भूमिगत जल प्रबंधन पर निबंध! Here is an essay on ‘Underground Water Management’ in Hindi language.
विशेषज्ञों का मानना है कि अगले कुछ दशकों बाद धरती पर पानी की जबर्दस्त किल्लत महसूस की जाएगी । जल बहुल क्षेत्र जल-विरल हो गए हैं और जल-विरल क्षेत्रों के सामने सूखे की स्थिति है । लेकिन जल संकट के कारण स्पष्टीकरण के रूप में दो विरोधाभासी आयाम हैं ।
एक बाजार का आयाम है तो दूसरा पारिस्थितिकीय आयाम है । बाजार का आयाम जलविरलता को जल व्यापार की अनुपस्थिति से उत्पन्न संकट मानता है । जल चक्र की पारिस्थितिकीय सीमाओं और गरीबी द्वारा तय की गयी आर्थिक सीमाओं को बाजारनिष्ठ अवधारणाएं नहीं मानतीं ।
जल के अत्यधिक दोहन और जलचक्र के विदोहन से अत्यधिक जलविरलता पैदा होती है । इसकी कोई भरपाई नहीं है । अविकसित देशों में रहने वाली तीसरी दुनिया की औरतों के लिए जल विरलता का मतलब जल की खोज में ज्यादा दूर तक जाना है ।
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किसानों के लिए इसका मतलब भुखमरी और असहाय होना है क्योंकि सूखा उनकी फसल नष्ट कर देता है । बच्चों के लिए इसका अर्थ निर्जलीकरण और मौत है । दरअसल निरंतर बढ़ती जनसंख्या की वजह से पानी की कमी महसूस की जा रही है ।
कुछ विशेषज्ञों का तो यहाँ तक कहना है कि अगर समय रहते पानी के संग्रह, उचित उपयोग, पुन: प्रयोग और बेहतर इस्तेमाल के कारगर उपाय नहीं किए गए तो अगला महायुद्ध पानी के लिए हो सकता है । भूमिगत जल पर हुए कुछ अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में इस बात पर बल दिया गया कि उचित जल प्रबंधन से सबको साफ पेयजल मुहैया कराया जा सकता है । यही टिकाऊ विकास का आधार हो सकता है ।
भारत में सभी प्राकृतिक स्रोतों से हर वर्ष लगभग 40 अरब धन मीटर पानी प्राप्त होता है । इसमें से 700 अरब घन मीटर पानी वाष्प के रूप में उड़ जाता है और 700 अरब घन मीटर जल जमीन सोख लेती है तथा इसका काफी बड़ा भाग, 1500 अरब घन मीटर समुद्र में बह जाता है ।
इस प्रकार सिर्फ 1,100 अरब घन मीटर पानी ही बचता है । इसमें से प्रतिवर्ष 430 अरब घन मीटर भू-जल की भरपाई में चला जाता है और 370 अरब घन मीटर भू-जल का ही इस्तेमाल हो पाता है । शेष रहता है 300 अरब घन मीटर जल जिसका संचयन संभव है ।
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हमारे देश में सौ दिनों से भी कम समय के अंतराल में 80 प्रतिशत से अधिक बरसात धरती पर उतरती है । वर्षा का अधिकांश जल सतह पर से बह जाता है । साल भर में औसतन चार हजार अरब घन मीटर बरसाती पानी भारत की जमीन पर उतरता है जिसमें सिर्फ 690 अरब घन मीटर पानी को उपयोग में लाया जाता है ।
इसके अतिरिक्त 450 अरब घन मीटर भूगर्भ जल संग्रह योग्य होता है । इस प्रकार भारत में कुल 1140 अरब घन मीटर पानी उपलब्ध है । हमारे देश में औसतन 2170 मि.मी. वार्षिक बरसात होती है । वर्षा ऋतु में पवन की जटिलता तथा पर्वत श्रृंखलाओं आदि के कारण बहुत से क्षेत्रों में बहुत कम वर्षा होती है ।
ऐसे प्रदेशों में जल की समस्या हमेशा ही बनी रहती है । वर्तमान समय में देश की जल की आवश्यकता 552 अरब घन मीटर है जो सन् 1015 में बढ्कर कृषि के लिए 250 अरब घन मीटर तथा गृह उपयोग पीने के लिए और विविध उपयोगों के लिए पानी की आवश्यकता 280 अरब घन मीटर हो जाएगी ।
अर्थात् 1140 अरब घनमीटर पानी की प्राप्यता के सामने सन् 2025 तक 1530 अरब घनमीटर पानी ही उपयोग हेतु उपलब्ध होगा अर्थात् प्रत्येक वर्ष 390 अरब घन मीटर पानी की कमी होगी । इतना जल संग्रहित करने के लिए 7200 बडे बांध बनाने पड़ेंगे ।
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आगामी वर्षों में इतने बांध बनाने तो असंभव ही लगते हैं इसलिए जरूरी है कि भूगर्भ संसाधनों को ही विकसित किया जाए । भू-गर्भ जल संग्रह के लिए पत्थर युक्त पथरीली जमीन में जल संग्रह अच्छी तरह से हो सकता है । वर्तमान समय में विश्व के 200 से अधिक राष्ट्र पानी की आवश्यकताओं के लिए भू-गर्भ जल स्रोत पर ही अवलंबित हैं ।
विश्व भर के डैम तालाब आदि मिलाकर उनमें 6000 धन किलोमीटर जल संग्रह शक्ति है । सन् 2007 तक विश्व के पीने गृह उपयोग । औद्योगिक उपयोग आदि को मिलाकर पानी की आवश्यकता 6050 घन किलोमीटर से भी ज्यादा हो जाने की पूरी संभावना है । इन्हीं कारणों से विश्व भर में भू-गर्भ जल संग्रह का मार्ग समृद्ध करना अति आवश्यक है ।
वर्तमान समय में बड़े-बड़े शहरों में भी जल आवश्यकता के अनुसार उपलब्ध नहीं है । राजधानी दिल्ली की दैनिक 650 मिलियन गैलन की जरूरत के सामने उसे मात्र 400 मिलियन गैलन पानी ही मिलता है, जबकि आर्थिक राजधानी मुम्बई की 750 मिलियन गैलन जरूरत के सामने कल 530 मिलियन गैलन पानी ही मिलता है ।
चेन्नई में दैनिक 100 मिलियन गैलन की जरूरत के सामने मात्र 55 मिलियन गैलन पानी मिल पाता है । हैदराबाद की दैनिक 160 मिलियन गैलन की आवश्यकता के सामने सिर्फ 60 मिलियन गैलन जल ही उपलब्ध है । अहमदाबाद की दैनिक 150 मिलियन गैलन की जरूरत के सामने 110 मिलियन गैलन जल ही मिलता है ।
कोलकाता की आवश्यकता है 300 मिलियन गैलन की लेकिन इस बडे शहर को 230 मिलियन गैलन ही उपलब्ध है । गर्म के दिनों में देश के मुख्य शहरों में प्रायः उपरोक्त स्थिति बनी रहती है । इन्हीं कारणों से देश के विभिन्न हिस्सों में जल-संघर्ष आम बात होती जा रही है ।
पृथ्वी पर अधिकांश जल की आपूर्ति भूमिगत जल द्वारा होती है । वर्तमान में संसार के विभिन्न देशों में सिचाई के लिए भूमिगत जल का प्रयोग किया जा रहा है । शुष्क तथा अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में जहाँ सतही जल संसाधनों की कमी है, वहाँ भूमिगत जल का महत्व और भी अधिक है ।
भारत में 60 प्रतिशत कृषि क्षेत्र भूमिगत जल द्वारा सिंचित होता है । भूमिगत जल के अत्यधिक शोषण से प्रतिकूल पारिस्थितिक परिणाम अनेक देशों में परिलक्षित हो रहे हैं । संयुक्त राज्य अमेरिका, आस्ट्रेलिया मैक्सिको, लीबिया, इजराइल आदि देशों में जल-स्तर बहुत गिर गया है, लवण युक्त जल का अन्तर्वेधन, भूतल का अवनमन आदि अन्य दुष्परिणाम प्रकट हो रहे हैं ।
भू-गर्भ जल भडार गतिशील है तथा उसे पुन: प्राप्त किया जा सकता है । भारत में 1934 से अधिकांश बडे स्तर पर कुओं का उपयोग होने लगा था । 1960 के दशक से भू-गर्भ जल को सिंचाई के एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में गिना जाने लगा। देश की 50 प्रतिशत से ज्यादा सिंचाई भू-गर्भ जल से होती है ।
इसके अलावा हमारे गृह उपयोग और औद्योगिक उपयोगों के लिए जल की आपूर्ति भू-गर्भ के भंडार से ही होती है । देश में सर्वप्रथम सौराष्ट्र के लोगों ने बरसाती पानी को रोककर, उसका संग्रह कर भूतल में उतारकर, भू-गर्भ जल-स्तर ऊंचा उठाने के व्यापक प्रयोग किए ।
इन प्रयोगों से जो सफलता प्राप्त हुई, उससे पूरे देश का ध्यान केन्द्रित हुआ है । अलग विस्तारों से प्राप्त बरसाती पानी का पूरे देश में औसतन 50 प्रतिशत जल भंडार है । केरल तथा कर्नाटक की नदियों में यह भंडार 80 से 85 प्रतिशत है । किन्तु तमिलनाडु में इस तरह बह जाने वाले पानी का भंडार मात्र 12 प्रतिशत ही है ।
इसका कारण यह है कि तमिलनाडु में प्राचीन समय से परम्परागत रूप से बरसाती पानी का संग्रह किया जाता है । सिर्फ मदुरै जिले में जमीन में ऊपर जल संग्रह करने हेतु 30,000 जलाशय हैं । भारत जैसे 100 करोड़ की जनसंख्या वाले देशों में आज तक कुल 1622 अरब घन मीटर जल संग्रह वाले जलाशयों का निर्माण किया जा चुका है, जबकि अमेरिका में जमीन पर 700 अरब घन मीटर जल संग्रह क्षमता युक्त संग्रह स्थानों का निर्माण किया गया है ।
जल ग्रहण क्षेत्र का तात्पर्य उस समूचे क्षेत्र से है जिसमें वर्षा का पानी एक ही निकास से बाहर निकले । जल ग्रहण क्षेत्र की धारणा बड़े पैमाने पर नदी तंत्र पर लागू होती है क्योंकि प्रत्येक नदी का जल एक निश्चित क्षेत्र से ही आता है और उस नदी द्वारा उस क्षेत्र से बाहर निकल जाता है ।
जल ग्रहण क्षेत्र, प्रबंधन की उपलब्धता और आवश्यकता को पूरे वर्ष के अंतराल में पारम्परिक संबंध को दर्शाता है । साथ ही उस क्षेत्र में निरंतर कृषि प्रक्रियाओं के कारण प्राकृतिक संसाधनों के सामयिक क्षरण को भी प्रदर्शित करता है । पर्यावरण में संतुलन रखने और भूमि एवं जल संसाधनों के समुचित उपयोग के लिए जल ग्रहण क्षेत्र प्रबंधन एक अद्वितीय पद्धति के रूप में विकसित हो रहे है । इस वर्षा जल की व्यवस्था ठीक उसी प्रकार की जाती है जिस प्रकार प्रकृति स्वयं ही वनस्पतियों से आच्छादित वनों की करती है ।
जल ग्रहण क्षेत्र प्रबंधन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से एक अति उपयोगी प्रक्रिया है जिसमें वर्षा जल के संभरण द्वारा भूजल स्तर ऊपर उठता है तथा स्थानीय तालाबों, पोखरों और झीलों में भंडारण तथा गाद विहीन जल का निकास सुरक्षात्मक तरीके से होता है ।
इसके अतिरिक्त जल ग्रहण क्षेत्र प्रबंधन इन प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन करके उसमें होने वाली गुणवत्ता की कमी को रोकता है । इन क्रियाओं में कृत्रिम जलाशयों द्वारा वर्षा जल का संभारण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । इस प्रक्रिया में जलवायु और वर्षा की विभिन्नता को ध्यान में रखते हुए वर्षा – अतिरिक्त जल तालाबों तथा पोखरों में एकत्रित कर लिया जाता है और वर्षा के अभाव में या जल माँग होने पर इसका उपयोग किया जाता है ।
भारत के जिन क्षेत्रों में वार्षिक औसत 800 मिलीमीटर से अधिक वर्षा होती है वहाँ तालाब के आकार से 30 गुने बड़े जलग्रहण क्षेत्र में पड़ने वाला 50 प्रतिशत पानी भी यदि संभाल लिया जाए और वार्षिक 2 मीटर वाष्पीकरण के क्षरण का हिसाब रखे तब भी 10 मीटर गहराई वाला तालाब भरा रहेगा ।
जहाँ वर्ष में सिर्फ 200 मिलीमीटर वर्षा होती है और वाष्पीकरण की गति 4 मीटर प्रतिवर्ष होती है वहाँ अगर जलग्रहण क्षेत्र तालाब के आकार से 50 गुना बडा हो और उसमें पडने वाला 60 प्रतिशत पानी जमा हो सके तो इस तालाब में 8 मीटर तक पानी भरा जा सकता है ।
इस व्यवस्था से कुल 9 करोड़ हैक्टेयर मीटर प्रति वर्ष जल एकत्रित किया जाता है जो हमारे देश में पड़ने वाली वर्षा का लगभग 25 प्रतिशत है और जो वर्तमान में उपलब्ध उपयोगी कुल जलराशि से कहीं अधिक है । बजट में काफी धन आबंटित किया जाता है । इसके साथ-ही-साथ जल संरक्षण में ग्रामीण लोगों को भी शामिल करने का प्रयास किया जा रहा है । स्वच्छ पेयजल की शुद्धता की जांच के लिए जिला स्तर पर प्रयोगशालाएँ खोली जायेगी । इसके लिए बजट 2006-07 में 213 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था ।
राजीव गांधी राष्ट्रीय पेय जल मिशन का उद्देश्य 100 और उससे अधिक की जनसंख्या वाली सभी ग्रामीण आबादियों को विशेष रूप से वे जिन तक पहुँच नहीं हो पाती कवरेज दिया जाना है ताकि प्रणालियों और सोती की चिर बहाली सुनिश्चित हो सके और जल की गुणवत्ता की समस्या से निपटा जा सके और जल ग्रहण क्षेत्र दृष्टिकोण के माध्यम से जल की गुणवत्ता की मॉनीटरिंग और निगरानी को संस्था का रूप दिया जा सके ।