मेरी प्रिय फिल्म पर निबंध! Here is an essay on ‘My Favourite Movie’ in Hindi language.

मुझे फिल्में देखना बहुत पसन्द है । मैंने आज तक सैकड़ों फिल्में देखी हैं । राजकपूर, देवानन्द एवं दिलीप कुमार जैसे पुराने अभिनेताओं से लेकर वर्तमान नायकों आमिर खान, सलमान खान तक की फिल्में मैंने देखी हैं ।

अमिताभ बच्चन की ‘शोले’, सलमान खान की ‘हम आपके है कौन’, आमिर खान की ‘थ्री इडियट्स’, ऋषि कपूर की ‘हिना’, सैफ अली खान की ‘लव आजकल’ जैसी फिल्में मुझे काफी अच्छी लगीं ।

इसके अतिरिक्त वर्तमान फिल्मों में ‘जय हो’, ‘किक’ एवं ‘हाई-वे’ भी मेरी पसन्दीदा फिल्में हैं । मेरी प्रिय फिल्मों की सूची लम्बी है । इनमें से कौन सबसे अच्छी है, इसका चुनाव करना मेरे लिए काफी मुश्किल है, किन्तु इन सभी फिल्मों में फिल्म ‘दोस्ती’ को मैं अपनी सबसे प्रिय फिल्म कहूं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।

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राजश्री प्रोडक्शन द्वारा निर्मित यह फिल्म कहानी, गीत-संगीत, अभिनय हर पैमाने पर बिल्कुल खरी उतरती है । ‘दोस्ती’ फिल्म वर्ष 1964 में रिलीज हुई थी । इसमें संजय खान, लीला चिटनिस, सुधीर कुमार, सुशील कुमार, बेबी फरीदा जलाल इत्यादि कलाकारों ने अभिनय किया है ।

सुधीर कुमार एवं सुशील कुमार मुख्य भूमिका में हैं । इस फिल्म के गीत मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखे हैं तथा संगीत दिया था लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल ने । इस फिल्म का निर्देशन सत्येन बोस ने किया था ।

फिल्म ‘दोस्ती’ कीं कहानी इस प्रकार है- रामू (सुशील कुमार) अपने माँ-बाप की इकलौती सन्तान है, जो ‘माउथ ऑर्गन’ बजाने में माहिर एवं पढ़ाई-लिखाई में तेज है । उसके पिताजी एक फैक्ट्री में काम करते हैं । काम करते हुए एक दिन उनकी मौत हो जाती है ।

इसी दु:ख में रामू की माँ की स्थिति नाजुक हो जाती है और सीढ़ियों से गिरने के कारण वह घायल हो जाती है । रामू माँ के इलाज के लिए डॉक्टर के पास जाता है, इस बीच बह भी दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है और उसका एक पैर खराब हो जाता है । उधर उसकी माँ भी नहीं बचती ।

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रामू को अपनी दुनिया उजड़ती-सी नजर आती है । वह दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो जाता है । इसी बीच रामू की भेंट गोपाल (सुधीर कुमार) से होती है । दृष्टिहीन गोपाल अपनी बिछुड़ी हुई बहन की तलाश में है और गुजारे के लिए उसे भीख माँगनी पड़ती है ।

माउथ ऑर्गन बजाते हुए रामू भी उसके साथ हो जाता है । दोनों मिलकर गीत गाते है, जिससे आकर्षित एवं प्रसन्न होकर लोग उन दोनों को काफी पैसा देते हैं । इन पैसों से रामू पुन: अपनी पढ़ाई शुरू करने में सफल जाता है ।

रामू एवं गोपाल की दोस्ती एक मिसाल है । दोनों कभी एक-दूसरे से अलग होने की सोच भी नहीं सकते । एक दिन उन्हें सड़क पर मीना, जो गोपाल की बहन है, मिल जाती है, लेकिन मीना गोपाल को पहचानने से इनकार कर देती है ।

मीना को डर है कि कहीं उसका अमीर मंगेतर (संजय खान) यह जानकर कि उसका भाई एक भिखारी एवं अन्धा है, उसे छोड़ न दे । इससे गोपाल को बहुत दु:ख पहुँचता है । मीना पेशे से एक डॉक्टर है, वह मंजू, (बेबी फरीदा जलाल) का इलाज कर रही है ।

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मंजू, जो उसके मंगेतर की बहन है, एक गम्भीर बीमारी से ग्रस्त है । कोई उपचार मंजू को नहीं बचा पाता । इस मौत से मीना को बहुत दु:ख पहुंचता है । इस दु:ख में जब उसे अपने भाई की याद आती है, तब वह उससे क्षमा माँगने पहुंच जाती है ।

उधर रामू पुलिस की गलतफहमी का शिकार होकर गिरफ्तार कर लिया जाता है । उसके बाद उसे बाल सुधार गृह भेज दिया जाता है, जहाँ से उसे मास्टर जी अपना दत्तक पुत्र बनाकर ले जाते हैं, लेकिन वे उसके गोपाल से मिलने पर पाबन्दी लगा देते हैं, क्योंकि उन्हें अपने पुत्र का एक अन्धे लड़के से मिलना अच्छा नहीं लगता ।

इस बीच गोपाल भी अपनी बहन के पास चला जाता है । दोनों मित्र एक-दूसरे से अलग होकर काफी दु:खी होते हैं । वे दोनों बार-बार मिलने की कोशिश करते हैं, लेकिन उन्हें मिलने नहीं दिया जाता ।

अन्ततः दोनों के गम को देखकर उनके परिजनों का दिल पसीज जाता है और वे उन्हें मिलने देते हैं । इस तरह दोनों दोस्त फिर एक हो जाते हैं । ‘दोस्ती’ फिल्म दो दोस्तों के मिलने, बिछुड़ने एवं फिर मिलने की कहानी है ।

यह हिन्दी सिनेमा की पहली ऐसी फिल्म थी, जो प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम पर आधारित न होने के बावजूद सुपरीह्म रही थी । राजश्री प्रोडक्शन की फिल्मों की सबसे बड़ी विशेषता उनका संगीतमय एवं पारिवारिक होना होता है ।

दोस्ती भी ऐसी ही फिल्म है । ‘दोस्ती’ कहानी, गीत-संगीत एवं अभिनय के दृष्टिकोण से भी एक उम्दा फिल्म है । दोस्ती के सभी गाने कुछ-न-कुछ सीख देते हैं । उदाहरणस्वरूप यह गाना ही लीजिए-

“राही मनवा दुःख की चिन्ता क्यूँ सताती है, दुःख तो अपना साथी है

सुख है इक छाँव ढलती, आती है जाती है, दुःख तो अपना साथी है

दूर है मंजिल दूर सही, प्यार हमारा क्या कम है

पग में कटि लाख सही, पर ये सहारा क्या कम है

हमराह तेरे कोई अपना तो है

सुख है इक छांव ढलती, आती है जाती है, दुःख तो अपना साथी है ।”

महान् पार्श्व गायक मुहम्मद रफी का गाया हुआ यह गीत अपने मधुर संगीत से दशकों का न सिर्फ मनोरंजन करता है, बल्कि जीवन के बारे में शिक्षा भी देता है । दु:ख-सुख जीवन के दो रंग हैं, इनका आना-जाना तो लगा ही रहता है, किन्तु एक अच्छा दोस्त यदि मिल जाए, तो न सिर्फ दु:ख को काटना आसान हो जाता है, बल्कि सुख का आनन्द भी दोगुना हो जाता है ।

उपरोक्त गाने के अतिरिक्त इस फिल्म में और भी कई गाने हैं, जो न सिर्फ कर्णप्रिय हैं बल्कि आज भी लोगों को पसन्द हैं । इस फिल्म के सदाबहार गीत ‘कोई जब राह न पाए’, ‘चाहूंगा मैं तुम्हें साँझ सवेरे’, ‘जाने बालों जरा मुड़कर देखो इधर’ भी लोगों द्वारा उतने ही सुने जाते हैं, जितने कल सुने जाते थे, आज ये सभी गाने कुछ-न-कुछ सीख भी देते हैं ।

सिनेमा तमी सार्थक होता है, जब यह अपने उद्देश्यों में सफल रहता है । ‘दोस्ती’ हर दृष्टिकोण से अपने उद्देश्यों में सफल फिल्म है । इसलिए यह मेरी सबसे प्रिय फिल्म है ।

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