द्वारा प्रो॰ कुजनेट्स ने अर्द्धविकसित देशों को परिभाषित करते हुए उन दशाओं को सूचीबद्ध किया जो विकसित देशों की पूर्व औद्योगीकरण स्थितियों के सन्दर्भ में उत्पादकता, जनसंख्या, आय वितरण की प्रवृत्तियों व राजनीतिक स्थायित्व की दृष्टि से पूर्णत: भिन्न थी ।
यदि प्रो॰ कुजनेट्स की व्याख्या को तथ्यों की सरल खोज की दृष्टि से देखा जाये तो कोई शंका नहीं रहती परन्तु कोई भी वैज्ञानिक सिद्धान्त मुख्यतः मापन, पूर्वानुमान एवं परिस्थितियों के नियन्त्रण के विश्वस्त उपाय के रूप में देखा जाता है ।
प्रो॰ कुजनेट्स की व्याख्या वस्तुतः अर्द्धविकसित देशों की स्थितियों को विकसित देशों की पूर्व औद्योगीकरण अवस्था के सन्दर्भ में देखकर की गयी विवरणात्मक व्याख्या है । उन्होंने ऐतिहासिक मूल्यांकन के द्वारा आर्थिक वृद्धि का कोई सामान्य सिद्धान्त प्रस्तुत नहीं किया ।
प्रो॰ कुजनेट्स की व्याख्या में अर्द्धविकास की परिभाषा प्रति व्यक्ति आय के मापदण्ड द्वारा दी गई । प्रो० हर्षल कॉफी अपने आलेख; Comments on Prof. Kuznets Paper : Present underdeveloped Countries and Past Growth Pattern में इस मापदण्ड को उचित नहीं मानते ।
उनके अनुसार अर्द्धविकसित देश को विकसित देशों से पृथक् करने हेतु प्रति व्यक्ति आय के स्तर का चयन करना एक मनमाना व स्वैच्छिक निर्णय है । यद्यपि प्रो॰ कुजनेट्स ने अपनी व्याख्या में अर्द्धविकास की मूल परिभाषा में सुधार करते हुए इसे उपलब्ध संसाधनों के अर्द्धउपयोग से सम्बन्धित किया ।
लेकिन एक अर्थव्यवस्था की विकसित होने की सम्भावना का गुणात्मक मापन करना उस अर्थ में सम्भव नहीं है जिसके आधार पर प्रो॰ कुजनेट्स इसका प्रयोग करते हैं ।