प्रमुख पर्यावरण प्रदूषण की सूची | List of major environmental pollutants in Hindi language!

जैसे-जैसे देश औद्योगिकीकरण की ओर बढ़ता गया और विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी में प्रगति करता गया, वैसे-वैसे अनेक ऐसे कारण और कारक सम्मुख आए जिनके द्वारा आधुनिक प्रदूषक की उत्पत्ति हुई ।

आज हमारे सामने बढ़ते हुए औद्योगिकीकरण के कारण पर्यावरण में शोर और ऊष्मा का बढ़ना स्वाभाविक है । आज के परमाणु युग में रेडियोएक्टिव पदार्थ भी आधुनिक प्रदूषक रूप में विश्व के लिए एक स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करने वाला है ।

अत: इन आधुनिक प्रदूषकों का यहाँ पर विस्तार से वर्णन किया जा रहा है:

(1) रेडियोएक्टिव पदार्थ (Radioactive Products):

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सन् 1945 ई. की 6 अगस्त और 9 अगस्त आज भी उसी प्रकार याद है जैसे कि आज अभी प्रातःकाल आठ बजकर पंद्रह मिनट पर घटना घटी हो । अमेरिका के उस समय पदासीन राष्ट्रपति श्री ट्रू मैन ने, जो अहिंसा तथा शांति के पुजारी होने का दावा करते थे, आज्ञा दी कि 6 अगस्त को प्रात:काल ही जापान को धराशायी कर दिया जाए ।

अत: आज्ञा का पालन किया गया ओर अमेरिका के बमवर्षक प्रातः ही नागासाकी तथा हिरोशिमा पर यमराज के विमान की भाँति मँडराने लगे । साइरन से सचेत कर दिया गया और संकट टलने का भी भोंपू कुछ देर बाद बजा दिया गया ।

कुछ क्षणों के पश्चात् बी-52 बमवर्षक फिर लौट आए ओर 8-15 बजे प्रात: अगस्त को हिरोशिमा पर यूरेनियम-235 बम लगभग पृथ्वी से 2000 फुट की ऊँचाई पर फटा । फिर क्या था, चारों ओर चीख-पुकार, हाहाकार, त्राहि-त्राहि मच गई । अभी स्कूल जाने वाले बच्चे घर से निकलकर स्कूल पहुंचे भी नहीं थे ।

कर्मचारी तथा कर्मी कुछ अपने कार्य पर जा चुके थे और कुछ रास्ते में ही थे । अधिकतर अपनी प्रात:काल की चाय ही पी रहे थे कि इस एकमात्र परमाणु बम ने लगभग एक लाख लोगों को सदा के लिए मौत की गोद में सुला दिया और लगभग चालीस हजार को कराहते, रोते और तड़पते छोड़ दिया जो इस दिन जख्मी हो चुके थे ।

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इसी प्रकार दूसरा परमाणु बम नागासागी पर 9 अगस्त, 1945 ई. को प्रातः ग्यारह बजे डाला गया । यह बम प्लूटोनियम-239 था, जिससे चौबीस हजार लोगों की जानें गई और तेईस हजार जख्मी हो गए । किसी को स्वप्न में भी खयाल नहीं था कि ये बम इतने संहारक हो सकते हैं ।

नागासाकी तथा हिरोशिमा पर डाले गए दोनों बम टी. एन. टी. (ट्राई नाइट्रो टालुइन) के 20 किलोटन शक्ति के तुल्य थे । पलक झपकते ही दोनों शहर नेस्तनाबूद हो गए । अधोकेंद्र से आधा कि. मी. परिधि में मृत्यु-दर 90 प्रतिशत थी । आधा कि. मी. से डेढ कि. मी. के वृत्त में 50 प्रतिशत मृत्यु-दर थी । इमारतें दो मील की दूरी तक प्रायः सभी समाप्त हो गई थीं और इस प्रकार चार किलोमीटर तक की सभी वस्तुएं झुलस-सी गई थीं ।

जनजीवन को भारी क्षति पहुँची और सारा विश्व आतंकित हो उठा । विस्फोट के कारण स्थिति इतनी गंभीर हो गई थी कि वैज्ञानिकों ने भी यह नहीं सोचा था कि परमाणु विखंडन अन्य अनेक अयनकारी विकिरण तथा रेडियोधर्मी तत्व जन्म-जन्मांतर तक वहाँ के निवासियों को सताते रहेंगे ।

कुछ ही वर्ष पश्चात् जब निकटवर्ती इलाकों में नाना प्रकार के रोग फैलने लगे तथा जब अनेक शिशुओं में जन्मजात अंग विकृतियाँ देखने में आईं तब लोगों का ध्यान विस्फोटजन्य विकिरणों की ओर गया । वैसे तो सन् 1928 ई. में नोबल पुरस्कार विजेता डॉ. एच. जे. मुलर ने अपने प्रयोगों से सिद्ध कर दिया था कि रेडियोधर्मी तत्व स्वास्थ्य के लिए हानिकर होते हैं ।

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उन्होंने बतलाया कि रेडियोधर्मी किरणें जीवों में स्थायी परिवर्तन ला सकती है । ये किरणें जीवों के क्रोमोसोमों तथा उन पर स्थित जीवों को प्रभावित करती हैं जिससे स्थायी आनुवंशिक परिवर्तन हो जाते हैं । जीवों में होने वाले ये परिवर्तन उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) कहलाते हैं । उत्परिवर्तन प्राकृतिक रूप से भी होते रहते हैं तथा एक जाति-विशेष के विभिन्न सदस्यों की विविधता का मूलभूत कारण उत्परिवर्तन ही है । पृथ्वी की उत्पत्ति के साथ ही कतिपय रेडियोधर्मी तत्वों की उत्पत्ति हुई ।

अत: मानव जब इस भूतल पर आया, वायुमंडल में व्याप्त रेडियोधर्मी तत्वों ने उसका स्वागत किया । मानव का उद्भव और विकास ही इस बात का साक्षी है कि उसमें किसी हद तक रेडियोधर्मिता को सहन करने की क्षमता है । यह क्षमता कुछ ही नहीं वरन् असंख्य वर्षों में विकसित हुई है । जैसे-जैसे वातावरण की रेडियोधर्मिता बढ़ती गई, मनुष्य में सहन करने की शक्ति आती गई ।

डारविन वैज्ञानिक का विकासवाद सिद्धांत भी तो यही बताता है कि यह क्रिया अनंतकाल तक चलती जाती, लेकिन गत कुछ वर्षों में परमाणु ऊर्जा के अधिकाधिक उपयोग के फलस्वरूप वातावरण की रेडियोधर्मिता भी तीव्रगति से बढ़ती जा रही है ।

रेडियोधर्मिता की घटना का पता सर्वप्रथम फ्रांस के हेनरी बैकरेल ने सन् 1891 ई. में लगाया । इन्होंने देखा कि यूरेनियम लवण से ऐसी शक्तिशाली विकिरण निकल रही हैं जो कागज को पार कर जानी हैं और फोटोग्राफी प्लेट को प्रभावित कर देती हैं । सन् 1897 ई. में क्यूरी दंपती ने सर्वप्रथम रेडियोधर्मी पदार्थ रेडियम का पता लगाया और रान्तजन ने एक्स किरणों को ज्ञात किया । इसके उपरांत तो रेडियोधर्मी पदार्थों का ज्ञान तेजी से बढ़ा ।

आज वैज्ञानिकों को न केवल अनेक रेडियोधर्मी तत्व ज्ञात हैं, बल्कि वे नाभिकीय परिवर्तनों से लगभग सभी तत्वों को कृत्रिम रूप से रेडियोधर्मी बनाने में सक्षम भी हैं । रेडियोधर्मी तत्वों से अल्फा, बीटा और गामा किरणें निकलती हैं ।

ये किया दिखाई नहीं देतीं, परंतु ये सामान्यतया स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती हैं । रोग पैदा करने वाली तथा हानिकर होने के साथ-साथ रेडियोधर्मी विकिरणों के अनेक सदुपयोग भी हैं । इनका उपयोग चिकित्सा, कृषि तथा विभिन्न उद्योगों में होता है ।

अमेरिका के नोबल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर लिवी ने तो यहाँ तक कहा है कि रेडियोधर्मी तत्वों का इतना सदुपयोग किया जा सकता है कि इनसे होने वाला लाभ परमाणु बमों द्वारा हानि की पूरी तौर से क्षतिपूर्ति कर देगा । इसी आशा में सभी विकसित एवं विकासशील देशों में परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान द्वारा परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के लिए कार्य किया जा रहा है ।

अन्य अनेक देशों में भी परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण उपयोग करने के लिए परमाणु भट्टियों स्थापित की गई हैं । जहाँ एक ओर परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण उपयोग किया जा रहा है वहाँ कुछ देश इसका उपयोग अत्यधिक विध्वंसकारी बम बनाने में भी कर रह हैं ।

स्पष्टतः बम विस्फोटों एवं परीक्षणों तथा परमाणु भट्ठियों के कारण रेडियोधर्मी तत्वों की मात्रा दिनोदिन बढ़ती जा रही है कुछ रेडियोधर्मी तत्व ऐसे होते हैं जो अतिशीघ्र ही विघटित हो जाते हैं जबकि बहुत से तत्व ऐसे होते हैं जिसका विघटनकाल बहुत अधिक होता है और उनसे काफी समय तक रेडियोधर्मी उत्सर्जित होते रहते हैं ।

वस्तुतः इन्हीं तत्वों के कारण हमारे वायुमंडल की कुल रेडियोधर्मिता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ यह बात रेडियोधर्मी विकिरणों पर भी लागू होती है । अधिक मात्रा में रेडियोधर्मी किरणें घातक भी सिद्ध हो सकती हैं, लेकिन प्रकृति में व्याप्त रेडियोधर्मिता अभी घातक स्तर से कई लाख गुनी कम है ।

यही सोचकर शायद कुछ देश एक के बाद एक परमाणु परीक्षण करते जा रहे हैं तथा सभी रेडियोधर्मी तत्वों को अनियंत्रित रूप से प्रकृति की गोद में उड़ेलते जा रहे हैं । परमाणु भट्टियों के समीपवर्ती वातावरण की अधिक रेडियोधर्मिता इस कथन की पुष्टि करती है ।

चिकित्सा, कृषि, उद्योग तथा विभिन्न वैज्ञानिक परीक्षणों में काम आने वाले रेडियोधर्मी तत्व भी कुछ अंश तक अनियंत्रित रूप से मुक्त हो जाते हैं । विस्फोट के शीघ्र बाद तो जापान के क्षतिग्रस्त स्थानों में रेडियोधर्मिता प्रघातक स्तर पर थी ।

धीरे-धीरे विघटन तथा प्रसरण के फलस्वरूप स्थानीय रेडियोधर्मिता कम होती गई और अब लगभग प्राकृतिक रेडियोधर्मिता के स्तर पर आ गई है । जापान की स्थानीय रेडियोधर्मिता तो कम अवश्य हो गई है, किंतु प्रसरण के कारण विश्व-भर की रेडियोधर्मिता थोड़ी बढ़ गई ।

अभी भी प्राकृतिक रेडियोधर्मिता दिनोदिन बढ़ती जा रही है तथा इसके कम होने की कोई संभावना नहीं दिखती वरन् बढ़ने की दर और तीव्र होती जा रही है । मनुष्य के कृत्रिम अथवा प्राकृतिक रेडियोधर्मी पदार्थों के प्रयोग से जो विकिरणें वायुमंडल में फैलती हैं, वे ही रेयोधर्मिता प्रदूषण का रूप धारण कर लेती हैं । इस प्रकार उत्पन्न प्रदूषण केवल उन्हीं व्यक्तियों के स्वास्थ्य के लिए संकट नहीं हैं जो इनसे कार्य करते हैं, बल्कि जनसाधारण के लिए भी हानिकर है । वायुमंडल में रेडियोधर्मी प्रदूषण के प्रसरण के अनेक स्रोत हैं ।

उदाहरणार्थ- रेडियोधर्मी पदार्थों का निष्कर्षण अथवा शुद्धीकरण विधि । रेडियोधर्मी पदार्थों के उत्पादन में रात-दिन कार्य में रत बड़े-बड़े उद्योगधंधे, यूरनियम तथा थोरियम खनन, धातुई फैक्टरियाँ, नाभिकीय रिएक्टर तथा रासायनिक संयंत्र इस रेडियोधर्मी प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं । जहाँ तक इनके उपयोग का प्रश्न है- रेडियोधर्मी पदार्थ ट्रेसर के रूप में चिकित्सा के क्षेत्र में, कृषि, विद्युत उत्पन्न करने नाभिकीय विस्फोट आदि में प्रयुक्त किए जाते हैं ।

यह तथ्य है कि जब रेडियोधर्मी पदार्थों का शांतिपूर्ण कार्यों में उपयोग किया जाता है तो रेडियोधर्मी प्रदूषण उत्पन्न करते हैं, किंतु नाभिकीय विस्फोट, जो संसार को केवल विनाश की ओर ले जा रहे हैं, अधिक रेडियोधर्मी उत्पन्न करते हैं ।

इन विस्फोटों का प्राणी-जगत् पर जो प्रभाव पड़ता है उसका वर्गीकरण निम्न प्रकार कर सकते हैं:

(i) विस्फोटन द्वारा,

(ii) ऊष्मा द्वारा,

(iii) अदृश्य किरणों (गामा रे) द्वारा,

(iv) रेडियोधर्मी प्रपात द्वारा ।

जब विस्फोट होता है तो इस ऊर्जा का दो-तिहाई भाग विस्फोट में समाप्त हो जाता है और एक-तिहाई भाग ऊष्मा विकिरण के रूप में परिवर्तित हो जाता है । कुल विस्फोट ऊर्जा का लगभग 6 प्रतिशत न्यूट्रान तथा गामा किरणों द्वारा शोषण कर लिया जाता है जो विखंडन होकर केवल तीन सेकंड तक ही प्रभावित करता है ।

विस्फोट भी तीन प्रकार से किया जाता है- वायु में, जल में तथा भूमिगत । जहाँ तक वायु में विस्फोट का प्रश्न है, यह पृथ्वी से लगभग 2000 फुट ऊपर किया जाता है । विस्फोट के तुरंत पश्चात् लगभग 1/10 सेकंड के बाद खंडनीय सामग्री का तापक्रम लगभग दस लाख डिग्री सेल्सियस तथा वायुदाब भी लाखों गुना हो जाता है ।

परमाणु बम में जो वाष्पित पदार्थ (ऊपर का कवच आदि) होते हैं वे 30 गज का समतापीय क्षत्र बनाते हैं जिसका तापक्रम तीन लाख डिग्री सेल्सियस होता है । यह तापक्रम सूर्य की सतह के तापक्रम से लगभग पचास गुना अधिक होता है ।

इस स्थिति पर जब यह अग्नि-उल्का वायुमंडल के संपर्क में आता है तो विकिरणों के प्रसरण के कारण ठंडा होता जाता है और इसके प्रभाव से पृथ्वी का तापक्रम 1700° सेल्सियस हो जाता है ।

शनै:-शनै: अग्नि-उल्फा के अंदर का भाग ऊष्मा विकिरण प्रसारित करता है और फिर इसके प्रभाव से गर्म वायुमंडल और अधिक गर्म हो जाता है और वायुमंडल का तापक्रम लगभग सात हजार डिग्री सेल्सियस तक हो जाता है । यह सब क्रिया केवल 0.3 सेकंड में पूर्ण हो जाती है । अब अग्नि-उल्का का आकार बढ़कर 300 गज हो जाता है । इस प्रकार संपूर्ण वायुमंडल गर्म हो जाता है और वायुदाब कम तथा पानी का वाष्प संहत हो जाता है ।

विस्फोट-स्थल पर आकाश में बादल छा जाते हैं । कुछ ही क्षणों में जब वायुदाब सामान्य स्थिति में आ जाता है तो बादल अदृश्य हो जाते हैं । फिर यह अग्नि-उल्का सौ कि. मी. की गति से ऊपर उठता है और अपने साथ धूलि को भी ऊपर ले जाता है ।

यह उठता हुआ बादल लगभग चार मिनट में समताप मंडल में पहुँच जाता है । सात मिनट में इनकी ऊंचाई तीस से साठ हजार फुट तक हो जाती है । इस समय तक अग्नि-उल्का लुप्त होकर मशरूम का आकार ग्रहण कर लेता है ।

यह मशरूम सफेद रंग का बादल के समान होता है जिसका व्यास लगभग दो किलोमीटर तक पाया जाता है । ऊर्जा का 1/3 भाग ऊष्मा विकिरण में परिवर्तित हो जाता है । वायुमंडल का न्यूनतम तापक्रम 1700° सेल्सियस होने पर लगभग 11 प्रतिशत विकिरण उत्सर्जित होती हैं और तीन सेकंड की अवधि के पश्चात् कोई विकिरण विद्यमान नहीं रहती ।

इस प्रकार ऊष्मा से प्राप्त विकिरण का प्रभाव स्वच्छ आकाश के समय लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर 6 ग्राम कैलोरी प्रति वर्ग सेंटीमीटर तथा धुँधले आकाश के समय आधा किलोमीटर की दूरी तक ही यह इकाई प्राप्त होती है । वास्तव में यदि अनुभव किया जाए तो ऊष्मा का प्रभाव आकाश की स्वच्छता पर निर्भर करता है । इस अनावरण में 50 प्रतिशत मृत्यु तुरंत हो जाती है । सफेद कागज 10 ग्राम कैलोरी प्रति वर्ग सेंटीमीटर पर भस्म हो जाता है ।

अग्नि-पिंड के निकट चमक के कारण आँख खराब हो जाती है, यहाँ तक कि यदि व्यक्ति अग्नि-पिंड से दस मील की दूरी पर होते हुए भी उसकी ओर को देखता है तो अस्थायी रूप से उसकी आँखों में अंधापन आ जाता है ।

विस्फोट से उत्पन्न धमाके की गति एक किलोमीटर प्रति सेकंड आरंभ में रहती है और शनै:-शनै: 1/5 किलोमीटर प्रति सेकंड तक कम होती जाती है । रोचक वात यह है कि इस धमाके से हानि नहीं होती, बल्कि इस कारण से उत्पन्न जा वायु की वेग-गति बढ़ती है उससे अनेक मकान धराशायी होते हैं और वायु दास उड़ते हुए मलबे तथा शीशे के टुकड़ों से असंख्य प्राणी आहत होते हैं ।

अत: रक्तस्राव के कारण अधिक हानि होती है । अब प्रश्न उठता है कि इन विकिरणों का हमारे शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है ? परीक्षण करने पर पाया गया कि इन विकिरणों का प्रभाव हमारे शरीर पर दो प्रकार सें पड़ता है- 1. आंतरिक रूप में तथा 2. बाह्य रूप में ।

आंतरिक संकट अल्फा, बीटा तथा गामा किरणों द्वारा उत्पन्न होता है जबकि वाला संकट अधिकतर गामा किरणों द्वारा ही होता है । यदि प्रस्फोटक पदार्थ का आलिंगन त्वचा तथा वस्त्रों से हो जाता है तो संभावना बीटा किरणों की अधिक रहती है । किंतु ये किरणें शरीर में केवल एक सेंटीमीटर तक ही प्रवेश कर पाती हैं । ये किरणें रक्त की संरचना में प्रवेश पाने में असमर्श होती हैं और रक्त तक पहुँचने वाली केवल रह जाता हैं- गामा किरणें ।

इन किरणों से प्रभावित अंग इस प्रकार हैं- लसीका ऊतक, अंडग्रंथि की भ्रूणीय एपीथीलियम, अस्थिमज्जा, आमाशयांत्र, एपीथीलियम, अंडाशय, त्वचा, संयोजी ऊतक, अस्थि, यकृत, अग्न्याशय, गुर्दे, नाड़ी, मस्तिष्क तथा मांसपेशी । ये अंग इस क्रम में रखे गए हैं कि लसीका ऊतक सबसे अधिक तथा मांसपेशी सबसे कम इन विकिरणों द्वारा प्रभावित होती हैं ।

अब विचारणीय बात यह है कि संसार में ऐसे कौन-कौन-से तत्व हैं जो ऐसी विकिरण उत्सर्जित करते हैं । अत: यहाँ सारणी में ऐसे तत्व लिखे गए हैं और साथ में उनकी अर्ध-आयु भी, जिससे यह ज्ञान हो जाए कि अमुक तत्व अधिक हानिकर है अथवा नहीं । निम्नांकित सारणी में उद्धृत तत्वों में से केवल क्रिपटोन अहानिकर है ।

यह निष्क्रिय गैस होने के कारण वायुमंडल की ऊपरी सतह में लुप्त हो जाती है ओर धरातल पर रेडियोधर्मिता नहीं बढ़ती । शेष सभी तत्व धरातल पर एकत्र होकर प्राकृतिक रेडियोधर्मिता को बढ़ाते हैं । सर्वाधिक हानिकर वे तत्व हैं जिनकी अर्ध-आयु दस वर्ष से अधिक है और विशेषकर स्ट्रांसियम (90)*, सीजियम (137) तथा रुबीडियम (87) उल्लेखनीय हैं ।

ये दीर्घजीवी रेडियोधर्मी आइसोटोप पृथ्वी के धरातल पर जम जाते हैं और प्राणी-जगह को अनेक प्रकार से हानि पहुंचाते तथा संकट उत्पन्न करते रहते हैं । स्ट्रांसियम (90) शरीर के अंगों में अनेक स्थानों पर एकत्र हो जाते हैं ।

स्ट्रांसियम (90) का वह अंश जो पृथ्वी के धरातल पर एकत्र हुआ था, वर्षाकाल में घुलकर पेड़-पौधों की जड़ों में पहुंचकर भोजन बनकर शोषित हो जाता है । जब मनुष्य अथवा पशु इन पौधों को खाते हैं तो यह रेडियोधर्मी तत्व प्राणी के अंग-अंग में फैल जाता है ।

रासायनिक दृष्टि से स्ट्रांसियम, कैल्सियम के समान है और साधारणतया जीव-जंतुओं तथा प्राणियों के अंगों में पाया जाता है । स्ट्रांसियम भी कैल्सियम की भाँति दूध में अधिक प्राप्त है और इस प्रकार दूध-रूप में हमारे शरीर में पहुँचता है । चूँकि भोजन में उपलब्ध कैल्सियम अधिकतर अस्थि-ऊतक शास्त्र निर्माण में काम आता है, अत: रेडियोधर्मी स्ट्रांसियम भी कैल्सियम के साथ-साथ अस्थिपंजर के अस्थि-ऊतक में संचित हो जाता है ।

इस प्रकार अंतर्ग्रहीत स्ट्रांसियम धीरे-धीरे हड्डियों से समाप्त होता रहता है । केवल प्रसूति-माताओं में इसकी लुप्त होने की गति तीव्र हो जाती है, क्योंकि नारियों में दुग्धस्रवण की अवधि में दूध के साथ अधिक कैल्सियम निकलता रहता है ।

इसमें कैल्सियम का कुछ अंश अस्थियों से आता है और इस प्रकार अस्थि-ऊतक में संचित रेडियोधर्मी स्ट्रांसियम का दूध के साथ निकलना स्वाभाविक है । तत्पश्चात शिशुओं के अंगों में पूर्णतया आत्मीकरण हो जाता है जहाँ पर अस्थियों के विकसित होने पर यह रेडियोधर्मी स्ट्रांसियम भी विकसित हो जाता है ।

माता के अंगों से गर्भनाल द्वारा यह रेडियोधर्मी स्ट्रांसियम भ्रूण तथा उसके अस्थिपंजर में भी प्रवेश कर सकता है । जब स्ट्रांसियम जल पौधों तथा जंतुओं में प्रवेश करता है तो शैवाल (काई) तथा प्लावक द्वारा तुरंत शोषण कर लिया जाता है ।

इस प्रकार स्ट्रांसियम (90) की सांद्रता प्लावक से जल पर्यावरण में 10,000 गुना बढ़ जाती है । यहाँ से यह स्ट्रांसियम (90) मलास्का, क्रेब तथा मछलियों के अंगों में प्रवेश कर जाता है । अध्ययन करने पर ज्ञात हुआ कि स्ट्रांसियम की मात्रा मत्स्य अस्थियों में 700 गुना तथा मत्स्य मांसपेशियों में 500 गुना जल में विद्यमान स्ट्रांसियम (90) से अधिक पाई गई ।

प्रशांत महासागर में हुए विस्फोट के पश्चात् जापान में ट्यूनी, मैकेरेल तथा अन्य मछलियाँ पूर्णतया रेडियोधर्मी पाई गईं । विशेषकर यकृत तथा अस्थिपंजर सक्रिय थे । इस प्रकार मछली खाने वाले मनुष्यों के अंगों में रेडियोधर्मी स्ट्रांसियम का प्रवेश होना स्वाभाविक है ।

पूर्वी देशों (चीन, जापान, कोरिया तथा भारत) में चावल बहुत ही खाया जाता है । इस चावल में स्ट्रांसियम की मात्रा भी अधिक पाई जाती है । यह देखा गया है कि यहाँ पर दूध से 40 गुना स्ट्रांसियम चावल में होता है । प्रशांत महासागर के द्वीपों पर रहने वाले मनुष्य मैराइन मछली के खाने के कारण लगभग 63 प्रतिशत स्ट्रांसियम की मात्रा अधिक लेते हैं ।

रेडियोधर्मी स्ट्रांसियम अधिकतर युवा वर्ग पर ही प्रभाव डालता है । आज जितने भी परमाणु बम के विस्फोट हो रहे हैं उनसे प्रकृति में और अधिक रेडियोधर्मिता बढ़ रही है । और यह रेडियोधर्मी प्रपात के रूप में आकर मनुष्य के अंगों में प्रवेश कर जाते हैं तथा स्ट्रांसियम (90) अस्थियों में संचित होता जाता है ।

यदि इस प्रकार विस्फोट होते रहे तो यह सत्य होगा कि आज का वैज्ञानिक आने वाली पीढ़ी के लिए रेडियोधर्मी प्रदूषण का पारितोषिक रूप में प्रदान कर रहा है । अत: यह परमाणु युद्ध संसार के किसी भी कोने में होता है तो पृथ्वी नक्षत्र की संपूर्ण जनता को रेडियोलॉजीकल संकट का सामना करना पड़ेगा ।

अधिक समय तक रेडियोधर्मी पदार्थ के संपर्क में रहने पर मनुष्य की आयु कम हो जाती है, बाल सफेद ही जाते हैं, यौन तृष्णा कम हो जाती है तथा स्थूलता उत्पन्न हो जाती है । रेडियोधर्मी स्ट्रांसियम मुख्यतः अस्थि-ऊतक, रेडियो आयोडीन गलग्रंथि तथा प्लूटोनियम व यूरेनियम यकृत पर अधिक प्रभावशील होते हैं ।

रेडियोस्ट्रांसियम के कारण उत्पन्न बीमारी रक्तश्वेताणुमयता (ल्यूकेमिया) लाखों बच्चों को सदैव के लिए सुला देती है । गर्भवती औरतें, विशेषकर प्रजनन के समय, विकिरणों से अधिक प्रभावित होती हैं । मनुष्य भी अन्य जीवधारियों की तरह संसेचित डिंब एकमात्र कोशिका से विकसित हुआ है । अंडाणु तथा शुक्राणु, जो जनन कोशिका कहलाते हैं, नाभिक की संरचना में अंगों की दूसरी कोशिकाओं से भिन्न होते हैं ।

मनुष्य में सभी कोशिकाओं के केंद्रकों में 48 संरचनाएँ होती हैं जिनको क्रोमोसोम कहते हैं । ये क्रोमोसोम सूक्ष्मदर्शी यंत्र में दृष्टिगोचर हो जाते हैं तथा प्रत्येक का एक-एक साथी क्रोमोसोम भी होता है । इस प्रकार ये 24 जोड़े शेष सभी क्रोमोसोम से आकारिकीय रूप से भिन्न होते हैं ।

क्रोमोसोम के ये 24 जोड़े ध्रुवों की ओर विभाजित हो जाते हैं और इस प्रकार जनन कोशिका में केवल 24 ही क्रोमोसोम, माता के 24 क्रोमोसोम से डिंब में मिलकर पूरे 48 क्रोमोसोम फिर बना देते हैं । इस प्रकार यदि माता-पिता में से कोई भी एक रेडियोधर्मी पदार्थ से प्रभावित हो जाता है तो उसका प्रभाव उत्पन्न होने वाले बच्चे पर अवश्य ही पड़ता है ।

अत: यदि परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया और ये बंद नहीं किए गए तो इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ तक लगभग एक लाख बच्चे प्रतिवर्ष ऐसे उत्पन्न होंगे जो विरूपता, मानसिक मंदन, हीमोफीलिया तथा लघुशीर्ष आदि गंभीर पैतृक दोषों से युक्त होंगे ।

तारापुर परमाणु बिजलीघर में इस समय 200 मेगावाट के दो रिएक्टर कार्य कर रहे हैं । इन्हें ठंडा करने के लिए प्रतिदिन लगभग 2.5 × 109 लिटर पानी समुद्र से लिया जाता है । यह पानी 1.4 × 105 लीटर निम्न स्तरीय रेडियोधर्मी व्यर्थों के साथ छोड़ दिया जाता है । रेडियोधर्मी बहि:प्रवाही पदार्थों के प्रसार के अध्ययन के पश्चात् सन् 1957 ई. में पानी के इस ग्रहण व निपटान का विस्तृत अध्ययन किया गया ।

तटवर्ती क्षेत्र से प्राप्त नमक, मछली और तलछट में रेडियो न्यूक्लाइडों की मात्रा ज्ञात करने के लिए विस्तृत जाँच की गई । रेडियोधर्मी व्यर्थों को फेंकने के लिए राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय नियम बने हुए हैं । इनके अनुसार अल्प मात्रा में इन्हें हम अनियंत्रित रूप में फेंक सकते हैं ।

लेकिन थोड़ी-थोड़ी मात्रा से भी अनियंत्रित रूप से फेंकने से वातावरण की रेडियोधर्मिता तीव्र गति से बढ़ती जा रही है । कतिपय वैज्ञानिकों की धारणा है कि मनुष्य में एक विशेष मात्रा तक रेडियोधर्मिता सहन करने की क्षमता है तथा प्रकृति में रेडियोधर्मिता की मात्रा अभी काफी कम है । अत: रेडियोधर्मी प्रदूषण काफी शोचनीय सिद्ध होगा ।

अत: हमें प्रकृति के रेडियोधर्मी प्रदूषण को रोकने का प्रयास करना चाहिए । यह राष्ट्रीय ही नहीं, अपितु अंतर्राष्ट्रीय समस्या है तथा नियंत्रण न करने पर इसका मूल्य न केवल हमें बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी चुकाना पड़ेगा ।

रेडियोधर्मी प्रदूषण को आगे के लिए रोकना इसलिए और भी आवश्यक है कि वायुमंडल में व्याप्त रेडियोधर्मिता को एकत्र कर नियंत्रित करना संभव नहीं है । साथ ही साथ एक जगह उत्सर्जित रेडियोधर्मी विकिरणें धीरे-धीरे सारे विश्व में फैल जाती हैं ।

समय पाकर यह पौधों तथा जानवरों में होकर मानव-शरीर म पहुँच जाती है जहाँ इनका संचय होता जाता है । स्ट्रांसियम का समस्थानिक स्ट्रांसियम (90) मनुष्य की हड्डियों में कैल्सियम की जगह तथा सीजियम का समस्थानिक सीजियम (137) मांसपेशियों में पोटेशियम की जगह एकत्र होता है ।

फलस्वरूप शरीर में रेडियोधर्मी तत्वों की मात्रा बढ़ती जाती है । इन्हीं कारणों से मवेशियों के दूध में भी विभिन्न प्रकार के रेडियोधर्मी तत्व किसी न किसी प्रकार अंततोगत्वा मानव-शरीर में ही पहुँचते हैं । इन्हीं कारणों से सभी शांतिप्रिय देश परमाणु परीक्षणों से असहमत हैं ।

फिर भी कुछ देश अंतर्राष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन करके केवल स्वार्थसिद्धि के लिए तथा मानवता को संकट में डालने के लिए कटिबद्ध प्रतीत हैं । समस्या और भी जटिल इसलिए है, क्योंकि कोई भी देश यह नहीं बताता कि उसके द्वारा परीक्षित बम की शक्ति क्या थी ? रेडियोधर्मी प्रदूषण टिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है ।

हम अपने ही क्रियाकलापों से अपने वातावरण को दूषित करते जा रहे हैं । पर्यावरण में तीव्र गति से बढ़ता प्रदूषण आज हमारे समक्ष काल देवता की भाँति आ खड़ा हुआ है । स्थल, वायु, जल किसी को भी हम सुरक्षित नहीं कह सकते । परंतु इतना अवश्य है कि इन प्रदूषणों के कारणों को हम प्रत्यक्ष रूप में देख सकते हैं और इसलिए उनसे बचने का प्रयत्न आसानी से कर सकते हैं ।

पर खेद की बात तो यह है कि आज प्रदूषण के क्षेत्र में एक नया आयाम आ जुड़ा है जिसकी मुख्य विशेषता है उसकी अप्रत्यक्षता । यानी कि आप उससे लगातार प्रभावित होते रहते हैं यद्यपि उसका स्रोत आप आसानी से ढूँढ नही सकते ।

इस प्रकार का प्रदूषण अपेक्षाकृत क्षीण होता है, परंतु यह अधिक हानिकारक भी हो सकता है । अभी तक हमने इस पर ध्यान नहीं दिया है पर चोटी के वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त की है कि भविष्य में प्रदूषण का शायद सबसे प्रबल रूप यही हो ।

(2) कंप्यूटर (Computer):

समूचे विश्व में कंप्यूटर क्रांति की लहर तो आ गई है, परंतु वर्तमान शोध-कार्यों से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि कंप्यूटर पर काम करना विशेषकर महिलाओं के लिए घातक सिद्ध होगा । आजकल दफ्तरों, वायुसेना कार्यालय तथा अनेक उद्योगों में कंप्यूटर पर महिलाओं का कार्य करते देखा जाता है ।

‘माइक्रोवेव न्यूज’ के नवंबर 1981 के अंक में अमेरिका व कनाडा में चार ऐसे महिला दलों का विवरण था जिसमें कंप्यूटर पर कार्य करने वाली महिलाओं के नवजात शिशुओं में अनेक विकृतियाँ पाई गईं । पहली घटना कनाडा के दैनिक ‘टोरंटो स्टार’ की महिला कर्मचारियों के साथ घटित हुई जिसमें सात में से चार बच्चों में जन्मदोष पाए गए ।

अमेरिका के मेरिएटा प्रांत से रिपोर्ट के अनुसार 15 में से सात बच्चों में दोष थे । 1979 व 1980 के बीच डल्लास के सुपर मार्केट में काम करने वाली 12 महिलाओं में से आठ ने विकृत शिशुओं को जन्म दिया । मॉन्ट्रियल हवाई अड्डे पर कार्यरत 13 महिलाओं में से सात के साथ यही घटना घटित हुई ।

इस प्रकार लगभग 50 प्रतिशत महिलाएँ कंप्यूटर टर्मिनलों पर कार्य करती थी । हम अभी निश्चित रूप से यह बात नहीं कह सकते कि यह सब कंप्यूटरों के कारण ही था, परंतु इतना अवश्य है कि कुछ हद तक कंप्यूटर टर्मिनल इसके लिए जिम्मेदार हैं ।

कंप्यूटरों पर अधिक समय तक कार्य करने से एक विचित्र भ्रम उत्पन्न होता है जिसे ‘मैक कॉलो प्रभाव’ कहते हैं । कंप्यूटर स्क्रीन पर काली पृष्ठभूमि पर हरे अक्षर व आकृतियाँ ऐसा प्रभाव उत्पन्न करती हैं कि सामान्य सफेद अक्षर व आकृतियाँ हलकी गुलाबी-सी प्रतीत होती है ।

कंप्यूटर पर बहुत देर तक कार्य करने से यह प्रभाव और भी अधिक होता है- यहाँ तक कि हफ्तों तक यह रह सकता है । मनोवैज्ञानिक भी इस तथ्य से भली भाँति परिचित हैं । मैक कॉलो प्रभाव आँख के ‘कार्टिकल न्यूरानी’ के कारण होता है, जो कि विभिन्न रंग व आकृतियों से प्रभावित होते हैं । शोधकर्ता के अनुसार कंप्यूटरों के बढ़ते उपयोग से यह प्रभाव बहुत अनुभव किया जाने लगेगा ।

(3) टेलीविजन व वीडियो (Television and Video):

ये भी कंप्यूटर के समान ही होते हैं क्योंकि इनका स्क्रीन वही होता है जो कंप्यूटर का ।

परंतु इनकी दो भिन्नताएं, कबूतर से होने वाले दुष्प्रभावों से इन्हें भिन्न करती हैं:

(i) कंप्यूटर पर कार्य निकट बैठकर किया जाता है जबकि टेलीविजन व वीडियो हम दूर बैठकर देखते हैं ।

(ii) कंप्यूटर पर उभरने वाली आकृतियों में मुख्यत: अक्षर होते हैं, जबकि टेलीविजन पर मुख्यत: बड़े आकार के चित्र ।

इसलिए टेलीविजन से निकलने वाला विकिरण आँखों के लिए विशेष रूप से हानिकारक होता है ।

टी.वी. तथा वीडियो दो प्रकार से आँखों को प्रभावित कर सकते हैं:

(a) अधिक समय तक देखने से आँखों पर जोर,

(b) विकिरण द्वारा ।

विकिरण का कारण स्क्रीन पर टकराने वाले इलेक्ट्रॉन होते हैं । चूँकि स्क्रीन पर कुछ विशेष स्फुरदीप्त पदार्थ जैसे Zns की परत होती है जो कि इलेक्ट्रॉनों के संपर्क में प्रदीप्ति उत्पन्न करती है । इस प्रकार का विकिरण रंगीन टी. वी. सेटों में अधिक होता है ।

(4) ट्‌यूबलाइट (Tubelight):

ऐसा विश्वास है कि गोरे लोगों को सूर्य की पराबैंगनी किरणों द्वारा एक प्रकार का कैंसर होता है । परंतु यह तथ्य अभी पूर्णतया स्थापित नहीं हो पाया है, क्योंकि इस रोग से प्रभावित अधिकतर व्यक्ति दफ्तरों में कामकाज करने वाले हैं ।

अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया के संयुक्त शोध-कार्य से यह बात सामने आई है कि इसके पीछे प्रतिदीप्त प्रकाश का हाथ हो सकता है । ट्‌यूबलाइट के प्रकाश से अनेक प्रकाशबेधी अभिक्रियाएँ त्वचा पर होती हैं जिनसे अनेक रोग हो सकते हैं ।

शोध के समय यह विचित्र बात भी देखी गई है कि घर पर ट्‌यूबलाइट से इस प्रकार का कोई अधिक प्रभाव नहीं पड़ता । सूर्य के प्रकाश से त्वचा कुछ अधिक मोटी हो जाती है जिससे कि कुछ सुरक्षा भी मिल सकती है । विदेशों में अधिक देर तक दफ्तर में कार्य करने वाले पुरुषों में यह रोग घर से बाहर रहने वाली महिलाओं की अपेक्षा अधिक होता है ।

यह भी कारण हो सकता है कि यह रोग शरीर के उन भागों में अधिक होता है जो अधिक ढके रहते हैं । गला व मुँह इससे अधिक प्रभावित नहीं होते क्योंकि बाहर सूर्य का अधिक प्रकाश इन हिस्सों को मिलता है । यह रोग पिछले 30 वर्षों से वृद्धि पर है और भविष्य में भी चिंता का विषय बन सकता है ।

(5) आयन प्रभाव (Ion Effects):

शोध-कार्यों से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि वायुमंडल में आयनों की संख्या मनुष्य के व्यवहार व उसके स्वास्थ्य को बहुत हद तक प्रभावित करती है । यदि आयनों की संख्या घट जाए तो अनेक प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं जैसे सिरदर्द, बेहोशी और काम में अरुचि ।

सर्रे विश्वविद्यालय के डॉ. हॉकिंस के शोध से यह पता चलता है कि ब्रिटेन में अच्छे सुहावने मौसम के दिनों में आयनों की संख्या प्रति घन सेंटीमीटर में 1000 के लगभग होती है । शहरों में यह लगभग 500 हो जाती है ।

कुछ दफ्तरों में आयनों की संख्या शून्य भी हो सकती है । प्रयोग के दौरान डॉ. हॉकिंस न इन दफ्तरों में आयनाइजरों का प्रयोग किया जो लगभग 3000 से 4000 आयन प्रति घन सेंटीमीटर का उत्पादन करते थे । इस प्रयोग के परिणाम अत्यंत चकित कर देने वाले थे ।

सिरदर्द अनुभव करने वाले 15 से 25 प्रतिशत कर्मचारियों कीं संख्या घटकर 6 प्रतिशत रह गई, साथ ही साथ काम करने में उनका मन भी लगने लगा । आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि दफ्तरों में आयनों की कम संख्या का कारण वातानुकूलन यंत्र थे ।

वातानुकूलन यंत्रों में वायु पतली नलिकाओं में से खींची जाती है जिससे ऋणायन इन धातु की नलिकाओं से चिपक जाते हैं और वायु में आयनों की संख्या बहुत कम हो जाती है । आयनाइजरों का प्रयोग करने से अनेक परिस्थितियाँ, जैसे ज्वर, दमा, माइग्रेन व ब्रोंकाइटिस रोकी जा सकती हैं ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारी सुख-सुविधा के सामान, जिन्हें हम मनोरंजन के लिए प्रयोग में लाते हैं, आज हमारे लिए सिरदर्द बनते जा रहे हैं और हम उनसे अनभिज्ञ हैं । देखें, भविष्य में यह इलेक्ट्रॉनिकीय प्रदूषण किस हद तक हमारे जीवन में परिवर्तन लाता है ।

(6) ऊष्मा (Mercury):

आज जहाँ मानव नाना प्रकार की विषैली वस्तुओं से अपने वातावरण को दूषित कर रहा है, वहाँ उसने गर्मी की गंदगी फैलाने में भी कोई कसर नहीं उठा रखी है । यह गर्मी की गंदगी न केवल जलवायु को ही बदल रही है वरन् सारी जीव-सृष्टि को प्रभावित कर रही है ।

हो सकता है, कुछ जीव-जातियाँ नष्ट हो जाएँ ओर कुछ को अधिक फैलने में सहायता मिले । जलवायु संबंधी परिवर्तनों का होना पृथ्वी के इतिहास में कोई नई बात नहीं है । सैकड़ों छोटे-बड़े युग बीत चुके हैं जिनमें कभी ठंड बहुत कम पड़ी और कभी गर्मी । लेकिन ये सारे परिवर्तन एक तो बहुत धीमी गति से हुए और दूसरे, ये पूरी तरह प्राकृतिक थे । तब तक धरती के वातावरण में असंतुलन पैदा करने वाले मानव का विकास नहीं हुआ था ।

जलवायु संबंधी उन पुराने परिवर्तनों का मुख्य आधार सूर्य से प्राप्त होने वाले विकिरणों का अभाव या आधिक्य था । हाल के वर्षों में पृथ्वी के ताप में कुछ वृद्धि हुई है । एक अनुमान के अनुसार पिछले पचास वर्षों में पृथ्वी का औसत ताप एक डिग्री सेल्सियस बढ़ा है । इस ताप के बढ़ने के प्रत्यक्ष प्रमाण कई बातों में मिलते हैं ।

देखा गया है कि हिमनद (ग्लेशियर) पिघलकर ऊपर की और को सिकुड़ते जा रहे हैं, हिम-रेखा ऊँची होती जा रही है, बर्फ जमने की ऋतुओं की कालावधि घटती जा रही है और पाया गया है कि बहुत-सी जंतु एवं पादप-जातियाँ उत्तरी क्षेत्रों की ओर बढ़ती जा रही है, यानी ऐसे क्षेत्रों की ओर जो पहले बहुत ठंडे हुआ करते थे ।

इस ताप-वृद्धि के कारण के संबंध में वैज्ञानिकों की धारणा है कि सूर्य के विकिरण की मात्रा बढ़ गई है लेकिन इस दिशा में कोई सुनिश्चित प्रमाण सामने नहीं आया है । इसके विपरीत कुछ अन्य विशेषज्ञों को संदेह है कि हो न हो, इस ताप-वृद्धि का कारण तीव्र गति से होने वाला औद्योगिकीकरण है ।

लगभग हर उद्योगधंधे में ऊर्जा-स्रोत के रूप में किसी न किसी ईंधन की आवश्यकता होती है । अधिकतर फैक्टरियाँ कोयले से चलती हैं या कुछ में कोयले के स्थान पर मिट्टी के तेल, पेट्रोल, डीजल आदि का उपयोग होता है ।

बड़े-बड़े शहरों में या लंबे-लंबे राजमार्गों पर हर देश में हजारों-लाखों की संख्या में कारें, बसें ओर ट्रक दौड़ रहे हैं और इसी तरह रेल-मार्गों पर चलती हुई अनगिनत रेलगाड़ियों के इंजन अपने भीतर लाखों-करोड़ों मन कोयला या डीजल रोज फूँक रहे हैं ।

बिजली से चलने वाली मशीनें भी ज्यादातर उन बिजलीघरों से ही अपनी बिजली प्राप्त कर रही हैं जिनमें कोयला जैसे ईंधन जलाकर बिजली पैदा की जाती है । इन सब साधनों के साथ उन करोड़ों और अरबों छोटे-छोटे घरेलू चूल्हों को भी गिनना गलत नहीं होगा जिनमें पत्थर की अँगीठियाँ, गैस के चूल्हे या बिजली के उपकरण काम में लाए जाते हैं ।

इन सब ईंधनों के जलने से जो ऊष्मा निकलती है वह एक प्रकार से फॉसिल अथवा जीवाश्म ऊष्मा कही जा सकती है । क्योंकि यह एक ऐसी ऊष्मा है जो अप्रकट रूप में पृथ्वी के गर्भ में दबी पड़ी थी । यह वह ऊष्मा थी जो करोड़ों वर्ष पहले जंगली या अन्य जीवों ने अपने शरीर निर्माण के दौरान उस समय की सौर ऊर्जा के रूप में प्राप्त की थी और फिर कालांतर में उनका शरीर कोयला या मिट्टी का तेल बन गया ।

आज जब हम इन ईंधनों को जलाते हैं तो वही पुराने युगों की संचित ऊर्जा ऊष्मा के रूप में बाहर निकलती है । हर दहन-क्रिया का मुख्य उत्पाद कार्बन डाइऑक्साइड गैस होता है । यह खनिज ईंधनों के जलने पर निकलती है और साथ ही लकड़ी आदि के जलने पर भी । और तो और, विश्व के वे करोड़ों लोग भी गर्मी और कार्बन डाइऑक्साइड की इस अप्राकृतिक वृद्धि में सहायक हैं जो सिगरेट-बीड़ी पीते हैं, भले ही उनकी दियासलाई की तीली के जलने और जलती हुई सिगरेट के धुएँ से यह वृद्धि नगण्य दीख पड़ती है ।

अनुमान है कि हर प्रकार के ईंधनों के जलने और संपूर्ण जीव-सृष्टि के साँस लेने से प्रतिवर्ष लगभग 10 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में उत्सर्जित होती है । वायु में इस कार्बन डाइऑक्साइड का अधिकांश भाग दो मुख्य साधना द्वारा निकाल लिया जाता है- एक तो वनस्पति सृष्टि के द्वारा और दूसरे समुद्र के जल में मिलकर ।

फिर भी अनुमान है कि वायुमंडल की कार्बन डाइऑक्साइड में 0.2 प्रतिशत की वृद्धि हर वर्ष हो रही है । इस वृद्धि का असर पृथ्वी की जलवायु पर पड़ता है । हम जानते हैं कि कार्बन डाइऑक्साइड एक भारी गैस है और इसलिए वह पृथ्वी के धरातल के समीप परत बना लेती है ।

यह परत पृथ्वी से वापस आकाश में लौटने वाली गर्मी की दीर्घ तरंग विकिरण को रोकती है, कुछ-कुछ उसी तरह जैसे ग्रीन हाउस का प्रभाव होता है । देखा गया है कि बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों का ताप समीप के ग्रामीण क्षेत्रों के ताप से दो या तीन डिग्री अधिक होता है ।

इतना ही नहीं, ऐसे प्रमाण भी सामने आने लगे हैं जिनसे पता चलता है कि इन बड़ी-बड़ी औद्योगिक बस्तियों के कारण सौ-सौ मील तक के दायरे में बादलों के बनने और वर्षा होने पर परिवर्तन आ सकते हैं । जैसे-जैसे ईंधन के प्राकृतिक भंडार समाप्त होते जा रहे हैं, मानव का ध्यान अन्य शक्ति-स्रोतों की ओर जा रहा है । हर देश में परमाणु बिजलीघर बनाने की योजनाएं चल रही हैं और अनेक स्थानों पर बन चुके हैं । परमाणु के विस्फोट में, जैसा कि परमाणु बम में होता है, अत्यधिक गर्मी निकलती है ।

परमाणु बिजलीघरों में इस प्रकार की अवशिष्ट अर्थात् व्यर्थ ऊष्मा को बाहर निकालना एक बड़ी समस्या होती है । मशीनों और उपकरणों को ठंडा करने वाला जल अकसर पास की किसी नदी या समुद्र में से लिया जाता है और फिर वापस उसी में छोड़ दिया जाता है ।

देखा गया है कि ऐसी नदियों के जल में नीचे की धारा का ताप दो-तीन डिग्री ज्यादा होता है । परमाणु संस्थान ही नहीं, साधारण बिजलीघर और साधारण फैक्टरियों को ठंडा रखने में भी उनका जल और अवशिष्ट पदार्थ नदियों में छोड़ने से उनका ताप कुछ बढ़ जाया करता है ।

जलवायु का जीव-सृष्टि पर गहरा प्रभाव पड़ता है । अधिकतर जीव-जंतु या पेड़-पौधे कुछ खास ताप-सीमाओं के भीतर ही पनप सकते हैं । मनुष्य, अन्य स्तनधारी तथा पक्षी ऐसे प्राणी हैं जो अपने शरीर के ताप को स्थिर बनाए रखते हैं और बाहरी वातावरण में होने वाले ताप-परिवर्तनों का उनकी शरीर-क्रियाओं पर गंभीर असर नहीं होता ।

पर फिर भी, कुछ तो असर होता ही है । लेकिन शेष प्राणियों का शरीर अनियत-तापी होता है, अर्थात् उनके शरीर का ताप पर्यावरण के ताप के अनुसार घटता या बढ़ता रहता है । ऐसे जंतुओं में उच्च ताप पर ऑक्सीजन उपभोग की मात्रा बढ़ जाती है, लेकिन साथ ही ऑक्सीजन की विलेयता घट जाती है ।

जलीय प्राणियों पर ताप-वृद्धि के प्रभावों पर कुछ अध्ययन किए गए है । कुछ मछलियाँ बढ़े हुए ताप पर जिंदा तो रह सकती है, लेकिन यह ताप यदि एक या आधा डिग्री भी ज्यादा हुआ तो उसमें अंडों का दिया जाना ओर उनमें से बच्चे निकलना संभव नहीं होता जैसे ‘टाउट’ मछलियों में ।

नतीजा यह होगा कि अंत में ऐसी नदियों से इस प्रकार की मछलियाँ समाप्त हो जाएँगी । यह भी देखा गया है कि कुछ प्रकार के हानिकर जीव जैसे कि टेरोडो (जो लकड़ी को बेधने वाला नौ-कृमि है) जल के थोड़े-से भी उच्च ताप पर अधिक सक्रिय हो जाता है और तेजी से उसी संख्या में वृद्धि होने लगती है ।

कुछ देशों में देखा गया है कि 30° सेल्सियस से अधिक ताप वाले जल में कुछ शैवालों को छोड़कर शेष सभी जीव नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार यह अनिवार्य हो गया है कि सभी प्रकार के होने वाले ताप-प्रदूषणों की ओर अधिक ध्यान दिया जाए और उनसे होने वाले प्रभावों पर विस्तृत खोज हो, ताकि संभावित हानियों को समय रहते ही रोका जा सके ।

(7) शोर (Noise):

प्रौद्योगिकी के विकास के साथ बढ़ते हुए शोर के कारण स्वास्थ्य को शोर से होने वाली हानियाँ बढ़ती जा रही हैं । अनावश्यक ध्वनि ही शोर है, अत: एक व्यक्ति के लिए जो संगीत है, वही दूसरे के लिए शोर हो सकता है, या यों कहिए कि अनिच्छित ध्वनि को ही शोर की संज्ञा देना उचित होगा । परंतु शोर का प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि शोर, का कारण क्या है और उसकी तीव्रता कितनी है । इसके साथ ही साथ, वह ध्वनि किस समय पर उत्पन्न की जा रही है ।

उदाहरणार्थ, एक विद्यार्थी का अध्ययन समय यदि रात्रि के ग्यारह बजे तक है और प्रात: चार बजे प्रारंभ हो जाता है तो ऐसे समय पर रात्रि के शांत वातावरण को यदि लाउडस्पीकर द्वारा गायन करके भंग किया जाए तो ऐसी ध्वनि जो कुछ वर्ग विशेष के लिए प्रिय हो, किंतु विद्यार्थी तथा अध्यवसायी लोगों के लिए शोर है ।

इस प्रकार का शोर न केवल अध्ययनकर्ता के स्वास्थ्य पर प्रभाव डालता है बल्कि उसके भविष्य के लिए भी हानिकर है । आज के वैज्ञानिक युग में हम अपनी सुख-सुविधा के लिए प्रत्येक काम में मशीन की मदद लेना चाहते हैं ।

निस्संदेह मशीन हमारी मदद अवश्य करती है किंतु शोर ओर धुआँ उगलकर हमारा स्वास्थ्य भी खराब करती है । आम आदमी की बात अलग हो सकती है, लेकिन जरा उनकी भी कल्पना करें जो कारखानों में काम करके अपना पेट पलटे हैं ।

मशीनें, मोटरों, रेलें और जेट विमान हम सुविधा के लिए प्रयोग में लाते हैं, लेकिन इनसे उत्पन्न शोर परोक्ष रूप से हमारे स्वास्थ्य पर निरंतर घातक प्रभाव डालता है । शोर के घातक प्रभाव की यह बात कोई नई खोज नहीं है, लेकिन फिर भी, डस तरफ ध्यान बहुत कम लोगों का गया है ।

इटली के वैज्ञानिक लेखक श्री रमजीनी ने आज से लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व अपनी पुस्तक ‘डि मोरांबेस आर्टिफ्किम’ में लिखा था कि ताँबा कूटने वाले और पीतल के बर्तन बनाने वाले मजदूर बहरे हो जाते है । तब से अब तक कई राष्ट्रों ने शोर के इस घातक प्रभाव पर खोज की तथा पाया कि शोर से मजदूरों के कानों के अलावा उसके हृदय, मस्तिष्क, केंद्रीय तंत्रिका-तंत्र तथा उनके आमाशय पर भी प्रभाव पड़ता है ।

इतना ही नहीं, कारखानों में होने वाली अनेक दुर्घटनाओं का कारण भी शोर ही होता है । कारखानों की संख्या आज भी बराबर बढ़ रही है । इसके साथ बढ़ रही है आबादी, और आबादी के साथ व्यवसाय व यातायात भी बढ़ता है ।

फलस्वरूप इस व्यस्त विश्व में शोर को अपना आक्रमण करने का पूरा अवसर मिलता है । आज शोर के घातक परिणामों की संभावना और भी बढ़ गई है । शोर क कारण मिलों से काम करने वाले मजदूरों की कार्यक्षमता भी बराबर कम होती जा रही है ।

वहाँ काम करने वाले अन्य कर्मचारी भी अपनी कार्यक्षमता बराबर खो रहे हैं । यदि शोर आने वाले 30 वर्षों में विगत 20 वर्षों की भाँति बढ़ता रहा तो यह संहारक हो सकता है । पर्यावरण में शोर की तीव्रता प्रत्येक दस वर्ष में दुगुनी होती जा रही है ।

इसमें कोई संदेह नहीं कि शोर से मानव-स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है । शोर के कारण स्थायी श्रवण दोष होता है, इससे बातचीत में बाधा पड़ती है, कार्यक्षमता में कमी आती है, साथ ही यह झुँझलाहट पैदा करने वाला होता है ।

पिछले कई वर्षों से कर्मियों के श्रवण-दोष को उनकी वय तथा अनुभव और शोर के प्रभावन-स्तर से संबद्ध करने के प्रयास किए जा रहे हैं । शोर से होने वाली इस दोहरी हानि के बावजूद बहुत कम लोग इसकी गंभीरता को महसूस कर रहे हैं ।

आज भी हमारी सड़कों पर जगह-जगह लाउडस्पीकर गूँजते हैं, गली के हर मोड़ पर लगी पान की दुकानों के रेडियो पूरे वाल्युम पर खुले रहते हैं । संभवतया उस समय हम इस तथ्य से अवगत नहीं होते कि यह शोर हमारे दिल, दिमाग तथा पूरे वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है ।

इस अनभिज्ञता का कारण तो वैज्ञानिक दृष्टि की अनुपस्थिति ही हो सकती है, लेकिन अस्पताल के बाहर, लोक सभा के बाहर जहाँ हॉर्न न बजाने के संकेत होते हैं, वहाँ भी हमारे शिक्षित कारचालक हॉर्न बजाए बिना नहीं रहते ।

यदि छोटी-छोटी बातों की गंभीरता को समझें तो शहर में शोर कम हो सकता है तथा इसके घातक प्रभाव से बचा जा सकता है । शोर की इकाई को डेसिबेल का नाम दिया गया है जिसे अंग्रेजी में डी-बी लिखा जाता है ।

डेसिबेल ध्वनि की तीव्रता नापने की इकाई है । डेसिबेल पैमाने पर ‘शून्य’ ध्वनि की तीव्रता का वह स्तर है जहाँ से ध्वनि सुनाई देना आरंभ होती है । इस प्रकार शून्य डेसिबेल वह ध्वनि है जिसे एक सामान्य कान द्वारा सुना जा सकता है ।

नगरों में तोड़-फोड़ तथा नवनिर्माण से होने वाले शोर के कारण सुबह से शाम तक नगर-जीवन में किसी व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक डेसिबेल की ध्वनि मिलती है । इस प्रकार निर्माण से होने वाले शोर यों तो जीवन की सामाजिक आवश्यकता होते हैं परंतु ये मानव-जीवन को दूभर बना देते हैं ।

निर्वातक पंखे, मशीनें तथा यातायात के साधनों से सुबह से शाम तक अनेक प्रकार के शोर होते रहते हैं । काम पर जाते हुए एक शहरी व्यक्ति को, चाहे वह रेल से जा रहा हो अथवा बस या खुली खिड़की वाली टैक्सी से, 10 से अधिक डेसिबेल के शोर का सामना करना पड़ता है ।

अधिकतर जलपान-गृहों में भी भोजन काल के समय बर्तनों तथा उपस्थित भीड़ की ऊँची आवाज से अत्यधिक शोर होता है । औद्योगिक संस्थानों में गत कुछ वर्षों से अत्यधिक शोर होने लगा है । व्यावसायिक स्वास्थ्यकर्मियों के समक्ष इससे एक बड़ी समस्या आ खड़ी हुर्ड है । आज ऐसा कोई उद्योग नहीं है जिसके कर्मियों में श्रवण-दोष न हो ।

पाँच डी-बी की ध्वनि अत्यंत धीमी होती है तथा 100 डी-बी ध्वनि प्रतिकूल असर डालती है । यद्यपि अधिकतम तीव्रता के संबंध में अभी तक सारे विशेषज्ञों की राय एक नहीं है, लेकिन इतना सभी मानते हैं कि 85 डी-वी से ऊपर की ध्वनि के प्रभाव में काफी समय रहने पर व्यक्ति बहस हो सकता है ।

कई विशेषज्ञों की राय है कि 135 डी-बी से अधिक तीव्र ध्वनि तो किसी मजदूर को सुरक्षा साधनों के बाद भी नहीं सुननी चाहिए । इस संबंध में अनेक वैज्ञानिक अनुसंधान व प्रयत्न हुए हैं । प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया है कि 120 डी-बी से अधिक तीव्रता की ध्वनि गर्भवती स्त्रियों व उनके गर्भस्थ शिशुओं पर भी प्रतिकूल असर डालती है ।

इन तथ्यों का देखते हुए कई राष्ट्रों ने शोर की अधिकतम सीमा 75 डी-बो तथा 85 डी-बी के बीच निर्धारित कर दी है । बहुत-से अनुसंधानकर्ताओं ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है कि शोर से शारीरिक तनाव बढ़ता है । अत्यधिक शोर (120 या अधिक डेसिबेल) से अक्षिदोलन (निस्टैग्मस) हो जाता है तथा चक्कर आने लगते हैं ।

यह अभी ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है कि ये लक्षण किस प्रकार प्रकट होते हैं । शोर के कारण रक्तचाप, श्वसन-गति तथा नाड़ी-गति में उतार-चढ़ाव, जठरांत्र गतिशीलता में कमी, रुधिर संचरण में परिवर्तन और यहाँ तक कि हृद-पेशी के गुणों में भी परिवर्तन होता देखा गया है ।

अधिक शोर के कारण शरीर में तंत्रिका-तंत्र में विकृतियाँ होने की संभावना रहती है । झुँझलाहट और श्रांति भी अधिक शोर के कारण हो सकती है । शरीर के अंग संवेदनहीन हो जाते हैं । कपड़ा मिल, ढलाई के कारखाने, कागज की मिल, काँच प्रौद्योगिकी तथा अन्य अनेक उद्योगों में, जहाँ तेज गति से चलने वाली मशीनों से कार्य होता है, आम तौर पर शोर का डेसिबेल-स्तर ऊँचा रहता है । वहाँ के कर्मियों में उपरोक्त सभी स्वास्थ्य-दोष बहुधा पाए जाते हैं ।

प्रत्येक कारखाने में शोर अवश्य होता है । आश्चर्य की बात है कि केवल एक-दो अध्ययनों के अतिरिक्त किसी ने भी इस समस्या के वैज्ञानिक-अध्ययन की ओर ध्यान नहीं दिया है कि न इसके दुष्परिणामों को समझने का समुचित प्रयास किया गया है ।

अन्य सभी प्रदूषणों की भाँति शोर-प्रदूषण को कम करने की भी बहुत-सी युक्तियां हैं, परंतु उनका उपयोग नहीं किया जाता । चेन्नई, कोलकाता, मुंबई, दिल्ली तथा अहमदाबाद में तो यह समस्या अभी भी भयंकर रूप में विद्यमान है । यद्यपि बहुत-से राज्यों में शोर को रोकने के लिए कुछ कानून हैं, लेकिन उन्हें कड़ाई के साथ लागू नहीं किया जाता । अभी हाल ही में दिल्ली में मोटर-वाहनों में बहुध्वनि वाले हॉर्न बजाने पर प्रतिबंध लगाया गया है ।

परंतु फिर भी आप सड़क पर इन हॉर्नों (भोंपू) की आवाज सुन सकते हैं । हमारे देश में शोर एक बहुत बड़ी समस्या है और काफी लोग इससे प्रभावित होते हैं । अब समय आ गया है कि हमारे देश में भी मशीनों से होने वाले शोर को नियंत्रित करने के प्रयास किए जाने चाहिए ।

हमारे नगर योजना अधिकारियों को जन-स्वास्थ्य इंजीनियरों के साथ मिलकर शहरों में औद्योगिक संस्थानों तथा भवनों का इस प्रकार नियोजन करना चाहिए कि जिससे आबादी शोर-संकट से कम से कम प्रभावित हो । जन-स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों को शहरों की शोर-समस्या का समाधान ढूँढना चाहिए और जनता को भी इस ओर कार्यरत जन-सेवी सामाजिक संस्थाओं का पूर्ण सहयोग करना चाहिए ।

शोर का स्तर निर्धारित करने हेतु कानून बनाए जाने चाहिए और उनको दृढ़ता से लागू किया जाना चाहिए । यदि शोर से होने वाली हानि के फलस्वरूप कर्मियों को मुआवजा देने की व्यवस्था होगी तो औद्योगिक संस्थान शोर तथा उसके प्रभाव को रोकने में सक्रिय सहयोग अवश्य ही देंगे ।

समाज के अन्य स्थानों पर भी शोर की समस्या काफी गंभीर है । फैक्टरी में शोर का नियंत्रण सरल है क्योंकि वहाँ शोर की तीव्रता पता होती है । परंतु रेलवे स्टेशन तथा अधिक ट्रैफिक वाली सड़क के निकट रहने वालों के लिए शोर एक विकट समस्या है ।

वैज्ञानिकों का विचार है कि शोर की तीव्रता प्रत्येक दस वर्ष के उपरांत दुगुनी हो जाती है । इसलिए एक व्यक्ति को यदि तेज ध्वनि के बीच लंबी अवधि तक रहने दिया जाए, तो वह व्यक्ति न केवल मानसिक रूप से असंतुलित हो जाएगा अपितु उसकी आयु भी काफी कम हो जाएगी ।

यदि लगातार आवश्यकता से अधिक शोर सहन करना पड़े तो अनिद्रा अर्थात् नींद न आने की बीमारी हो सकती है जो शारीरिक एवं मानसिक तनाव तथा थकान बढ़ाती है । इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति स्वभाव से चिड़चिड़ा हो जाता है । मस्तिष्क हर समय अशांत बना रहता है । रक्तचाप सामान्य से अधिक हो जाता है, दूसरे रोग से ग्रसित होने की संभावना बढ़ जाती है, सिरदर्द, घबराहट और बेचैनी, शोर से पीड़ित व्यक्ति के सामान्य लक्षण हैं ।

असहनीय शोर न केवल कान के परदों की कार्यक्षमता को प्रभावित करता हैं बल्कि मानसिक तनाव, सोचने-समझने-विचारने और स्मरण-शक्ति को क्षीण बनाने और अनेक शारीरिक रोगों के जन्म का कारण भी बनता है । महानगरों में रहने वाले व्यक्तियों को सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा चार गुना अधिक शोर सहन करना पड़ता है । वैसे एक सामान्य व्यक्ति में ध्वनि सहने की क्षमता 40 से 45 डेसिबेल है ।

यदि 90 डेसिबेल से 160 डेसिबेल तक के शोर को लगातार झेलना पड़े तो व्यक्ति आंशिक या पूर्ण रूप से बहरा हो सकता है और मानसिक संतुलन बिगड़ने से व्यक्ति के विक्षिप्त व पागल होने की भी संभावना बढ़ जाती है, उसका व्यवहार आक्रामक हो जाता है ।

शोर का प्रभाव बच्चों पर काफी बुरा पड़ता है, इससे उनकी स्मरण-शक्ति क्षीण होने लगती है, पढ़ाई-लिखाई में मन नहीं लगता । एक अध्ययन-रिपोर्ट के अनुसार शोर से व्यापक तौर पर प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों में से 60 प्रतिशत पढ़ाई पर समुचित ध्यान नहीं दे पाते हैं और 40 प्रतिशत बहरेपन का शिकार होते हैं ।

उनके स्वभाव में एक विचित्र परिवर्तन भी देखा गया है । यह एक रोचक तथ्य है कि संगीत प्रसारित करने वाले वाद्ययंत्रों तथा टेलीविजन, रेडियो या लाउडस्पीकर की ध्वनि से बच्चों का पढ़ाई की तरफ से ध्यान उचट जाता है और संगीत की ओर बराबर आकर्षण बना रहता है ।

पाश्चात्य देशों में रॉक संगीत शोर के कारणों में एक नई कड़ी है । हमारे देश में भी यह अब इतना लोकप्रिय होता जा रहा है कि भारतीय संगीत का भी पाश्चात्यकरण किया जा रहा है और सरकारी तंत्र टेलीविजन सीरियल के रूप में पॉप-टाइम कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहा है ।

आज लाउडस्पीकर को विज्ञान का वरदान कहा जाए या अभिशाप, भावी पीढ़ी ही निर्णय करेगी । लाउडस्पीकर का इतना अधिक दुरुपयोग किया जा रहा है कि सभी धार्मिक स्थलों, उत्सवों, मरणोपरांत दावतों के अवसर पर इसका प्रयोग किया जा रहा है, बसों में मनोरंजन के नाम पर संगीत सुनाया जाता है, संगीत की धुनें सुनाई जाती है ।

इन सभी उत्पन्न ध्वनियों पर पाबंदी लगाई जाए, कानून बनाए जाएं ओर कानून की अबहेलना करने वालों पर भारी जुर्माना होना चाहिए । साधारण कोटि का रॉक-संगीत 120 डेसिबेल शोर पैदा करता है । बंबई उच्च न्यायालय द्वारा गठित एक समिति की रिपोर्ट के निष्कर्षों के अनुसार सबसे अधिक शोर लाउडस्पीकर उत्पन्न करते है ।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर मैंने अनेक व्यक्तियों की विचारधारा एवं मानसिकता का अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि ऊँचे स्वर में बोलने वाले व्यक्ति अधिकतर या तो महामूर्ख होते हैं या पागल होने का संकेत देते हैं ।

इसका एकमात्र कारण अत्यधिक शोर के वातावरण में अधिक समय तक रहना या रॉक संगीत में रुचि रखना है । अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान, दिल्ली ओर केंद्र सरकार के पर्यावरण विभाग की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के 87 प्रतिशत व्यक्ति शोर से दुखी हैं और 90 प्रतिशत व्यक्ति वाहनों के शोर से बेहद परेशान हैं ।

कारखानों में होने वाले शोर से बचने के कई उपाय सोचे जा सकते हैं । जिन मशीनों में शोर कम करने वाले साइलेंसर लग सकते हैं वहाँ साइलेंसर लगा लेने चाहिए तथा जिनका शोर कम नहीं हो सकता उनको चलाने वाले मजदूरों को आवश्यक रूप से इयर प्लग्म, इयर मफ्स अथवा हेलमेट्‌स का उपयोग करना चाहिए ।

वैल्डिंग से होने वाले शोर को रिवेटिंग का प्रचलन बढ़ाकर कम किया जा सकता है । धातु पर हाई स्पीड पॉलिशिंग में होने वाला शोर रासायनिक सफाई करके कम किया जा सकता है । यदि कोई पुर्जा घिस गया हो तो उसे तत्काल बदल देना चाहिए, क्योंकि घिसे पुर्जों वाली मशीनें अधिक शोर करती हैं ।

मशीनों की समय-समय पर सफाई करके तथा तेल व ग्रीज देकर उनके अतिरिक्त शोर को कम किया जा सकता है । ध्वनि-शोषक मशीनों का उपयोग भी शोर के घातक प्रभाव से हमें बनाएगा और हमारे स्वास्थ्य की रक्षा करेगा ।

रूस में ऐसे उपकरणों के अतिरिक्त स्थान-स्थान पर ध्वनि-शोषक यंत्र लगाकर भी अनावश्यक शोर से बचा जा रहा है । अब तो जैसे-जैसे इस बात की गंभीरता को महसूस किया जा रहा है, वैसे-वैसे ही नवीनतम उपाय सामने आ रहे हैं । ध्वनि-शोषक सड़कों के निर्माण की बात जितनी उपयोगी है, उतनी ही रोचक भी ।

ऐसी सारी सावधानियाँ बरतना जन-स्वास्थ्य के लिए तथा वैज्ञानिक प्रगति को गति देने के लिए नितांत आवश्यक है । इसमें संदेह नहीं कि यदि शोर के घातक प्रभावों से न बचा गया तो वैज्ञानिक तथा आर्थिक प्रगति की राह में एक प्रबल अवरोध उत्पन्न होगा ओर विश्व शारीरिक दृष्टि से भी दुर्बल बन जाएगा ।

अत: इस अदृश्य परंतु श्रव्य-प्रदूषण की समस्या को यूँ ही नहीं टाल देना चाहिए । हमारा उत्तरदायित्व आने वाली पीढ़ियों को न केवल शुद्ध जल अथवा वायु ही देना है, अपितु उसे शांत वातावरण देना भी हमारी जिम्मेदारी है ।

वर्तमान तथा गत काल में मनुष्य को उत्पीड़ित करने वाले सभी प्रकार के शोर को उत्पन्न करने का दोष प्रौद्योगिकी के मत्थे मढ़ना सही नहीं होगा । प्रौद्योगिकी अपने में न अच्छी है, न बुरी । इसके पीछे काम करने वाले लोग ही शोर के लिए उत्तरदायी हैं और उन्हीं को इसका समाधान भी सोचना होगा ।

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