प्राचीन भारत में सामाजिक स्थितियों और शासन पर निबंध | Essay on Social Conditions and Governance in Ancient India.
पुरातत्त्व से प्रकट होता है कि पुरापाषाण युग में पहाड़ी इलाकों में लोग छोटे-छोटे समूहों में रहते थे । जीवन निर्वाह के लिए वे शिकार करते थे या वनों से कंदमूल और फल बटोर कर लाते थे । मानव ने प्रस्तर युग के अंत और धातु युग के आरंभ में खाद्य उपजाना और घर में रहना सीखा ।
नवपाषाण और ताम्रपाषाण युग के लोग ऊँची जमीन पर रहते थे जो पहाड़ियों और नदियों से अधिक दूर नहीं होती थी । धीरे-धीरे सिंधु घाटी क्षेत्र में किसानों के गाँव बसने लगे और फलते-फूलते वे गाँव छोटे-बड़े घरों वाले हड़प्पाई नगर-समाज के रूप में परिणत हुए । परंतु जब एक बार हड़प्पाई सभ्यता लुप्त हो गई तो लगभग हजार वर्षों तक भारतीय उपमहादेश में शहरी सभ्यता का पुनर्जन्म न हो सका ।
जनजातीय और पशुचारी अवस्था (Tribal and Veterinary Condition):
ऋग्वैदिक काल में समाज के इतिहास के लिए हमें लिखित स्रोत मिलने लगते हैं । उनसे प्रकट होता है कि खेती से सुपरिचित होने पर भी ऋग्वैदिक समाज प्रधानत: पशुचारक था । लोग अर्द्ध-यायावर (लगभग खानाबदोश) थे । गाय-बैल और घोड़े ही उनकी संपत्ति होते थे ।
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ऋग्वेद में गो, वृषभ तथा अश्व के उल्लेख बार-बार आते हैं । गाय-बैल और धन दोनों समानार्थक माने जाते थे और गोमत् का अर्थ होता था धनवान । गाय-बैल के लिए लड़ाइयों होती थीं और गायों की रक्षा करना राजा का मुख्य धर्म था इसलिए राजा गोप या गोपति कहलाता था ।
परिवार में गाय का स्थान इतना महत्वपूर्ण था कि बेटी को दुहितृ अर्थात् दुहने वाली कहा जाता था । वैदिक आर्यों को गाय से इतनी घनिष्ठता थी कि जब उन्होंने भारत में पहली बार भैंस को देखा तो वे उसे गोवाल अर्थात् गाय जैसे बालों वाली कहने लगे ।
गाय और वृषभ की चर्चा की तुलना में कृषि की चर्चा क्रवद्दे में कम है, जो है वह भी अधिकांशत: उत्तरकालीन सूक्ष्मों में ही है । इसलिए पशुचारण जीविका का मुख्य साधन था । ऐसे समाज में लोग अपने जीवन-निर्वाह के लिए जरूरत से फाजिल पैदा शायद ही करते होंगे । जनजाति के लोग अपने प्रधानों को कभी-कभार ही भेंट या नजराना दे पाते होंगे ।
प्रधानों या राजाओं की मुख्य प्राप्ति युद्ध या लूट से होती होगी । वे शत्रुओं से संपत्ति छीनते होंगे और विरोधी जनजातियों और जनजातीय सहवासियों से नजराना लेते होंगे । राजा को दिया जाने वाला यह नजराना बलि चढ़ावा कहलाता था । लगता है कि जनजातीय स्वजन अपने सरदार द्वारा संरक्षण के कारण उसके प्रति श्रद्धा रखते और स्वैच्छिक भेंट चढ़ाते थे ।
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बदले में सरदार उन्हें विजय पर विजय दिलाते और संकट की घड़ी में उनकी रक्षा करते थे । श्रद्धा के कारण समय-समय पर मिलने वाली भेंट वैदिक काल में रिवाज बन गई होगी । लेकिन पराजित विरोधी जनजातियों को नजराना चुकाने के लिए बाध्य किया जाता था ।
समय-समय पर होने वाले यज्ञों के मौकों पर ऐसे उपहार और नजराने स्वजनों में बाँट दिए जाते थे । इस बंटवारों में सबसे बड़ा हिस्सा उन पुरोहितों को मिलता था जो अपने यजमानों के कल्याण के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते थे । ऋग्वेद में एक जगह देवता का आवाह्न करके उससे केवल ब्राह्मणों राजन्यों और यजमानों के आरोग्य की प्रार्थना की गई है ।
इससे असमान वितरण की चेष्टा का संकेत मिलता है । राजा और पुरोहित सामान्य लोगों का हक मारकर अधिक-से-अधिक हिस्सा हथियाना चाहते थे जबकि लोग अपने राजा को भक्तिवश और उसकी वीरता और उपयोगिता के कारण स्वेच्छापूर्वक अधिक अंश दे देते थे ।
कबीले के सामान्य लोग जो हिस्सा पाते थे वह अंश या भाग कहलाता था । वितरण लोगों की आम सभा में किया जाता था जिसमें राजा और उसके गोतिये (कुल के सदस्य) डपस्थित रहते थे ।
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यद्यपि शिल्पी, किसान पुरोहित और योद्धा ऋग्वेद के पुराने भागों में भी मिलते हैं तथापि समाज कुल मिलाकर जनजातीय पशुचारक, अर्धयायावर और समतावादी ही था । युद्ध में लूट और पशु संपत्ति के साधन थे । पशु और दासियाँ अक्सर दान में दी जाती थीं । अन्नदान की चर्चा शायद ही हुई है ।
चूंकि अनाज बहुत कम उपजाया जाता था, युद्धों में होनेवाली लूट के सिवा राजाओं और पुरोहितों के भरण-पोषण का कोई दूसरा साधन नहीं था । उच्च पद पाना संभव था; पर उच्च सामाजिक वर्ग पाना बहुत कठिन था । राजाओं और पुरोहितों के यहाँ घरेलू काम के लिए दासियाँ रहती थीं मगर उनकी संख्या अधिक नहीं होती थी । ऋग्वैदिक समाज में सेवक वर्ग के रूप में शूद्र का अस्तित्व नहीं था ।
कृषि और उच्च वर्गों का उद्भव (Emergence of Agriculture and Upper Classes):
जब वैदिक जन अफगानिस्तान और पंजाब से उत्तर प्रदेश की ओर बड़े तब वे अधिकतर कृषक हो गए । उत्तर वैदिक काल में हम लगातार तीन-तीन सदियों से चली आ रही बस्तियाँ पाते हैं । इससे प्रदेशाश्रित लघु राज्यों का उदय हुआ । किसानों और अन्य लोगों से मिले राजांश (नज़राना) से राजा यज्ञ और पुरोहितों का संपोषण कर सकता था ।
उत्तर वैदिक काल में किसान शासकों और योद्धाओं को नजराना देते थे फिर उनसे इस नजराना का हिस्सा पुरोहितों को मिलता था । इसके अलावा उनसे पुरोहित यज्ञ की दक्षिणा पाते थे ।
किसान लोहारों रथकारों और बढ़इयों का पेट भरते थे जो मुख्यत: उभर रहे योद्धाओं के वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले थे । लेकिन उत्तर वैदिक किसान उतना पैदा नहीं कर सके जिससे व्यापार और नगर का उदय होता जो बाद में बुद्ध के युग में आकर हुआ । उस समाज में धातु की मुद्रा नहीं आई थी ।
वैदिक समुदाय में न तो कर-प्रणाली स्थापित हुई थी न वैतनिक सैन्यव्यवस्था ही । राजा के नातेदारों के सिवा कर वसूलने वाला कोई अधिकारी नहीं होता था । राजा को जो कुछ दिया जाता था वह वैसे ही दिया जाता था जैसे देवताओं को यज्ञादि में चढ़ावा दिया जाता था ।
पशुचारक समाज की जन-सेना के बदले बाद में कृषक समाज की किसान सेना खड़ी हुई । विश् अर्थात् जनजातीय किसान वर्ग ही सेना या सशस्त्र दल का काम करता था । उत्तर वैदिक काल में किसान वर्ग बल अर्थात् सैन्य-शक्ति कहलाने लगा । अश्वमेध के घोड़े की रक्षा के लिए जो सेना चलती थी उसमें क्षत्रिय और विश्र दोनों रहते थे ।
धनुष तरकस और ढाल लिए क्षत्रिय सेनापति अगुआ बनते थे और लाठी लिए विश्र सिपाही । राजा या क्षत्रिय से कहा गया है कि वे विजय के लिए विश् के साथ एक थाली में भोजन करें । पुरोहित लोग इस कामना से अनुष्ठान करते थे कि विश् अर्थात् किसान वर्ग क्षत्रिय के वश में रहे । परंतु इस अवस्था में जनजातीय लोगों को करदाता किसान बनाने की प्रक्रिया बड़ी कमजोर थी ।
हल में लकड़ी के फाल होने और यज्ञों में पशुओं का अंधाधुंध वध होने के कारण किसान लोग अपनी आवश्यकता से अधिक शायद ही कुछ उपजा पाते थे । इसलिए वे नियमित रूप से कर्ज चुकाने में समर्थ नहीं थे । दूसरी ओर राजा किसानों से बिलकुल अलग नहीं थे ।
जनजातीय परिपाटी के अनुसार कृषि के विस्तार में राजा का योगदान आवश्यक होता था । इतना ही नहीं राजाओं को अपने हाथ से हल भी चलाना पड़ता था । इस तरह वैश्यों और राजन्यों के बीच कोई गहरी खाई नहीं थी ।
यद्यपि शासक और योद्धा अपने किसान बांधवों पर शासन करते थे तथापि उन्हें शत्रुओं से लड़ने में किसानों की सेना पर निर्भर रहना पड़ता था और वे जनजातीय किसान वर्ग की सहमति के बिना किसी को जमीन नहीं दे सकते थे । इन कारणों से वे कठिन स्थिति में रहते थे । इस प्रकार शासक और शासित के बीच अधिक अंतर नहीं था ।
उत्पादन और शासन की वर्णमूलक व्यवस्था (Characterization of Production and Governance):
शिल्प और कृषि में लोहे के औजारों के इस्तेमाल से ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई जिससे ईसा-पूर्व छठी सदी में आकर अपेक्षाकृत समताश्रित वैदिक समाज पूर्णत: कृषि-आधारित और वर्ग-विभाजित समाज बन गया । यद्यपि 600 ई॰ पू॰ में मध्य गंगा के मैदान के प्राक्-वैदिक युग के वासी खेती से अच्छी तरह परिचित थे पर उनकी संख्या बहुत कम थी और उनके द्वारा लोहें का प्रयोग अति सीमित था ।
मध्य गंगा के मैदानों के जंगली इलाकों में आग और लोहे की कुल्हाड़ी के सहारे जंगलों का सफाया कर दिया गया । ये इलाके विश्व के सबसे अधिक उपजाले भागों में से हैं । जंगलों की सफाई से इस इलाके को आबाद करना संभव हो गया । 500 ई॰ पू॰ से यहाँ असंख्य गाँव और नगर बसे दिखाई देने लगे ।
बड़े-बड़े जनपद राज्य उदित हुए और इसके परिणामस्वरूप मगध साम्राज्य गठित हुआ । यह सब तभी संभव हुआ जब किसान लोहे की फालों हसियों और अन्य औजारों की मदद से अपने जीवन-निर्वाह के लिए अपेक्षित मात्रा से कहीं अधिक अनाज पैदा करने लगे ।
किसानों को शिल्पियों की मदद की जरूरत थी क्योंकि वे किसानों को औजार वस्त्र आदि वस्तुएँ मुहैया कराते थे साथ ही राजाओं और पुरोहितों को हथियार और विलास-वस्तुओं से संपन्न कराते थे । वैदिक काल की अपेक्षा उत्तर वैदिक काल में कृषि की तकनीक कहीं अधिक उन्नत हो चली थी ।
नई तकनीक और बल-प्रयोग की बदौलत कुछ लोगों ने बड़े-बड़े भूखंडों पर अपना कब्जा जमा लिया जिन्हें आबाद करने के लिए बड़ी संख्या में दासों और कृषि-मजदूरों की आवश्यकता थी । वैदिक काल में लोग अपने परिवार के लोगों की मदद से खेत आबाद करते थे ।
वैदिक साहित्य में मजदूर (वेज अर्नर) के लिए कोई शब्द नहीं है । किंतु बुद्ध के युग में आकर खेती का काम दासों और मजदूरों से कराना आम बात हो गई थी । कौटिल्य की पुस्तक अर्थशास्त्र से पता चलता है कि मौर्यकाल में दास और मजदूर बड़े-बड़े राजकीय कृषिक्षेत्रों में काम करते थे । परंतु सामान्यत: प्राचीन भारत में दासों से केवल घरेलू काम लिया जाता था । आमतौर से साधारण किसान ही खेती चलाते थे । कभी-कभार वे दासों और मजदूरों की मदद लेते थे ।
अब किसानों शिल्पियों मजदूरों और कृषिदासों ने मिलकर अपनी जरूरत से फाजिल पैदा करना शुरू किया । इस पैदावार का अच्छा-खासा भाग राजा और पुरोहित ले लेते थे । कर की नियमित वसूली के लिए प्रशासनिक और धार्मिक दोनों तरीके निकाले गए ।
राजा ने करों के निर्धारण और वसूली के लिए कर-संग्राहकों की नियुक्ति की । पर जनता में यह विश्वास जमा देना भी आवश्यक था कि राजा की आज्ञा मानना कर चुकाना और पुरोहितों को दान देना श्रेयस्कर है । इसके लिए वर्णव्यवस्था लागू की गई । इसके अनुसार ऊपर के तीन वर्णों को धार्मिक अनुष्ठान के आधार पर चौथे वर्ण से अलग कर दिया गया ।
द्विज अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य वेद पढ़ने और यज्ञोपवीत संस्कार पाने के अधिकारी माने गए परंतु शूद्र इससे वंचित कर दिए गए । शूद्रों का कर्त्तव्य अपने से ऊपर के तीनों वर्णों की सेवा करना निर्धारित किया गया ।
कुछ स्मृतिकारों ने तो शूद्रों के लिए केवल दासता रख छोड़ी । इस स्थिति द्विजों को ‘नागरिक’ और शुद्धों को ‘अनागरिक’ की संज्ञा दी जा सकती है । लेकिन द्विजों के बीच भी नागरिकों की श्रेणी के आधार पर अंतर आ गया ।
ब्राह्मणों के लिए हल जोतना निषिद्ध हो गया शारीरिक श्रम इतना तुच्छ माना जाने लगा कि उन लोगों से भी पूणा की जाने लगी जो हाथ से शिल्पकर्म करते थे और इस प्रकार कुछ श्रमजीवी तो अछूत तक बना दिए गए । जो लोग शारीरिक श्रम से जितना ही हटे रहे उन्हें उतना ही अधिक पवित्र समझा जाने लगा ।
वैश्य द्विज होते हुए भी कृषि पशुपालन और दस्तकारी करते थे और बाद में व्यापार भी करने लगे । गौर करने की बात यह है कि वे ही कर चुकाते थे जिसके सहारे क्षत्रियों और ब्राह्मणों का जीवन-निर्वाह होता था ।
वर्णव्यवस्था के अनुसार क्षत्रियों की किसानों से कर और व्यापारियों एवं शिल्पियों से शुल्क वसूलने का अधिकार मिला और वे अपने कर्मचारियों तथा पुरोहितों को नकदी या जिन्सी पारिश्रमिक देने में समर्थ हुए । हर वर्ण के लिए भुगतान की दर और आर्थिक सुविधा अलग-अलग निर्धारित की गई ।
उदाहरणार्थ ब्राह्मण को कर्ज पर ब्याज दो प्रतिशत लगता था क्षत्रिय को तीन प्रतिशत वैश्य को चार प्रतिशत और शूद्र को पाँच प्रतिशत । शूद्र वर्ण के अतिथि को तभी भोजन कराया जाता था जब वह घरवाले के काम में हाथ बँटाता था ।
धर्मशास्त्रों में निर्धारित ये नियम हो सकता है कि कड़ाई के साथ नहीं चलते हों परंतु इनसे यह संकेत मिलता है कि समाज के सामने किस तरह का आदर्श था । चूंकि पुरोहित और राजा दोनों ही किसानों से उगाहे गए करों नजरानों राजांशो और श्रमों पर जीते थे इसलिए इन दोनों वर्गों के बीच कभी-कभी इनके बँटवारे को लेकर झगड़े हो जाया करते थे ।
समाज में अपने को सबसे ऊपर समझने वाले ब्राह्मणों के घमंड से क्षत्रियों को चोट पहुँचती होगी । लेकिन वैश्यों और शूद्रों के साथ विरोध होने पर ब्राह्मण और क्षत्रिय आपसी विरोध भूल कर एक हो जाते थे ।
प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि ब्राह्मणों के सहयोग के बिना क्षत्रियों का कल्याण नहीं होगा और न ही क्षत्रियों के सहयोग के बिना ब्राह्मणों का; दोनों परस्पर सहयोग से ही फूल-फल सकेंगे और संसार पर शासन करेंगे ।
सामाजिक संकट और भूस्वामी वर्ग का उदय (Social Crisis and Rise of Landowner Class):
कई सदियों तक यह सामाजिक व्यवस्था गंगा के मैदानों और उनसे संलग्न क्षेत्रों में भली- भांति चलती रही जहाँ एक के बाद एक कई बड़े-घड़े राज्य बनते-बिगड़ते रहे । ईसा की पहली और दूसरी सदियों में वहाँ शानदार व्यापार और नगरीकण दिखाई देता है । इस अवस्था में कला की अभूतपूर्व उन्नति हुई ।
पुरानी व्यवस्था लगभग तीसरी सदी में आकर अपने उत्कर्ष की चोटी पर पहुँच गई । लेकिन ऐसा लगता है कि यहाँ आकर इसकी प्रगतिशील भूमिका कमजोर पड़ गई । ईसा की तीसरी सदी के आसपास पुराने सामाजिक संघटन में गहरा संकट आ पड़ा । इस संकट का चित्रण पुराणों के तीसरी-चौथी सदी से संबद्ध भागों में मिलता है ।
कलियुग का लक्षण विभिन्न वर्णों या सामाजिक वर्गों के मिश्रण का होना बताया गया है जिसे वर्णसंकर कहते हैं । इसका आशय यह हुआ कि वैश्यों और शूद्रों (किसानों, शिल्पियों और मजदूरों) ने अपने ऊपर सौंपे गए उत्पादन का काम बंद कर दिया अर्थात् वैश्य-किसानों ने कर चुकाना रोक दिया और शूद्रों ने मजदूरी करना छोड़ दिया ।
उन्होंने विवाह आदि सामाजिक संबंधों में वर्णसंबंधी प्रतिबंधों की उपेक्षा की । ऐसी स्थिति को देखकर रामायण और महाभारत में दंड या दमन-नीति पर जोर दिया गया और मनु ने बताया कि वैश्यों और शूद्रों को अपने-अपने कर्त्तव्यों से विचलित नहीं होने दिया जाए । राजा वर्णव्यवस्था के रक्षक और उद्धारक के रूप में सामने आने लगे ।
परंतु केवल दमनात्मक कार्रवाई से ही यह संभव नहीं था कि किसान कर चुकाते रहें और मजदूर मजदूरी करते रहें । राज्य के लिए अपने कारिंदों से सारा राजस्व वसूल करवाना कठिन हो गया । अतएव राज्य ने भूमि भोगने का अधिकार सीधे पुरोहितों सेनापतियों प्रशासकों आदि को सौंप दिया ।
यह व्यवस्था वैदिक परंपरा से एकदम भिन्न तरह की थी । अतीत में पुरोहितों और शायद अपने सरदार या राजा को भी भूमि देने का अधिकार केवल जन-समुदाय के हाथ में था । लेकिन अब राजा ने यह अधिकार छीन कर अपने हाथ में ले लिया और समुदाय के कुछ शक्तिशाली सदस्यों को भूमि देकर कृतज्ञ बना लिया । इन भूस्वामी हिताधिकारियों को शांति-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेवारी सौंपी गई ।
इसी उपाय से वित्तीय और प्रशासनिक समस्याओं का समाधान किया गया । नए और फैलते रजवाड़े अधिकाधिक कर-संग्रह चाहते थे । ऐसा कर-संग्रह पिछड़े क्षेत्रों से हो सकता था और यह तभी संभव था जब जनजातीय लोगों में खेती के नए तरीके चलाए जाएँ और उन्हें सिखा-पढ़ाकर राजभक्त बनाया जाए ।
इस समस्या का समाधान जनजातीय क्षेत्रों में ऐसे उद्यमी ब्राह्मणों को भूमि अनुदान देकर किया गया जो जंगली इलाकों में बसनेवाले लोगों को वश में करके अनुशासित बना सकें ।
पिछड़े हुए इलाकों में ब्राह्मणों और दूसरों को भूमि अनुदान देने से कृषि-पंचाग का ज्ञान फैला और आयुर्वेद का प्रचार हुआ जिससे कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई । लेखन-कला तथा प्राकृत और संस्कृत भाषाओं के व्यवहार का भी प्रसार हुआ ।
भूमि अनुदानों से सुदूर दक्षिण और सुदूर पूर्व में सभ्यता फैली हालांकि इस दिशा में कुछ काम व्यापारियों ने तथा जैनों और बौद्धों ने पहले भी कर रखा था । भूमि अनुदानों से जनजातीय किसान भारी संख्या में ब्राह्मण समाज में आ गए जिन्हें शूद्र वर्ग में रखा गया । इसलिए पूर्व मध्यकाल के ग्रंथों में शूद्रों को किसान और कृषक कहा जाने लगा ।
दूसरी ओर भूमि अनुदान से खासकर पुराने विकसित क्षेत्रों में स्वतंत्र वैश्य किसानों की दशा गिर गई । इस प्रकार गुप्तकाल के बाद वैश्य और शूद्र आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से एक-दूसरे के निकट आ गए । लेकिन भूमि अनुदान का सबसे बड़ा परिणाम हुआ किसानों की उपज पर पलनेवाले भूस्वामियों के नए वर्ग का उदय ।
इसने पाँचवीं-छठी सदियों के आसपास ऐसी पृष्ठभूमि बनाई जिस पर सामंती ढंग का सामाजिक ढाँचा खड़ा हुआ । सामंती ढाँचे में भूस्वामियों और योद्धाओं के वर्ग की स्त्रियों की दशा बिगड़ी । पूर्व मध्यकाल में राजस्थान में सती प्रथा जोर से चल पड़ी । लेकिन निचले वर्गों की स्त्रियों को आर्थिक क्रियाकलाप में भाग लेने और पुनर्विवाह करने की छूट थी ।
सारांश (Summary):
इस प्रकार प्राचीन भारतीय समाज को कोई एक बिल्ला लगा देना संभव नहीं है । हमें इसके विकास के विविध चरणों पर नजर डालनी होगी । पहले पुरापाषाण युग का खाद्य-संग्राहक समाज था तब उसकी जगह नवपाषाण युग और ताम्रपाषाण युग के खाद्य-उत्पादक समाज बने । धीरे-धीरे किसान समुदाय विकास करते-करते हड़प्पाई नगर समाजों के रूप में परिणत हो गए ।
इसके बाद विकास की धारा कुछ रूकी और फिर अश्वारोही और पशुपालक समाज बना । ऋग्वेद में जो सामाजिक ढाँचा दिखाई देता है वह अधिकांशत: पशुचारक और जनजातीय था । उत्तर वैदिक काल में जाकर पशुचारक समाज बदलकर कृषिमूलक समाज हो गया लेकिन इसकी आदिकालीन कृषि से अधिक उपज नहीं होती थी इसलिए शासक लोग किसानों का दोहन करके कुछ अधिक प्राप्त नहीं कर सकते थे ।
वर्ग विभाजित समाज वैदिकोत्तर काल में पूरा-पूरा निखरा । यह वर्णव्यवस्था के नाम से विदित हुआ । इस सामाजिक ढाँचे के मूलाधार थे-शूद्रों और वैश्यों के उत्पादन कार्य । यह सामाजिक व्यवस्था लगभग बुद्धकाल से गुप्तकाल तक भली- भांति चलती रही । इसके बाद कुछ आंतरिक खलबली के कारण बदलाव आया ।
पुरोहितों और अधिकारियों को उनके भरण-पोषण के लिए भूमि दी जाने लगी और धीरे-धीरे भूस्वामियों का वर्ग किसान और राज्य के बीच उठ खड़ा हुआ । इससे वैश्यों की स्थिति में गिरावट आई और वर्णव्यवस्था में परिवर्तन हुआ ।