मानवाधिकार पर निबंध! Here is an essay on ‘Human Rights’ in Hindi language.

विकास के प्रारम्भिक दौर में मानव को अपने अधिकारों का ज्ञान न था । उस समय जो बलशाली होते थे, बे जाने-अनजाने में दूसरों के अधिकारों का हनन करते थे ।

धीरे-धीरे शिक्षा और सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव का मन-मस्तिष्क भी परिष्कृत होता गया और अधिकार बोध के साथ-साथ उसमें अधिकारों को पाने की लालसा भी जाग उठी और तब मानव ने अपनी बुद्धि और विवेक से ‘खुद जियो औरों को भी जीने दो’ का सिद्धान्त गढ़ा । अब वह दूसरों की खुशी में खुश होना और दूसरों के दुख में रोना सीख चुका था ।

‘नजीर बनारसी’ दूसरों की पीड़ा से व्याकुल होकर कह उठते हैं-

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”हर तबाही मुझे अपनी ही नजर आती है,

कोई रोता है उदासी मेरे घर छाती है ।”

मानवाधिकार वे मूलभूत अधिकार हैं, जिनका उपयोग करने के लिए प्रत्येक नागरिक अधिकृत है । जीवन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, जीविकोपार्जन का अधिकार, वैचारिक स्वतन्त्रता का अधिकार, समानता का अधिकार धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार जैसे मूलभूत अधिकार मानवाधिकार  का ही अन्तर्गत आते हैं ।

विश्व के अधिकांश देशों में ये अधिकार संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए गए है । भारत में भी संविधान के भाग तीन के अनुच्छेद-14 से लेकर 35 के द्वारा नागरिकों को विभिन्न प्रकार के अधिकार दिए गए है । एमनेस्टी इण्टरनेशनल मानवाधिकारों की रक्षा को विश्वभर में सुनिश्चित करने वाली एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था है, जिसका मुख्यालय लन्दन में है ।

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वैसे तो मानवाधिकारों की अवधारणा का इतिहास बहुत पुराना है, पर इसकी वर्तमान अवधारणा द्वितीय विश्वयुद्ध के विध्वंस के परिणामस्वरूप तब विकसित हुई, जब वर्ष 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को स्वीकृत किया ।

मानवाधिकारों का उल्लेख प्राचीन भारतीय अन्यों जैसे- ‘मनुस्मृति’, हितोपदेश’, ‘पंचतन्त्र’ तथा ‘प्राचीन यूनानी दर्शन’ आदि में भी मिलता है । यद्यपि 1215 ई. में इंग्लैण्ड में जारी किए गए मैकग्नाकार्टा में नागरिकों के अधिकार का उल्लेख था, पर उन अधिकारों को मानवाधिकार की संज्ञा नहीं दी जा सकती थी ।

1525 ई. में जर्मनी के किसानों द्वारा प्रशासन से मांगे गए अधिकारों की 12 धाराओं को यूरोप में मानवाधिकारों का प्रथम दस्तावेज कहा जा सकता है । 1789 ई. में क्रास की राज्य क्रान्ति के परिणामस्वरूप वहाँ की राष्ट्रीय सभा ने नागरिकों के अधिकारों की घोषणा की ।

फलस्वरूप विश्व में समानता, उदारता एवं बन्धुत्व के विचारों को बल मिला । 19वीं शताब्दी में ब्रिटेन एवं अमेरिका में दास प्रथा की समाप्ति के लिए कई कानून बने और 20वीं शताब्दी के आते-आते मानवाधिकारों को लेकर कई विश्वव्यापी सामाजिक परिवर्तन हुए, जिसके अन्तर्गत बालश्रम का विरोध प्रारम्भ हुआ एवं विभिन्न देशों में महिलाओं को चुनाव में मतदान का अधिकार मिला ।

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1864 ई. में हुए जेनेवा समझौते से अन्तर्राष्ट्रीय मानवतावादी सिद्धान्तों को बल मिला एवं संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के समय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों की मान्यता की बात की गई । 10 दिसम्बर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र सध की महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा की ।

इसकी प्रस्तावना में कहा गया है- चूंकि मानवाधिकारों के प्रति उपेक्षा और घृणा के फलस्वरूप हुए बर्बर कार्यों के कारण मनुष्य की आत्मा पर अत्याचार हुए । अतः कानून द्वारा नियम बनाकर मानवाधिकारों की रक्षा करना अनिवार्य है । इसके प्रथम अनुच्छेद में स्पष्ट उल्लेख है कि सभी मनुष्यों को गौरव और अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतन्त्रता और समानता प्राप्त है ।

उन्हें बुद्धि और अन्तरात्मा की देन प्राप्त है और उन्हें परस्पर भाईचारे के भाव से बर्ताव करना चाहिए । इसके बाद अनुच्छेद-2 में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को इस घोषणा में सन्निहित स्वतन्त्रता और सभी अधिकारों को प्राप्त करने का हक है और इस मामले में जाति, वर्ण, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीति या अन्य विचार प्रणाली, किसी देश या समाज विशेष में जन्म, सम्पत्ति या किसी प्रकार कीं अन्य मर्यादा आदि के कारण भेदभाव नहीं किया जाएगा ।

इसके अतिरिक्त, चाहे कोई देश या प्रदेश स्वतन्त्र हो, संरक्षित हो या स्वशासन रहित हो अथवा परिमित प्रभुसत्ता बाला हो, उस देश या प्रदेश की राजनीतिक, क्षेत्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति के आधार पर वहाँ के निवासियों के प्रति कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा । अनुच्छेद-3 में वर्णित है कि ‘प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वाधीनता और वैयक्तिक सुरक्षा का अधिकार है ।’

अनुच्छेद-4 के अनुसार, ‘किसी को भी गुलामी या दासता की हालत में नहीं रखा जाएगा, गुलामी प्रथा और गुलामों का व्यापार अपने सभी रूपों में निषिद्ध होगा ।’ अनुच्छेद-5 में कहा गया है कि ‘किसी को न तो शारीरिक यातना दी जाएगी और न ही किसी के प्रति निर्दय, अमानुषिक या अपमानजनक व्यवहार अपनाया जाएगा ।’

ऐसे ही कई आवश्यक एवं महत्वपूर्ण मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा इसके कुल 30 अनुच्छेदों में की गई है । मानवाधिकारों से सम्बन्धित यह घोषणा कोई कानून नहीं है । इसके कुछ अनुच्छेद वर्तमान तथा सामान्य रूप से मानी जाने वाली अवधारणाओं के प्रतिकूल है ।

फिर भी इसके कुछ अनुच्छेद या तो कानून के सामान्य नियम हैं या मानवता की सामान्य धारणाएँ । इस घोषणा का अप्रत्यक्ष रूप से कानूनी प्रभाव है तथा संयुक्त राष्ट्र सब की महासभा एवं कुछ कानून के ज्ञाताओं के मतानुसार यह संयुक्त राष्ट्र का कानून है ।

वर्ष 2013 में पाकिस्तान के कारागृह में मौत की सजा काट रहे भारतीय कैदी सरबजीत सिंह पर वहीं के कैदियों द्वारा जानलेवा हमला किए जाने पर, जिसके कारण बाद में अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई थी, पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग ने बयान जारी कर कहा था- ”कोई भी यह नहीं मानेगा कि मौत की सजा भुगत रहे कैदी सरबजीत पर जेल के सुरक्षाकर्मियों और अधिकारियों की मिलीभगत के बिना कैदियों द्वारा इतना बर्बर हमला किया जा सकता है ।”

इसमें पूर्व भी वर्ष 2011 में पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग ने रिपोर्ट जारी कर कहा था कि पाकिस्तान में हिन्दुओं-सिखों की दशा अत्यन्त दयनीय है । आयोग ने वर्ष 2010 को अल्पसंख्यकों के लिए बेहद खराब बताया था । महिला शिक्षा प्रचार-प्रसार से जुड़ी पाकिस्तानी किशोरी मलाला यूसुफजई को, जिस पर तालिबानी आतंकवादियों ने जानलेवा हमला किया था, मानवाधिकार के क्षेत्र में उत्कृष्ट उपलब्धियों के लिए वर्ष 2013 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार पुरस्कार प्रदान किया गया । यह पुरस्कार पूर्व में दक्षिण अफ्रीका के दिबगत जननेता श्री नेल्सन मन्डेला को भी दिया गया था ।

भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन 12 अक्तूबर, 1993 को किया गया । यह आयोग किसी पीड़ित व्यक्ति या उसकी ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा मानवाधिकारों के अतिक्रमण या किसी लोक सेवक द्वारा इस प्रकार के उल्लंघन की अनदेखी करने के सम्बन्ध में प्रस्तुत याचिका की जाँच करता है ।

यह न्यायालय में मानवाधिकार से सम्बन्धित मामलों में दखल, कैदियों की दशा का अध्ययन और उचित संस्तुति, मानवाधिकार से जुड़ी अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों या अन्य प्रपत्रों का अध्ययन तथा प्रकाशन, संचार माध्यमों, सेमिनार या अन्य साधनों द्वारा समाज के विभिन्न वर्गों में मानवाधिकारों की शिक्षा का प्रसार करता है ।

यह आयोग अभियोग या जाँच के लिए आवश्यक सूचनाएँ व दस्तावेज प्राप्त करने के लिए किसी संस्थान का दौरा कर सकता है या किसी संस्थान में प्रवेश कर सकता है । किसी शिकायत की जाँच पूरी होने के बाद आयोग उचित कार्रवाई या उसकी संस्तुति कर सकता है ।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अतिरिक्त भारत के कई प्रान्तों में मानवाधिकारों से सम्बन्धित मामलों की सुनवाई के लिए राज्य मानवाधिकार आयोगों का भी गठन किया गया है । वर्ष 2009 से अप्रैल, 2012 तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को कैदियों के साथ मानवाधिकार के हनन की सर्वाधिक शिकायतें (दो हजार से भी अघिक) उत्तर प्रदेश राज्य से मिली ।

उसके बाद क्रमशः बिहार, पंजाब, महाराष्ट्र, राजस्थान एवं दिल्ली का स्थान था ।  जनतन्त्र की अवधारणा मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने की बढ़ती हुई आवश्यकताओं से जुड़ी हुई है । इसके बिना न तो व्यक्तित्व का विकास सम्भव है और न ही सुखी जीवन व्यतीत कर पाना । मानवाधिकार के अभाव में जनतन्त्र की कल्पना निरर्थक है ।

अन्तर्राष्ट्रीय संगठन ह्यूमन राइट्‌स बॉच की 175 देशों में मानवाधिकार की स्थिति का जायजा लेने वाली एक रिपोर्ट में भारत के बारे में कहा गया है कि यहाँ महिलाओं, बच्चों एवं आदिवासियों के मानवाधिकार से जुड़ी समस्याएँ ज्यादा हैं । मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि इसका मूल कारण सभी प्रान्तों में मानवाधिकार आयोग का न होना है ।

अतः भारत में मानवाधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए इसके सभी प्रान्तों में मानवाधिकार आयोग का गठन अनिवार्य है । मानव परिवारों के सभी सदस्यों के जन्मजात गौरव, सम्मान तथा अविच्छिन्न अधिकार की स्वीकृति ही विश्व-शान्ति, न्याय और स्वतन्त्रता की बुनियाद है ।

अतः सम्पूर्ण मानवता की रक्षा के लिए विश्व समुदाय को खुलकर मानवाधिकारों की रक्षा करनी चाहिए । हमें कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की पंक्ति को सर्वदा याद रखना चाहिए ”जो जीवन में दूसरों के प्रति न अपने अधिकार मानता है और न कर्तव्य, वह पशु समान है ।”

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