इन्दिरा गाँधी पर निबंध! Here is an essay on ‘Indira Gandhi’ in Hindi language.

भारत के जीतने भी प्रधानमन्त्री हुए हैं, उन सभी की अनेक विशेषताएँ हो सकती हैं, लेकिन इन्दिरा गाँधी के रूप में जो प्रधानमन्त्री भारत को प्राप्त हुआ, वैसा प्रधानमन्त्री शायद दूसरा नहीं हुआ, इसका कारण था कि उन्होंने विभिन्न चुनौतियों का मुकाबला करने में सफलता प्राप्त की ।

युद्ध हो, विपक्ष की गलतियाँ हो, कूटनीति का अन्तर्राष्ट्रीय मैदान हो या देश की कोई समस्या हो, इन्दिरा गाँधी ने अक्सर स्वयं को सफल साबित किया । ऐसे अपार साहस, निर्णय-शक्ति और धैर्य की धारिणी इन्दिरा गाँधी का जन्म इलाहाबाद के आनन्द भवन में 19 नवम्बर, 1917 को हुआ था ।

उनके माता-पिता उन्हें प्यार से प्रियदर्शिनी कहते थे । पिता जवाहरलाल नेहरू के राजनीति में व्यस्त रहने के कारण इन्दिरा को बचपन में अपनी माँ श्रीमती कमला नेहरू का सान्निध्य अधिक मिला । उनकी प्रारम्भिक शिक्षा इलाहाबाद में ही हुई । उसके बाद वर्ष 1931 से लेकर वर्ष 1933 तक पूना में रहकर उन्होंने अपनी हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी की ।

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इसके बाद रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सान्निध्य में रहकर शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हें शान्ति निकेतन भेज दिया गया, जहाँ वे वर्ष 1934-35 तक ही रही ।  वहाँ रहकर उन्होंने मणिपुरी नृत्य की शिक्षा प्राप्त की और माँ की बीमारी के कारण अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर उन्हें वर्ष 1935-36 में उनकी सेवा करने और उनका ख्याल रखने के लिए स्विट्‌जरलैण्ड जाना पड़ा ।

इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक इंग्लैण्ड के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में इतिहास का अध्ययन किया ।  इसी दौरान उनकी मुलाकात फिरोज गाँधी से हुई और स्वदेश लौटने के बाद 26 मार्च, 1942 को वह उनके साथ प्रणय-सूत्र में बँध गईं, इसके बाद इन्दिरा जी भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में अपने पिता एवं पति का साथ देने लगीं ।

सही तौर पर देखा जाए, तो इन्दिरा जी का सक्रिय राजनीतिक जीवन उनके बचपन में ही शुरू हो गया था ।  उनके पिता उन दिनों भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के सच्चे सिपाही के रूप में संघर्षरत थे इसलिए उनके घर पर महात्मा गाँधी, सरदार वल्लभभाई पटेल, लालबहादुर शास्त्री, सी. राजगोपालाचारी, सरोजिनी नायडू जैसे अनेक महान् स्वतन्त्रता सेनानियों का आना-जाना लगा रहता था ।

अपने घर के राजनीतिक माहौल का उन पर अनुकूल प्रभाव पड़ा और तत्कालीन महान् नेताओं के सान्निध्य के फलस्वरूप इन्दिरा राजनीति में प्रखर होने लगीं । वर्ष 1929-30 में जब महात्मा गाँधी ने असहयोग आन्दोलन का बिगुल फूंका, तो मात्र 12 वर्ष की आयु में इन्दिरा जी ने वानरसेना नाम से अपने हम उम्र बच्चों का एक दल बनाया था ।

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यह वानरसेना राजनीतिक कार्यकर्ताओं के सन्देश एक-दूसरे के पास पहुँचाती थी । वर्ष 1938 में वे भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की सदस्य बनीं । जब उनकी आयु मात्र 22 वर्ष थी, तब वर्ष 1939 में उन्हें तेरह महीने के लिए जेल जाना पड़ा था ।

इसके बाद भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान अपने विवाह के कुछ माह बाद ही उन्हें फिर जेल की सजा भुगतनी पड़ी । बचपन से ही राजनीति में सक्रिय रहने का पूरा लाभ उनको मिला और वे देश की एक प्रखर नेता बनकर उभरीं ।

15 अगस्त, 1947 को भारत की आजादी के बाद उनके पिता पं. जवाहरलाल नेहरू देश के प्रथम प्रधानमन्त्री बनाए गए । इस दौरान इन्दिरा गाँधी काँग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में अपने पिता का साथ देती रहीं । वर्ष 1959 में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया ।

वर्ष 1964 में पं. जवाहरलाल नेहरू के निधन के पश्चात् जब लालबहादुर शास्त्री देश के दूसरे प्रधानमन्त्री बने, तो उन्हें सूचना एवं प्रसारण मन्त्री बनाया गया । 11 जनवरी, 1966 को लालबहादुर शास्त्री के निधन के पश्चात उन्हें सर्वसम्मति से देश की प्रथम महिला प्रधानमन्त्री चुना गया ।

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अपने प्रधानमन्त्रित्व काल में उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ा, किन्तु अपने पक्के इरादे, साहस एवं धैर्य के साथ उन्होंने हर समस्या का डटकर मुकाबला किया ।  वर्ष 1966 की अकाल समस्या हो, वर्ष 1969 का राष्ट्रपति चुनाव हो या वर्ष 1971 का आम चुनाव, इन्दिरा गाँधी ने सभी संकटों का सामना डटकर किया और उनमें सफलता पाई ।

वर्ष 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को कड़ी शिकस्त देने के बाद बांग्लादेश का निर्माण कर इन्दिरा ने अपनी क्षमता एवं साहस का परिचय दिया । विश्व के बड़े राष्ट्रों की परवाह किए बगैर 18 मई, 1974 को उन्होंने राजस्थान के पोखरण नामक स्थान पर देश का प्रथम सफल परमाणु परीक्षण कराया ।

इसके बाद उन्हें विश्व के कई देशों के विरोध का सामना करना पड़ा, किन्तु कोई भी विरोध उनके इरादे में बाधा नहीं बन सका । अन्तरिक्ष अनुसन्धान एवं सूचना क्रान्ति की आवश्यकता को देखते हुए उनके प्रयासों के फलस्वरूप 1 अप्रैल, 1975 को देश के प्रथम उपग्रह आर्यभट्ट का प्रक्षेपण हो सका ।

प्रधानमन्त्री बनने के बाद से ही इन्होंने देश से ‘गरीब उन्मूलन’ का प्रयास शुरू कर दिया था । उन्होंने ऐसे उद्योगों को रेखांकित किया, जिनका कुशल उपयोग नहीं हो रहा था । उनमें से एक था बीमा उद्योग और दूसरा कोयला उद्योग ।

बीमा कम्पनियों की पूँजी से देश का विकास नहीं हो पा रहा था । वह पूँजी निजी हाथों में जा रही थी । अत: अगस्त, 1972 में बीमा कारोबार का राष्ट्रीयकरण किया गया ।  कोयला उद्योग में श्रमिकों का शोषण हो रहा था तथा खानों की खुदाई वैज्ञानिकतापूर्ण नहीं थी, अत: वर्ष 1972 में ही कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया ।

इन्दिरा गाँधी के कार्यकाल में ही हदबन्दी कानून को पूरी तरह से लागू किया गया । ग्रामीण बैंकों की स्थापना अनिवार्य की गई और उन्हें निर्देश दिया गया कि वे किसानों और कुटीर उद्योग की स्थापना करने वाले को सस्ती ब्याज दर पर पूँजी उपलब्ध करवाएँ । काँग्रेस अध्यक्ष बनने से पूर्व ही ‘बाल-सहयोग’ नामक संस्था की स्थापना की ।

इसमें बच्चों द्वारा किए गए उत्पादन को सहकारिता के आधार पर विक्रय किया जाता था तथा अर्जित लाभ को बच्चों में बाँट दिया जाता था ।  इन्दिरा गाँधी के ‘इण्डियन काउंसिल ऑफ वेलफेयर’, ‘इण्टरनेशनल काउंसिल ऑफ चाइल्ड वेलफेयर’ तथा ‘कमला नेहरू स्मृति अस्पताल’ जैसी संस्थाओं में विभिन्न दायित्व स्वीकार करते हुए परोपकारी कार्यों को पूरा किया ।  वर्ष 1952 में इन्दिरा गाँधी को ‘मदर्स अवार्ड’ से सम्मानित किया गया ।

उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धियों के लिए उन्हें वर्ष 1972 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया गया । राजनीतिक सफलताओं के अतिरिक्त इन्दिरा जी को अपने जीवन में अनेक राजनीतिक संघर्षों का भी सामना करना पड़ा । इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके चुनाव को अवैध घोषित करने से क्षुब्ध होकर उन्होंने 26 जून, 1975 को देश में आपातकाल लागू कर दिया ।

इसका कुपरिणाम उन्हें वर्ष 1977 के चुनाव में अपनी बुरी हार के रूप में भुगतना पड़ा, किन्तु अपने दृढ़ इरादे की पक्की इस ओजस्वी महिला ने हार नहीं मानी और वर्ष 1980 के आम चुनाव में असाधारण सफलता अर्जित करने के बाद 14 जनवरी, 1980 को पुन: देश की प्रधानमन्त्री बनीं ।

अपने इसी दूसरे कार्यकाल में उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था । 23 जून, 1980 की सुबह इन्दिरा जी को अपने छोटे पुत्र संजय की विमान दुर्घटना से मृत्यु का दु:खद समाचार मिला, जिसने उनके मातृ हृदय को हिलाकर रख दिया । संजय की अकाल मृत्यु के बाद उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र राजीव गाँधी को देश-सेवा में लगा दिया ।

देश-सेवा के लिए सपरिवार अपने सुखों का त्याग करने वाली इस वीरांगना को एक बार फिर मानवीय क्रूरता का सामना करना पड़ा, जब 31 अक्टूबर, 1984 को उनके ही दो अंगरक्षकों ने उन्हें, उनके आवास पर ही गोलियों से छलनी कर दिया ।  अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले उड़ीसा की एक सभा में उन्होंने कहा था- ”अगर मैं देश के लिए मर भी गई, तो मुझे गर्व होगा और मुझे विश्वास है कि मेरे खून का एक-एक कतरा देश को मजबूती प्रदान करेगा ।”

इन्दिरा जी के बलिदान से उनकी यह बात बिल्कुल सच साबित हुई । आज वे सशरीर हमारे बीच भले ही न हो, किन्तु उनके कृतित्व अब भी देश का मार्गदर्शन कर रहे हैं, तभी तो उनकी याद में लोग गाते हैं- “जब तक सूरज चाँद रहेगा, इन्दिरा तेरा नाम रहेगा ।”

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