विभिन्नता में एकता पर निबंध | Essay on Unity in Diversity in Hindi language!
भारत एक विशाल देश है जहाँ प्राकृतिक एवं सामाजिक स्तर की अनेक विषमतायें दृष्टिगोचर होती है । एक ओर उत्तुंग शिखर है तो दूसरी ओर नीचे मैदान है, एक ओर अत्यन्त उर्वर प्रदेश तो दूसरी ओर विशाल रेगिस्तान है । यहाँ सभी प्रकार की जलवायु पाई जाती है तथा प्राणियों एवं वनस्पतियों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है ।
कुछ भागों में घनघोर बर्मा होती है तो कुछ भाग नाममात्र की वर्षा प्राप्त करते हैं । भारत में विश्व के प्रायः सभी प्रमुख धर्मों के लोग निवास करते है । यहाँ के लोगों की भाषायें भी भिन्न-भिन्न है । ये समस्त विषमतायें किसी भी बाहरी पर्यवेक्षक को खटक सकती है तथा उसे यह सदेह हो सकता है कि भारत एक देश न होकर छोटे-छोटे खण्डों का विशाल समूह है जहाँ प्रत्येक की अपनी अलग- अलग संस्कृति है ।
किन्तु इन प्राकृतिक एवं सामाजिक स्तर की विभिन्नताओं के मध्य एकता की एक अविच्छन्न कड़ी है जिसकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते । हर्बर्ट रिजले ने उचित ही लिखा है ‘भारत में अनेक प्राकृतिक एवं सामाजिक विविधताओं, भाषा, प्रथाओं तथा धार्मिक विभिन्नताओं के बीच हिमालय से कन्याकुमारी तक एक निश्चित आधारभूत समरूपता अब भी देखी जा सकती है । वस्तुत: यहाँ एक समान भारतीय चरित्र एवं व्यक्तित्व है जिसे हम घटकों में विभाजित नहीं कर सकते ।’
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भारतीय संस्कृति की यह आधारभूत एकता हमें निम्नलिखित स्वरूपों में देखने को मिलती है:
i. भौगोलिक एकता:
प्रकृति ने भारत को एक विशिष्ट भौगोलिक इकाई प्रदान की है । उत्तर हिमालय पर्वत एक ऊँची दीवार के समान इसकी रक्षा करता है । इसके पूर्व, पश्चिम एवं दक्षिण में विशाल सागर है । देश की इन प्राकृतिक सीमाओं ने यहाँ के निवासियों के मस्तिष्क में समान मातृभूमि के निवासी होने का भाव जागृत किया तथा उन्होंने इस समस्त भूमिखण्ड को ‘भारतवर्ष’ की संज्ञा से विभूषित किया ।
इस विशाल भूखण्ड में समान संस्कृति विकसित हो सकी । जिस जाति के पास अपनी सुनिश्चित भूमि नहीं होती उसकी कोई भी सभ्यता विकसित नहीं हो पाती । बर्बर एवं खानाबदोश जातियाँ कभी भी संस्कृति का विकास नहीं कर पाती है । हिंदुओं की संस्कृति के विकास में सबसे बड़ी बाधा यही रही कि उनकी कोई सुनिश्चित भूमि नहीं थी । भूमि का देश के लिये वही महत्व है जो मनुष्य के लिये उसके शरीर का होता है ।
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राष्ट्र निर्माण के तत्वों में भूमि सर्वप्रधान एवं महत्वपूर्ण है । अतः भारतीय संस्कृति के विकास के लिये प्रथमतः समान भूमि का तत्व ही उत्तरदायी रहा है । भारत के निवासियों ने प्रारम्भ में ही उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्रतट तक के विशाल भूखण्ड को अपनी मातृभूमि माना है ।
प्राचीन साहित्य में स्थान-स्थान पर इस एकता के दर्शन होते हैं । विष्णु पुराण में स्पष्टतः वर्णित है- ‘समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में जो भूखण्ड है वह भारतवर्ष है तथा वहीं की सन्तानें भारतीय हैं ।’ भूमि की यह एकता भारतीय संस्कृति के लिये सबसे बड़ा वरदान सिद्ध हुई है । इसी ने भारतीय संस्कृति को बचाये रखा है, अन्यथा घटनाओं के तूफान में सब कुछ नष्ट हो गया होता ।
यही देश की मौलिक एकता का सबल आधार है । अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त में ‘भूमि माता है तथा मैं पुत्र हूँ’ (माताभूमि पुत्रोंद्हम् पृथिव्या) कहकर देशप्रेम के भारतीय दृष्टिकोण को स्पष्टत व्यक्त किया गया है । भूमि की तुलना एक ऐसी ‘धेनु’ (गाय) से की गयी है जो अपनी विभिन सन्तानों को भाषा, धर्म एवं विश्वास में विभिन्नता के होते हुए भी समभाव से दुग्धपान कराती है ।
ii. राजनैतिक एकता:
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भारत-भूमि की एकता की इस अवधारणा ने राजनैतिक एकता को प्रोत्साहन प्रदान किया । यहाँ के महान सम्राटों ने इसे चरितार्थ करने का सफल प्रयास किया । प्राचीन ग्रन्थों में सम्राटों के लिये एकराट्, राजाधिराज, सार्वभौम जेसे विरुदों का प्रयोग मिलता है ।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में ‘हिमालय से लेकर समुद्रतट तक विस्तृत सहस्त्रयोजन भूमि को चक्रवर्ती सम्राट का क्षेत्र बताया है । राजसूय, धाजपेय, अश्वमेध जैसे वैदिक यज्ञों के अनुष्ठान का विधान चक्रवर्ती सम्राटों के लिये किया गया है ।
प्राचीन इतिहास के प्रतिनिधि महान् सम्राटों, जैसे चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, विक्रमादित्य आदि के मस्तिष्क में एकता का यही आदर्श रहा तथा उन्होंने अपनी विजयों द्वारा इसे यथार्थ रूप में प्राप्त भी किया । प्राचीन साहित्य में राजशासन विषयक सभी मान्यतायें इस बात की पुष्टि करती हैं कि हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक का विशाल भूखण्ड एक है ।
iii. सांस्कृतिक एकता:
भौगोलिक तथा राजनैतिक एकता के साथ ही साथ हमें भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म, भाषा एवं साहित्य तथा सामाजिक परम्पराओं की एकता भी दिखाई देती है । प्राचीन साहित्य में भारत को सात नदियों-गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु तथा कावेरी-एवं सात पवित्र नगरियों- अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, काञ्ची, अवन्तिका तथा द्वारावती- कीं भूमि मानकर प्रार्थना करने का उपदेश दिया गया ।
स्नान के समय श्लोक पढ़कर सात नदियों का आवाहन किया जाता था । इनके अन्तर्गत प्राय: समस्त भारतीय आ जाता है । हिन्दू धर्म में तीर्थयात्रा के द्वारा भी पुण्यार्जन का विधान है । महाभारत के वनपर्व में वर्णन मिलता कि “तीर्थों में जाने का पुण्य यज्ञों से भी अधिक है । जो पुण्य बहुत दक्षिणा वाले अग्निष्टोमादि यज्ञों को करने से भी नहीं मिलता वह तीर्थ में जाने से प्राप्त होता है” ।
इस अवधारणा ने भी भारतीय एकता को सुदृढ़ किया । प्रत्येक धर्म में तीर्थस्थलों की जो सूची मिलती है वे किसी क्षेत्र विशेष में सीमित न होकर सम्पूर्ण देश में फैले हुए थे । उत्तर के निवासियों के लिये सुदूर दक्षिण के तीर्थ उतने ही श्रद्धेय थे जितने कि दक्षिण के निवासी उत्तरी तीर्थों को मानते थे । पुराणों के अनुसार चार तीर्थ माने गये थे- पूर्व में श्वेत गंगा, पश्चिम में गोमती कुण्ड (द्वारका स्थित गोमती नदी), उत्तर में तप्तकुण्ड (बदरी नाथ स्थित) तथा दक्षिण में धनुषतीर्थ ।
इसी प्रकार चार विशाल सरोवर- पम्पासर, बिन्दुसर, नारायणसर तथा मानसरोवर देश की चारों दिशाओं में स्थित थे । भारत के विभिन्न भागों में एकता स्थापित करने के उद्देश्य से ही महान् दार्शनिक शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की थी ।
ये उत्तर में बदरीकेदारनाथ, दक्षिण में शृंगेरी (मैसूर) पूर्व में पुरी उड़ीसा तथा पश्चिम में द्वारका में स्थित थे । ये मठ समस्त देश की हिन्दू जनता के लिये समान रुप से पवित्र एवं पूजनीय रहे । हिन्दू इन तीर्थों की यात्रा कर आज भी अपने को धन्य मानते है । मनुस्मृति तथा भागवत पुराण में भारत को देवनिर्मित देश कहा गया है । महाकवि कालिदास ने हिमालय को देवतात्मा कहा है । देश के सभी जनों ने इस देवत्व को स्वीकार किया ।
विष्णु पुराण में भारत भूमि की प्रशंसा करते हुये कहा गया है “धन्य है वे लोग जो भारत-भूमि में उत्पन्न हुये है । यहाँ की भूमि स्वर्ग से भी बढ्कर है क्योंकि यहाँ स्वर्ग के साध-साथ अपवर्ग (मोक्ष) की भी साधना होती है, देवता भी स्वर्ग का सुख भोग लेने के बाद मोक्ष की साधना के लिये भारत में पुन जन्म लेते हैं ।” भारतीय परम्परा में जननी तथा जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढ्कर बताया गया है (जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी) ।
राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’ में गुरुकुल से लौटने के पश्चात् सम्पूर्ण भारत भूमि का पर्यटन छात्र के व्यक्तित्व के सर्वाड्गीणि विकास के लिये परमावश्यक बताया गया है । ऐसे उल्लेख निश्चयत: भारतीयों के मन में जन्मभूमि के प्रति महती श्रद्धा को सुदृढ करते है ।
धर्म के क्षेत्र में हम पाते है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश, लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवताओं एवं देवियों की पूजा समूचे देश में की जाती थी । सन्त, महात्माओं, धर्मोपदेशकों आदि के द्वारा इस धार्मिक एकता की पुष्टि हुई । शंकर, रामानुज आदि का पूरे देश में सम्मान था । दार्शनिक विचारों में भी समरूपता मिलती है ।
ज्ञान, भक्ति, उपासना, कर्म सम्बधी विचार पूरे देश के दर्शन में मिलते है । यह सही है कि भारत में भाषाओं की विविधता है । किन्तु भारतीय भाषाओं की लिपियों का उद्गम ब्राह्मी लिपि से हुआ है । सभी भाषायें संस्कृत से उद्भूत अथवा प्रभावित हैं । इसमें लिखित साहित्य प्राचीन भारतीय ज्ञान का भंडार । संस्कृत भाषा वस्तुतः भारतीय संस्कृति की वाहिका है ।
वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि का पठन-पाठन सम्पूर्ण देश में होता रहा है । लौकिक साहित्य भी एकता के साधन रहे है । कालिदास का काव्य समस्त देश का गौरव है । पन्चतंत्र की कथायें, नीतिग्रन्थ, सुवाषित-साहित्य का पूरे देश में प्रचार-प्रसार था । पाणिनि, पतंजलि आदि के ग्रन्थ कश्मीर से कन्याकुमारी तक शिक्षा के समान माध्यम थे ।
प्राचीन भारत के विश्वविद्यालयों में देश के प्रत्येक कोने से विद्यार्थी एकत्र होकर इस तथ्य की पुष्टि करते थे कि विविधताओं के होते हुये भी भारत देश एक है । देश की मौलिक एकता को प्रोत्साहन देने में कला का भी योगदान रहा है । ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, बुद्ध तीर्थड्कर आदि की प्रतिमायें सम्पूर्ण देश में प्राय: एक ही लक्षण तथा मुद्रा में प्राप्त होती है ।
इन्हें देखने से ऐसा लगता है कि समान कलाकारों द्वारा ये निर्मित हुई है । कला के कुछ माँगलिक प्रतीकों यथा-स्वस्तिक, धर्मचक्र, कमल, पूर्णघट आदि को सम्पूर्ण देश में मान्यता प्रदान की गयी थी । पाषाण एवं गुहा स्थापत्य में भी क्षेत्रीय विशेषताओं के साथ-साथ समान भारतीय तत्व परिलक्षित होते हैं ।
भारतीय सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में भारी विषमताओं के बावजूद हमें एक प्रकार की एकता के दर्शन होते हैं । वर्णाश्रम धर्म, संस्कार, पुरुषार्थ आदि सभी समाजों के लिये आदर्श स्वरूप रहें हैं जिन्हें स्थापित एवं प्राप्त करने के निमित्त न्यूनाधिक रूप में सर्वत्र प्रयास हुए हैं ।
वर्णाश्रम धर्म तो हिन्दू संस्कृति का आधार-स्तम्भ है । भौतिक सुख एवं वैभव के प्रति भारतीयों का दृष्टिकोण प्राय: समान रहा है । धर्म के अनुसार धन का उपार्जन, उससे अपना तथा कुटुम्ब का पोषण, योग्य पात्रों को दानादि एवं अन्य धार्मिक कार्यों में उसका व्यय ही धन के प्रति भारतीयों का दृष्टिकोण रहा है । आर्थिक संगठन एवं संस्थायें भी प्रायः सम्पूर्ण देश में समान थीं ।
एक भाग के व्यापारी एवं व्यवसायी दूसरे भाग में जाते तथा धंधा करते थे । इन सबका राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने में योगदान रहा । व्यापारियों के पारस्परिक लेन-देन में राज्यों की सीमायें बाधक नहीं होती थीं । राज्यों एवं राजाओं के परिवर्तन होते रहने पर भी आर्थिक ढाँचा प्रायः एक समान बना रहा ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में वाह्य एवं दृश्यमान विषमताओं के मध्य एक सारभूत मौलिक एकता है जिसकी कोई भी उपेक्षा नहीं कर सकता । यह विभिन्नता में एकता ही भारतीय संस्कृति की सर्वप्रमुख विशेषता हैं ।