राजपूत राजवंश के पतन पर निबंध | Essay on Decline of Rajput Dynasty in Hindi.
राजपूत जाति के लोग अत्यन्त वीर और पराक्रमी योद्धा होते थे । अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये वे युद्ध-क्षेत्र में वीरगति प्राप्त करना बड़े सौभाग्य की बात समझते थे । परन्तु इन गुणों के बावजूद वे मुसलमानों से देश की रक्षा कर सकने में असफल रहे और उन्होंने देश की स्वाधीनता को विदेशियों के हाथों सौंप दिया ।
राजपूतों का पतन किसी कारण विशेष का परिणाम नहीं था, अपितु विभिन्न कारणों ने इस दिशा में अपना योगदान दिया । उनकी पराजय का सबसे पहला कारण यह था कि उस समय देश में राजनीतिक एकता की कमी थी । राजूपतों के छोटे-छोटे कई राज्य थे । ये परस्पर संघर्ष किया करते थे । प्रत्येक महत्वाकांक्षी शासक अपने पड़ोसियों पर आक्रमण कर उन्हें परास्त करने की चेष्टा किया करता था ।
प्रत्येक राजपूत कुल अपने वंश को ही महत्व देता था । शासन का स्वरूप सामन्तवादी होने के कारण वास्तविक शक्ति सामन्तों के हाथों में होती थी जो केन्द्रीय शक्ति की निर्बलता का लाभ उठाका स्वतन्त्र होने की ताक में रहते थे । आम जनता राजनीतिक विषयों से उदासीन रहती थी । देश की रक्षा करना वह अपना कर्त्तव्य नहीं समझती थी । ऐसी स्थिति में शासक का पतन अवश्यम्भावी था ।
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राजपूतों की पराजय के लिये उनकी सेना तथा सैनिक संगठन भी उत्तरदायी है । राजपूत सेना में पैदल सिपाही तथा हाथियों की संख्या अधिक थी और अच्छे घोड़ों की कमी थी । मुसलमान सैनिक लड़ाई की नयी-नयी पद्धतियों से परिचित थे तथा उनके घोड़े और घुड़सवार दोनों ही राजपूतों से कही अधिक अच्छे होते थे । राजपूत सेना के हाथी कभी-कभी बिगड़ कर अपनी ही सेना में भगदड़ पैदा कर देते थे ।
राजपूत सिपाही तलवार, भाला, बर्छी आदि के द्वारा युद्ध करते थे जबकि मुस्लिम सैनिक तीर चलाने में पटु थे । मुसलमानों की सेना में राजपूत सेना से अच्छे सेनापति रहते थे । राजपूत लोग धर्म-युद्ध करते थे जिसके अनुसार युद्ध से भागते हुए शत्रु का पीछा न करना, शरण में आये हुये को अभयदान करना, घायल शत्रु पर वार न करना आदि उनका कर्त्तव्य था ।
इससे शत्रुओं को और अधिक शक्ति तथा उत्साह के साथ दुबारा आक्रमण करने का मौका मिल जाता था । मुस्लिम सेना राजपूतों की सेना की अपेक्षा अधिक संगठित एवं अनुशासित थी । राजपूत सैनिक सामन्तों द्वारा दिये गये होते थे जिनमें पेशेवर सिपाहियों की संख्या अधिक होती थी । अतः उनमें एकरूपता नहीं आ पाती थी ।
राजपूतों का सामाजिक संगठन दोषपूर्ण होने से भी उन्हें बहुत बड़ी हानि उठानी पड़ी । तत्कालीन समाज में जाति-पाँति, छुआ-छूत एवं ऊँच-नीच की भावनायें अत्यन्त प्रबल थीं । वर्ण-व्यवस्था के अनुसार शासन एवं देश की रक्षा का भार केवल क्षत्रिय जाति पर था । अतः सैनिक केवल इसी जाति से चुने जाते थे ।
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समाज का बहुत बड़ा भाग देश की रक्षा की ओर से उदासीन था । इसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता की भावना का लोप हो गया तथा मुसलामानों को सम्पूर्ण भारतीयों की जगह कुछ राजवंशों से ही युद्ध, करना पड़ा । ऐसी स्थिति में उनकी सफलता निश्चित थी । इसके अतिरिक्त राजपूतों में अनेक दुर्गुण थे जैसे- मदिरापान, द्यूतक्रीड़ा, बहुविवाह आदि जिससे उनके जीवन का नैतिक स्तर गिर रहा था ।
अतः उनमें मुसलमानों के समान न तो साहस ही था ओर न जोश ही । तत्कालीन हिन्दू धर्म भी राजपूतों को सैनिक दृष्टि से निर्बल बना रहा था । जहां उन पर एक ओर बौद्ध और जैन धर्मों के अहिंसा-सिद्धान्त का प्रभाव पड़ा, वहीं कर्मवाद, भाग्यवाद, अनेक अन्धविश्वास आदि ने मिलकर हिन्दुओं की सैनिक शक्ति को कुण्ठित कर दिया था ।
वे अत्यन्त भाग्यवादी हो चुके थे जिससे आत्मविश्वास की भावना लगभग समाप्त हो गयी । आम जनता मुस्लिम शासन में त्रस्त होते हुए भी उसे अपने पूर्व संचित कर्मों का फल मानकर कष्ट भोगने के लिये तत्पर हो गयी और उसने उनका विरोध करना अपना कर्त्तव्य नहीं समझा ।
इसके विपरीत चूंकि मुसलमान पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते थे, अतः वे उत्साहपूर्वक युद्ध करते थे । उन्होंने ‘जेहाद’ का नारा दिया । इस प्रकार उनकी सेना में जीवनशक्ति अधिक थी । राजपूतों के विरुद्ध मुसलमानों की सफलता का एक प्रबल कारण यह था कि तुर्क विजेता अपने राजपूत प्रतिद्धियों की तुलना में अधिक योग्य और अनुभवी थे ।
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सुबुक्तगीन, महमूद गजनी, मुहम्मद गोरी, कुतुबुद्दीन ऐबक आदि अपने समकालीन राजपूत शासकों-जयपाल, भीम, भोज, पृथ्वीराज, जयचन्द्र आदि की अपेक्षा उच्चकोटि के सेनानायक थे । उनमें सैनिक संगठन तथा संचालन की योग्यता राजपूत राजाओं की अपेक्षा कहीं अधिक थी । राजपूत शासकों से युद्ध-क्षेत्र में भयंकर भूलें हो जाती थीं ।
पृथ्वीराज ने मुहम्मद गोरी को तराइन के प्रथम युद्ध में पराजित कर देने के बाद भी उसका वध नहीं किया और उसे भाग जाने दिया । इस भूल का फल यह हुआ कि उसे अपनी शक्ति संगठित करने का अच्छा मौका मिल गया जिसका फल पृथ्वीराज को तुरन्त भुगतना पड़ा । कभी-कभी राजपूतों को दुर्भाग्यपूर्ण संयोग का भी सामना करना पड़ा ।
जिस समय जयपाल ने सुबुक्तगीन के राज्य पर आक्रमण किया उस समय राजपूत सेना की विजय निश्चित थी । परन्तु इसी बीच राजूपत सेना पर भारी बर्फ एवं ओले पड़े जिससे अनेक सैनिक मौत के शिकार हुए और जो बचे उनका उत्साह भंग हो गया । फलस्वरूप उसे अत्यन्त अपमानपूर्ण शर्तों पर सन्धि करनी पड़ी ।
इसी प्रकार जिस समय पंजाब के हिन्दू शासक आनन्द पाल का महमूद गजनवी से युद्ध चल रहा था, उस समय राजपूतों की सफलता लगभग निश्चित थी । दुर्भाग्यवश उसका हाथी बारूद की आग से भड़क कर भागा । फलस्वरूप उसकी सेना में खलवली मच गयी और वह पीछे लौट पड़ी ।
महमूद ने दो दिनों तक उनका पीछा किया और बिना प्रयास के ही उसकी विजय हो गयी । इसी प्रकार जयचन्द्र की आँख में अचानक तीर लग जाने से उसकी सेना पराजित हुई । कुछ अन्य स्थान भी ऐसे ही हैं जहां आकस्मिक कारणों से ही राजपूतों को मुँह की खानी पड़ी । इस प्रकार की घटनायें यदि मुसलमानों के साथ हुई होतीं तो इतिहास का स्वरूप कुछ दूसरा होता ।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि राजपूतों की पराजय अनेक कारणों से संभव हुई । राजपूतों ने कभी भी आक्रमणात्मक युद्ध नहीं किया । बार-बार तुर्कों का आक्रमण होने पर भी उन्होंने समस्त भारतीय राजाओं को संगठित कर उनके विरुद्ध स्थायी तौर से संयुक्त मोर्चा बनाने का प्रयास नहीं किया ।
आक्रमणकारियों के वापस चले जाने पर वे देश की सुरक्षा की ओर से निश्चित हो जाते थे और व्यक्तिगत झगड़ों में पुन उलझ पड़ते थे । उनमें दूरदर्शिता एवं कूटनीतिज्ञता का घोर अभाव रहा । अतः उनका पतन अवश्यंभावी था ।