सामन्तवाद पर निबंध! Here is an essay on ‘Feudalism’ in Hindi language.

Essay # 1. सामन्तवाद उद्‌भव तथा विकास (Emergence and Development of the Feudalism):

पूर्व मध्यकालीन समाज का बहुचर्चित विषय ‘सामन्तवाद’ रहा है जिसके उद्‌भव तथा विकास पर आधुनिक युग के अनेक सामाजिक-आर्थिक इतिहासकारों ने अपने विचार प्रकट किये है । ‘सामन्त’ शब्द का उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ‘स्वतन्त्र पड़ोसी’ के अर्थ में किया गया है ।

सर्वप्रथम अश्वघोष (प्रथम शती) ने बुद्धचरित में इस शब्द का प्रयोग जागीरदार के लिये किया है । गुप्तकाल से सामन्त शब्द का प्रयोग सामान्यतः इसी अर्थ में किया जाने लगा । सामन्तवाद का अंकुरण शक-कुषाण काल में हुआ तथा राजपूत काल तक आते-आते यह समाज में पूर्णतया प्रतिष्ठित हो गया ।

बी. एन. एस. यादव के अनुसार शाक-कुषाण युग में हमें सामन्तवाद के न केवल राजनीतिक अपितु सामाजिक तथा आर्थिक कारक भी स्पष्ट रूप से देखने को मिलते है । जैन ग्रन्थ कालकाचार्य कथानक से पता चलता है कि शक सम्राट ‘षाहानुषाहि’ कहे जाते थे तथा उनकी अधीनता में कई सामन्त (षाहि) होते थे । कुषाण सम्राटों की ‘राजाधिराज’ उपाधि भी सामन्तवादी व्यवस्था की सूचक है ।

ADVERTISEMENTS:

पश्चिमी भारत के शक शासकों में ‘महाक्षत्रप’ तथा क्षत्रप की उपाधियों प्रचलित थी । कालान्तर में गुप्त सम्राटों ने इन्हीं के अनुकरण पर महाराजाधिराज की उपाधि धारण की । इस प्रकार गुप्तकाल तथा इसके बाद राजनीतिक क्षेत्र में सामन्तवाद पूर्णतया प्रतिष्ठित हो गया । भारत में सामन्तवाद के उद्‌भव तथा विकास के लिये राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक परिस्थतियों ने उपयुक्त आधार प्रदान किया ।

वाह्य आक्रमणों के कारण केन्द्रीय सत्ता निर्बल पड़ गयी तथा चतुर्दिक अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गयी । केन्द्रीय शक्ति की निर्वलता ने समाज में प्रभावशाली व्यक्तियों का एक ऐसा वर्ग तैयार किया जिन पर स्थानीय सुरक्षा का भार आ पड़ा । अव्यवस्था के युग में सामान्यजन अपनी जान-माल की सुरक्षा के लिये उनकी ओर उन्मुख हुआ ।

उल्लेखनीय है कि इन्हीं परिस्थितियों में मध्यकालीन यूरोप में भी सामन्तवाद का अभ्युदय हुआ था । अरवी तथा तुक के आक्रमण ने शक्तिशाली राजवंशों को धराशायी कर दिया । फलस्वरूप उत्तर भारत में कई छोटे-छोटे राजवंशों का उदय हो गया । इससे सामन्ती प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला ।

सामन्तवाद के विकास में प्राचीन भारतीय ‘धर्मविजय’ की अवधारणा का भी योगदान रहा । इसके अन्तर्गत विजेता सम्राट विजित राजा के राज्य को जीत लेने के पश्चात् उस पर अपना अधिकार नहीं करता था अपितु उससे भेंट-उपहारादि प्राप्त कर विजित राजा को अपनी अधीनता में राज्य करने का अधिकार दे देता था ।

ADVERTISEMENTS:

इस नीति को ‘ग्रहणमोक्षानुग्रह’ कहा गया है । विजित राजाओं को अपने सम्राट को सभी कर देना पड़ता था, उसकी आज्ञाओं का पालन करना पड़ता था तथा उसके प्रति निष्ठा सूचित करने के लिये राजसभा में उपस्थित होना पड़ता था । समुद्रगुप्त के प्रयाग लेख में सामनों के इन कर्तव्यों का उल्लेख मिला है ।

गुप्त सम्राटों की धर्मावजयी नीति के फलस्वरूप उत्तर भारत में विभिन्न सामन्त कुलो जैसे- मौखरि, परिव्राजक, सनकानीक, वर्मन्, मैत्रक आदि का उदय हुआ । इन वंशों के शासक ‘महाराज’ की उपाधि धारण करते थे जबकि गुप्त सम्राट ‘महाराजाधिराज’ कहा जाता था । गुप्त साम्राज्य के पतनीपरान्त कई सामन्त वंशों ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी तथा ‘महाराजधिरान’ बन बैठे ।

कुछ बड़े सामन्त अपने अधीन छोटे सामन्त रखने लगे जिसमें यह प्रथा व्यापक आधार प्राप्त करने लगी । बाण के हर्षचरित में भी चर्चा हुई है जहां बताया गया है कि हर्ष ने अपने महासामन्तों को अपना चरक (कर देने वाला) बना लिया था (करदीकृत महासामन्त) ।

सम्राट अधीन राजाओं की प्रजा से कर न लेकर उन सामंतों से ही लेता था । गुप्तकाल तथा उसके बाद से शासकों की विजय का उद्देश्य अधिक से अधिक सामन्त शासक तैयार कर उनसे करादि बटोरना हो गया । इस प्रवृत्ति ने भी सामन्तवाद को प्रोत्साहित किया ।

ADVERTISEMENTS:

सामन्तवाद के विकास में आर्थिक कारक भी सहायक सिद्ध हुए । इसके सामाजिक- आर्थिक कारक शक-कुषाण युग में स्पष्ट होने लगते हैं । इस समय ग्रामों में ग्राम-पतियों का एक सम्पन्न वर्ग उठ खड़ा हुआ जिसकी अधीनता में निर्धन किसानों का वर्ग था । इसके साथ ही विदेशी जातियों ने कुलीन शासकवर्ग का स्थान ग्रहण कर लिया ।

इस प्रकार स्वामी-सामन्त सम्बन्धों का विकास हुआ । किन्तु कुषाण युग की आर्थिक प्रगति ने सामन्तों मनोवृत्ति पर अंकुश लगाया तथा उसका प्रभाव व्यापक नहीं हो सका । गुप्तकाल के पश्चात् राजनीतिक उथल-पुथल के वातावरण में व्यापार-वाणिज्य का पतन हुआ 600 से 1000 ई. के मध्य हमें व्यापारिक संघों की मुहरें नहीं मिलती तथा सिक्के मिश्रित धातु आकार-प्रकार के मिलते है ।

इससे सूचित होता है कि इस समय वाणिज्य पर अधारित अर्थव्यवस्था का पतन हो गया था । अहिच्छत्र तथा कौशाम्बी जैसे नगरों की खुदाई और हुएनसांग के विवरण से प्रमाणित होता है कि उत्तर-भारत के अनेक नगर वीरान हो चुके थे ।

नगरीय जीवन के ह्रास के फलस्वरूप अर्थ-व्यवस्था मुख्यतः भूमि और कृषि पर निर्भर हो गयी । कृषि के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदलने लगा । इसकी झलक हमें तत्कालीन ग्रन्थों में मिलती है जहाँ कृषि को सभी वर्षणों के सामान्य व्यवसाय के रूप में निरुपित किया गया है ।

बृद्धहारीत में इसे सभी वर्णों का ‘सामान्य धर्म’ बताया गया है (कृषिस्तु सर्ववर्णानाम् सामान्यों धर्म उच्यते) । पराशर स्मृति में उल्लिखित है कि कलियुग में कृषि सभी वर्णों का समान व्यवसाय बन जायेगी । भूमि तथा कृषि के प्रति इस दृष्टिकोण के फलस्वरूप विभिन्न वर्णों के लोगों ने अधिकाधिक भूमि प्राप्त करने का प्रयास किया । इस प्रकार समाज में भू-सम्पन्न कुलीनवर्ग का आविर्भाव हुआ ।

बहुसंख्यक शूद्र तथा श्रमिक जीविका के लिये उनकी ओर उन्मुख हो गये । भूस्वामियों को अपने खेतों पर काम करने के लिये श्रमिकों की आवश्यकता थी, अतः उन्होंने उनका अधिकाधिक उपयोग किया । आर्थिक-परिवर्तन की इस प्रक्रिया ने सामन्तवाद के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।

ग्यारहवीं-बारहवीं शती में आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार हुआ । हमें सिक्कों के अधिकाधिक प्रचलन तथा व्यापार-वाणिज्य के पुनरुत्थान के प्रमाण मिलते हैं । किन्तु जैसा कि प्रो. यादव ने स्पष्ट किया है ‘यह आर्थिक विकास भारत में सामन्तवाद की गति को नहीं रोक सका, अपितु सामन्तवाद ने ही अपने को तत्कालीन आर्थिक परिवेश के अनुकूल बना लिया ।

सामन्तवाद के विकास में शासकों द्वारा प्रदत्त भूमि तथा ग्राम अनुदानों का प्रमुख योगदान रहा है । मौर्योत्तर काल, विशेषतया गुप्तकाल से शासन की ग्रक्र प्रवृत्ति ब्राह्मणों तथा अधिकारियों को भूमिदान में दिये जाने की हुई । जो भूमि ब्राह्मणों को दान में दी जाती थी उसे ‘ब्रह्मादेय’ कहा गया है ।

महाभारत, धर्मशास्त्र तथा पुराणों में ऐसे दान की प्रशंसा की गयी है तथा इसे लोक और परलोक में पुण्य प्राप्ति का साधन बताया गया है । भूमिदान सबन्धी सर्वप्रथम उल्लेख शक-सातवाहन लेखों में मिलता है । शक शासक उषावदात के लेखों में उसके द्वारा दिये गये ग्राम तथा भूमिदान की चर्चा है । सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र शातकर्णि के एक लेख से पता चलता है कि उसने बौद्ध भिक्षुओं को ग्राम दान में दिये थे ।

राज्य दानग्राहकों को दान में दी गयी भूमि से प्राप्त आय देने के साथ-साथ उन्हें वहाँ के प्रशासन तथा न्याय का भी अधिकार दे देता था । किन्तु दूसरी शती तक इस प्रकार के अज्ञानों की संख्या सीमित थी तथा राज्य अब भी आय के कुछ साधनों पर अधिकार रखता था ।

गुप्तकाल से हम भूमि संबंधी अनुदानों में वृद्धि पाते है । इस काल से दान में दी गयी भूमि में स्थित चारागाहों, खानों, निधियों, विष्टि (बेगार) आदि राजस्व के समस्त साधनों को दानग्राही को साँप देने की प्रथा प्रारम्भ हो गयी । वाकाटक क नरेश प्रवरसेन द्वितीय (पाँचवीं शती) की चमक प्रशस्ति से इसकी सूचना मिलती है ।

आर. एस. शर्मा., जिन्होंने सामन्तवाद के उदय तथा विकास का गहन अध्ययन किया है, की मान्यता है कि भारत में सामन्तवाद का उदय राजाओं द्वारा ब्राह्मणों और प्रशासनिक तथा सैनिक अधिकारियों को भूमि तथा ग्राम दान में दिये जाने के कारण हुआ । पहले ये अनुदान केवल ब्राह्मणों को ही धार्मिक कार्यों के लिये दिये जाते थे । आफ्रिन

यद्यपि प्रो. शर्मा इन्हें ही सामन्तवाद के उत्कर्ष का प्रमुख कारण निरूपित करते है, किन्तु जैसा कि प्रो. यादव ने बताया है ‘ब्राह्मणों को दी गयी भूमि जो मुश्किल से एक गाँव से अधिक रही होगी, राजनीतिक सामन्तवाद का स्थायी आधार नहीं हो सकती थी, विशेषकर ऐसे समय में जबकि दानग्राही धार्मिक तथा बौद्धिक प्रयोजनों में संलग्न रहे हों ।’

कोई भूमि अनुदान ऐसा नहीं मिलता जिससे पता चले कि दानग्राही व्यक्ति सामन्त या राजा बन गया हो । ब्राह्मण भूस्वामी हो सकता था किन्तु सामन्त नहीं । किसी भी भूमि अनुदान पत्र-धार्मिक तथा लौकिक, में सामन्ती अनुबन्ध, जैसे-सेना रखना, सम्राट के सामने उपस्थित होना (आत्म निवेदन) आदि की चर्चा नहीं मिलती है ।

इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि सामन्तवाद के विकास में धर्मेतर अनुदानों का ही हाथ रहा है, धार्मिक अनुदानों का नहीं और यह स्पष्टतः प्रवृत्ति थी । हर्षकाल तथा उसके याद से प्रशासनिक और अधिकारियों को उनकी सेवाओं के बदले में भूमिखण्ड दिये जाने की प्रथा सर्वमान्य हो गयी ।

मनुस्मृति में राजस्व अधिकारियों को भूमिदान के रूप में वेतन देने की संस्तुति की गयी है । तदनुसार ‘दस ग्रामों का स्वामी एक बीस ग्रामों का स्वामी पाँच कुल, सौ ग्रामों का स्वामी एक ग्राम तथा हजार ग्रामों का स्वामी एक नगर को अपने के लिये प्राप्त करेगा ।’ गुप्तकालीन स्मृतियों में भी इसका उल्लेख मिलता है ।

गुप्तलेखों से यह स्पष्ट नहीं होता कि राजकर्मचारियों को जागीरें दी जाती थीं अथवा नहीं, किन्तु हर्षकाल से इस वात के निश्चित सकेत मिलते है कि भूमि अनुदान न केवल धार्मिक कार्यों, अपितु राज्य की सेवा के लिये भी दिये जाते थे । हुएनसांग इसका स्पष्ट उल्लेख करता है । वह हमें बताता है कि राजस्व का चतुर्थाश बड़े-बड़े अधिकारियों के उपभोग के लिये सुरक्षित था ।

प्रत्येक गवर्नर, मंत्री, मजिस्ट्रेट तथा अधिकारी को अपना व्यक्तिगत खर्च चलाने के लिये जमीन दी गयी थी । हर्ष के लेखों में राज्य के बड़े-बड़े अधिकारियों के लिये सामन्त तथा महासामन्त जैसी उपाधियों का प्रयोग मिलता है । पुलकेशिन् द्वितीय के ऐहोल लेख से पता चलता है कि हर्ष की सेना में बड़े-बड़े ऐश्वर्यशाली सामन्त सम्मिलित थे (अपरिमित विभूस्फीत-सामन्त-सेना) ।

बाणभट्ट ने सामन्तों के कर्त्तव्यों का उल्लेख किया है । हर्षचरित में कहा गया है कि हर्ष ने महासामंतों को अपना करद वना लिया था (करदीकृत महासामन्त) । बाण ने मणितारा के शिविर में सर्वप्रथम जब हर्ष से भेंट की तो वहाँ उससे मिलने के लिये कई सामन्त प्रतीक्षा में बैठे हुए थे ।

हर्षकाल तक आते-आते सामन्त शब्द का प्रयोग भूस्वामियों, अधीन राजाओं तथा उच्च प्रशासनिक पदाधिकारियों के लिये किया जाने लगा था । कादम्बरी तथा हर्षचरित दोनों में सामन्तों द्वारा सम्राट के प्रति की जाने वाली सेवाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है । हर्षकाल में भूमिदानों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी थी ।

‘जीवनी’ से पता चलता है कि हर्ष ने उड़ीसा में जयसेन नामक बौद्ध भिक्षु को 80 गाँव दान में दिये थे । नालन्दा महाविहार के निर्वाह के निमित्त 100 गाँवों का अनुदान दिया गया था । हर्षचरित में छ: प्रकार के सामन्तों का उल्लेख मिलता है- सामन्त, महासामन्त, आप्त सामन्त, प्रधान सामन्त, शत्रुमहासामन्त तथा प्रति सामन्त । साधारण कोटि के भूस्वामियों को सामन्त कहा जाता था । महासामन्त बड़े भूस्वामी तथा अधिकारी होते थे । हर्ष के लेखों में महासामन्त स्कन्दगुप्त तथा ईश्वरगुप्त के नाम मिलते है ।

शत्रु सामन्त से तात्पर्य पराजित किये गये शत्रु सरदारों से है । स्वेच्छया सम्राट की अधीनता स्वीकार करने वाले लोग आप्त सामन्त कहे जाते थे । प्रधान सामन्त सम्राट के सर्वाधिक विश्वासपात्र व्यक्ति होते थे जिनके परामर्श की उपेक्षा वह नहीं कर सकता था । प्रतिसामन्त से तात्पर्य संभवतः विरोधी सामन्तों से है ।

इससे स्पष्ट है कि सामन्त शब्द अत्यन्त व्यापक हो गया था । सामन्तों का एक प्रमुख कर्तव्यों अपने स्वामी के लिये युद्ध के समय सेना जुटाना होता था । हर्ष की सेना अधिकांशतः सामन्तों द्वारा ही प्रदान ही गयी थी । हर्षचरित से पता चलता है कि सैनिक अभियान के समय हर्ष अपनी सेना की विशाल संख्या को देखकर आश्चर्यचाकत रह गया था ।

इन सबसे स्पष्ट है कि हर्षकाल में सम्राट की शक्ति का क्रमशः ह्रास हो रहा था तथा केन्द्रीय सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो चुका है । यही कारण है कि इस काल के सिक्के बहुत कम मिलते है । हर्षोत्तर अर्थात राजपूत काल में सामन्तवाद अपने उत्कर्ष की सीमा पर पहुँच गया । राजपूतों के राज्य कई छोटी-छोटी जानते में बँटे थे तथा प्रत्येक का शासक एक सामन्त होता था ।

इन जागीरों का उदय, सामन्तों एवं राज्याधिकारियों को भूमि अनुदान में दिये जाने के फलस्वरूप हुआ । नवीं शती से ऐसे अनुदानों की चर्चा अनेक अभिलेखों में भी मिलती है । राज्य के अधिकारियों तथा कर्मचारियों को उनकी सेवाओं के वदले भूमिखण्ड दिये जाने का सिद्धान्त इस समय सर्वमान्य हो गया । ऐसे अनुदान सैनिक अधिकारियों को भी प्रदान किये जाते थे ।

बुन्देलखण्ड में चन्देल राजाओं ने अपने अधिकारियों को बहुत अधिक भूमि अनुदान में दिये थे । चन्देल लेखों में ऐसे अनुदानों का उल्लेख मिलता है । परमर्दि के लेखों से पता चलता है कि ये अनुदान सैनिक सेवा के लिए भी दिये जाते थे । परमर्दि ने अपने सेनापति अजयपाल को एक पग भूमि अनुदान में दिया था ।

एक अन्य लेख से ज्ञात होता है कि 1171 ई. में उसने सेनापति मदनपाल को एक समूचा गाँव अनुदान में दिया था । इस प्रकार की भूमि सभी प्रकार के करों से मुक्त होती थी । परमार वंश के लेखों में ऐसे सरदारों तथा सामन्तों का उल्लेख मिलता है जिन्हें अनुदान रूप में बड़े-बड़े भूखण्ड प्रदान किये गये थे ।

भोज परमार ने नासिक में यशोवर्मा नामक अपने सामन्त को 1500 गाँव अनुदान में दिये थे । वह महासामन्त था और अपने अधीन कई सामन्त रखता था । इसी प्रकार के अनुदान चाहमान, चौलुक्य, गहड़वाल आदि राजवंशों ने भी प्रदान किये थे । राजपरिवार के व्यक्तियों को भी उनके निर्वाह के लिये भूमि-खण्ड ही दिये जाते थे । भूमि अनुदान में पाने वाले अधिकारियों की स्थिति धीर-धीरे सामन्तों जैसी हो गयी ।

राजपूत काल में सामन्तों की संख्या में बहुत अधिक वृद्धि हुई । चाहमान शासक पृथ्वीराज के अधीन 150, कलचुरि कर्ण के अधीन 136 तथा चौलुक्य कुमारपाल के अधीन 72 सामन्तों के अस्तित्व का पता लगता है । इस प्रकार राजपूत शासक वस्तुतः अपने सामन्तों पर ही शासन करते थे, न कि अपनी प्रजा के ऊपर । सामन्तों का प्रशासन पर महत्वपूर्ण प्रभाव था ।

सामन्तों के प्रभाव के कारण शासक अपने मन्त्रियों की सलाह की भी उपेक्षा कर बैठते थे । बारहवीं शताब्दी में लिखित ग्रन्थों में सामन्तों तथा राज्याधिकारियों को वेतन के रूप में भूमिखण्ड दिये जाने के सिद्धान्त का समर्थन किया गया है । इसके पहले के साहित्य में अधिकांशतः धार्मिक कार्यों के लिये ही अनुदान स्वरूप भूमि दिये जाने का वर्णन मिलता है ।

किन्तु पूर्वमध्य युग में स्थिति इससे भिन्न है। ‘मानसोल्लास,’ जिसकी रचना बारहवीं शती में हुई थी, में राजा को स्पष्ट परामर्श दिया गया है कि वह अपने सामन्तों, मन्त्रियों, भृत्यों, बान्धवों तथा सैनिक सहायकों आदि को भूमि अनुदान प्रदान करें । मेरुतुंग कृत प्रबन्धचिन्तामणि से पता चलता है कि मालवा तथा गुजरात में सर्वत्र भूमिखण्ड अनुदान में दिये जाने की प्रथा प्रचलित थी । मानसार नामक ग्रन्थ में सामन्तों की नौ श्रेणियों का उल्लेख मिलता है तथा उनके द्वारा उपयोग किये जाने वाले राजस्व का भी वर्गीकरण किया गया है ।

बारहवीं शती की रचना ‘अपराजितपृच्छा’ में ग्रामाधिकार के आधार पर सामन्तों की निम्नलिखित श्रेणियों बताई गयी है:

i. महामण्डलेश्वर (एक लाख ग्राम)

ii. माण्डलिक (पचास हजार ग्राम) ।

iii. महासामन्त (बीस हजार ग्राम)

iv. सामन्त (दस हजार ग्राम) ।

v. लघु सामन्त (पाँच हजार ग्राम)

vi. चतुरांशका (एक हजार ग्राम) ।

इसके अतिरिक्त बीस, तीन, दो तथा एक ग्राम के स्वामित्व वाले सामन्तों का भी उल्लेख मिलता है । चतुरांशका छोटे राजा थे तथा उनके नीचे राजपुत्रों की गणना की जाती थी जो ग्राम-प्रमुख होते थे । राजपूत युग में उत्तरी भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था ।

इस विभाजन के पीछे भूमि-अनुदानों की अधिकता ही बहुत कुछ अंशों में उत्तरदायी थी । भूमि-अनुदान प्राप्त करने वाले व्यक्ति धीरे-धीरे अपना पद एवं प्रभाव बढ़ाकर सामन्त बन गये और इस प्रकार सम्राट तथा प्रजा के बीच उनका एक महत्वपूर्ण वर्ग खड़ा हो गया ।

इससे कृषकों की दशा खराब हो गयी क्योंकि उन्हें अब सम्राट के स्थान पर सामन्त के प्रति निष्ठावान रहना पड़ता था । सामन्त तरह-तरह से कृषकों का शोषण करते थे । इन प्रकार इन अनेक कारणों से भारत में सामन्तवाद का उत्कर्ष हुआ । सामन्तों ने व्यापार वाणिज्य को हतोत्साहित किया तथा आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन दिया ।

सामन्तों और उनके अधीनस्थों के अपने-अपने क्षेत्रों में व्यस्त रहने के कारण प्रबल स्थानीकरण की भावना विकसित हुई तथा सामाजिक गतिशीलता अवरुद्ध हो गयी । किन्तु भारतीय सामन्तवाद यूरोपीय सामन्तवाद के समान जटिल नहीं था । यूरोप में कृषकों को अपना अधिकांश समय अपने स्वामियों के खेतों पर काम करने में लगाना पड़ता था तथा वे स्वतन्त्र नहीं थे ।

इसके विपरीत भारतीय कृषक अधिकतर अपने खेतों में ही काम करते थे तथा यहाँ स्वतन्त्र कृषकों की संख्या भी अधिक थी जिनका केन्द्रीय सरकार के साथ कुछ न कुछ सम्बन्ध बना हुआ था । विष्टि (बेगार), का प्रचलन भी यहाँ यूरोपीय समाज जैसा नहीं था ।

आर. एस. शर्मा ने भारतीय सामन्तवाद की प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार बताई हैं- भूमि-अनुदान दी गयी भूमि के साथ-साथ किसानों का हस्तान्तरण, बेगार प्रथा का प्रसार, किसानों, शिल्पियों और व्यापारियों के अपनी इच्छानुसार जहाँ चाहें वहाँ जाकर बसने पर रोक, मुद्रा का अभाव, व्यापार का ह्रास, राजतन्त्र व्यवस्था तथा दण्ड प्रशासन का अनुदान भोगियों को सौंपा जाना, अधिकारियों को वेतन स्वरूप अलग-अलग क्षेत्रों का राजस्व साँप देना तथा सामन्ती दायित्वों का विकास ।

इनका पूर्ण प्रचलन हमें हर्षकाल से लेकर राजपूत काल तक के खमाज में दिखाई देता है । प्रो. शर्मा के अनुसार विदेशी व्यापार के पतन, सिक्कों के अभाव तथा बन्द अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ होने के फलस्वरूप सामन्तवादी प्रवृत्तियों का तेजी से विकास हुआ ।

Essay # 2. सामन्तवाद का प्रभाव (Effects of Feudalism):

सामन्तवादी व्यवस्था के चर्मोत्कर्ष काल में भारत के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा । सामन्तों के प्रशासन पर बढ़ते हुए प्रभाव के कारण केंद्रीय सत्ता अत्यन्त निर्बल हो गयी । अपनी शक्ति के लिये सम्राट पूर्णतया सामन्तों पर ही आश्रित रहने लगे । उनका अपनी प्रजा की कठिनाइयों से बहुत कम सम्बन्ध रह गया तथा वे सामन्तों की परामर्श को ही सब कुछ समझने लगे ।

राजपूत काल में यहाँ तक उल्लेख मिलता है कि सामन्तों के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण सम्राट अपने मन्त्रियों की सलाह की भी उपेक्षा कर देते थे । इस प्रकार राज्य की वास्तविक शक्ति सामन्तों के हाथों में ही केन्द्रित हो गयी तथा राज्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी उन्हीं के कन्धों पर आ पड़ी ।

सामन्तों की संख्या में वृद्धि से आम जनता का जीवन कष्टमय हो गया क्योंकि वे नाना प्रकार से उसका शोषण करने लगे । केन्द्रीय शक्ति की दुर्बलता का लाभ उठाकर सामन्त सदा स्वतंत्र होने का अवसर ढूंढा करते थे । असंतुष्ट सामन्तों द्वारा सम्राट तथा राज्य के विरुद्ध षड्यन्त्र किये जाने के भी उदाहरण मिलते है ।

कभी-कभी अपने स्वार्थ एवं महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये सामन्त एक सम्राट का साथ छोडकर दूसरे का साथ पकड़ लेते थे । चन्देलवंश के पतन काल में दूबकुण्ड के कछवाहों ने उनका साथ छोड़ दिया तथा भोज परमार की प्रभुसत्ता को स्वीकार कर लिया ।

कलचुरि शासक विजयसिंह के सामन्त मलयसिंह ने उसके स्थान पर चन्देल नरेश त्रैलोक्यवर्मा का साथ पकड़ लिया । इसी प्रकार चौलुक्य कुमारपाल के कई सामन्त रिश्वत लेकर उसके शत्रुओं से जा मिले । इस प्रकार सामन्तवाद ने राजनीति तथा प्रशासन को कलुषित कर दिया ।

सामन्तवाद ने तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक परिवेश को भी प्रभावित किया । सैनिक शक्ति, समृद्धि तथा राजनीतिक प्रतिष्ठा के कारण विभिन्न वणों के लोगों ने समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया और वे क्षत्रियत्व का दावा करने लगे ।

कृत्यकल्पतरु नामक रचना में विभिन्न वर्णों के सामन्तों का उल्लेख मिलता है । राजपूतों के छत्तीस प्रमुख कुलों (जिनका उल्लेख पृथ्वीराजरासों में हुआ है) में से कई निम्न उत्पत्ति के थे । इस प्रकार प्राचीन चातुर्वर्ण व्यवस्था प्रभावित होने लगी ।

समृद्ध वैश्यों ने भी इनका अनुकरण किया तथा उनका जीवन भी विलासी और आडम्बरपूर्ण हो गया । सम्भ्रान्त कुलों में श्रम को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा तथा लोग बहुसंख्यक सेवक, दास-दासियों को रखना सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक मानने लगे ।

धार्मिक क्षेत्र में हम देखते है कि धार्मिक सम्प्रदायों ने भी सामन्ती विलासिता एवं वैभव के जीवन को अपनाया । मठाधीश सामन्ती उपाधियाँ धारण करने लगे तथा मन्दिरों में देवताओं की उपासना भी ठाठ-बाट के साथ सम्पन्न होने लगी । मन्दिरों तथा मठों के स्वामियों का जीवन सामन्तों के ही समान विलासी एवं वैभवपूर्ण बन गया ।

आर्थिक क्षेत्र में सामन्तवाद का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा । विभिन्न सामन्ती इकाइयां आत्मनिर्भर आर्थिक इकाइयों में परिवर्तित हो गयीं । सामन्तों में स्थानीयता की भावना बड़ी प्रबल होती थी । उन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में बसे हुए व्यापारियों एवं व्यवसायियों को दूसरे स्थान में जाने पर पावन्दी लगा दिया ।

फलतः व्यापार-वाणिज्य का पतन हो गया तथा सामाजिक गतिशीलता अवरुद्ध हो गयी । अब कृषि तथा पशुपालन ही आर्थिक जीवन के आधार मान लिये गये । उल्लेखनीय है कि लक्ष्मीधर ने ‘वार्ता’ के अन्तर्गत ‘वाणिज्य’ को शामिल नहीं किया है तथा इसका अर्थ केवल कृषि और पशुपालन बताया है ।

मुद्रा के अभाव तथा माप-तौल में स्थानीय मानकों के प्रचलन से व्यापारियों की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गयी तथा उनमें से अधिकांश ने कृषि करना प्रारम्भ कर दिया । विष्णु तथा वायु पुराणों में तो यहाँ तक बताया गया है कि, कलियुग में वैश्य वर्ण वस्तुतः विलुप्त हो जायेगा ।

सामन्तों द्वारा अपने-अपने क्षेत्र के विकास को प्राथमिकता देने के कारण स्थानीय संस्कृतियाँ विकसित हुई । विभिन्न स्थानों में अलग-अलग भाषाओं, बोलियों तथा परम्पराओं का प्रारम्भ हो गया । स्थानीयता की इस प्रवृत्ति ने देश में क्षेत्रीयतावाद को जन्म दिया । लोग अपने-अपने क्षेत्र को ही अपना देश मानने लगे तथा शासकों के लिये राजनीतिक एकता बनाये रखना कठिन हो गया ।

Home››Essay››