Read this article in Hindi to learn about the seven theories on climate change. The theories are:- 1. सूर्य कलंक का सिद्धांत (Support Theory) 2. वायुमंडल की गैसों के संयोजन में परिवर्तन का सिद्धांत (Theories about the Changes in Atmospheric Composition) 3. ज्वालामुखी (धूल) सिद्धांत (Volcanic Dust Theory) and a Few Others.

जलवायु परिवर्तन के संबंध में बहुत-सी अवधारणाएँ प्रस्तुत की जाती रही हैं ।

इस संबंध में प्रमुख अवधारणाएँ भिन्न प्रकार हैं:

(1) सूर्य कलंक का सिद्धांत,

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(2) वायुमंडल ज्वालामुखी (धूल) धूलीय विविधता का सिद्धांत

(3) अभिप्रेरित सिद्धांत

(4) महाद्वीपों के विस्थापन का सिद्धांत तथा

(5) खगोलीय एवं कक्षीय सिद्धांत ।

1. सूर्य कलंक का सिद्धांत (Support Theory):

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भू-भौतिकी विदों के अनुसार पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन में सूर्य कलंकों की बडी भूमिका होती है । सूर्य-कलंक, सूर्य की बाह्य परत पर उत्पन्न होने वाले वृत्ताकार काले क्षेत्रों (कलंकों) के रूप में होते हैं । सूर्य कलंकों के क्षेत्रों में सूर्य का तापमान आस-पास के क्षेत्रों से सूर्य का तापमान लगभग 1400C कम रिकार्ड किया जाता है ।

सूर्य कलंकों के बारे में सबसे पहले एशिया के विद्वानों ने 28 ई॰पू॰ में पता लगाया था, परंतु दूरबीन (टेलिस्कोप) के आविष्कार के पश्चात् 16 वीं सदी से उनका निरंतर अध्ययन किया जा रहा है । सूर्य की बाह्य परत में उत्पन्न होने वाली सूर्य-कलकी की किसी समय में संख्या पाँच या छ: से लेकर सौ तक हो सकते हैं ।

सूर्य-कलंकों की संख्या में लगभग ग्यारह वर्ष के पश्चात परिवर्तन देखा जाता है । एक हजार वर्षों के पश्चात् इनकी बारंबारता में अधिक परिवर्तन देखा जाता है ।

2. वायुमंडल की गैसों के संयोजन में परिवर्तन का सिद्धांत (Theories about the Changes in Atmospheric Composition):

वायुमंडल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड, नाइट्रिक ऑक्साइड, मिथेन, जलवाष्प आदि की मात्रा में निरंतर परिवर्तन होता रहता है । औद्योगिक क्रांति के पश्चात, जबसे कोयले का इस्तेमाल बढ़ा है, तबसे वायुमंडल की गैसों की संरचना में तीव्र गति से परिवर्तन हो रहा है ।

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जलवायु परिवर्तन के बारे में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड सिद्धांत, टी॰ सी॰ चैंबरलिन ने प्रस्तुत किया था । इस सिद्धांत के अनुसार, जलवायु परिवर्तन में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस की महत्वपूर्ण भूमिका है । यह गैस सूर्य-ऊष्मा के लिये पारदर्शी है । इस गैस को पार करके सूर्य से ऊष्मा पृथ्वी तक पहुँचती है, परंतु विकिरण के द्वारा पृथ्वी धरातल से अंतरिक्ष को जाने वाली ऊष्मा को यह गैस रोक लेती है, जिसके कारण तापमान में वृद्धि एवं जलवायु परिवर्तन होता है । वायुमंडल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा इस प्रकार वायुमंडल तथा पृथ्वी के तापमान में वृद्धि करती है और जलवायु परिवर्तन का कारण बनती है ।

एक अनुमान के अनुसार वर्तमान समय में वायुमंडल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा 410 ppm (Parts Per Million) है । 21वीं शताब्दी के अंत तक इस गैस की मात्रा बढ्‌कर 500 ppm (Parts Per Million) होने की संभावना है । यदि कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा इसी प्रकार बढ़ती रही तो वर्ष 2050 में इसकी मात्रा वायुमंडल में दोगुणी हो जायेगी, जिसके फलस्वरूप 2050 में पृथ्वी के तापमान में (1.5C से 2C) तक की ज हो सकती है ।

वायुमंडल में CO2, CH4, CO2 तथा CFC5, गैसों की मात्रा में निरंतर वृद्धि हो रही 1980 से 2001 के बीच महासागरों की ऊपरी परत के तापमान में 0.11C की वृद्धि की वृद्धि का मुख्य कारण सागरीय स्तर में परिवर्तन माना जा रहा है ।

मिथेन (CH4) मी ग्रीन हाऊस गैस है । वैज्ञानिकों के अनुसार, वायुमंडल में मिथेन गैस की मात्रा में निरंतर वृद्धि हो रही है । इस गैस की मात्रा में पिछले दशकों में एक प्रतिशत की वृद्धि मापी गई है । हिम की परतों में 500 से 2700 वर्ष पूर्व मिथेन की मात्रा 0.77 ppm थी, जबकि वर्तमान में यह मात्रा बढकर 1.77 ppm हो गई है ।

एक अनुमान के अनुसार, वायुमंडल की तापमान वृद्धि में गैसों की भागीदारी लगभग 25 प्रतिशत है । वायुमंडल के निचले भाग में गैसों पर बैंगनी गैसों को सोख लेती है, जिसके कारण वायुमंडल के तापमान में वृद्धि हो जाती है ।

3. ज्वालामुखी (धूल) सिद्धांत (Volcanic Dust Theory):

ज्वालामुखी उदगार का एक मुख्य कारण माना जाता है । ज्वालामुखी उदगार से भारी मात्रा में धुआँ आदि वायुमंडल में प्रवेश कर जाता है । ज्वालामुखी से उत्सर्जित सल्फर-डाइ-ऑक्साइड गैस जब वाष्प में मिश्रित हो जाती है जिससे एक घनी धुंध अथवा कोहरा उत्पन्न हो जाता है ।

इस प्रकार के धुंध एवं कोहरे से सूर्य से आने वाली विकरण तथा ऊष्मा के रास्ते में रुकावट उत्पन्न होती है । इसके विपरीत पृथ्वी से अंतरिक्ष को जाने वाली विकरण की लहरें इस धुंध और कोहरे को पार कर जाती हैं । ज्वालामुखियों को ही पृथ्वी पर लघु हिम युग का आगमन माना जाता है ।

भूत काल में भी अधिक ज्वालामुखियों के उदगार के कारण लघु हिम युग आते रहे है । एक अनुमान के अनुसार यदि विकिरण में एक प्रतिशत की कमी होती है तो पृथ्वी के तापमान में 1.2C से लेकर 1.5C तक तापमान में कमी हो जाती है ।

मैक्सिको के अल-शिशोन उदगार के कारण वायुमंडल में भारी मात्रा में धुँआ इत्यादि प्रवेश कर गया था । भारी मात्रा में वायुमंडल में धुएँ के कारण पृथ्वी के धरातल के तापमान में कमी आ गई थी ।

4. महाद्वीपीय विस्थापन का सिद्धांत (Theories of Continental Drift):

बेगनर का महाद्वीपीय सिद्धांत, हैजिल हैस की सागर तल विस्तार तथा मार्गन महोदय का प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत, (Plate Tectonic Theory) के सिद्धांत को भी जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण माना जाता है । भू-भौतिकी के विद्वानों के अनुसार लगभग 30 करोड़ वर्ष पूर्व महाद्वीपों में विस्थापन आरंभ हुआ था, जो निरंतर जारी है ।

इस विस्थापन के कारण विषुवत रेखा के स्थान में भी परिवर्तन होता रहता है । महाद्वीपों के विस्थापन के कारण जलवायु में परिवर्तन होता रहता है । इस दिशा में वैज्ञानिकों का शोध कार्य जारी है ।

5. खगोलीय एवं कक्षीय सिद्धांत (Astronomical or Orbital Theory):

पृथ्वी पर ऊष्मा एवं प्रकाश का एकमात्र स्रोत सूर्य है । वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी की अपनी कक्षा के उत्केंद्रता में परिवर्तन होता रहता है । यह भी अनुमान सिद्ध है कि पृथ्वी की कक्षा में 90,000 से 100,000 वर्षा के पश्चात् परिवर्तन होता रहता है ।

पृथ्वी की कक्षा कभी अधिक दीर्घ वृत्तीय कक्षा के दौरान उपसौर की परिस्थिति में सूर्य से पृथ्वी पर 20 से 30 प्रतिशत ऊष्मा अधिक आती है । पृथ्वी की सूर्य से दूरी बदलती रहती है, जिसका प्रभाव सौर-ऊर्जा/सौलर ऊर्जा कानटेस्ट पर पड़ता है जिससे पृथ्वी के तापमान में परिवर्तन होता रहता है जिसके फलस्वरूप जलवायु में भी परिवर्तन होता है ।

पृथ्वी की सूर्य से दूरी में बदलाव से पृथ्वी एवं सूर्य के बीच का कोण भी बदलता रहता है । इस बदलाव का प्रभाव विषुवत रेखा, कर्क रेखा, मकर रेखा पर पडने वाली सूर्य की लंबवत किरणों पर पड़ता है । वर्तमान समय में पृथ्वी अपनी धुरी पर 23.5 डिग्री का कोण बनाती है, परंतु पृथ्वी का अपनी धुरी पर कोण बदलता रहता है, जो कम से कम 22 डिग्री तथा अधिक-से-अधिक 24.5 डिग्री तक हो जाता है । पृथ्वी के धुरी पर झुकाव के इस प्रकार के परिवर्तन से पृथ्वी पर तापमान में वृद्धि कमी होना अनिवार्य है ।

6. पृथ्वी के धरातल पर मानव के द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले परिवर्तन (Human Induced Changes in Earth’s Surface):

पृथ्वी के इतिहास में मानव की उत्पत्ति एक बहुत बाद की घटना मानी जाती है । इस संक्षिप्त इतिहास में मानव ने पृथ्वी के धरातल पर भारी परिवर्तन किये हैं । मानव ने जबसे आग का इस्तेमाल करना शुरू किया है तब से मानव द्वारा पर्यावरण में तीव्रता से परिवर्तन होता आ रहा है ।

लगभग दस हजार वर्ष पूर्व मानव ने कृषि आरंभ की तथा पशुओं को पालतू बनाना आरंभ किया था । फसलों को उगाने के लिये जंगलों को काटा जाने लगा । कहा जाता है कि ऊष्ण कटिबंध में सवाना घास के मैदानों का मुख्य कारण जंगलों को काटा जाना है और उसमें आग लगाना है ।

वास्तव में जंगलों के काटने से ही से फसलों का उगाना संभव हो सका था । तीव्र गति से जनसंख्या में वृद्धि तथा प्रौद्योगिकी में विकास के कारण जंगलों का ह्रास और भी तीव्र होता गया ।

ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के पश्चात कच्चे माल की माँग बढी, जिसकी आपूर्ति के लिये जंगलों को काटकर कृषि के क्षेत्र का विस्तार हुआ, औद्योगिकीकरण, नगरीकरण में तीव्रता आई और पर्यावरण में परिवर्तन होता गया । समय के बीतने पर जीवाश्म-ईंधन के इस्तेमाल में वृद्धि हुई जिससे वायुमंडलीय ग्रीन हाउस गैसों से पर्यावरण में तीव्रता आती गई ।

7. अन्य सिद्धांत (Other Theories):

कुछ खगोलीय विद्वानों के अनुसार, हमारी पृथ्वी समय-समय पर अंतर-तारकीय बादल व धूल से गुजरती है । इस प्रक्रिया से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती जाती है । वर्तमान काल में मानव के द्वारा जीवाश्म-ईंधन का बढ़ता हुआ इस्तेमाल जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण माना जा रहा है ।

मानव के द्वारा पृथ्वी के तापमान में वृद्धि निम्न प्रकार से हो रही है:

I. विश्व वायुमंडल तापमान में वृद्धि (Increase in Air Temperature):

इस बारे में सभी वैज्ञानिक सहमत हैं कि पृथ्वी एवं वायुमंडल के तापमान में वृद्धि हो रही है ।

तापमान में होने वाली वृद्धि को NASA के वैज्ञानिकों ने निम्न प्रकार से वर्णन किया है:

विश्व का तापमान बढ़ रहा है, जलवायु की पेटियों में परिवर्तन हो रहा है, हिमनदियाँ पिघल रहे हैं, सागरीय-स्तर ऊँचा उठ रहा है और लगता है आने वाले समय में इन प्रक्रियाओं में वृद्धि होगी, क्योंकि कार्बन-डाइ-ऑक्साइड, मीथेन तथा अन्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है और यह सब मानव द्वारा संसाधनों के दुरुपयोग के कारण हो रहा है ।

अब से 18,000 वर्ष पूर्व पृथ्वी का तापमान लगभग-5C था लगभग 9000 वर्ष पूर्व 0C जो इस समय बढ्‌कर लगभग 15C हो गया ।

केवल बीसवीं शताब्दी में लगभग 0.5C की वृद्धि हुई है । चिंता की बात यह है कि समय के साथ-साथ वृद्धि दर बढ़ रही है । उदाहरण के लिए बीसवीं शताब्दी के पहले 50 वर्षों की तुलना में अंत के पचास वर्षों में तापमान में अधिक वृद्धि हुई है ।

1950 में पृथ्वी का औसत तापमान लगभग 14C था । वे गैसें जो अवरक्त विकरण को अवशोषित व विकीर्णित करती हैं उन्हें ग्रीनहाउस गैसें कहा जाता है । ये गैसें वातावरण में प्राकृतिक व मानवीय प्रक्रियाओं द्वारा लायी हो सकती हैं ।

i. ग्रीन हाउस गैसें (Greenhouse Gases):

विशेषज्ञों के अनुसार वायुमंडल में मानव द्वारा कार्बन-डाइ-ऑक्साइड, जलवाष्प, मीथेन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन इत्यादि गैसों का अधिक उत्सर्जन किया जा रहा है जिसके कारण पृथ्वी के तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है । इनमें से प्रमुख गैसों के प्रभाव को संक्षिप्त में प्रस्तुत किया गया है ।

ii. कार्बन-डाइ-ऑक्साइड तथा विश्व तापमान वृद्धि (Carbon-Dioxide and Global Warming):

कार्बन-डाइ-ऑक्साइड तथा जलवाष्प वायुमंडल को गर्म करने तथा पृथ्वी के तापमान में वृद्धि करने वाली सबसे प्रमुख ग्रीन हाउस गैसें हैं । यह गैसें सूर्य की ऊष्मा को पृथ्वी पर आने तो देती हैं, परंतु ऊष्मा के विकिरण में रोधक होती हैं । इस प्रकार से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो जाती है ।

ब्रिटेन में 17वीं शताब्दी के पश्चात कोयले का भारी मात्रा में इस्तेमाल होने लगा था, जिसके कारण कार्बन-डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में भारी वृद्धि हुई । साथ-ही-साथ भारी मात्रा में विश्वभर में वनों को काटा गया जिसके परिणामस्वरूप वायुमंडल में लगभग 10 बिलियन मीट्रिक टन कार्बन-डाइ-ऑक्साइड प्रति वर्ष निष्कासित की जा रही है । पृथ्वी के तापमान वृद्धि में 60 प्रतिशत भागीदारी (Co2) की मानी जाती है ।

वायुमंडल में वर्ष 1800 में (CO2) की मात्रा 0.02 प्रतिशत थी जो 21वीं सदी में बढ्‌कर 0.06 प्रतिशत तक हो रही है ।

वायुमंडल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड तथा जलवाष्प की मौजूदगी से पृथ्वी के तापमान को 15C के आस-पास रखने में सहायता मिलती है । यदि यह गैसें वायुमंडल में न होतीं तो पृथ्वी का तापमान घटकर -19C रह जाता और पृथ्वी पर जीवन असंभव हो जाती ।

इसलिये मानव जीवन वनस्पति तथा पशु-पक्षी एवं जीव-जंतु एक प्रकार से ग्रीन हाउस गैसों के आभारी हैं, परंतु पिछले लगभग 150 वर्षों में जनसंख्या में तीव्र वृद्धि तथा उपभोक्तावाद के कारण वायुमंडल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस की मात्रा में भारी वृद्धि हो रही है ।

iii. मीथेन एवं भूमंडल में तापमान वृद्धि (Methane and Global Warming):

कार्बन-डाइ-ऑक्साईड के साथ-साथ वायुमंडल में मीथेन की मात्रा भी बढ़ रही है। परिणामस्वरूप भूमंडल के तापमान वृद्धि में तीव्रता आ गई है ।

मीथेन गैस के उत्सर्जन में पिछले कुछ दशकों में 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई है । विशेषज्ञों के अनुसार पृथ्वी के तापमान वृद्धि में मीथेन की भागीदारी लगभग 12 प्रतिशत है ।

iv. क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC’s) एवं तापमान वृद्धि (Chlorofluorocarbon and Global Warming):

क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFC’s) गैसों का उत्सर्जन मुख्यतः पोलिमर, क्लोरीन, फलोरीन तथा कार्बन इत्यादि से होता है । यह गैसें वायुमंडल की दूसरी परत स्ट्रेटोस्फियर में प्रवेश कर जाती हैं तथा ओजोन परत को हानि पहुँचाती हैं ।

v. हिमकारी प्रक्रिया एवं भूमंडलीय तापन (Cryogenic/Cryergic Process and Global Warming):

मृदा का पाले तथा हिमांक बिंदु से नीचे तापमान को पर्माफ्रोस्ट कहते हैं । विश्व की बर्फ से ढकी चादरों के भूभाग तथा हिमांक बिंदु से नीचे तापमान वाली मृदा को करिस्फीयर कहते हैं । पृथ्वी के लगभग 20 प्रतिशत भाग पर हिम-मंडल फैला हुआ है ।

भूमंडल के ताप वृद्धि का एक प्रमुख कारण हिम मंडल भी है । विश्व की हिम परत के पिघलने तथा हिमनदी का क्षेत्रफल कम होने अथवा पिघलने के कारण भी पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है । तापमान वृद्धि से हिमनद तथा बर्फ-चादरें पिघलती जाती हैं । हिम के पिघलने से चरागाहों एवं कृषि भूमि के क्षेत्रफल में वृद्धि होती है । यह प्रभाव साइबेरिया एवं उत्तरी अमेरिका के उत्तरी प्रदेशों में विशेषकर देखा जा सकता है ।

वर्तमान में अंटार्कटिका महाद्वीप, ग्रीनलैंड आदि से इस बात के प्रमाण मिले है कि इन क्षेत्रों में बर्फ तेजी से पिघल रही है और बहुत-से स्थानों पर घास उगने लगती है ।

कार्बन-डाइ-ऑक्साइड जब बर्फ के संपर्क में आती है तो इससे बर्फ के तापमान में वृद्धि होती रहती है । बर्फ से जो एलिबड़ो होता है उससे वायुमंडल का तापमान बढ़ जाता है जिससे बर्फ और भी अधिक मात्रा में पिघलती है और भूतापन में वृद्धि होती है ।

II. ब्लैक कार्बन एवं जलवायु परिवर्तन (Black Carbon and Climate):

जब वायुमंडल में ब्लैक कार्बन के कणों की मात्रा अधिक होती तो वे अधिक सूर्य ऊष्मा सीखते हैं जिससे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है । जब ब्लेक कार्बन के कण बर्फ की चादर पर जमा होते हैं,उससे बर्फ की ऊपरी परत के तापमान में वृद्धि हो जाती है ।

III. सागरीय स्तर का ऊँचा होना (Sea Level Rise):

सागरीय स्तर के ऊँचे होने से महासागरों के क्षेत्रफल में वृद्धि होती जाती है । सागरीय क्षेत्रफल की वृद्धि से वाष्पकरण की मात्रा बढ़ती है जिससे वर्षा की मात्रा में वृद्धि हो जाती है । इस प्रकार सागरीय स्तर का ऊँचा होना भी भूतापन में वृद्धि करता है ।