मजदूरी नीति और आर्थिक विकास | Read this article in Hindi to learn about:- 1. मजदूरी नीति के प्रस्तावना (Introduction to Wage Policy) 2. पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मजदूरी नीति (Wage Policy in Capitalist Economy) 3. मिश्रित अर्थव्यवस्था में मजदूरी नीति (Wage Policy in a Mixed Economy) 4. मजदूरी नीति के मुख्य उद्देश्य (Main Objectives of Wage Policy) 5. मजदूरी नीति एवं रोजगार (Wage Policy and Employment) 6. मजदूरी नीति एवं पूंजी निर्माण (Wage Policy and Capital Formation) and Other Details.
मजदूरी नीति के प्रस्तावना (Introduction to Wage Policy):
विकासशील देशों में मजदूरी नीति का उद्देश्य मजदूरी के ऐसे स्तर व संरचना को स्थापित करना है जिससे आर्थिक विकास त्वरित हो सके । मजदूरी नीति के अधीन उन सरकारी क्रियाओं को ध्यान में रखा जाता है जो मजदूरी की संरचना अथवा स्तर को प्रभावित करते है तथा सामाजिक व आर्थिक नीति के विशिष्ट उद्देश्यों को प्राप्त करने से सम्बन्धित होती है ।
सामाजिक उद्देश्यों के अन्तर्गत मजदूरी प्राप्तकर्त्ताओं की सुरक्षा, उचित श्रम प्रतिमान स्थापित करना तथा अत्यन्त न्यून मजदूरी स्तरों में पर्याप्त वृद्धि करना है । इसके साथ ही मजदूरी नीति का दूसरा उद्देश्य समुदाय के आर्थिक कल्याण में वृद्धि करना है ।
सामान्यत: मजदूरी नीति के सामाजिक न आर्थिक पक्ष एक-दूसरे से सम्बन्धित है, लेकिन जब कभी मजदूरी नीति के सामाजिक व आर्थिक पक्षों में विवाद होता है तो इसके मध्य चुनाव करना पडता है । इस प्रकार का एक विवाद यह है कि श्रमिकों के जीवन-स्तर में होने वाली महत्वपूर्ण है या देश के दीर्घकालीन आर्थिक विकास हेतु पूँजी निर्माण की आवश्यकता है ।
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मजदूरी नीति (Wage Policy in Capitalist Economy):
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पूँजीवादी देशों में उत्पादन के अधिकांश साधन (सिवाय सार्वजनिक उपयोगिता में कार्यरत साधनों के) निजी उपक्रमियों के स्वामित्व में होते हैं तथा सरकारी उपक्रम सार्वजनिक उद्योगों तक सीमित रहते है । निजी उपक्रमी का उद्देश्य सामान्यतः अधिकतम लाभ की प्राप्ति करना है ।
अत: लाभ के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए मजदूरी का निर्धारण श्रम की माँग व पूर्ति वक्रों के अर्न्तछेदन द्वारा निर्धारित होता है अर्थात् यह मूल्य के सामान्य सिद्धान्त की एक विशेष दशा है ।
हिक्स के अनुसार मजदूरी के एक विशेष सिद्धान्त की आवश्यकता इस कारण उत्पन्न होती है, क्योंकि श्रम की पूर्ति एवं उसकी माँग एवं वह तरीका जिसके अधीन माँग व पूर्ति श्रम बाजार में अक्रिया करते हैं, कुछ निश्चित विशेषताएँ रखती है जिन्हें मूल्य के सामान्य सिद्धान्त के अधीन लागू नहीं किया जा सकता ।
श्रम की माँग वस्तुतः व्युत्पन्न माँग भी हो सकती है, क्योंकि उसके द्वारा उत्पादित वस्तु की माँग पर श्रम की माँग निर्भर करती है । दूसरी तरफ श्रम की पूर्ति से सम्बन्धित कठिनाइयाँ इस कारण उत्पन्न होती है, क्योंकि श्रम एक द्विआयामी गुणवत्ता रखता है जो उपलब्ध श्रमिकों की मात्रा तथा उनकी दक्षता से सम्बन्धित है ।
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मजदूरी का निर्धारण करते हुए उत्पादक एवं श्रमिक के व्यवहार को समझना आवश्यक है । उत्पादक श्रमिक को उसकी सीमान्त उत्पादकता की सीमा के अधीन भुगतान करता है । श्रम उस अधिकतम राशि को प्राप्त करने की कामना करता है जहाँ उसकी आवश्यकताएँ पूर्ण हो सकें ।
मार्क्सवादी विचारकों के अनुसार श्रमिक को उसकी सीमान्त उत्पादकता से कम भुगतान किया जाता है । इसका कारण यह है कि माँग पक्ष के सापेक्ष पूर्ति पक्ष दुर्बल होता है । इसका कारण यह है कि माँग पक्ष के सापेक्ष पूर्ति पक्ष दुर्बल होता है । इसी कारण उपक्रमी श्रमिक का शोषण करता है तथा अपने लाभ में वृद्धि करता है, क्योंकि उसका उद्देश्य ही लाभ को अधिकतम करना है ।
वर्तमान समय में श्रम संघों के अस्तित्व में आने से श्रमिकों के मोल-भाव करने की शक्ति बढी है । अधिक जहाँ उचित व अनुकूल मजदूरी दर पर कार्य करने के लिए संघर्षरत रहते है वही उपक्रमी की इच्छा श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी प्रदान करने की होती है । इस प्रकार उत्पादक एवं श्रमिकों के मध्य द्वन्द्व विद्यमान रहता है जिसे सुधारने के लिए सरकार द्वारा हस्तक्षेप किया जाता है ।
श्रम संघों के द्वारा श्रमिक सरकार को स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था के कार्यकरण में हस्तक्षेप करने तथा जीवन-स्तर, कार्य व आर्थिक दशाओं में सुधार हेतु आवश्यक कार्यवाही करने हेतु बाध्य करते हैं । इस प्रकार एक स्वतन्त्र उपक्रम अर्थव्यवस्था में मजदूरी नीति का जन्म होता है ।
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वस्तुत पूंजीवादी देशों की सरकार आर्थिक संस्थाओं के कार्यकरण में हस्तक्षेप करने में अधिक रुचि प्रकट नहीं करती । वस्तुतः एक स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था में मजदूरी नीति का मुख्य लक्ष्य पूंजी एवं श्रम के परस्पर विरोधी हितों में सामंजस्य स्थापित करना, राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि तथा समृद्धि की दशा प्राप्त करना है । वह राष्ट्रीय उत्पादन के समान वितरण में अधिक रुचि प्रकट नहीं करती जब तक कि श्रमिक समूहों द्वारा हस्तक्षेप हेतु उसे बाध्य न किया जाये ।
मिश्रित अर्थव्यवस्था में मजदूरी नीति (Wage Policy in a Mixed Economy):
सामान्यतः मिश्रित अर्थव्यवस्था समाजवाद एवं पूंजीवादी का मिश्रण होती है जिसके अधीन निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग विद्यमान होते हैं । सार्वजनिक उपयोगिता रणनीति की दृष्टि से महत्वपूर्ण एवं आधारभूत उद्योग सरकार द्वारा संचालित किए जाते हैं तथा अन्य उपक्रम सामान्य रूप से निजी उपक्रमियों, सहकारी संस्थाओं एवं संयुक्त क्षेत्र द्वारा चलाए जाते है ।
बी॰ आन॰ दातार के अनुसार मिश्रित अर्थव्यवस्था में मजदूरी नीति को निर्धारित करते हुए सरकार नियोक्ता एवं श्रमिक दोनों ही प्रतिनिधियों से विचार-विमर्श करती है जिससे दोनों पक्षों की स्वीकृति से नीति निर्धारित की जा सके ।
व्यावहारिक रूप से यदि सरकार पूँजीपति वर्ग का समर्थन करें तो मजदूरी नीति श्रमिक वर्ग के हितों की रक्षा नहीं करती, बल्कि केवल औद्योगिक विवादों एवं अशांन्ति को ही दूर करती है तथा आर्थिक असमानताओं के निवारण हेतु कोई ध्यान नहीं दिया जाता ।
दूसरी तरफ यदि सरकार समाजवादी विचारधारा से प्रभावित हो,तब मजदूरी नीति श्रमिकों के हित में कार्य करती है जिससे सामाजिक व आर्थिक असमानताओं को कम किया जा सके । सैद्धान्तिक रूप से मिश्रित अर्थव्यवस्था में मजदूरी नीति का उद्देश्य मजदूरी को सही दिशा में नियन्त्रित करना है ।
इसके मुख्य उद्देश्य रोजगार के अवसर प्रदान करना, मुद्रा प्रसारिक दशाओं पर रोक लगाना, औद्योगिक शान्ति बनाए रखना तथा आर्थिक वृद्धि की दर को सुनिश्चित करना है ।
मजदूरी नीति के मुख्य उद्देश्य (Main Objectives of Wage Policy):
आर्थिक विकास की प्रक्रिया को गतिशील करने हेतु मजदूरी नीति की मुख्य प्रवृतियों को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है:
(i) राष्ट्रीय उत्पाद में उपभोग का अंश विकसित देशों के सापेक्ष अल्प होना चाहिए ।
(ii) उद्योग में मजदूरी की दरें इतनी न्यून हों कि पूंजी बचत तकनीकों का प्रयोग किया जा सके ।
(iii) उद्योग के मध्य मजदूरी विभेद इतने अधिक हों जिससे श्रम शक्ति में कौशल की अभिवृद्धि प्रोत्साहित हो ।
(iv) उद्योग व कृषि क्षेत्र मजदूरी की वास्तविक दरों में इतना अन्तर अवश्य होना चाहिए कि जिससे श्रम को कृषि क्षेत्र से गैर कृषि क्षेत्र, उद्योग ब विनिर्माण क्षेत्र की ओर आकृष्ट किया जा सके । उपर्युक्त बिन्दुओं को सन्तुष्ट कर सकने वाली मजदूरी नीति बनायी जानी सम्भव नहीं है । यदि इसे निर्धारित कर भी लिया जाये तो वह समस्त पक्षों को सन्तुष्ट नहीं कर पाएगी ।
राष्ट्रीय मजदूरी नीति का उद्देश्य वस्तुतः आन्तरिक बचतों में वृद्धि करना तथा पूर्ति के दबाव में कमी करना है । वास्तव में विनियोग उत्पादकता, राष्ट्रीय आय व रोजगार में होने वाली व्यापक रूप से स्वीकृत राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी नीति जो समस्त वर्गों को सन्तुष्ट कर सके के द्वारा ही की जा सकती है ।
अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार विकासशील देशों में मजदूरी नीति के उद्देश्य निम्न है:
(i) मजदूरी भुगतान में अव्यवस्थाओं को दूर करना ।
(ii) उन श्रमिकों के लिए भी न्यूनतम मजदूरी निर्धारण करना जिसकी मोलभाव की शक्ति दुर्बल ।
(iii) आर्थिक विकास की प्राप्तियों में श्रमिकों को उचित अंश उपलब्ध कराना ।
(iv) मानव-शक्ति का एक समर्थ आबंटन एवं उपयोग निर्धारित करना जिसके लिए मजदूरी विभेदों या विषयकों एवं भुगतान की उचित प्रणाली को अपनाने की आवश्यकता होती है ।
विकासशील देशों में मजदूरी नियोजन आर्थिक विकास का एक मुख्य पक्ष है । मजदूरी नीति के द्वारा आर्थिक क्रियाओं के वांछित स्तर के अनुरूप श्रम के वैकल्पिक प्रयोगों के मध्य श्रम संसाधनों के आबंटन की महत्वपूर्ण क्रियाओं को सम्पन्न किया जाता है ।
विकासशील देशों में मजदूरी नीति मजदूरी के दो पक्षों को ध्यान में रखती है- समर्थ माँग पक्ष एवं लागत पक्ष । मजदूरी के स्तरों के साथ मजदूरी की संरचना के सन्दर्भ में उचित मजदूरी मापदंड तथा प्रोत्साहक मजदूरी मापदंड को ध्यान में रखा जाता है ।
उचित मजदूरी मापदव्ह से अभिप्राय है समान कार्य के लिए समान वेतन प्रोत्साहक मजदूरी मापदण्ड से अभिप्राय मजदूरी का ऐसा निर्धारण है जिससे उत्पादक क्षमताओं का अधिकतम विकास एवं मानव-शक्ति का अनुकूलतम आबण्टन किया जा रहा है जो सामाजिक समानता के स्वीकृत मापदण्डों से सहमति न रखे ।
नियोजित विकास के अधीन राष्ट्रीय मजदूरी नीति के द्वारा न्यूनतम खरी प्रदान करने के लक्ष्य को ध्यान में रखना व करना आवश्यक है एवं इसके साथ ही उन सामान्य सिद्धान्तों को भी ध्यान में रखा होता है जिनके अनुकूल उत्पादकता एवं जीवन-निर्वाह लागतों में होने वाली परिवर्तनों के प्रति मजदूरी की दरों में समायोजन होता रहे ।
संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि विकासशील देशों में मजदूरी का स्तर एवं संरचना माँग व पूर्ति की बाजार शक्तियों पर छोड़ा नहीं जा सकता बल्कि इसका, निर्धारण राष्ट्रीय मजदूरी नीति के द्वारा किया जाना चाहिए ।
ए॰ के॰ जैन (A.K. Jain) के अनुसार सरकार श्रम के प्रबन्ध से सम्बन्धित पक्षों; जैसे- औद्योगिक सम्बन्धों, कार्य की दशाओं प्रशिक्षण, शोध एवं अन्य महत्वपूर्ण समस्याओं के समाधान हेतु आवश्यक कार्यवाही करती है । वस्तुत: सरकार की श्रम नीति का उद्देश्य ऐसा वातावरण निर्मित करना होता है जो श्रम के प्रबन्ध के सहयोग को बढ़ावा दे । इस उद्देश्य से सरकार औद्योगिक सम्बन्धों को अधिक मधुर बनाने का प्रयास करती है । वह श्रम एवं प्रबन्ध के बीच एक सन्तुलन बनाए रखती है जिसके लिए वैधानिक सामाजिक व आर्थिक पक्षों को ध्यान में रखा जाता है ।
मजदूरी नीति एवं रोजगार (Wage Policy and Employment):
मजदूरी नीति एवं रोजगार से सम्बन्धित विश्लेषण मुख्यतः इस प्रश्न से सम्बन्धित रहा है कि कम विकसित देशों में मजदूरी होने वाली वृद्धि क्या बेरोजगारी में वृद्धि करती है ? कहने का अभिप्राय यह है कि क्या इन देशों में मजदूरी नीति निम्न मजदूरी के साथ उच्च रोजगार एवं उच्च मजदूरी के साथ निम्न रोजगार के असमंजस से सम्बन्धित होगी ।
वस्तुतः विकासशील देशों में जहाँ श्रमिकों का जीवन स्तर न्यून है वहाँ एक उच्च मौद्रिक मजदूरी प्रदान किए जाने पर श्रमिकों के स्वास्थ्य एवं कुशलता में सुधार आता है तथा इसके फलस्वरुप उच्च उत्पादकता की प्राप्ति होती है । चूंकि श्रम की माँग व्युत्पन्न माँग है अतः उच्च मजदूरी बेकारी में कमी नहीं करती ।
रिचर्ड ए लेस्टर के अनुसार मजदूरी एव रोजगार के मध्य सैद्वान्तिक सम्बन्ध श्रम एवं उत्पाद बाजारों में पूर्ण प्रतियोगिता की मान्यता को ध्यान में रखते हैं । चूंकि यह व्यावहारिक नहीं है अतः यह कहना कठिन है कि मजदूरी में होने वाली प्रत्येक वृद्धि से रोजगार में कमी आएगी ।
यदि मजदूरी में वृद्धि के कारण उपभोक्ता को वस्तु की उच्च कीमत देनी पड़े तब सम्भव है कि कुछ अकुशल फर्मों के बन्द होने की नौबत आ जाए । मजदूरी की वृद्धि से अकुशल फ़र्में तब बन्द होने का निर्णय लेंगी जब मजदूरी का भुगतान लाभ या लाभांशों से किया जा रहा हो ।
इन फर्मों के बन्द होने पर रोजगार में वृद्धि की अधिक सम्भावना नहीं होती । इसका कारण यह है कि मजदूरी में वृद्धि से लाभ की दर न्यून होने के कारण विनियोगी अधिक विनियोग हेतु हतोत्साहित होते है । अकुशल फर्मों के बन्द होने से जो श्रमिक बेकार हुए है उन्हें घर्षणात्मक बेकारी का सामना करना पड़ सकता है ।
प्रायः कम विकसित देशों के श्रम बाजार में अपूर्णताएँ विद्यमान होती है । श्रमिकों को यह जानकारी नहीं होती कि उन्हें नया काम कहां मिल सकता है ? इसके साथ ही श्रमिकों में गतिशीलता का भी अभाव होता है ।
विकासशील देशों में प्रायः अधिकांश उद्योग दो क्षेत्रों में विभक्त होते है । एक ओर आधुनिक व नवीन तकनीक के द्वारा उत्पादन किया जाता है तो दूसरी ओर छोटे पैमाने पर परम्परागत तकनीक द्वारा । इस प्रकार कुशल व अकुशल इकाइयों का सह अस्तित्व श्रमिक की सीमान्त कुशलता के अन्तरों को प्रदर्शित करता है ।
बेंजामिन हिगिन्स के अनुसार यह प्रवृति एक उद्योग की विभिन्न इकाइयों के मध्य ही नहीं बल्कि विभिन्न उद्योगों के मध्य भी दिखाई देती है । ऐसे में मजदूरी दरों के मध्य काफी अधिक अन्तर दिखाई देते है । मजदूरी दरों में दिखाई देने वाले अन्तर आर्थिक विकास में सहायक न होकर बाधाकारी ही सिद्ध होते है ।
विकासशील देशों में लघु स्तर की अकुशल इकाइयों का अस्तित्व इन देशों में मजदूरी नीति के सम्मुख कई समस्याओं को उत्पन्न कर देता है । भारत की द्वितीय पंचवर्षीय योजना में यह सुझाव दिया गया था कि ऐसी अकुशल छोटी इकाइयों को बड़ी इकाइयों द्वारा ग्रहण कर लेना चाहिए भले ही इसका आधार स्वैच्छिक रहे या अनिवार्य ।
भारत में ऐसी सीमान्त अकुशल इकाइयाँ है जिनमें काफी अधिक श्रमिक रोजगार प्राप्त कर रहे हैं । समस्या यह है कि क्या ऐसी इकाइयाँ नियमित रूप से चलती रहें या मजदूरी में वृद्धि होने की दशा में इन्हें बन्द कर दिया जाये ।
यदि इन्हें बन्द कर दिया जाता है तो काफी अधिक श्रमिक बेरोजगार हो जायेंगे । रोजगार में होने वाली इसी कमी को अन्य उद्योगों या किसी नए उद्योग में रोजगार की वृद्धि द्वारा खाया जाना ही उचित विकल्प है ।
मजदूरी नीति एवं पूंजी निर्माण (Wage Policy and Capital Formation):
विकासशील देश में आर्थिक विकास वस्तुतः अर्थव्यवस्था में बचत की औसत व सीमान्त दरों में वृद्धि पर निर्भर करता है जिससे पूंजी निर्माण की दर पर प्रभाव पडता है । यदि मजदूरी की दरों में वृद्धि की जाये तो इससे उपभोग में वृद्धि होगी, उपभोग के बढने पर समर्थ मांग बढेगी जिसके लिए उत्पादन भी अधिक किया जाएगा ।
यह ध्यान रखना होगा कि मौद्रिक मजदूरी में वृद्धि से उद्योग के लाभ सीमित होते हैं । लाभ सीमित होने पर बचत की प्रवृतियों पर विपरीत प्रभाव पडता है जिससे विनियोग की दर भी न्यून होगी । इस तर्क पर आधारित रहते हुए यदि पूंजी निर्माण की दृष्टि से विचार करें तो मजदूरी को परिसीमित करना एवं व्यक्तिगत उपभोग को कम किया जाना आवश्यक होगा ।
व्यवहार में उपभोग को एक स्तर से न्यून किया जाना सम्भव नहीं है । यदि मजदूरी नीति उपभोग में एक न्यूनतम आवश्यक स्तर से अधिक कमी करें तो इससे श्रमिकों के जीवन-स्तर पर विपरीत प्रभाव पडेगा तथा बचतों की सम्भावनाएँ भी क्षीण हो जाएँगी ।
भारत में 6 अप्रैल, 1948 की औद्योगिक नीति में न्यूनतम मजदूरी व उचित मजदूरी दर नियत करने का प्रस्ताव रखा गया । उचित मजदूरी दर के निर्धारण हेतु नियुक्त कमेटी द्वारा यह प्रस्तावित किया गया कि न्यूनतम मजदूरी न केवल जीवन-निर्वाह या गुजारे से सम्बन्धित हो, बल्कि श्रमिक की कुशलता को भी बनाए रखने से सम्बन्धित हो ।
न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण करते हुए शिक्षा, चिकित्सा व अन्य आधारभूत सुविधाओं पर भी समुचित ध्यान दिया जाये । उचित मजदूरी किसी भी दशा में न्यूनतम मजदूरी में अल्प नहीं होनी चाहिए ।
पहली योजना में मजदूरी नीति सामान्य रूप से परिसीमित मजदूरी पर आधारित थी । मजदूरी के बढने से उत्पन्न होने वाले मुद्रा प्रसारिक दबावों पर भी ध्यान दिया गया था । दूसरी योजना में यह कहा गया कि मजदूरी नीति की ऐसी संरचना स्थापित की जानी चाहिए जो बढती हुई मजदूरी द्वारा उत्पन्न लाभों पर केन्द्रित रहें ।
तीसरी योजना में मजदूरी भिन्नताओं या विशेषक को ध्यान में रखते हुए मजदूरी को उत्पादकता से जोडने व उत्पादकता के बढ़ते हुए लाभों से मजदूरी को सम्बन्धित करने पर जोर दिया गया । तीन वार्षिक योजनाओं एवं चतुर्थ योजना अवधि में भी इसी रणनीति पर न्यूनाधिक रूप से आश्रित रहा गया ।
मजदूरी नीति का निर्धारण करते हुए यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अनावश्यक उपभोग पूंजी निर्माण के मार्ग में बाधा उत्पन्न करता है । अतः मजदूरी एवं लाभ के मध्य के सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए यह ध्यान देना होगा कि लाभों का विनियोग की ओर प्रवाहित किया जाये तथा व्यर्थ व अनुत्पादक उपभोग को रोका जाये ।
मजदूरी भिन्नताएँ या विशेषक एवं प्राथमिकताओं के अनुरूप श्रमिकों की उपलब्धता:
मजदूरी नीति पूंजी निर्माण की वृद्धि दर को बढाने में बिना श्रमिकों के हित पर विपरीत प्रभाव डाले सफल हो सकती है । देखना यह होगा कि मजदूरी नीति द्वारा मजदूरी भिन्नताओं का समायोजन किस प्रकार किया जा सकता है ? मजदूरी अन्तरालों की आर्थिक व सामाजिक महत्ता है ।
यह एक देश के आर्थिक संसाधनों के आबण्टन से सम्बन्धित है जिसमें मानव शक्ति, राष्ट्रीय लाभांश की वृद्धि एवं आर्थिक वृद्धि की दर शामिल है । वास्तव में आर्थिक एवं सामाजिक कल्याण काफी अधिक सीमा तक ऐसे मजदूरी अन्तरालों पर निर्भर करता है, जो-
(1) श्रमिकों का आबण्टन विभिन्न उद्योगों व व्यवसायों की और इस प्रकार करता है जिससे राष्ट्रीय उत्पाद को अधिकतम किया जा सके ।
(2) अर्थव्यवस्था में विद्यमान संसाधनों के पूर्ण रोजगार की प्राप्ति सम्भव बन सके ।
(3) आर्थिक विकास की लक्ष्य वृद्धि दर को प्राप्त करना सम्भव बने ।
(4) मजदूरी भिन्नताएं मुख्यतः कौशल पर आधारित अर्न्तफर्म क्षेत्रीय, अर्न्तउद्योग व लिंग पर आधारित होती है ।
संक्षेप में, विकासशील देशों में मजदूरी नीति का निर्धारण इस प्रश्न से सम्बन्धित रहा है कि इन देशों में मजदूरी में होने वाली वृद्धि से क्या पूंजी निर्माण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है अर्थात् इन देशों में मजदूरी नीति मुख्यतः निम्न मजदूरी के साथ उच्च पूंजी निर्माण, उच्च मजदूरियों के साथ निम्न पूंजी निर्माण के असमंजस से सम्बन्धित रहा है ।
अभिप्राय यह है कि एक ओर तो श्रमिकों के लिए उच्च मजदूरी प्रस्तावित करते हुए उनकी क्षमता एवं उत्पादकता में वृद्धि का सुझाव दिया जाता है तो दूसरी ओर मजदूरी को परिसीमित रखना पूंजी निर्माण हेतु आवश्यक समझा जाता है ।
भारत में पहली योजना में मजदूरी नीति सामान्यतः मजदूरी परिसीमा पर आधारित रही, जबकि दूसरी योजना में बढती हुई वास्तविक मजदूरियों की आवश्यकता का अनुभव किया गया ।
तीसरी योजना में मजदूरी भिन्नताओं को महत्व देते हुए मजदूरियों को उत्पादकता के साथ सम्बन्धित किया गया । तीसरी योजना के उपरान्त आवश्यकता आधारित न्यूनतम मजदूरी के सिद्धान्त को स्वीकृत किया गया ।
मजदूरी नीति एवं मुद्रा-प्रसार (Wage Policy and Inflation):
सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि मजदूरी में होने वाली वृद्धि जो उत्पादकता में समुचित वृद्धि न करें अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में मजदूरी कीमत अन्तरालों को जन्म देती है ।
इसकी प्रकृति कई कारकों पर निर्भर करती है जिनमें लाभ की सीमाएँ, कच्चे माल की कीमतें व उत्पादन में अनुभव की जा रही बाधाएँ मुख्य है । वस्तुतः दीर्घकाल में उत्पादकता में होने वाली वृद्धि ही मौद्रिक मजदूरी की वृद्धि के लिए समुचित आधार प्रदान करती है ।
मजदूरी एवं मुद्रा पूर्ति (Wages and Money Supply):
यदि अर्थव्यवस्था में मजदूरी की दरें बढें तो मजदूरी का भुगतान करने के लिए अधिक तरलता की माँग होती अर्थात् व्यापक विश्लेषण के अधीन मजदूरी में होने वाली वृद्धि अधिक तरलता की माँग की सूचना देगी ।
मौद्रिक अधिकारी बढी हुई तरलता की मांग को पूरा करने के लिए आवश्यक प्रबन्ध करेंगे अर्थात् अधिक मुद्रा पूर्ति का सृजन करेंगे । मौद्रिक पूर्ति कुछ अन्य घटकों के द्वारा प्रत्यक्षत: प्रभावित होती है जिसके दो महत्वपूर्ण कारक (1) कुल वास्तविक आय, एवं (2) कुल व्यय हैं ।
वास्तविक आय के बढने पर मौद्रिक अधिकारी अधिक मुद्रा का सृजन करेंगे जिससे वास्तविक आय के अंश के रूप में अधिक मुद्रा का प्रवाह होगा । यह भी सम्भव है कि वास्तविक आय में वृद्धि न हो लेकिन बजट अधिकारी व्यय को पूरा करने के लिए घाटे का बजट बनाएँ ।
अतः मौद्रिक अधिकारी आन्तरिक व बाह्य ऋण को लेकर तथा नयी मुद्रा के सृजन द्वारा व्यय करने पर बाध्य होंगे । ऐसे में मौद्रिक पूर्ति में होने वाली वृद्धि मुद्रा प्रसारिक दबावों को जन्म देती है तथा मौद्रिक मजदूरी में वृद्धि की अधिक सम्भावनाएँ उत्पन्न होती जाती है ।
कीमत मजदूरी सम्बन्ध (Price Wage Relationship):
लागत स्फीति की दशा में उत्पाद या श्रम की अतिरिक्त माँग नहीं होती अत लागतों के बढने से कीमतें भी बढती है । मजदूरी के बढ़ने के परिणामस्वरूप लागत मुद्रा-प्रसार की दशा में यह देखा जाता है कि अर्थव्यवस्था में उत्पादकता की दशा में यह देख मजदूरी दर में वृद्धि होती है ।
वस्तुतः मजदूरी स्फीति की दर का महत्वपूर्ण निर्धारक कीमत स्तर का व्यवहार है । कीमतों में होने वाली वृद्धि से संगठित श्रमिक मजदूरी में वृद्धि हेतु दबाव डालते हैं तथा मजदूरी कीमत अन्तराल उत्पन्न होने लगता है । मजदूरी कीमत सम्बन्धों की जानकारी मजदूरी लागत अनुपात के द्वारा की जा सकती है ।
यदि मजदूरी लागत अनुपात अल्प है तो मजदूरी में होने वाली वृद्धि उत्पाद की कीमत को अधिक प्रभावित नहीं करती । दूसरी ओर यदि उद्योग विशेष परिवर्तन के लिए काफी अधिक संवेदनशील ही । तब अर्थव्यवस्था के मुख्य क्षेत्रों में मजदूरी-लागत अनुपातों के अध्ययन के द्वारा मजदूरी में परिवर्तन की लागत प्रेरित मुद्रा प्रसारिक सम्भावनाओं को स्पष्ट किया जा सकता है ।
यह ध्यान रखना आवश्यक है कि मजदूरी लागत अनुपात का अध्ययन मजदूरी परिवर्तनों के मुद्रा प्रसारिक प्रभावों की पूरी जानकारी नहीं देता है, क्योंकि माँग प्रेरित प्रभावों को भी ध्यान में रखना पड़ता है । फिर भी लागत प्रेरित सम्भावनाओं को जानने के लिए यह महत्वपूर्ण बन जाता है ।
मजदूरी-लागत अनुपात की प्रवृतियों के आधार पर सामूहिक सौदेबाजी की प्रवृतियों को भी जाना जा सकता है । मजदूरी नीति का निर्धारण करने के लिए श्रम संघों को विद्यमान मजदूरी-लागत अनुपात के बारे में निश्चित सूचनाएँ प्राप्त होनी चाहिएं तथा यह भी ज्ञात होना चाहिए कि मजदूरी-लागत अनुपात में परिवर्तन का उद्योग की उत्पाद कीमतों पर क्या प्रभाव पडेगा ? यदि मजदूरी-लागत अनुपात उच्च है तो मजदूरी में वृद्धि का नियोक्ता द्वारा विरोध किया जाएगा वहीं दूसरी ओर एक अल्प मजदूरी लागत अनुपात मजदूरी में वृद्धि की सम्भावना उत्पन्न करेगा जो कुल लागत के अन्य घटकों में आवश्यक समायोजन के द्वारा सम्भव है ।
मजदूरी लागत अनुपात हमेशा धनात्मक लेकिन इकाई से कम होता है, जब तक कि M व D शून्य हों ।