अविकसित देशों में वृद्धि प्रवृत्तियों | Read this article in Hindi to learn about the growth tendencies in underdeveloped countries.
अर्द्धविकसित देशों में वृद्धि की प्रवृतियों को मिचेल पी. टोराडो ने अपनी पुस्तक (Economic Development in Third World (1983)) के चौथे अध्याय में व्याख्यायित किया । उनके अनुसार विकसित देशों में दिखाई देने वाली वृद्धि प्रवृतियाँ अर्द्धविकसित देशों के लिये प्रासंगिक ही नहीं है । इसका कारण यह है कि अर्द्धविकसित देशों में विकास की आरम्भिक अवस्था में विकसित देशों के सापेक्ष कुछ भिन्नताएँ विद्यमान होती हैं जिन्हें ध्यान में रखना आवश्यक है ।
इन्हें निम्न बिन्दुओं के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:
1. भौतिक एवं मानव संसाधन बहुलताओं की हीन दशा:
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अर्द्धविकसित देशों में प्राय: भौतिक एवं मानव संसाधनों का या तो अभाव होता है या यह देश के संसाधनों का सम्यक उपयोग करने में अकुशल या असमर्थ होते हैं । श्रम शक्ति की प्रचुरता के बावजूद कुशल एवं प्रशिक्षित श्रम शक्ति का प्रतिशत न्यून होता है तथा उपक्रमशीलता, प्रबन्धकीय योग्यता एवं नवप्रवर्तन योग्यता का अभाव होता है ।
2. सापेक्षिक रूप से प्रति व्यक्ति आय का न्यून स्तर:
अर्द्धविकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय का स्तर विकसित देशों की तुलना में न्यून होता है । ऐतिहासिक अवलोकन से ज्ञात हुआ है कि विकसित एवं कम विकसित देशों के मध्य आय की विषमता बढ़ती जा रहीं हैं ।
3. जलवायुगत विभिन्नताएँ:
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टोडारो के अनुसार ऐसे देश जहाँ आर्थिक वृद्धि की दर सापेक्षिक रूप से तेजी से बढ़ी, समशीतोष्ण कटिबंध क्षेत्र रहे । दूसरी ओर कम विकसित देश ऊष्ण कटिबन्ध क्षेत्र में स्थित हैं । अत्यधिक गर्मी व जलवायु की भिन्नता उस क्षेत्र के निवासियों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती है जिससे श्रम उत्पादकता व कुशलता में कमी आती है ।
4. जनसंख्या का आकार एवं इसकी वृद्धि:
अधिकांश कम विकसित देश जनसंख्या के आधिक्य से पीड़ित रहे जबकि पश्चिमी विकसित देशों में आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया का श्री गणेश तब हुआ जब वहाँ जनसंख्या वृद्धि की दरें सापेक्षिक रूप से अल्प थीं ।
5. अन्तर्राष्ट्रीय प्रवास:
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यूरोपीय देशों में आर्थिक वृद्धि होने के साथ-साथ इन देशों से अतिरेक जनसंख्या का काफी अधिक प्रवास अन्य देशों को हुआ । यद्यपि तीसरी दुनिया के देशों से भी प्रवास हुआ पर इसका दुखद पहलू यह था कि इन देशों का कुशल व प्रशिक्षित श्रम दूसरे देशों में आय उपार्जन हेतु प्रवास कर गया, जबकि इनकी शिक्षा दीक्षा व प्रशिक्षण का भार स्वयं निर्धन देश ने ही वहन किया ।
6. अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों के लाभ:
समृद्ध देश अपने उत्पादन के लिये बाजार प्राप्त करने में सफल रहे हैं । साम्राज्यवादी विस्तार की नीति एवं उपनिवेशों की स्थापना से विकसित देशों ने जहाँ एक ओर कम से कम लागत पर कच्चा माल प्राप्त किया वहीं विनिर्मित वस्तुओं की बिक्री हेतु इन्हीं देशों को मुख्य बाजार बनाया ।
दूसरी ओर कम विकसित देशों के सामने प्रतिकूल परिस्थितियाँ रहीं । व्यापार हेतु न तो वह बड़े बाजार की प्राप्ति कर पाये और न ही ऐसी वस्तुओं का उत्पादन कर पाये जिनका अधिक निर्यात मूल्य प्राप्त हो । औद्योगिक विकास हेतु कम विकसित देश विदेशी पूँजी संसाधन, मशीनरी एवं प्रशिक्षित श्रम के आयात हेतु बाध्य हुये ।
अंतत: इन्हें भुगतान सन्तुलन के असमायोजन की समस्या का सामना करना पड़ा । विकसित देश प्राय: स्वतन्त्र व्यापार की नीति का समर्थन करने के बावजूद कम विकसित देशों द्वारा किये जाने वाले निर्यातों पर प्रतिबन्ध एवं संरक्षणात्मक तटकर थोपते रहे ।
7. तकनीकी शोध एवं नव प्रवर्तन:
विकसित देश शोध एवं नव प्रवर्तन के द्वारा समुन्नत तकनीक का विकास करने में सफल रहे जिससे उत्पादकता में सुधार आया इन देशों के द्वारा उत्पादित वस्तुएँ मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों दृष्टि से बेहतर थीं । दूसरी ओर कम विकसित देशों को अपनी आवश्यकता के अनुरूप तकनीक का उच्चीकरण करने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, वह आयातित तकनीक पर ही आश्रित रहे । इनके सम्मुख तकनीकी द्वैतता का संकट भी उत्पन्न हुआ ।
8. राजनीतिक संस्थाओं का स्थायित्व एवं लोचशीलता:
अधिकांश कम विकसित देश लम्बे समय तक साम्राज्यवादी नीतियों, औपनिवेशिक उत्पीड़न व राजनीतिक गुलामी को भोगते रहे । राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद भी राजनीतिक स्थायित्व प्राप्त न हो पाया । सत्ता संघर्ष विद्यमान रहा ।
आज कई विकासशील देश राजनीतिक अस्थायित्व के शिकार है जहाँ वोट की राजनीति जन कल्याण पर हावी है । राष्ट्रविरोधी शक्तियों के फलने फूलने, व्यापक भ्रष्टाचार, अफसरशाही व जातीय व साम्प्रदायिक संघर्षों से देशों के विकास की गति अवरूद्ध रही ।
संक्षेप में टोराडो ने स्पष्ट किया कि उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय देशों के सम्मुख जो अनुकूल परिस्थितियाँ विद्यमान थीं वह वातावरण वर्तमान समय में तीसरी दुनिया के देशों के सम्मुख न रहीं । विकसित देशों में होने वाली तकनीकी सामाजिक व संस्थागत परिवर्तन इन देशों के दीर्घकालीन विकास का कारण बना ।