न्यायिक सक्रियता पर निबंध! Here is an essay on ‘Judicial Activism’ in Hindi language.
हमारे देश में लिखित संविधान की व्याख्या केन्द्र और राज्यों के बीच समन्वय तथा मौलिक अधिकारों की रक्षा के निमित्त एक स्वतंत्र न्यायपालिका का गठन किया गया है ।
जाहिर है उस दृष्टि से न्यायपालिका की भूमिका भारत मैं न्याय करने से लेकर मूल अधिकारों की रक्षा और सरकार के विभिन्न अंगों को अपने निर्धारित कार्यक्षेत्र में रहने के लिये निर्देशित करने तक विस्तृत है । अर्थात् भारत में उच्चतम न्यायालय न सिर्फ संविधान की रक्षा करता है बल्कि किसी भी सरकार अथवा शक्ति द्वारा उसका उल्लंघन किए जाने से भी बचाता है ।
भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि उसने विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के विभाजन की व्यवस्था दी है । शक्तियों का यह विभाजन स्पष्ट कर देता है कि संविधान का उद्देश्य किसी को भी असीमित अधिकार और शक्ति प्रदान करना नहीं है ।
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चूंकि शक्तियों की सीमाबद्धता का निर्धारण ये संस्थाएं स्वयं नहीं कर सकतीं, इसलिए शासन की प्रक्रिया में इन शक्तियों के टकराव के फल-स्वरूप उठने वाले विवादों के हल के लिए एक निष्पक्ष संस्था की भूमिका महत्वपूर्ण है । संसद राज्यों की विधानसंभाएं या केन्द्र और राज्यों की कार्यपालिका यह काम करने में तब असमर्थ हो जाती हैं जब उन्हीं की कार्यप्रणाली पर प्रश्न खड़ा किया जाता है ।
अतः न्यायपालिका को संविधान की व्याख्या का दायित्व सौंपा गया है और इस प्रकार से वह संविधान की रखवाली करती है । लेकिन पिछले कुछ समय से बदलती राजनीतिक सामाजिक परिस्थितियों के मद्देनजर देश की न्याय व्यवस्था के स्वरूप में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है ।
आज न्यायपालिका सिर्फ न्याय प्रदान करने का कार्य नहीं कर रही बल्कि एक प्रशासक सुधारक और नीति-निर्धारक की भूमिका भी अदा कर रही है । दरअसल आज की परिस्थिति में न्यायपालिका को ऐसे कार्य भी करने पड़ रहे है, जो मूल रूप से कार्यपालिका के कार्य क्षेत्र में आते हैं । इसी स्थिति में जबकि न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका की शक्तियों का प्रयोग किया जाता है, न्यायिक सक्रियता उस संवैधानिक व्यवस्था को पुनर्जीवित करने का प्रयास है जिसे कार्यपालिका ने तोड़-मरोड़ दिया है ।
यहाँ प्रश्न उठता है ऐसी कौन-सी परिस्थिति आ खड़ी होती है जिसमें अदालत को इतनी सक्रियता दिखानी पड जाती है । अक्सर अदालतों को यह कदम आमजन की सुरक्षा के लिये ही उठाना पडता है । कार्यपालिका की बढती हुई उदासीनता, स्वेच्छाचारिता, अनुशासनहीनता और निष्क्रियता ने ही न्यायिक सक्रियता को जन्म दिया है ।
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जेलों में वर्षा से सुनवाई की प्रतीक्षा में बन्द कैदी स्त्रियों, बच्ची और श्रमिकों का शोषण जेल और महिला संरक्षण गृहों की अमानवीय दशा, पुलिस अत्याचार, न्याय में देरी जैसी समस्याओं के निराकरण में कार्यपालिका की शिथिलता, न्यायालय को उसके अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का मौका देती है ।
न्यायिक सक्रियता को संवैधानिक आधार प्रदान करने वाले उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीएनभगवती के अनुसार- ”सरकार के प्रत्येक अंग को अपनी शक्तियों की सीमाओं में रहकर कार्य करना चाहिये तथा कानून अथवा संविधान द्वारा उनपर आरोपित दायित्वों को पूरा करना चाहिये ।”
लेकिन आरम्भ में समस्या यह थी कि न्यायालय किस तरह कार्यपालिका के क्षेत्र में प्रवेश करके समाज में हो रहे अन्याय तथा शोषण को रोक सकती है और उन दशाओं की उत्पन्न कर सकती है जो व्यक्ति और समाज के विकास के लिये आवश्यक है ।
इन समस्याओं में जो सबसे अहम समस्या, न्यायालय के सामने थी, वह यह कि न्यायालय में केवल वही व्यक्ति मुकदमा कर सकता जिसके वैधानिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो और दूसरा यह कि न्यायालय किसी भी अवैधानिकता के खिलाफ तब तक सज्ञान नहीं लेगा जब तक कि वह मामला औपचारिक रूप से उसके सामने न आये ।
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लेकिन जब कार्यपालिका की उदासीनता और स्वेच्छाचारिता अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई तो न्यायपालिका ने भी अपने पारम्परिक प्रतिबंधों को शिथिल करके कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में दखल दिया, जिसके परिणामस्वरूप न्यायिक सक्रियता की अवधारणा का जन्म हुआ ।
ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका द्वारा कार्यकारिणी की शक्तियों का हस्तगन स्वेच्छाचारी ढंग से किया गया है । बल्कि न्यायिक सक्रियता का आधार संवैधानिक है । न्यायपालिका ने संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों के माध्यम से संबंध स्थापित करके न्यायालय को कार्यकारिणी के क्षेत्राधिकार में प्रवेश करने का अवसर प्रदान किया है ।
न्यायालय ने इस दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया कि यदि कार्यपालिका संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21, 32 तथा 34 (अ) द्वारा तय किये गये अधिकारों और सिद्धान्तों को कार्यान्वित नहीं करती है तो संविधान का संरक्षक होने के नाते, न्यायपालिका का यह दायित्व और अधिकार है कि वह कार्यकारिणी को आवश्यक निर्देश दें ।
1980 से पहले भारत में न्यायपालिका इन अर्थों में अनुदार तथा निष्क्रिय थी कि वह परम्परागत सीमाओं का आदर करते हुए जनहित के विषय में खुद से कोई पहल नहीं करती थी । वह केवल उन मामलों पर ही विचार करती थी जो प्रभावित पक्ष के द्वारा उसके सामने लाये जाते थे ।
बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने महसूस किया कि सार्वजनिक हित की अनेक समस्याओं, जिनसे गरीब और अशिक्षित तबके का हित जुड़ा है, के खिलाफ आवाज उठाने वाला कोई नहीं है । इसलिये ऐसे लोगों के साथ हो रहे अत्याचार और अन्याय के निराकरण के लिये न्यायपालिका ने जनहित के वादों को मान्यता देकर सामाजिक न्याय स्थापित करने में सक्रिय भूमिका अदा की है ।
न्यायिक सक्रियता के तहत जनहित से जुड़े मामलों का क्षेत्र । प्रक्रिया लक्ष्य आदि व्यक्तिगत हित विवादों से बिल्कुल भिन्न है । यह सामाजिक न्याय को स्थापित करने और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को साकार रूप देने का एक प्रभावी उपाय है ।
ऐसे तमाम मामलों में न्यायालय ने सज्ञान लिया और पीड़ित पक्ष को उसका हक दिलाया जो समाज के दबे-कुचले वर्ग से जुड़े थे । इनमें 1982 में एशियाड वर्कर्स का मामला, 1982 का बंधुआ मुक्ति मोर्चा केस, जैसे कई विवादों में उच्चतम न्यायालय ने कार्यवाही करते हुए प्रभावित लोगों को आवश्यक राहते देने का प्रयास किया है ।
न्यायिक सक्रियता को उत्प्रेरित करने में न्यायालय द्वारा ‘जीवन’ के अधिकार की व्याख्या संबंधी फैसले ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । उच्चतम न्यायालय ने एक फैसले में संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या करते हुए कहा कि ‘प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता’ में जीविकोपार्जन का अधिकार भी शामिल है ।
‘जीवन’ का तात्पर्य सिर्फ भौतिक अस्तित्व नहीं बल्कि एक सम्मानपूर्ण जीवन के साथ आधार-भूत जरूरतों पर अधिकार भी शामिल है । न्यायालय के इस फैसले से चिकित्सा सहायता और स्वास्थ्य अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता मिली ।
साथ ही उच्चतम न्यायालय ने यह भी घोषित किया कि अनुच्छेद 21 के तहत मिले जीवन के अधिकार में संक्रमण जल और वायु भी शामिल है, ताकि व्यक्ति जीवन का पूरा सुख उठा सके । न्यायालय ने इस संबंध में समय-समय पर ऐसे कई आदेश दिए जिससे प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों को या तो बद करना पड़ा या उन्होंने इसे रोकने के लिए कोई व्यवस्था की ।
न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के क्षेत्र के अतिक्रमण की आलोचना भी अक्सर हुई है । आलोचकों का कहना है कि न्यायिक सक्रियता के नाम पर न्यायपालिका, कार्यपालिका की शक्तियों को हडप रही है । इस तरह का हस्तक्षेप शासन के तीनों अंगों के बीच संतुलन को समाप्त कर देगा जिससे उनमें पारस्परिक सहयोग के स्थान पर निरंतर टकराव और विरोध की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी ।
खासतौर पर आलोचकों को सबसे ज्यादा आपत्ति न्यायपालिका द्वारा विधान मण्डल के कार्यों में हस्तक्षेप से है । इनके अनुसार विधान मण्डल जो जन साधारण का प्रतिनिधित्व करता है, की अपेक्षा न्यायालय के कुछ एक सदस्य जनहित को ज्यादा अच्छी तरह से नहीं समझ सकते है ।
जनहित विवादों के नाम पर न्यायपालिका का हस्तक्षेप दैनिक प्रशासन में निरन्तर बढ़ता जा रहा है और स्थिति यह होती जा रही है कि इस तरह के मामले उपाहासास्पद बन कर रह गये हैं । हाल के दिनों में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले जिनमें न्यायालय की प्रतिष्ठा को धक्का लगा ।
चाहे वह न्यायालय द्वारा पार्किंग स्थल के बारे में सरकार को निर्देश जारी करना हो या फिर किसी मरीज की नि:शुल्क चिकित्सा की व्यवस्था करनी हो । ये मामले ऐसे नहीं हो सकते, जिनमें न्यायालय रोज-रोज हस्तक्षेप करे । हाल के दिनों में जिस प्रकार न्यायालय विधानमंडलों की कार्यप्रणाली मैं हस्तक्षेप कर रहा है वह भी न्यायिक सक्रियता के ऋणात्मक पक्ष को ही दर्शाता है ।
यहाँ तक कि झारखंड विधानसभा में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरकार को बहुमत साबित करने की ‘डेडलाइन’ जारी करने पर तो लोकसभाध्यक्ष, सोमनाथ चटर्जी ने भी खुलकर आलोचना की और इसे विधायिका के कार्य में अनावश्यक हस्तक्षेप बताया ।
कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच तनाव का एक प्रसंग तब सामने आया, जब दिल्ली में बिजली संकट के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि अदालत सुपर प्लानिंग कमीशन की तरह काम नहीं कर सकती ।
इसके पहले वन विभाग की विशेषज्ञ समिति के सदस्य नियुक्त करने के अधिकार को लेकर भी लोकतंत्र के इन दोनों स्तंभों के बीच टकराव दिखाई दिया था । इसके अलावा लगातार विधायिका में भी अदालतों की अतिसक्रियता को लेकर असहमति दिखाई दे रही है ।
लोकसभा अध्यक्ष, सोमनाथ चटर्जी और प्रधानमंत्री, डॉ. मनमोहन सिंह भी न्यायपालिका की भूमिका पर नाराजगी व्यक्त कर चुके हैं । दिख रहा है कि पिछले लंबे वक्त से अदालतें उन क्षेत्रों में दखल दे रही है, जो आमतौर कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र माने जाते है ।
संविधान की नवी अनुसूची और पिछडों के आरक्षण के मुद्दे पर अदालत के रवैए से विधायिका नाखुश है । लगता यही है कि लोकतंत्र को इन स्तंभों के बीच यह टकराव पूरी तरह खत्म नहीं होगा । ऐसे में सवाल यही उठता है आखिरकार इस समस्या का अंत क्या है?
हमारे संविधान में तीनों स्तंभों के काम स्पष्टतया रेखांकित किए गए हैं, फिर भी व्यावहारिक धरातल पर कहीं-न-कहीं कुछ धुँधले इलाके तो हमेशा ही बने रहेंगे, जिनकी व्याख्या अलग-अलग ढंग से की जाएगी । धीरे-धीरे नई परिस्थितियों के संदर्भ में कुछ चीजे ज्यादा साफ होंगी ।
फिर भी पूरी तरह यांत्रिक ढंग से कार्य विभाजन शायद कभी संभव नहीं होगा । ऐसे में दो बाते महत्वपूर्ण हैं एक, इस टकराव का रचनात्मक पक्ष देखा जाए और इससे एक ज्यादा बेहतर लोकतंत्र के बनने के रास्ते ढूँढे जाए । अगर यह टकराव सीमा में रहे तो निश्चय ही सबके लिए ज्यादा कार्यकुशल और चुस्त बने रहने की गुंजाइश बनाता है ।
दूसरी बात यह है, कि हमारे लोकतंत्र के सभी स्तंभ कहीं-न-कहीं जनता की जरूरतों और आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे हैं । ऐसे में अक्सर जनता दूसरे स्तंभ की शरण लेती है । जैसे कार्यपालिका से असंतुष्ट होकर लोग जनप्रतिनिधियों के पास भी जाते है और अदालतों के पास भी ।
ऐसे में सिर्फ न्यायपालिका ही नहीं विधायिका के लोग भी वे काम करते हैं, जो मूलतः कार्यपालिका के काम हैं । अगर संसद सदस्यों को यह शिकायत है कि न्यायपालिका उनके और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र का हनन कर रही है, तो वे खुद देखे कि वे कितने ऐसे काम करते हैं, जो कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में हैं ।
इस समस्या का हल बहुत पुराना है । अगर लोकतंत्र के सभी स्तंभ अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा विवाद छोडकर अपने कर्तव्यों पर ध्यान दें, तो कोई समस्या नहीं बचेगी । अधिकार क्षेत्र का सीमा विवाद किनारे रखकर ही वह सार्थक संवाद भी हो पाएगा जो लोकतंत्र को बेहतर बनाता है ।
बावजूद इसके कुछेक विवादास्पद मुद्दों को यदि छोड़ दिया जाये तो यह सही प्रतीत होता है कि न्यायपालिका की सक्रियता ने सामाजिक न्याय को स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । निस्संदेह इस दृष्टि से न्यायिक सक्रियता स्वागत योग्य है ।
लेकिन यह भी उतना ही सही है कि अतिसक्रियता के भी खतरनाक परिणाम हो सकते है । अतः न्यायपालिका को भी संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिये । दूसरी ओर, यदि कार्यपालिका निष्पक्षता से अपना कार्य करे तो न्यायालय को उतना सक्रिय नह होना पड़ेगा, जितना कि वह आज है ।
वास्तविकता तो यही है कि कार्यपालिका की अक्षमता के कारण ही न्यायपालिका को सक्रिय होना पडता है । यह सह है कि आज का समाज अधिक सजग और जागरूक हो गया है और वह यह भलीभांति जानने लगा कि कहाँ न्यायपालिका सही कहाँ कार्यपालिका?
उसे इस बात का आभास हो चुका है कि जब भी किसी मामले में कार्यपालिका से चूक होती है, तो शीघ्र ही न्यायपालिका सक्रिय हो जाती है, और सच तो यही है कि समाज के लिये भी यह एक अच्छा संकेत है, क्योंकि इसकी तह में आम आदमी की सुरक्षा ही सर्वोपरि होती है ।
आखिर अदालतों की सक्रियता से आम आदमी को राहत तो मिलती ही है । न्यायपालिका पर सवाल उठाने से पहले उसके फैसलों को सही नीयत से देखने की कोशिश करनी होगी । साथ ही, यदि कार्यपालिका निष्पक्षता से अपने कार्यों का अंजाम दे तो न्यायपालिका पर न अनावश्यक बोझ बढेगा और न ही इस तरह के विवाद ही सामने आएंगे ।