भारत में सूचना के अधिकार पर निबंध | Read this article in Hindi to learn about:- 1. सूचना के अधिकार का अर्थ (Right to Information- Meaning) 2. सूचना के अधिकार का तर्क (Right to Information – Rationale) 3. भारत में स्थिति (Position in India).

सूचना के अधिकार का अर्थ (Right to Information- Meaning):

सूचना के अधिकार का अर्थ है- लोगों तक सरकारी सूचना की पहुँच । इससे आशय यह है कि नागरिकों तथा गैर-सरकारी संगठनों की सरकारी कार्यों, निर्णयों तथा उनके निष्पादनों से संबंधित फाइलों तथा दस्तावेजों तक औचित्यपूर्ण स्वतंत्र पहुँच होनी चाहिए । दूसरे शब्दों में सरकारी कार्यकलापों में खुलापन और पारदर्शिता हो ।

यह लोक प्रशासन में गोपनीयता के विपरीत है । पारस कुहाद का यह कथन सही है- ”कार्यपालिका के विशेषाधिकार के संघटक के रूप में गोपनीयता या सूचना अधिकार के माध्यम से पारदर्शिता-प्रशासन के प्रतिमान रूप में इनमें से किसको अपनाया जाए । दोनों सार्वजनिक हित का तर्क देते हैं । इनमें से कौन है जो वास्तव में जनता का हित करता है और क्या इनमें समन्वय किया जा सकता है ?” 1992 में विश्व बैंक ने ‘प्रशासन और विकास’ नामक दस्तावेज जारी किया था । इसमें प्रशासन के सात पहलुओं या तत्वों का उल्लेख किया गया था । जिनमें, से एक पारदर्शिता और सूचना भी था ।

सूचना के अधिकार का तर्क (Right to Information – Rationale):

सूचना का अधिकार निम्नलिखित कारणों से आवश्यक है:

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1. यह प्रशासन को जनता के प्रति अधिक उत्तरदायी बनाता है ।

2. यह प्रशासन और जनता के बीच की दूरी कम करता है ।

3. यह जनता को प्रशासनिक निर्णय-निर्माण से अवगत कराता है ।

4. यह लोकसेवकों द्वारा जनता तक उत्पादों और सेवाओं को बेहतर ढंग से पहुँचाने में मदद करता है ।

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5. यह प्रशासन की बुद्धिमत्तापूर्ण तथा सकारात्मक आलोचना को आसान बनाता है ।

6. यह प्रशासन में जनता की भागीदारी बढ़ाता है ।

7. प्रशासनिक निर्णय-निर्माण में स्वेच्छाचारिता को हतोत्साहित करके जनहित को प्रोत्साहित करता है ।

8. यह लोक प्रशासन में भ्रष्टाचार के अवसरों को घटाता है ।

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9. प्रशासन में खुलेपन और पारदर्शिता को बढ़ावा देकर यह जनतंत्र की विचारधारा को आगे बढ़ाता है ।

10. यह प्रशासन को जनता की आवश्यकताओं के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है ।

11. यह लोक सेवकों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग के अवसरों को कम करता है ।

सूचना के अधिकार के महत्व को विख्यात प्रशासनिक विचारकों तथा कर्त्ताओं ने इन कथनों से स्पष्ट किया है:

i. वुडरो विल्सन:

”मेरा एक विश्वास है कि सरकार को पूरी तरह बाहर (अर्थात खुला) होना चाहिए न कि अंदर (अर्थात बंद) । मैं अपनी ओर से यह मानता हूँ कि कोई जगह ऐसी नहीं होनी चाहिए जहाँ वो सब कुछ किया जा सके जिसके बारे में प्रत्येक व्यक्ति कुछ नहीं जानता हो ।” प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि भ्रष्टाचार गोपनीय स्थलों पर होता है और सार्वजनिक स्थलों की उपेक्षा करता है ।

ii. जेम्स मैडीसन:

”जो लोग अपने शासक बनना चाहते हैं उन्हें अपने आपको उस शक्ति से लैस रखना चाहिए जो ज्ञान प्रदान करता है । कोई भी लोकप्रिय सरकार सूचना या इसको प्राप्त करने के साधन के बिना एक ढोंग या त्रासदी या कदाचित दोनों है ।”

iii. लॉर्ड एक्टन:

”कोई वो चीज सुरक्षित नहीं जो चर्चा और प्रचार बर्दाश्त नहीं कर सकती ।”

iv. मेक्स वेबर:

”सुनिश्चित सत्ता की मूल प्रवृति के कारण नौकरशाही उस प्रत्येक प्रयास से लड़ती है जो अपने विशेषज्ञों के माध्यम से संसद जानकारी प्राप्त करने के लिए करती है ।”  और ”नौकरशाही स्वाभाविक रूप से ऐसी संसद का स्वागत करेगी जिसको जानकारी कम हो और अशक्त हो और कम से कम इतनी अज्ञानी तो हो ही कि वह नौकरशाही के हितों से सहमत हो सके ।”

v. संयुक्त राज्य अमेरिका के जस्टिस डगलस:

सरकार में गोपनीय मूलभूत रूप से जनतंत्र विरोधी है जो नौकरशाही की गलतियों को बनाए रखती है । सार्वजनिक मामलों पर पूरी जानकारी और बहस पर आधारित खुली चर्चा हमारे राष्ट्रीय स्वास्थ्य के लिए अतिमहत्वपूर्ण है ।

पारस कुहाद के शब्दों में सार यह है कि- ”गोपनीयता प्रणाली का सरोकार सार्वजनिक या राष्ट्रीय हित की सुरक्षा से उतना नहीं, जितना कि सरकार की प्रतिष्ठा को बचाने, अपनी गलतियों को दफन करने, अपनी शक्ति को अधिकतम बढ़ाने, अपनी भ्रष्ट करतूतों पर पर्दा डालने और नागरिकों को चालाकी से प्रबंधित करने से है ।”

vi. भूमण्डलीय परिदृश्य:

स्वीडन पहला ऐसा देश था जिसने सूचना के अधिकार को लागू किया । स्वीडन में यह अधिकार प्रत्यक्ष संवैधानिक प्रावधानों के द्वारा 1766 में नागरिकों को सौंपा गया । इस देश में सरकारी दस्तावेजों तक पहुँच एक अधिकार है तथा गैर पहुँच एक अपवाद है ।

स्वीडन के बाद स्केंडेनेवियन देशों में फिनलैण्ड ने काफी समय के बाद 1991 में सूचना के अधिकार को उपलब्ध कराने के लिए कानून बनाया । 1970 में डेनमार्क और नार्वे ने भी इसी प्रकार के कानून बनाये । संयुक्त राज्य अमेरिका ने सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम (1966) के द्वारा नागरिकों को सूचना का अधिकार प्रदान किया ।

इस अधिनियम को 1974 में दो प्रयोजनों से संशोधित किया गया:

(i) उन्मुक्तियों (ऐसे दस्तावेज जिन्हें प्रशासन गोपनीय रख सकता है ।) को सीमित करने तथा

(ii) सूचना उपलब्ध न कराने पर जुर्माना लगाने के लिए ।

फ्रांस, नीदरलैण्ड और आस्ट्रिया ने 1970 के दशक में इसी प्रकार के कानून बनाये । कनाडा, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड ने 1982 में सूचना अधिकार के लिए आवश्यक कानूनों का निर्माण किया । 1970 में थाईलैण्ड और आयरलैण्ड ने तथा 2000 में बुल्गारिया ने सम्बन्धित कानून लागू किए ।

दक्षिण अफ्रीका में सूचना के अधिकार की गारण्टी संविधान में ही निहित है । इस अधिकार को 2000 में बनाये गये एक कानून के द्वारा और अधिक मजबूत बनाया गया है । ब्रिटेन में फुल्टन समिति (1966 -68) ने लोक प्रशासन में अत्यधिक गोपनीयता को पाया ।

इसलिए इसने आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम 1911 की जाँच हेतु अपनी सिफारिश की । 1972 में फ्रेंक्स कमेटी ने भी इसी प्रकार की सिफारिशें की । अत: 1988 में इस अधिनियम को संशोधित कर दिया गया और अन्त में 1 जनवरी 2005 को ब्रिटेन में सूचना स्वतंत्रता अधिनियम अस्तित्व में आया ।

सूचना के अधिकार का भारत में स्थिति (Right to Information – Position in India):

भारत के संविधान में ऐसा कोई प्रत्यक्ष प्रावधान नहीं जो नागरिकों को सूचना का अधिकार प्रदान करता हो परंतु 1975 से सर्वोच्च न्यायालय यह कहता रहा है कि सूचना का अधिकार भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का अभिन्न अंग है जिसकी गारंटी भारत के संविधान की धारा 19 (1)(a) में दी गई है ।

भारत में सरकारी सूचना को जनता के सामने सार्वजनिक करने पर विभिन्न कानून और नियम प्रतिबंध लगाते हैं और इस प्रकार प्रशासन में गोपनीयता की हिमायत करते हैं:

(i) सरकारी गोपनीयता अधिनियम, 1923

(ii) भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872

(iii) जाँच आयोग अधिनियम, 1952

(iv) अखिल भारतीय सेवा अधिनियम, 1954

(v) केंद्रीय लोक सेवा (आचरण) नियम, 1955

(vi) रेलवे सेवा (आचरण) नियम, 1956

पाँचवे वेतन आयोग (1994-97) ने सिफारिश की सरकारी गोपनीयता अधिनियम को समाप्त कर देना चाहिए और सूचना अधिकार अधिनियम को लाना चाहिए । 2005 में संसद ने ‘सूचना अधिकार अधिनियम पारित’ किया ।

इसके विभिन्न प्रावधान ये हैं:

1. प्रत्येक नागरिक को यह सरकारी अधिकारियों के अधीन ऐसी सूचना को हासिल करने की स्वतंत्रता देता है जो जनहित से मेल खाती हो ।

2. नागरिकों को सूचना का अधिकार प्रदान करके इसका लक्ष्य प्रशासन में खुलेपन, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को प्रोत्साहित करना है ।

3. यह नागरिकों को अधिकार देता है कि वे विभिन्न योजनाओं, उनके कार्यान्वयन की अवस्था तथा अन्य संबंधित विवरण के बारे में सरकारी तंत्र से जानकारी हासिल कर सकें ।

4. नागरिकों के प्रार्थनापत्रों पर कार्यवाही करने के लिए एक अधिकारी की घोषणा करता है जिसका दर्जा उपजिलाधिकारी से कम न हो ।

5. इसमें कहा गया है कि किसी भी प्रकार की सूचना प्राप्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति कार्यक्रम अधिकारी को एक निर्दिष्ट प्रपत्र भर कर देगा जिस पर वह सूचना एकत्र करने के कारण लिखकर देगा/देगी ।

6. इसमें आशा की गई है कि सरकार नागरिकों से प्रार्थनापत्र लेने के 30 दिन के भीतर सूचना उपलब्ध करा देगी ।

7. यह प्रत्येक सरकारी अधिकारी को बाध्य करता है कि वह सूचना उपलब्ध कराए और विधिवत सूचीकृत, अनुक्रमित तथा प्रकाशित कार्यवाही संबंधी आवश्यकता के अनुकूल सारे अभिलेख बनाए रखे ।

8. यह घोषित करता है कि निम्नलिखित प्रवर्गों की सूचनाओं को प्रकट नहीं किया जा सकता है:

(i) वह सूचना जिससे भारत की प्रभुसत्ता एवं अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो ।

(ii) मंत्रिमंडल के कागजात से संबंधित ।

(iii) अनुशंसाओं और पत्र व्यवहार वाले अंतरिक कार्य संचालन संबंधी कागजात ।

(iv) जिस सूचना से संसद या राज्य विधायिका के विशेषाधिकार का हनन होता हो ।

(v) वह सूचना जिससे केंद्र और राज्य के परस्पर संबंध प्रभावित हों ।

(vi) वह सूचना जो सरकारी अधिकारियों के प्रबंधन तथा कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हो ।

(vii) व्यापारिक या वाणिज्यिक गोपनीयता से संबंधित सूचना ।

(viii) वह सूचना, जिससे सार्वजनिक सुरक्षा और व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो ।

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