पर्यावरण पर मनुष्यों का प्रभाव | Impact of Humans on Environment in Hindi.

मनुष्य भी प्रकृति का ही एक अंग है किन्तु व्यावहारिक स्तर पर वह अपने को सृष्टि का केन्द्र बिन्दु समझते हुए प्रकृति को एक पृथक इकाई के रूप में देखता है । प्रकृति से अलगाव की इस प्रवृति ने संभवतः उसी समय जन्म लिया था, जब मनुष्य ने भौतिक जीवन को सुविधामय बनाने के सामूहिक प्रयास प्रारम्भ किए ।

वैसे यह पृथकता बहुत सूक्ष्म रही है और प्रकृति के साथ मनुष्य का पूर्ण समन्वय रहा है, किंतु आज स्थिति बदल चुकी है । अब मनुष्य प्रकृति के आमने-सामने है और अपनी सुख समृद्धि के लिए प्रकृति का शोषण करने पर उतारू है ।

जो प्रकृति सदैव दिल खोलकर अपनी संपदा मनुष्य तथा अन्य जीवों पर लुटाती रही है उससे सब कुछ छीन लेने के दुस्साहस में मनुष्य ने अपने आपको नए सकट में डाल लिया है । यह सकट है प्रदूषण यानी पर्यावरण में आ रही निरंतर गिरावट ।

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अन्तरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार कुल भू-भाग के कम से कम एक-तिहाई क्षेत्र में वन होने चाहिए । सरकार ने 1952 में ही वन नीति तैयार कर ली थी और 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बनाकर बहुत बडे वन क्षेत्र को आरक्षित घोषित कर दिया था ताकि वनों की कटाई पर रोक लगाई जा सके ।

इसके अलावा वन महोत्सव, सामाजिक वानिकी कार्यक्रम तथा “एक बच्चा एक पेड” जैसे लोकप्रिय कार्यक्रम चलाकर पर्यावरण के बचाव के पर्याप्त उपाय किए गये हैं । जल, वायु और वनस्पति जैसी मानव अस्तित्व की आधारभूत आवश्यकताएं आज दूषित और विकारपूर्ण हो चुकी हैं । दूसरी शब्दों में मनुष्य के अस्तित्व पर ही खतरे के बादल मँडरा रहे हैं ।

जाहिर है अपनी इस दुर्दशा के लिए मनुष्य दोषी है पर्यावरण प्रदूषण के दुष्परिणाम इस सीमा पक बढ चुके हैं कि बाढ, महामारी, अकाल जैसी जिन स्थितियों को प्राकृतिक आपदा समझकर ईश्वर का प्रकोप कहा जाता था, वे भी अब मनुष्य की अपनी करनी का फल दिखाई दे रही है । पर्यावरण का विषय कितना महत्वपूर्ण बन चुका है ।

1. प्रदूषण का फैलाव:

वातावरण को दूषित करने वाले तत्वों का अस्तित्व यों तो हमेशा से रहा है किन्तु आधुनिक जीवन-शैली और सुख-सुविधा का सामान जुटाने के लिए उद्योगों की स्थापना का दौर शुरू होने के बाद इन तत्वों की मात्रा में बडी तेजी से वृद्धि हुई है ।

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विडम्बना यह है कि आधुनिक जीवन-शैली का प्रादुर्भाव तो पश्चिम के विकसित देशों में हुआ, किन्तु पर्यावरण के दुष्फल अधिकांशतः विकासशील देशों को भुगतने पड रहे हैं । भारत में भी आजादी के बाद से औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के कारण पर्यावरण की समस्या दिनों दिन गंभीर रूप लेती जा रही है ।

हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं कि जिस गंगा को पतितपावनी और सबको पवित्र करने वाली माना जाता है, वह स्वयं दूषित है और कई स्थानों पर तो उसमें स्नान करना और उसका पानी पीना स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है । यही बात कई नदियों के बारे में भी कही जा सकती है जिनके किनारे बसे शहरों और कस्बों का मल और औद्योगिक कचरा एवं रासायनिक तत्व नदियों में डाले जाते हैं, जिससे उनका पानी दूषित होता जा रहा ।

वायु का प्रदूषण भी समान रूप से हानिकारक और चिंताजनक है । कारखानों और मोटरवाहनों से निकलने वाले धुएँ में मौजूद विषैली गैसों से तरह-तरह के रोग फैल रहे हैं । दिल्ली को विश्व का तीसरा सबसे अधिक प्रदूषित नगर घोषित किया जा चुका है ।

पिछले कई वर्षों में उद्योगों के साथ-साथ मोटर वाहनों की संख्या में बंडी तेजी से वृद्धि हो रही है । जिसके फलस्वरूप वायु प्रदूषण तथा ध्वनि प्रदूषण दोनों ने विकराल रूप धारण कर लिया है । भारत में मोटर वाहनों की बिक्री कितनी तीव्र गति से बढ रही है । इसमें केवल अप्रैल से दिसंबर के बीच हुई बिक्री के कडे दिए गए हैं ।

2. पेडों की कटाई:

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औद्योगिक धुएँ से वायुमंडल में फैलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड तथा अन्य जहरीली गैसों के असर के कम करने के लिए जहाँ हमें और अधिक वन लगाने की आवश्यकता है, वहीं हमारे यहाँ वन क्षेत्र निरंतर घटता जा रहा है ।

नए उद्योग तथा नई बस्तियाँ बसाने के लिए अतिरिक्त जमीन प्राप्त करने के लिए देश भर के जंगल साफ करने का सिलसिला जारी है । जिन वन-क्षेत्रों को सरकार ने आरक्षित घोषित करके पेड काटने पर पाबंदी लगा रखी है वहाँ भी चोरी-छिपे पेड काटने की खबरे मिलती रहती हैं ।

आधुनिक जीवनशैली के लिए सुख सुविधाओं की वस्तुएं बनाने और भवन-निर्माण के बढते हुए उद्योग के वास्ते इमारती लकडी की जरूरतें वन काट कर ही पूरी हो सकती हैं । कहते हैं हमारे देश का प्रहरी हिमालय भी नंगा होता जा रहा है ।

इसके अलावा जमीन की कीमतें बढ जाने तथा भूमि सुधार कानून लागू हो जाने के बाद गाँवों में शामलात भूमि और चरागाहों पर अवैध कब्जे होने लगे, जिसके कारण सामान्य गाँववासियों को ईंधन और चारे के लिए जंगलों का सहारा लेना पडा, इससे भी वनभूमि घटने लगी ।

यही नहीं बढती हुई आबादी के लिए अनाज, दालें, सब्जियां, फल आदि का उत्पादन बढाने के लिए भी अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता है जो वनों को काटकर ही पूरी की जाती है । अन्तरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार कुल भू-भाग के कम से कम एक-तिहाई क्षेत्र में वन होने चाहिए ।

सरकार ने 1952 में ही वन नीति तैयार कर ली थी और 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बनाकर बहुत बडे वन क्षेत्र को आरक्षित घोषित कर दिया था ताकि वनों की कटाई पर रोक लगाई जा सके । इसके अलावा वन महोत्सव, सामाजिक वानिकी कार्यक्रम तथा “एक बच्चा एक पेड” जैसे लोकप्रिय कार्यक्रम चलाकर पर्यावरण के बचाव के पर्याप्त उपाय किए गये हैं, परन्तु पेडों की कटाई पर पूरी तरह रोक न लग पाने तथा वायु प्रदूषण को बढाने वाले कारणों के बढते जाने से प्रदूषण में निरंतर वृद्धि होती जा रही है ।

और देरी घातक:

पेडों की अंधाधुंध कटाई उद्योगों तथा शहरों के फैलाव, बढती हुई जनसंख्या और रासायनिक एवं अन्य विषैले तत्वों के वायु मंडल में प्रवेश का एक बहुत भयंकर परिणाम यह हो रहा है कि पृथ्वी को सूर्य के हानिकारक ताप से बचाने वाली ओजोन की परत क्षीण होती जा रही है ।

पृथ्वी का तापमान लगातार बढ रहा है । इसके कारण पृथ्वी पर गर्मी बढने यानि ग्लोबल वार्मिग का संकट उभरता जा रहा है यह स्थिति समूचे विश्व और विशेषकर भारत जैसे समशीतोष्ण जलवायु वाले देशों के लिए बहुत खतरनाक होगी ।

इससे समुद्रों की सतह बढने की आशंका व्यक्त की जा रही है जिससे समुद्र में बसे कई द्वीपों के डूबने का खतरा है । इसी कारण वर्षा और मौसमों का चक्र कुछ-कुछ बदलता जा रहा है । कहीं अतिवृष्टि होती है तो कहीं सालो-साल सूखा पडता है । पेडों की कटाई से बाढ का प्रकोप बढ जाता है और बाढ से पृथ्वी की उर्वरा मिट्टी का कटाव होता है । इस तरह हम अपने तथाकथित विकास की ओर आगे बढने की धुन में विनाश की ओर अग्रसर हो रहे हैं ।

वृक्षारोपण जैसे तात्कालिक उपायों के महत्व से तो इन्कार नहीं किया जा सकता, किन्तु अब समस्या इतनी विकराल और खतरनाक दौर में पहुँच चुकी है कि पूरी विकास पद्धति पर ही नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है ।

यह सच है कि विकास के मौजूदा माडल को न तो रातों रात बदला जा सकता है और न ही उसे एकदम रोका जा सकता है । आवश्यकता इस बात की है कि चाहे शिक्षा हो या स्वास्थ्य, कृषि हो या उद्योग, हमें जीवन की हर गतिविधि के संबंध में योजना बनाते समय पर्यावरण पर पडने वाले प्रभावों को ध्यान में रखना ।

यह सुखद स्थिति है कि अब नई पीढी पर्यावरण के बारे में पूरी तरह जागरुक है और सरकार के साथ-साथ अनेक स्वयंसेवी संगठन भी इस दिशा में सक्रिय हैं । अनेक राज्यों में स्कूली शिक्षा में भी पर्यावरण संरक्षण को शामिल किया गया है । किन्तु कुछ निहित स्वार्थ अपने तात्कालिक लाभ के लिए सम्पूर्ण मानवता के स्वास्थ्य एवं अस्तित्व से खिलवाड करने से बाज नहीं आते ।

3. वन-संरक्षण में लोगों की भागीदारी:

भारत में इसका लंबा इतिहास है । सन् 1731 में राजस्थान में जोधपुर नरेश ने एक नए महल के निर्माण के लिए अपने एक मंत्रि से लकडी का इंतजाम करने के लिए कहा । राजा के मंत्री और कर्मी एक गाँव, जहाँ बिश्नोई परिवार के लोग रहा करते थे, के पास के जंगल में वृक्ष काटने के लिए गए ।

बिश्नोई परिवार की अमृता नामक एक महिला ने अद्‌भुत साहस का परिचय दिया । वह महिला पेड से चिपक कर खडी हो गई और उसने राजा के लोगों से कहा कि वृक्ष को काटने से पहले मुझे काटने का साहस करो । उस के लिए वृक्ष की रक्षा अपने जीवन से कहीं अधिक बढकर है ।

दुःख की बात है कि राजा के लोगों ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया और पेड के साथ-साथ अमृता देवी को भी काट दिया । उस के बाद उसकी तीन बेटियों तथा बिश्नोई परिवार के सैकडों लोगों ने वृक्ष की रक्षा में अपने प्राण गवाँ दिए । इतिहास में कहीं भी इस प्रकार की प्रतिबदधता की कोई मिसाल नहीं है जबकि पर्यावरण की रक्षा के लिए मुनष्य ने अपना बलिदान कर दिया हो ।

हाल ही में, भारत सरकार ने अमृता देवी बिश्नोई वन्यजीव संरक्षण पुरस्कार देना शुरू किया है । यह पुरस्कार ग्रामीण क्षेत्रों के ऐसे व्यक्तियों या सामुदायों को दिया जाता है जिन्होंने वन्यजीवों की रक्षा के लिए अद्‌भुत साहस और समर्पण दिखाया हो ।

आपने हिमालय के गढवाल के चिपको आंदोलन के बारे में सुना होगा । सन 1974 में ठेकेदारों द्वारा काटे जा रहे वृक्षों की रक्षा के लिए इससे चिपक कर स्थानीय महिलाओं ने काफी बहादुरी का परिचय दिया विश्वभर में लोगों ने चिपको आंदोलन की सराहना की है स्थानीय समुदाय की भागीदारी के महत्व को महसूस करते हुए भारत सरकार ने 1980 के दशक में संयुक्त वन प्रबंधन (ज्वाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट/ जे एफ एम) लागू किया जिससे कि स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर काफी अच्छी तरह से वनों की रक्षा और प्रबंधन का कार्य किया जा सके ।

वनों के प्रति उनकी सेवाओं के बदले ये समुदाय विविध प्रकार के वनोत्पाद (फारेस्ट प्रोडक्ट्स) जेसे फल, गोंद, रबड, दवाई आदि प्राप्तकर लाभ उठाते हैं । इस प्रकार वन का संरक्षण निर्वहनीय तरी के (सस्टेनेबल) से किया जा सकता है ।

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