भगवान महावीर पर निबंध: महावीर के प्रारंभिक जीवन, उनकी शिक्षा और जैन धर्म का उदय। | Essay on Lord Mahavira. Read this essay on Lord Mahavira to learn about: Early Life of Mahavira, His Teachings and Rise of Jainism.
Essay # 1. महावीर का प्रारम्भिक जीवन (Early Life of Mahavira):
गौतममृद्ध के समय आविर्भूत होने वाले अरूढिवादी सम्प्रदायों के आचार्यों में जैन धर्म के महावीर का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है । वे जैन धर्म के प्रवर्त्तक नहीं थे, किन्तु हम उन्हें छठीं शताब्दी ईसा पूर्व के जैन आन्दोलन का प्रवर्त्तक कह सकते है ।
वे बुद्ध के बाद भारतीय नास्तिक आचार्यों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं । परम्परा उन्हें चौबीसवाँ तीर्थडकर बताती है । इनके पहले तेईस तीर्थङ्गर हो चुके है जिनमें तेइसवें तीर्थड्कर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता सिद्ध हो चुकी है ।
महावीर का जन्म 599 ईसा पूर्व के लगभग वैशाली के निकट कुण्डग्राम में हुआ था । उनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक क्षत्रियों के संघ के प्रधान थे जो वज्जि संघ का एक प्रमुख सदस्य था । उनकी माता त्रिशला अथवा विदेहदत्ता वैशाली के लिच्छवि कुल के प्रमुख चेटक की वहन थी । इस प्रकार मातृपक्ष से वे मगध के हयक राजाओं-बिम्बिसार तथा अजातशत्रु के निकट सम्बन्धी थे ।
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महावीर के बचपन का नाम वर्द्धमान था । उनका पालन-पोषण राजसी वातावरण में बड़े लाड़-प्यार के साथ हुआ । युवावस्था में कुण्डिन्य गोत्र की कन्या यशोदा के साथ उनका विवाह हुआ । उससे उन्हें अणोज्जा (प्रियदर्शना) नाम की पुत्री उत्पन्न हुई । उसका विवाह जामालि के साथ हुआ ।
वह प्रारम्भ में उनका शिष्य बना किन्तु उसने ही जैन धर्म में प्रथम भेद उत्पन्न किया । कल्पसूत्र से पता चलता है कि बुद्ध के समान वर्द्धमान के विषय में भी ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि वे या तो चक्रवर्ती राजा बनेंगे या महान् सन्यासी ।
वर्द्धमान ने 30 वर्ष की अवस्था तक एक सुखी गहस्थ का जीवन व्यतीत किया । माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने अपने बड़े भाई नंदिवर्द्धन की आशा लेकर गृह त्याग दिया । प्रारम्भ में उन्होंने वस्त्र धारण किया परन्तु 13 महीने बाद वे पूर्णतया नंगे रहने लगे । उन्होंने कठोर तपस्या एवं साधना का जीवन व्यतीत किया ।
जैन ग्रन्थ आचारांगसूत्र उनके कठोर तपश्चर्या एवं कायाक्लेश का बड़ा ही रोचक विवरण प्रस्तुत करता है जो इस प्रकार है- ‘प्रथम 13 महीनों में उन्होंने कभी भी अपना वस्त्र नहीं बदला । सभी प्रकार के जीव-जन्तु उनके शरीर पर रेंगते थे । तत्पश्चात् उन्होंने वस्त्र का पूर्ण त्याग कर दिया तथा नंगे घूमने लगे । शारीरिक कष्टों की उपेक्षा मर वे अपनी साधना में रत रहे । लोगों ने उन पर नाना प्रकार के अत्याचार किये, उन्हें पीटा । किन्तु उन्होंने न तो कभी धैर्य खोया और न ही अपने उत्पीडकों के प्रति मन में द्वेष अथवा प्रतिशोध रखा । वे मौन एवं शान्त रहे ।……’
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इसी प्रकार भ्रमण करते हुए वे राजगृह पहुँचे जहाँ के लोगों ने उनका सम्मान किया । वे नालन्दा गये जहाँ उनकी भेंट मक्खलिपुत्त गोशाल नामक संन्यासी से हुई । वह उनका शिष्य वन गया किन्तु छ वर्षों बाद उनका साथ छोड्कर उसने ‘आजीवक्र’ नामक नये सम्प्रदाय की स्थापना की ।
12 वर्षों की कठोर तपस्या तथा साधना के पश्चात् चम्भिक ग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल के वृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्य (गान) प्राप्त हुआ । ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् वे ‘केवलिन्’, जिन (विजेता), ‘अर्हत्’ (योग्य) तथा निर्ग्रन्थ (बन्धन-रहित) कहे गये । अपनी साधना में अटल रहने तथा अतुल पराक्रम दिखाने के कारण उन्हें ‘महावीर’ नाम से सम्बोधित किया गया ।
कैवल्य-प्राप्ति के पश्चात् महावीर ने अपने सिद्धान्तों का प्रचार प्रारम्भ किया । वे आठ महीने तक भ्रमण करते तथा वर्षा ऋतु के शेष चार महीनों में पूर्वी भारत के विभिन्न नगरों में विश्राम करते । जैन ग्रन्थों में ऐसे नगर चम्पा, वैशाली, मिथिला, राजगृह, श्रावस्ती आदि गिनाये गये हैं ।
वे कई बार बिम्बिसार और अजातशत्रु से मिले तथा सम्मान प्राप्त किया । वैशाली का लिच्छवि सरदार चेटक उनका मामा था तथा जैन धर्म के प्रचार में मुख्य योगदान उसी का रहा । जैन-साहित्य के अनुसार उसकी कन्याओं का विवाह सौवर, अंग, वत्स, अवन्ति तथा मगध के राजाओं के साथ हुआ था । इन सभी ने महावीर के मत के प्रचार-प्रसार में अवश्य ही सहायता प्रदान की होगी । समाज के कुलीन वर्ग के लोगों ने उनकी शिष्यता ग्रहण की । राजगृह में उपालि नामक गृहस्थ उनका प्रमुख शिष्य था ।
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अजातशत्रु के समय में उनके मत की महती उन्नति हुई । महावीर के कुछ अनुयायियों ने उनका विरोध किया । सर्वप्रथम उनके जामाता जामालि ने उनके कैवल्य के चौदहवें वर्ष में एक विद्रोह का नेतृत्व किया । इसके दो वर्षों वाद तीसगुप्त ने उनका विरोध किया ।
किन्तु शीघ्र ही वे दोनों शान्त कर दिये गये । अब उनकी ख्याति काफी बढ गयी तथा दूर-दूर के लोग और राजागण उनके उपदेशों को सुनने के लिये आने लगे । 30 वर्षों तक उन्होंने अपने मत का प्रचार किया । 527 ईसा पूर्व के लगभग 72 वर्ष की आयु में राजगृह के समीप स्थित पावा नामक स्थान में उन्होंने शरीर त्याग दिया ।
Essay # 2. महावीर की शिक्षायें (Mahavira’s Teachings):
महावीर का अपने पूर्वगामी तीर्थच्चर पार्श्वनाथ से दो बातों में मतभेद था । पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं के लिये केवल चार व्रतों का विधान किया था- अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) तथा अपरिग्रह (धन संचय का त्याग) । परन्तु महावीर ने इसमें एक पाँचवा व्रत ब्रह्मचर्य भी जोड़ दिया तथा उसका पालन करना अनिवार्य बताया । दूसरा मतभेद यह था कि पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं को वस्त्र धारण करने की अनुमति प्रदान की परंतु महावीर ने उन्हें नग्न रहने का उपदेश दिया ।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य- ये पांच महाव्रत है जिनका विधान भिक्षुओं के पालनार्थ किया गया है । इनका विवरण इस प्रकार है:
I. अहिंसा:
यह जैनधर्म की प्रमुख सिद्धान्त है जिसमें सभी प्रकार की अहिंसा के पालन पर बल दिया गया है ।
अहिंसा के पूर्ण पालन के लिये निम्नलिखित आचारों का निर्देश हुआ है:
(a) इर्या समिति – संयम से चलना ताकि मार्ग में कीट-पतड़ंगो के कुचलने से कोई हिंसा न हो जाये ।
(b) भाषा समिति – संयम से बोलना ताकि कटु वचन से किसी को कष्ट न पहुँचे ।
(c) एषणा समिति – संयम से भोजन ग्रहण करना जिससे किसी प्रकार भी कीड़े-मकोड़ों की हत्या न हो सके ।
(d) आदान-निक्षेप समिति – किसी वस्तु को उठाने तथा रखने के समय विशेष सावधानी बरतना जिससे जीव को हत्या न हो जाये ।
(e) व्युत्सर्ग समिति – मल-मूत्र का त्याग ऐसे स्थान पर करना जहाँ किसी जीव की हिंसा होने की आशंका न रहे ।
II. सत्य:
इसमें सदैव सत्य घोलने पर जोर दिया गया है । इसका आचरण निम्नवत् है:
(1) सोच-विचार कर बोलना चाहिये (अनुबिम भाषी ) ।
(2) क्रोध आने पर शान्त रहना चाहिये (कोई परिजानाति) ।
(3) लोभ होने पर मौन रहना चाहिये (लोभ परिजानाति) ।
(4) हँसी में भी झूठ नहीं बोलना चाहिये (हाल परिजानाति) ।
(5) भय होने पर भी झूठ नहीं बोलना चाहिये (भय परिजानाति) ।
III. अस्तेय:
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित बातें बताई गयी है:
(1) बिना किसी के अनुमति के उसका कोई भी वस्तु न लेना ।
(2) बिना आज्ञा किसी के घर में प्रवेश न करना ।
(3) गुरु की आज्ञा बिना भिक्षा में प्राप्त अन्न को ग्रहण न करना ।
(4) बिना अनुमति के किसी के धर में निवास न करना ।
(5) यदि किसी के घर में रहना हो तो बिना उसकी आज्ञा के उसकी किसी भी वक्ष का उपयोग न करना ।
IV. अपरिग्रह:
इसमें किसी भी प्रकार की सम्पत्ति एकत्रित न करने पर जोर दिया गया है क्योंकि सम्पत्ति से मोह और आसक्ति का उदय होता है ।
V. ब्रह्मचर्य:
इसके अन्तर्गत भिक्षु को निम्नलिखित निर्देश दिये गये हैं:
(a) किसी स्त्री से बातें न करना,
(b) किसी स्त्री को न देखना?
(c) किसी स्त्री के संसर्ग की बात कभी न सोचना ।
(d) शुद्ध एवं अल्प भोजन ग्रहण करना,
(e) ऐसे घर में न जाना जहाँ कोई स्त्री अकेली रहती हो ।
महावीर ने गृहस्थों के लिए उपर्युक्त व्रतों को सरल ढंग से पालन करने का विधान प्रस्तुत किया । इसी कारण गृहस्थ जीवन के सम्बन्ध में इन्हें अमुद्रज्ञ कहा गया है । इनमें अतिवादिता एवं कठोरता का अभाव है ।
‘अनेकान्तवाद’ अथवा ‘स्यादवाद’:
गौतम बुद्ध के समान महावीर ने भी वेदों की अपौरुषेयता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया तथा धार्मिक रख सामाजिक रूढियों और पाखण्डों का विरोध किया । उन्होंने आत्मवादियों तथा नास्तिकों के एकान्तिक मतों को छोड़कर बीच का मार्ग अपनाया जिसे ‘अनेकान्तवाद’ अथवा ‘स्याद्वाद’ कहा गया है ।
इस मत के अनुसार किसी वस्तु के अनेक धर्म (पहलू) होते हैं (अनन्तधर्मक वस्तु) तथा व्यक्ति अपनी सीमित बुद्धि द्वारा केवल कुछ ही धर्मों को जान सकता है । पूर्ण ज्ञान तो ‘केवलिन्’ के लिये ही सम्भव है । अतः उनका कहना था कि सभी विचार अंशतः सत्य होते हैं । यह उनकी बौद्धिक सहिष्णुता का परिचायक है ।
समस्त विश्व जीव तथा अजीव नामक दो नित्य एवं स्वतन्त्र तत्वों से मिलकर बना है । जीव चेतन तत्व है जबकि अजीव अचेतन जड़ तत्व है । यहाँ जीव से तात्पर्य उपनिषदों की सार्वभौम आत्मा से न होकर मनुष्य की व्यक्तिगत आत्मा से है । उनके मतानुसार आत्मायें अनेक होती है । चैतन्य आत्मा का स्वाभाविक गुण है ।
वे सृष्टि के कण-कण में जीवों का वास मानते थे । इसी कारण उन्होंने अहिंसा पर विशेष बल दिया । इस अतिशय अहिंसा ने जैनियों को मानव जीवन के सुरक्षा की अपेक्षा पशु, जीवाणु, वनस्पति एवं बीजों की सुरक्षा के प्रति अधिक सचेत बना दिया है । अजीव का विभाजन पाँच भागों में किया गया हैं- पुदगल, काल, आकाश, धर्म तथा अधर्म ।
यहाँ धर्म तथा अधर्म गति तथा स्थिति के सूचक है । पुद्गल से तात्पर्य उस तत्व से है जिसका संयोग तथा विभाजन किया जा सके । इसका सबसे छोटा भाग ‘अणु’ कहा जाता है । अणुओं में जीव निवास करते है । समस्त भौतिक पदार्थओं के ही संयोग से निर्मित्त होता है । स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण-ये पुद्गल के गुण है जो समस्त पदार्थों में दिखाई देते हैं ।
महावीर पुर्नजन्म तथा कर्मवाद में भी विश्वास करते थे परन्तु ईश्वर के अस्तित्व में उनका विश्वास नहीं धा । जीवन का चरम लक्ष्य कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति है । जीव अपने शुद्ध रूप में चैतन्य एवं स्वयं प्रकाशमान है तथा वह अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है । कर्म बन्धन का कारण है ।
यहाँ कर्म को सूक्ष्मतत्व भूततत्व के रूप में माना गया है जो जीव में प्रवेश कर उसे नीचे संसार की ओर खींच लाता है । क्रोध, लोभ, मान, माया आदि हमारी कुप्रवृत्तियों (कषाय) हैं जो अज्ञान के कारण उत्पन्न होती हैं । इस प्रकार जैन मत बौद्ध तथा वेदान्त के ही समान अज्ञान को ही बन्धन का कारण मानता है ।
इसके कारण कर्म जीव की ओर आकर्षित होने लगता है । इसे ‘आस्रव’ कहते हैं । कर्म का जीव के साथ संयुक्त हो जाना बन्धन है । जैसे ताप लौह से तथा जल दूध से संयुक्त हो जाता है उसी प्रकार कर्म जीव से संयुक्त हो जाता है । प्रत्येक जीव अपने पूर्व संचित कमी के अनुसार ही शरीर धारण करता है ।
मोक्ष के लिये उन्होंने तीन साधन आवश्यक बनाये:
(a) सम्यक् दर्शन:
जैन तीर्थडंकरों और उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास ही सम्यक दर्शन या श्रद्धा है । इसके आठ अडंग बताये गये हैं- सन्देह से दूर रहना, सांसारिक सुखों की इच्छा का त्याग करना, शरीर के मोहराग से दूर रहना, भ्रामक मार्ग पर न चलना, अधूरे विश्वासों से विचलित न होना, सही विश्वासों पर अटल रहना, सबके प्रति प्रेम का भाव रखना, जैन सिद्धान्तों को सर्वश्रेष्ठ समझना । इनके अतिरिक्त लौकिक अन्धविश्वासों, पाखण्डों आदि से दूर रहने का भी निर्देश किया गया है ।
(b) सम्यक् ज्ञान:
जेन धर्म एवं उसके सिद्धान्तों का ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है । सम्यक् ज्ञान के पाँच प्रकार बताये गये हैं – मति अर्थात् इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान, वृत्ति अर्थात् सुनकर प्राप्त किया गया ज्ञान, अवधि अर्थात् कहीं रखी हुयी किसी भी वस्तु का दिव्य अथवा अलौकिक ज्ञान, मनःपर्याय अर्थात् अन्य व्यक्तियों के मन की बातें जान लेने का ज्ञान तथा कैवल्य अर्थात् पूर्ण ज्ञान जो केवल तीर्थडंगरों को प्राप्त है ।
(c) सम्यक चरित्र:
जो कुछ भी जाना जा चुका है और सही माना जा चुका है उसे कार्य रूप में परिणत करना ही सम्यक् चरित्र है । इसके अन्तर्गत भिक्षुओं के लिये पाँच महावत तथा गृहस्थी के लिये पाँच अणुव्रत बताये गये हैं । साथ ही साथ सच्चरित्रता एवं सदाचरण पर विशेष बल दिया गया है ।
इन तीनों को जैन धर्म में ‘त्रिरत्न’ की संज्ञा दी जाती है । त्रिरत्नों का अनुसरण करने से कमी का जीव की ओर बहाव रुक जाता है जिसे ‘संवर’ कहते हैं । इसके बाद पहले से जीव में व्याप्त कर्म समाप्त होने लगते हैं । इस अवस्था को ‘निर्जरा’ कहा गया है । जब जीव से कर्म का अवशेष बिल्कुल समाप्त हो जाता है तब वह मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है ।
इस प्रकार कर्म का जीव से संयोग बन्धन है तथा वियोग ही मुक्ति है । महावीर ने मोक्ष के लिये कठोर तपश्चर्या एवं कायाक्लेश पर भी बल दिया । मोक्ष के पश्चात् जीव आवागमन के चक्र में छुटकारा पा जाता है तथा वह अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य तथा अनन्त सुख की प्राप्ति कर लेता है । इन्हें जैन शास्त्रों में ‘अनन्त चतुष्ट्य’ की संज्ञा प्रदान की गयी है । इस प्रकार महावीर की शिक्षायें पूर्णतया नैतिक थी जिनका उद्देश्य आत्मा की पूर्णता था ।
Essay # 3. जैन धर्म का प्रचार (Jain Religion Promotion):
महावीर के जीवन-काल में ही उनके मत का मगध तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में व्यापक प्रचार हो गया । मगध नरेश अजातशत्रु तथा उसके उत्तराधिकारी उदायिन ने इसके प्रचार में योगदान दिया । महावीर ने अपने जीवन-काल में एक सद्य की स्थापना की जिसमें 11 प्रमुख अनुयायी सम्मिलित थे । ये गणधर कहे गये । इन्हें अलग-अलग समूहों का अध्यक्ष बनाया गया ।
महावीर की मृत्यु के बाद केवल एक गणधर सुधर्मन् जीवित बचा जो जैनसंघ का उनके बाद प्रथम अध्यक्ष बना । नन्द राजाओं के काल में भी जैन धर्म की उन्नति हुई होगी क्योंकि वे भी जैनमत के विरुद्ध नहीं लगते । हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि नन्द राजा कलिंग से प्रथम ‘जिन’ की एक प्रतिमा उठा ले गया था ।
चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में भी इस धर्म का विकास हुआ होगा क्योंकि जैन परम्परा के अनुसार उसने जैन आचार्य भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण कर ली थी । उनके साथ वह अपने जीवन के उत्तरकाल में राज्य त्याग कर दक्षिण में तपस्या करने चला गया था ।
भद्रबाहुकृत जैनकल्पसूत्र से पता चलता है कि महावीर के 20 वर्षों बाद सुधर्मन् की मृत्यु हुई तथा उसके बाद जम्मू 44 वर्षों तक संघ का अध्यक्ष रहा । अन्तिम नन्द राजा के समय में भम्भूतविजय तथा भद्रबाहु संघ के अध्यक्ष थे । ये दोनों महावीर द्वारा प्रदत्त 14 ‘पुव्वो’ (प्राचीनतम जैन ग्रन्थों) के विषय में जानने वाले अन्तिम व्यक्ति थे ।
सम्भूतविजय की मृत्यु चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण के समय ही हुई । उनके शिष्य स्थूलभद्र हुए । इसी समय मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा जिसके फलतः भद्रबाहु अपने शिष्यों सहित कर्नाटक में चले गये । किन्तु कुछ अनुयायी स्थूलभद्र के साथ मगध में ही रुक गये ।
भद्रवाहु के वापस लौटने पर मगध के साधुओं से उनका गहरा मतभेद हो गया जिसके परिणामस्वरूप जैन मत इस समय (लगभग 300 ईसा पूर्व) श्वेताम्बर तथा दिगम्बर नामक दो सम्प्रदायों में बँट गया । जो लोग मगध में रह गये थे, श्वेताम्बर कहलाये । वे श्वेत वस्त्र धारण करते थे । भद्रबाहु और उनके समर्थक, जो नग्न रहने में विश्वास करते थे, दिगम्बर कहे गये । उनके अनुसार प्राचीन जैन-शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान केवल भद्रबाहु को ही था ।
प्राचीन जैन शास्त्र चूँकि नष्ट हो गये थे अतः उन्हें पुनः एकत्र करने तथा उनका स्वरूप निर्धारित करने के लिये चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र में जैन धर्म की प्रथम महासभा आयोजित की गयी । किन्तु भद्रबाहु के अनुयायियों ने इसमें भाग नहीं लिया । परिणामस्वरूप दोनों सम्प्रदायों में मतभेद बढ़ता गया । पाटलिपुत्र की सभा में जो सिद्धान्त निर्धारित किये गये वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मूल सिद्धान्त बन गये ।
जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों का मुख्य अन्तर इस प्रकार है:
(i) श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग श्वेत वस्त्र धारण करते है तथा वान धारण को वे मोक्ष की प्राप्ति में बाधक नहीं मानते । इसके विपरीत दिगम्बर मततयायी पूर्णतया नग्न रहकर तपस्या करते हैं तथा वस्त्र धारण को मोक्ष के मार्ग में बाधक मानते हैं ।
(ii) श्वेताम्बर मत के श्वसार स्त्री के लिए मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है किन्तु दिगम्बर मत इसके विरुद्ध है ।
(iii) श्वेताम्बर मत ज्ञान-प्राप्ति के बाद भोजन ग्रहण करने में विश्वास करता है किन्तु दिगम्बरों के अनुसार आदर्श साधु भोजन नहीं ग्रहण करता ।
(iv) श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग प्राचीन जैन ग्रन्थों- अडंग, उपाडंग, प्रकीर्णक, वेदसूत्र, मूलसूत्र आदि को प्रामाणिक मानकर उनमें विश्वास करते हैं । किन्तु दिगम्बर इन्हें मान्यता नहीं प्रदान करते हैं ।
कालान्तर में जैन धर्म का केन्द मगध से पश्चिमी भारत की ओर स्थानान्तरित हो गया । जैन साहित्य में अशोक के पौत्र सम्प्रति को इस मत का संरक्षक बताया गया है । वह उज्जैन में शासन करता था । अतः यह जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र बन गया । जैनियों का दूसरा प्रमुख केन्द्र मथुरा में स्थापित हुआ जहाँ से अनेक अभिलेख, प्रतिमायें, मन्दिर आदि मिलते हैं ।
कुषाण काल में मथूरा जैन धर्म का एक समृद्ध केन्द्र था । कलिंग का चेदि शासक खारवेल भी जैन धर्म का महान् संरक्षक था । उसने जैन साधुओं के निर्वाह के लिये प्रभूत दान दिया तथा उनके निवास के लिये गुहाविहार बनवाये थे । राष्ट्रकूट राजाओं के शासन काल (9वीं शताब्दी) में दक्षिणी भारत में जैन धर्म का काफी प्रचार हुआ ।
गुजरात तथा राजस्थान में जैन धर्म 11वीं तथा 12वीं शताब्दियों में अधिक लोकप्रिय रहा । इस प्रकार जैन धर्म समस्त भारत में फैल गया । अपने संगठन की उत्कृष्टता तथा अनुयायियों की कट्टरता के कारण वह आज भी भारत में अपना अस्तित्व सुरक्षित किये हुये है ।
जैन धर्म का स्वरूप निश्चित करने व वल्लभी का महासभा का विशेष योगदान रहा है । यह छठीं शताब्दी में देवऋद्धिगणि (क्षमाश्रमण) की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई । इस समय तक पाटलिपुत्र की सभा द्वारा निर्धारित किये गये सिद्धान्त अव्यवस्थित तथा क्रमशः विलुप्त हो चुके थे । अतः इस सभा मैं उनका नये ढन्ग से निर्धारण एवं सम्पादन किया गया । इस सभा द्वारा निर्धारित किया गया जैन धर्म का स्वरूप आज तक विद्यमान है ।
Essay # 4. जैन धर्म की देन (Jainism Donation):
जैन धर्म का प्रभाव भारत में उतना व्यापक नहीं हुआ जितना कि बौद्धधर्म का तथा यह कुछ ही भागों तक सीमित रहा, तथापि भारत के सांस्कृतिक जीवन को इसका योगदान महत्वपूर्ण रहा । जैनियों की विशेष साहित्य एवं कला के क्षेत्र में रही । जैन विद्वानों ने विभिन्न कालों में लोक भाषाओं के माध्यम से अपनी कृतियों की रचना करके इनके विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल, तेलगू आदि में जैन-साहित्य मिलते हैं । प्राकृत भाषा को विकसित करने में जैन लेखकों के कार्य सराहनीय हैं । पूर्व मध्यकाल में हेमचन्द्र आदि विद्वानों ने काव्य, व्याकरण, ज्योतिष, छन्दशास्त्र आदि विविध विषयों पर प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं में साहित्य लिखकर इनका बहुमुखी विकास किया ।
दक्षिण में कन्नड़ एवं तेलगू में भी इनके साहित्य है । तमिल ग्रन्थ ‘कुरल’ के कुछ भाग भी जैनियों द्वारा रचे गये है । इसके अतिरिक्त कुछ जैन ग्रन्थ संस्कृत में भी मिलते हैं । इस प्रकार प्रादेशिक भाषाओं का विकास जैनियों ने किया । प्राचीन भारतीय कला एवं स्थापत्य को विकसित करने में भी जैनियों का योगदान महत्वपूर्ण है ।
हस्तलिखित जैन-अन्यों पर खींचे हुये चित्र पूर्व मध्य-युगीन चित्रकला के सुन्दर नमूने हैं । मध्यभारत, उड़ीसा, गुजरात, राजस्थान आदि से अनेक जैन-मन्दिर, मूर्तियाँ, गुहास्थापत्य आदि के उत्कृष्ट नमूने मिलते हैं । उड़ीसा की उदयगिरि पहाड़ी से अनेक जैन गुफायें मिलती हैं ।
खजुराहों, सौराष्ट्र, राजस्थान से भव्य जैन-मन्दिर प्राप्त होते हैं । खजुराहों में कई जैन तीर्थखरी जैसे-पार्श्वनाध, आदिनाथ आदि के मन्दिर है । राजस्थान के आबू पर्वत पर निर्मित जैन-मन्दिर कला की दृष्टि से अत्युत्कृष्ट है ।
कर्नाटक स्थित श्रवणबेलगोला नामक स्थान से भी कई जैन-मन्दिर मिलते हैं । रन सबसे स्पष्ट है कि भारतीय कला को समृद्धशाली बनाने में जेन धर्म ने उल्लेखनीय योगदान दिया है । जैनधर्म ने लोगों में अहिंसा एवं सदाचार का प्रचार किया तथा संयमित जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया ।
अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) का सिद्धान्त विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों के बीच भेदभाव मिटाकर समन्तयवादी दृष्टिकोण अपनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास माना जा सकता है । ऐसा करके उसने समन्वय एवं सहिष्णुता के भारतीय दृष्टिकोण को सुदृढ़ आधार प्रदान किया है ।
यदि आज भी इन सिद्धान्तों का अनुकरण करें तो आपसी भेदभाव एवं धार्मिक कलह बहुत सीमा तक दूर हो जायेगा तथा संसार में शान्ति, बन्धुत्व, प्रेम एवं सहिष्णुता का साम्राज्य स्थापित होगा । इस प्रकार महावीर की शिक्षायें कुछ अंशों में आधुनिक युग में भी समान रूप से श्रद्धेय एवं अनुकरणीय है ।