भारतीय जीवन पर पश्चिम का प्रभाव! Read this article in Hindi to learn about the impact of western culture on India.

भारतीय जीवन पर पश्चिम के प्रभाव के सम्बन्ध में श्री हुमायूँ कबीर ने लिखा है- “चपल यूरोपीय भावनाओं ने प्रत्येक वस्तु की सूक्ष्म परीक्षा की । एक ओर तो भौतिक जीवन की अवस्थाओं में परिवर्तन हो गया । दूसरी ओर विश्वासों और परम्पराओं के आधारों को नष्ट कर दिया गया ।”

पश्चिम का यह प्रभाव भारतीय जीवन में जाति-प्रथा, शिक्षा, सामाजिक जागृति, राजनीतिक जागृति, संयुक्त परिवार व्यवस्था अर्थ-व्यवस्था विवाह की संस्था अस्पृश्यता तथा रीति-रिवाजों आदि पर पड़ा ।

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भारत में जाति-प्रथा पर पश्चिम के प्रभाव में निम्नलिखित उपकरण महत्वपूर्ण कारक थे:

1. जाति-प्रथा पर पश्चिम का प्रभाव:

(i) औद्योगीकरण:

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अंग्रेजों के आने से भारत में नए-नए उद्योग-धन्धे बड़े । कारखानों में सभी धर्म और जातियों के लोग एक साथ काम करते हैं । उनकी समस्यायें एक है और उनके स्वार्थ भी एक हैं । साथ-साथ काम करने आदि से परस्पर मिलना-जुलना आवश्यक हो गया । ऐसी परिस्थिति में ऊँच-नीच का भाव चल नहीं सकता । अत: जातिगत भेदभाव के बन्धन ढीले पड़ने लगे ।

(ii) नगरीकरण:

औद्योगीकरण के कारण देश में सैकड़ों छोटे-बड़े नगर बढ़ने लगे और लाखों मजदूर गाँवों को छोड़कर नगरों में काम करने लगे । नगरों की भीड़भाड़ से दूर-दूर से आए हुए लोगों का जात-पांत का विचार कम होने लगा । उन पर जातीय पंचायतों का नियन्त्रण उठ जाने से भी जातीय बन्धन ढीले पड़ने लगे । इस प्रकार नगरीकरण ने जाति-प्रथा को बड़ा निर्बल किया ।

(iii) आवागमन के साधन:

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आवागमन के साधनों से जाति के बन्धन ढीले पड़े । आवागमन के साधन रेल, बस, टैक्सी, रिक्शा आदि में यात्रा करने वाले छुआछूत का विचार नहीं रखते इसलिए जब पहले रेलगाड़ी चली तो लोगों ने घोर विरोध किया परन्तु अब सभी लोग रेलों और बसों का प्रयोग करते है ।

(iv) अंग्रेजी शिक्षा:

भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार से जाति-प्रथा को बड़ा धक्का लगा । अंग्रेजी पढ़ने से लोगों में उदार विचारों का प्रचार हुआ । उनके रहन-सहन खान-पान, वेशभूषा के साथ-साथ उनके विचारों पर भी पश्चिम के विचारों स्वतन्त्रता समानता आदि का प्रभाव पड़ा ।

इससे पढ़े-लिखे लोगों में अन्तर्जातीय विवाह होने लगे । पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाले लोग तो बहुधा पूरे साहब बनकर लौटते थे । प्रारम्भ में विदेश जाने का बड़ा विरोध था परन्तु अब धीरे-धीरे इस प्रकार की संकीर्णता उठती जा रही है । अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार से स्त्रियों में स्वतन्त्रता और समानता की भावना फैली ।

(v) पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव:

पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भारत में जाति-प्रथा के बन्धन टूटने लगे । पाश्चात्य-सभ्यता के रंग में रंगकर सभी जातियों का खान-पान वेशभूषा, रहन-सहन रीति-रिवाज आदि एक से हो गए । उनमें जाति के स्थान पर वर्ग का भेद दिखाई देने लगा ।

कलकत्ता में जब पहला मैडिकल कालिज खुला तो मुर्दा चीरना अधर्म और जाति भ्रष्ट करने वाला माना जाता था । बाद में यह मान लिया गया कि शिक्षा की दृष्टि से मुर्दा चीरना बुरा नहीं है । पानी के पाइपों तथा होटलों ने खान-पान में छुआछूत के विचार को बहुत कम कर दिया ।

डॉ॰ भगवानदास ने लिखा है- ”जब काशी में नल लगाए गए तो लोगों ने उनका इस आधार पर विरोध किया कि जल विभाग में न जाने किन-किन जातियों के लोग काम करेंगे और ऊँची जाति के लोगों को उनके हाथ का पानी पीकर भ्रष्ट होना पड़ेगा, परन्तु अब सभी नल का पानी प्रयोग करते हैं ।” प्रारम्भ में अंग्रेजों के लाए हुए आलू टमाटर आदि को खानें में भी लोग संकोच करते थे । अब ब्राह्मण लोग बिस्कुट, आइस-क्रीम, अण्डों वाला केक आदि बेधड़क खाते हैं ।

2. अस्पृश्यता पर पश्चिम का प्रभाव:

जाति-प्रथा को दुर्बल बनाने के साथ-साथ पश्चिम के प्रभाव ने भारत में अस्पृश्यता के विचार को मिटाने में भी सहायता की । आवागमन के साधनों, नगरीकरण, ओद्योगीकरण आदि के कारण भी अस्पृश्यता का विचार ढीला पड़ा क्योंकि सड़कों पर बसों रेलों और रिक्शों में, स्टेशनों और होटलों में और कल-कारखानों में किसी की जात पूछकर उठना-बैठना, खाना-पीना आदि नहीं हो सकता । पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार से लोगों में समानता की भावना उत्पन्न हुई । देश में सामाजिक राजनीतिक जागृति फैली ।

3. स्त्रियों पर पश्चिम का प्रभाव:

भारतवर्ष में पश्चिम का प्रभाव स्त्रियों पर बहुत अधिक पड़ा । पाश्चात्य विचारों के प्रकाश में हिन्दू स्त्रियों ने समाज में अपनी स्थिति का मूल्यांकन किया । अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव से उन्होंने यह अनुभव किया कि वे पुरुषों से किसी भी प्रकार कम नहीं हैं ।

आधुनिक मनोवैज्ञानिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि स्त्री-पुरुष की शक्ति, योग्यता, विचार रहन-सहन आदि के भेद किसी मौलिक अथवा प्राकृतिक भेद के कारण नहीं हैं बल्कि मनुष्य के बनाये हुए सांस्कृतिक परिवेश के कारण हैं ।

अतः पाश्चात्य विचारों के प्रभाव से स्त्रियों ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष से समानता की मांग की । भारत में स्त्रियों को ऊँची शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति नहीं थी । उनके लिये रामायण बाँचने का ज्ञान होना ही बहुत समझा जाता था । स्त्रियों की शिक्षा के लिए सुधारकों को बड़ा संघर्ष करना पड़ा ।

सबसे पहले कलकत्ता विश्वविद्यालय ने स्त्रियों को उच्च शिक्षा की स्वीकृति दी । क्रमश: स्त्रियों में उच्च शिक्षा बढ़ने लगी । अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से भारतीय स्त्रियों पर अंग्रेजी सभ्यता का प्रभाव पड़ा । इस प्रभाव से कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन दिखाई पड़े जैसे- (अ) पर्दे का बहिष्कार, (आ) पुरुष के साथ समानता की माँग ।

4. सामाजिक संरचना पर पश्चिम का प्रभाव:

भारतीय सामाजिक संरचना पर भी पश्चिम का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है । भारतीय सामाजिक संगठन जाति-व्यवस्था पर आधारित है । ये जातियाँ अन्तर्विवाही समूह हैं और जन्म से निर्धारित की जाती हैं । ये विशेषत: ग्रामीण सामाजिक ढाँचे पर आधारित हैं पश्चिम के प्रभाव से जाति-व्यवस्था निर्बल पड़ रही है और उसका स्थान पश्चिमी देशों की वर्गव्यवस्था ले रही है ।

इस परिवर्तन का एक बड़ा कारण ग्रामीण सामाजिक ढाँचे का विघटन भी है । देश में मशीनों के प्रभाव से बड़े हुए औद्योगीकरण से ग्रामीण अर्थव्यवस्था के स्थान पर औद्योगिक अर्थव्यवस्था स्थापित हो रही है । पश्चिमी विचारों के प्रभाव से समाज अधिक गतिशील हो गया है और उसमें पुरानी रूढ़ियाँ बड़ी तेजी से टूट रही हैं । नगरीय व्यवस्था में जात-पाँत के बन्धन चल भी नहीं सकते ।

मण्डियों, बाजारों, कल-कारखानों, होटलों, चाय की दुकानों, बसों और ट्रामों में जाति का भेदभाव नहीं होता । पश्चिम के प्रभाव से जाति के स्थान पर धन का आदर होने लगा है । अतः अब जाति का विचार छेड़कर सभी लोग धन की दृष्टि से व्यवसाय करते हैं । पाश्चात्य शिक्षा धर्म-निरपेक्ष है, अतः उससे धार्मिक कर्मकाण्ड का महत्व कम हो जाता है । आज देश में व्यवसायों के आधार पर संगठन बन रहे है । जातीय चेतना का स्थान वर्ग-चेतना ले रही है ।

5. विवाह की संस्था पर पश्चिम का प्रभाव:

सामाजिक संस्थाओं में भारत में पश्चिम का प्रभाव विवाह की संस्था पर सबसे अधिक पड़ा ।

इस विषय में उल्लेखनीय परिवर्तन निम्नलिखित हैं:

(i) विवाह के आधार में परिवर्तन:

आज भारत में विवाह का आधार धर्म नहीं अपितु प्रेम और दाम्पत्य प्रीति हो गया है ।

(ii) विवाह पद्धति में परिवर्तन:

विवाह के आधार के साथ ही साथ विवाह पद्धति में भी थोड़ा बहुत परिवर्तन देखने में आता है । अभी भारत में सिविल मैरिज अधिक नहीं होती हैं परन्तु फिर भी इस ओर प्रवृति अवश्य दिखाई पड़ती है । हिन्दू-विवाहों में पूजा पाठ कम और सजावट आदि अधिक होने लगी है । अब बारातों में अधिक लोग नहीं जाते, विवाह के अपव्यय कम करने का भी प्रयास किया जा रहा है ।

(iii) जीवन साथी के चुनाव की स्वतन्त्रता:

पहले माँ-बाप ही विवाह के लिए लड़का देखते और विवाह तय करते थे । अंग्रेजी शिक्षा और पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से अब युवक-युवतियाँ स्वयं अपना जीवन-साथी चुनना पसन्द करते हैं, क्योंकि उस पर सारे जीवन का सुख और सफलता निर्भर है ।

(iv) बाल-विवाह का बहिष्कार:

पाश्चात्य विचारों के प्रभाव से और स्त्रियों में उच्च शिक्षा के प्रसार से भारत में बाल-विवाह का बहिष्कार हुआ क्योंकि स्त्रियों के स्वास्थ्य, शक्ति तथा जीवन की बड़ी हानि होती थी, शिक्षा में बाधा पड़ती थी और अवांछित सन्तानें उत्पन्न होती थीं ।

(v) अधिक आयु में विवाह:

बाल विवाह के बहिष्कार के साथ ही पश्चिम के प्रभाव से विवाह की आयु बढ़ती जाती है । पश्चिम में साधारणतया लोग शिक्षा समाज करके और व्यवसाय, नौकरी आदि निश्चित हो जाने के बाद ही विवाह करते है ।

(vi) विवाह का अस्थायित्व:

‘तलाक कानून’ पास हो जाने, स्त्रियों की आर्थिक स्वतन्त्रता बढ़ने और विवाह का आधार प्रेम होने के कारण विवाहों का अस्थायित्व बढ़ रहा है । अब विवाह एक ऐसा धार्मिक बन्धन नहीं रह गया जो कभी भी तोड़ा न जा सकता हो बल्कि वह एक सामाजिक समझौता बन गया है जिसको विशेष परिस्थितियों में तोड़ा जा सकता है ।

(vii) अन्तर्जातीय विवाह:

पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से तथा प्रेम को विवाह का एक मात्र आधार मान लेने से अब अन्तर्जातीय विवाह होने लगे हैं । कहीं-कहीं अन्तर्धर्म विवाह भी होते देखे जाते है ।

(viii) एक विवाह की प्रवृत्ति:

पश्चिम के सभ्य देशों में सब-कहीं एक विवाह की ही प्रथा है । पश्चिम के प्रभाव से भारत में भी एक विवाह की माँग की गई । 1955 के ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ से कोई भी व्यक्ति अपना जीवन साथी जीवित रहते हुए कोई दूसरा विवाह नहीं कर सकता ।

(ix) उन्मुक्त भोग की प्रवृत्ति:

पश्चिम के प्रभाव से कुछ पढ़े-लिखे लोगों में उन्मुक्त भोग और विवाह को झंझट समझकर उससे बचने की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है । स्त्री-पुरुष सभी में आजकल आजन्म कुँवारे रहने वाले व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जाती है । क्योंकि विवाह के बिना भी यौन-सम्बन्ध सम्भव होने लगे है तथा विवाह के बन्धन अवांछनीय माने जाने लगे हैं ।

6. परिवार की संस्था पर पश्चिम का प्रभाव:

विवाह की संस्था के साथ-साथ पश्चिमी विचारों और आदर्शों ने भारत में परिवार की संस्था को भी प्रभावित किया है ।

इस विषय में उल्लेखनीय परिवर्तन निम्नलिखित है:

(i) संयुक्त परिवार का विघटन:

पाश्चात्य विचारों के प्रभाव से भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली विघटित होती जा रही है । संयुक्त परिवार के विघटन में पाश्चात्य व्यक्तिवादी भावनाओं का बड़ा हाथ है ।

इससे आधुनिक युवक-युवती अपने को परिवार के लिए बलिदान कर देना और बड़ों के नियन्त्रण में जीवन व्यतीत कर देना मूर्खता समझते हैं । आधुनिक नारी सास-सुसर आदि की दासता से घृणा करती है ।

संयुक्त परिवार में फैशन आदि की भी स्वतन्त्रता नहीं रहती; एकान्त मिलने में भी कठिनाई होती है । इन सब मनोवैज्ञानिक कारकों के अतिरिक्त नगरीकरण, औद्योगीकरण आदि के कारण उत्पन्न हुई सामाजिक गतिशीलता का भी संयुक्त परिवार के विघटन में महत्वपूर्ण हाथ है ।

(ii) परिवार का छोटा होना:

पश्चिम के प्रभाव से केवल संयुक्त परिवार का विघटन ही नहीं हुआ है बल्कि परिवार छोटे भी होने लगे है । विवाह का आधार परिवर्तित हो जाने के कारण अब परिवार में बच्चों की संख्या कम होने लगी है । पश्चिम के प्रभाव से भारत में भी अब गर्भ-निरोधक औषधियों का प्रभाव बढ़ने लगा है । इन सब कारणों से भारत में भी परिवार बराबर छोटा होता जा रहा है

(iii) परिवार का अस्थायित्व:

पाश्चात्य स्त्रियों के समान भारत में पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान नौकरियाँ करने लगी हैं । स्त्री-पुरुष दोनों के नौकरी करने से उनके जीवन के क्षेत्र बंट जाते हैं । वैयक्तिकता तथा स्वतन्त्रता बढ़ने और विवाह का आधार प्रेम होने के कारण और बच्चों का मोह कम होने में विवाह-विच्छेद अब इतना कठिन नहीं रह गया है । इन सब कारणों से भारत में परिवार का स्थायित्व कम होता जा रहा है ।

7. रीति-रिवाजों पर पश्चिम का प्रभाव:

भारत में सामाजिक रीति-रिवाजों खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा आदि पर पश्चिम का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है । वेषभूषा में कोट-पैण्ट, जूता, मोजा आदि का रिवाज बढ़ रहा है । रहन-सहन में पश्चिम का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है । बम्बई और कलकत्ता में कुली भी गोराशाही हिन्दी बोलता है ।

मद्रास आदि में भंगी भी अंग्रेजी बोलने की चेष्टा करता है । नगरों में रिक्शे वाले तक पैण्ट, कोट, बुशशर्ट आदि का प्रयोग करने लगे हैं । प्रसाधन की सामग्रियों-लिपस्टिक, पाउडर, क्रीम आदि का प्रयोग तो गाँवों की स्त्रियों तक में फैलने लगा है । अंग्रेजी फैशन के बाल रखना एक आम रिवाज हो गया है ।

स्त्रियों में ऊँची एड़ी के सैंडिल, कमर तक का ब्लाउज, खुला सिर आदि का प्रचार हो गया है । पड़े लिखे लोग अपने घर में अधिकतर कामों में मकान की सजावट आदि में पश्चिम का अनुकरण करने लगे हैं और शहरी लोग ही नहीं बल्कि बेपढ़े-लिखे और गाँव के लोगों में भी परिवर्तन दिखाई पड़ते है ।

8. भारतीय संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव:

भारतीय रीति-रिवाजों के साथ ही भारतीय संस्कृति के अन्य अंगों पर भी पाश्चात्य संस्कृति का बड़ा प्रभाव पड़ा है । यह प्रभाव ‘भाषा साहित्य’, संगीत, कला, धर्म, नैतिकता आदि में दिखलाई पड़ता है ।

(i) भाषा:

भारतीय भाषाओं पर पश्चिम का भारी प्रभाव पड़ा है । भारतीय भाषाओं में जितने अधिक अंग्रेजी के शब्द आये हैं उतने अन्य भाषा के नहीं आये । इतना ही नहीं बल्कि इन शब्दों के बिना भारतीय भाषाओं का शब्द- भण्डार बड़ा अपूर्ण है ।

वास्तव में आधुनिक सभ्यता के विभिन्न उपकरण, वस्त्र, फैशन की वस्तुएँ, फर्नीचर, यातायात के साधन, सन्देशवहन के साधन, मशीनें, खेती के औजार आदि नागरिक जीवन में सब कहीं दिखलाई पड़ने वाली लाखों वस्तुएँ भारत को पश्चिम की देन हैं, और इस भण्डार में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है ।

पश्चिम ही आधुनिक विज्ञान की प्रगति का केन्द्र है । विज्ञान के क्षेत्र में भारत को उससे बहुत कुछ सीखना है । अतः आधुनिक विज्ञान की देन सब वस्तुओं के नाम थोड़े-बहुत परिवर्तित होकर भारतीय बोलचाल की भाषा में अपना लिए गए है । इस प्रकार भारत में बोलचाल की भाषा में अंग्रेजी के हजारों शब्द प्रयोग किए जाते हैं जैसे प्लेटफार्म, लैटरबक्स, स्टेशन, कार, बस, रेल, टिकट, सिनेमा, रिक्शा, मोटर, स्कूल, कालिज, मीटिंग इत्यादि-इत्यादि ।

(ii) साहित्य:

पाश्चात्य साहित्य का भारतीय साहित्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा है । पश्चिमी साहित्य की रोमांचवाद, अस्तित्ववाद, मनोविश्लेषण आदि प्रवृत्तियों का स्पष्ट प्रभाव भारतीय साहित्य में उपन्यासों और कहानियों तथा नाटकों में दिखाई पड़ता है । काव्य में पश्चिम का प्रभाव अतुकान्त और प्रगतिवादी कविताओं में दिखाई पड़ता है ।

पश्चिम के प्रभाव से साहित्य में छोटी कहानियों और एकांकी नाटकों का प्रचार हुआ । इसके अतिरिक्त साहित्य में धर्म-निरपेक्षता, नास्तिकता, भोगवाद, साम्यवाद, प्रगतिवाद तथा स्वतन्त्रता, समानता आदि की प्रवृतियाँ पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव है ।

इस विषय में अधिक विस्तार से वर्णन करने की अपेक्षा इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि पश्चिमी साहित्य की प्रत्येक प्रवृति का अनुकरण भारतीय साहित्य में हो रहा है और यदि अभी नहीं हुआ तो भविष्य में होने की सम्भावना है । हिन्दी में खड़ी बोली का साहित्य पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से ओतप्रोत है ।

(iii) कला:

भाषा और साहित्य के समान कला के क्षेत्र में भी भारतीय संस्कृति पर पश्चिम का प्रभाव स्पष्ट दिखलाई पड़ता है । कला के क्षेत्र में भारतीय फिल्म संसार में नृत्य, संगीत तथा अन्य अनेक बातों में पश्चिम का स्पष्ट अनुकरण मिलता है ।

पश्चिम के अनेक वाद्यों का भारत में खूब प्रसार हुआ है । इनमें वायलिन, गिटार, बैंजो, माउथ ऑर्गन तथा प्यानों इत्यादि अनेक सर्व-विदित है । इन वाद्यों के अतिरिक्त भारतीय संगीत विशेषतः सिनेमा संगीत में लय पर पश्चिम का प्रभाव पड़ा है ।

मेक-अप की कला भारत में पश्चिम के अनुकरण पर ही विकसित हुई है । नृत्य में पश्चिमी नृत्यों का प्रचार भी बढ़ रहा है, यद्यपि इस दिशा में पश्चिम का अनुकरण बहुत कम हुआ है । चित्रकला में पाश्चात्य विचारधाराओं की स्पष्ट है । माडर्न आर्ट के नाम से भारतीय चित्रकला में आज जो प्रयोग हो रहे हैं वे अधिकतर पश्चिम के अनुकरण पर ही हो रहे है ।

भवन-निर्माण कला में भारत पश्चिम का बड़ा ऋणी है । इस दिशा में भारत ने पश्चिम से कितना लिया है यह जानने के लिए अंग्रेजों के भारत से चले जाने के बाद बने सरकारी और गैर-सरकारी भवनों तथा नए नगरों पर दृष्टि डालना ही पर्याप्त होगा ।

(iv) धर्म:

भारतीय धर्म पर भी पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव पड़ा है । पश्चिम के बुद्धिवाद के प्रभाव से भारतीय लोगों में अनेक धार्मिक अन्धविश्वास उठ गये हैं । कर्मकाण्ड का प्रभाव धीरे-धीरे कम हो रहा है । धर्म या तो दार्शनिक या यन्त्रवत् और व्यावसायिक हो रहा है । जो लोग धार्मिक रीति-रिवाजों को मानते हैं, वे अधिकतर रूढ़ियों के रूप में ही उसको माने जाते हैं ।

बहुत से पड़े-लिखे लोग अब ईश्वर में विश्वास छोड़ते जा रहे हैं । पुराण और धार्मिक अन्यों पर से विश्वास उठता जा रहा है । भारतीय संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न अंगों पर पश्चिम के प्रभाव के उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि भारतीय जीवन में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है । पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से अनेक लोग तो इतने चकाचौध हो गये हैं कि उनको भारतीय संस्कृति में सब-कुछ गया-बीता मालूम पड़ता है ।

यह प्रवृत्ति उन लोगों में है जिनको भारतीय संस्कृति के वास्तविक मूल्य का पता नहीं है । स्वतन्त्र भारत में नेतागण इस ओर प्रयत्नशील हैं कि भारत की प्राचीन संस्कृति को प्रकाश में लाकर देश में उसका सम्मान बढ़ाया जाये और भारत विदेश से जो कुछ ले उसको अपनी संस्कृति में पूर्णतः आत्मसात करले ।

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