सामाजिक विकास पर निबंध: अर्थ, विशेषतायें और मापदण्ड! Read this comprehensive essay on Social Development in Hindi: 1. सामाजिक विकास का परिचय (Introduction to Social Development), सामाजिक विकास के अवधारणा (Concept of Social Development), सामाजिक विकास का अर्थ (Meaning of Social Development), सामाजिक विकास की विशेषतायें (Importance of Social Development), सामाजिक विकास के मापदण्ड (Measurement of Social Development), सामाजिक विकास की दशायें (Conditions of Social Development), सामाजिक विकास के विभिन्न सिद्धान्त (Different Approaches of Social Development)

सामाजिक विकास पर निबंध | Essay on Social Development


Essay Contents:

  1. सामाजिक विकास का परिचय (Introduction to Social Development)
  2. सामाजिक विकास के अवधारणा (Concept of Social Development)
  3. सामाजिक विकास का अर्थ (Meaning of Social Development)
  4. सामाजिक विकास की विशेषतायें (Importance of Social Development)
  5. सामाजिक विकास के मापदण्ड (Measurement of Social Development)
  6. सामाजिक विकास की दशायें (Conditions of Social Development)
  7. सामाजिक विकास के विभिन्न सिद्धान्त (Different Approaches of Social Development)


Essay # 1. सामाजिक विकास का परिचय (Introduction to Social Development):

ADVERTISEMENTS:

अपनी पुस्तक “The Concept of Development” में जे. पी. नेटल ने विकास को निम्नलिखित चार अर्थों में प्रयोग किया है:

i. परिभाषाओं के समूह में विकास के अर्थों का निर्माण किया गया है जिनका अभिप्राय विकसित और अविकसित राज्य से है ।

ii. मूल्यों का एक समूह जो कि विकास को अनिवार्य नहीं तो वांछनीय बनाता है ।

iii. विकसित और अविकसित समाजों के मध्य परस्पर सम्बन्ध ।

ADVERTISEMENTS:

iv. कम से कम विश्लेषक के मस्तिष्क में विकास में अन्तर्निहित क्रम की मान्यता । किन्तु सम्भवतया भाग लेने वालों के मन में यह भी मान्यता होती है ।

यूं तो विकास का तात्पर्य किसी भी समूह में अन्तर्निहित अनभिव्यक्त शक्तियों का अभिव्यक्त होना है किन्तु आधुनिक काल में विकास की अवधारणा को समाजों और राज्यों की प्रगति के प्रसंग में प्रयोग किया गया है प्रगति और विकास में प्रमुख अन्तर यह होता है कि जबकि प्रगति कुछ सुनिश्चित लक्ष्यों की ओर आगे बढ़ने को कहते हैं, विकास में ये लक्ष्य बाहर से लादे गये न होकर समूह की आन्तरिक प्रवृत्तियों की ही वृद्धि को कहा जाता है ।

अस्तु, विकास प्रगति से कहीं अधिक व्यापक अवधारणा है । प्रगति में विकास सम्मिलित है । विकास की अवधारणा के उपरोक्त अर्थ में यह स्पष्ट किया गया कि विकास कुछ मूल्यों को आगे बढ़ाता है जो कि वांछनीय माने जाते है । आधुनिक काल में विकसित और अल्पविकसित समाजों में विकास की कसौटियों के आधार पर ही अनार किया गया है ।

इस प्रकार की अवधारणा सामाजिक व्यवस्थाओं के स्तर दिखलाती हैं । इससे सामाजिक व्यवस्थाओं की प्रगति की दिशा भी निर्धारित होती है । अन्त में विकास की अवधारणा उन समाजशास्त्रियों और राज्य शास्त्रियों के मस्तिष्क की उपज है जो कि समाज अथवा राज्य का विश्लेषण करके उनमें अन्तर्निहित उन तत्वों को स्पष्ट करते हैं जो अभिव्यक्त नहीं हैं और जिनकी अभिव्यक्ति को ही विकास की संज्ञा दी जाती है ।


ADVERTISEMENTS:

Essay # 2. सामाजिक विकास के अवधारणा (Concept of Social Development):

समाजशास्त्रियों में सामाजिक विकास की कोई एक अवधारणा प्रचलित नहीं है ।

इसके निम्नलिखित कारण हैं:

(i) काल में भिन्न-भिन्न समाजों में भिन्न-भिन्न जीवन मूल्य प्रचलित हैं । अस्तु, अपने-अपने जीवन मूल्यों के आधार पर वे सामाजिक विकास की व्याख्या करते है । यदि पाश्चात्य समाज को ही विकसित समाज कहा जाये तो एशिया की अनेक विकसित सभ्यताओं वाले समाज अविकसित माने जायेंगे ।

(ii) विद्वानों में इस विषय पर मतभेद है कि कौन से मूल्यों को विकसित जीवन का चिन्ह कहा जाना चाहिये । उदाहरण के लिये आधुनिक पाश्चात्य समाज में व्यक्तिवाद, अवसरवाद, धनलोलुपता, नौकरशाही का विकास संगठित अपराध आदि ऐसे अनेक तत्व दिखलायी पड़ते हैं जिन्हें विकास का लक्षण नहीं कहा जा सकता । ऐसी स्थिति में विकसित समाज का नमूना निश्चित करना सम्भव नहीं है ।

हॉबहाउस की अवधारणा:

सामाजिक विकास की अवधारणा हॉबहाउस ने स्तर 1929 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में उपस्थित की । हॉबहाउस की सामाजिक विकास की अवधारणा पर जीव शास्त्र का प्रभाव स्पष्ट रूप में दिखलायी पड़ता है । जैविक विकास में जीवधारी के शरीर में क्रमशः नये-नये अंगों का विकास होता है और वे नये-नये कार्य करते है ।

इसके अतिरिक्त जैविक विकास आगे बढ़ने के साथ-साथ जीवधारी के विभिन्न अंगों में समायोजन भी बढ़ता जाता है । आकार प्रकार में भी आयु बढ़ने के साथ-साथ जीवधारी में विकास दिखलायी पड़ता है । संक्षेप में जैविक विकास जीवधारी की सब दिशा में वृद्धि है ।

इसी प्रकार सामाजिक विकास की व्याख्या करते हुए हॉबहाउस ने उसे सामाजिक संस्थाओं और इन संस्थाओं के कार्यों में विकास कहा है । विकास की इस परिभाषा में समाज में समायोजन बढ़ने को विकास का प्रमुख चिन्ह माना गया है ।

किसी भी समाज में आरम्भ से ही अनेक वर्ग होते हैं । इन वर्गों में परस्पर सम्पर्क होता है । इस सम्पर्क में समायोजन का बढ़ना विकास का चिन्ह है । इस प्रकार विकास के साथ-साथ समाज के विभिन्न सदस्य एक दूसरे के जीवन में भागीदार होने लगते है ।

दूसरे विकास बढ़ने के साथ-साथ समाज में नये-नये कार्य करने वाले व्यक्ति, समूह और संस्थाओं का भी जन्म होता है । इन दो चिन्हों के अतिरिक्त विकास का तीसरा चिन्ह संस्था और परिणाम की दृष्टि से समाज की वृद्धि है ।

इस प्रकार विकास की परिभाषा में हॉबहाउस ने संस्था की वृद्धि, नये कार्यों का उत्पन्न होना और समायोजन ये तीन तत्व माने है । किन्तु किसी भी समाज में ये तीनों तत्व एक साथ उत्पन्न नहीं होते और न तीनों एक साथ बढ़ते ही हैं । कहीं पर संख्या बढ़ती है तो समायोजन नहीं हो पाता कहीं समायोजन होता है तो नये कार्यों का अभाव दिखलायी पड़ता है ।

सामाजिक विकास और नैतिक विकास:

हॉबहाउस ने सामाजिक विकास को नैतिक विकास के अनुरूप माना है । इस प्रकार सामान्य रूप से किसी भी समाज में सामाजिक विकास बढ़ने के साथ-साथ नैतिक विकास भी बढ़ता है । साधारणतया समाज के विकास की दशा अच्छी ही होती है । हेज ठीक ही लिखा है कि जीवन के प्रति एक अच्छा दृष्टिकोण सामाजिक विकास की एक अनिवार्य दशा है ।

सामाजिक विकास में आन्तरिक चेतना का विकास सम्मिलित है । सामाजिक विकास के साथ-साथ समाज के सदस्य कुछ आधारभूत नैतिक सिद्धान्तों को मानने लगते हैं । नैतिक गुणों के अभाव में किसी भी समाज का विकास नहीं हो सकता । इस प्रकार सामाजिक विकास में नैतिक चेतना का विकास भी सम्मिलित है । यह सामाजिक विकास सृजनात्मक सदस्यों के द्वारा होता है ।

ये सदस्य नये-नये आविष्कारों के द्वारा समाज को आगे बढ़ाते है । हॉबहाउस के अनुसार भी सामाजिक विकास का विचार नैतिक विकास से मिलता जुलता है और दोनों में सम्बन्ध भी है किन्तु फिर, जैसा कि पीछे दिखलाया गया है, हॉबहाउस ने सामाजिक विकास और नैतिक विकास में अनिवार्य सम्बन्ध नहीं माना है ।

कभी-कभी किसी विकसित समाज में नैतिक मूल्यों का स्तर नीचा हो सकता है । वास्तव में समाजिक विकास की अवधारणा नैतिक विकास से कहीं अधिक व्यापक है । उसमें समाज के सभी सदस्यों का सन्तुलित विकास सम्मिलित है । यह विकास नैतिक के अतिरिक्त भी होता है ।

सामाजिक और नैतिक विकास के सम्बन्ध से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक विकास के साथ-साथ स्वतन्त्रता और समानता के तत्व भी बढ़ते हैं । चिन्तन और विचारों की स्वतन्त्रता विकसित समाज का अनिवार्य लक्षण है । इसी प्रकार सामाजिक विकास के साथ-साथ सदस्यों में समानता की भावना का भी विकास होता है ।

अनेक समाजशास्त्रियों ने जनतन्त्रीय मूल्यों को आगे बढ़ाने को सामाजिक विकास का लक्षण माना है । हॉबहाउस के अनुसार केवल परिमाणात्मक उन्नति का होना विकास की ओर संकेत नहीं करता, किन्तु यदि इसको संगठन की कुशलता में वृद्धि के साथ जोड़ दिया जाय तो इसका ठोस महत्व हो जाता है । उन्नति के स्तर बढ़ जाने से विभेदीकरण बढ़ जाता है तथा एकीकरण की समस्यायें उठ खड़ी होती हैं ।

इसलिए यदि कुशलता समान हो तो एक छोटे समुदाय की अपेक्षा एक बड़े समुदाय का संगठन बड़ा तथा व्यापक उपलब्धि वाला होता है । कुशलता अपने में विशेषीकरण की मांग करती है, किन्तु केवल विशेषीकरण को ही विकास का प्रत्यक्ष आधार मानना ठीक नहीं होगा । वास्तव में, जब नये कार्य उत्पन्न होकर एक दूसरे के साथ उचित समायोजन करते है तब सामान्य उपलब्धि की वृद्धि विकास कहलाती है ।

स्वतन्त्रता तथा समानता के तत्व स्वयं अपने में ‘सामाजिक विकास’ के विचार को स्पष्ट नहीं करते । स्वतन्त्रता केवल सामान्य जीवन के शिथिल होने से किन्ही नियन्त्रणों के हट जाने में निहित हो सकती है । इसी प्रकार समानता में किसी विशेष प्रयास अथवा बड़ी उपलब्धि का अभाव होना भी पाया जा सकता है ।

इसलिए यदि किसी संगठन की उच्च कुशलता का स्तर बहुत बड़ा मान लिया जाए, जो उन व्यक्तियों की स्वतन्त्र तथा बुद्धिमतापूर्ण स्वीकृति पर निर्भर हो जो इसको संचालित करते है, ओर इसके परिणामस्वरूप जो लाभ उत्पन्न हों उनमें सभी अपनी आवश्यकताओं तथा अपनी-अपनी भूमिकाओं के योगदान के आधार पर भाग लें, तब जिस प्रकार का समन्वय देखा जायेगा वह सामाजिक विकास के विचारों को अच्छी प्रकार प्रस्तुत करेगा ।

सामाजिक तत्वों का विकास:

हॉबहाउस ने समाज की कल्पना इसके उन समस्त सदस्यों के रूप में की है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारस्परिक सम्बन्धों में जुड़े होते हैं । किन्तु समाज केवल सदस्यों तथा इनके एकान्त में रहने अथवा विभिन्न सम्बन्धों में बँधे रहने से ही नहीं बनता ।

सदस्यों में अन्तर्सम्बन्धों के अतिरिक्त एक और ऐसा तत्व भी है जो समाज को उत्पन्न करता है वह तत्व है इन सम्बन्धों का ‘सामाजिक’ होना । ‘सामाजिक’ से तात्पर्य मनुष्य का मनुष्य से सम्बन्ध है, न कि मनुष्य का सम्बन्ध से अतिरिक्त होना, न ही सम्बन्ध का मनुष्य से अतिरिक्त होना ।

इस प्रकार ‘सामाजिक विकास’ से तात्पर्य मनुष्यों के उनके पारस्परिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में विकसित होने से है । मनुष्य के सम्बन्ध इनकी प्रकृतियों से उत्पन्न है । सकते हैं अथवा एक दूसरे की किन्हीं आवश्यकताओं एवं क्षमताओं की पूर्ति पर आधारित हो सकते हैं । इनको सामाजिक सम्बन्धों में साम्य के रूप में भी समझा जा सकता है ।

इस प्रकार कोई भी समुदाय यदि अपने स्तर, कुशलता, स्वतन्त्रता तथा पारस्परिकता में आगे बढ़ता है तो विकास की ओर उन्मुख समझा जाना चाहिये । किन्तु इनमें कोई भी एक तत्व स्वयं अपने में विकास का परिचायक नहीं होगा । सभी तत्वों का समन्वय विकास के लिए आवश्यक है ।

आंशिक विकास:

हॉबहाउस के अनुसार कोई भी विकास प्रायः एकांगी तथा आशिक होता है, क्योंकि उपरोक्त तीनों तत्वों का एक साथ पाया जाना सम्भाव नहीं है । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि सामाजिक विकास वास्तव में आशिक विकासों का योगफल है ।

यह आवश्यक रूप से एक साथ नहीं होता और कभी-कभी एक दूसरे का विरोधी भी हो सकता है । इस प्रकार के आशिक विकास नैतिक आवश्यकताओं के लिये पर्याप्त नहीं होते और कभी कभी उपरोक्त विरोध के कारण एक दूसरे के विपरीत हो सकते हैं ।

सामाजिक विकास का विचार समाज के सदस्यों द्वारा किन्हीं वांछनीय उपलब्धियों की ओर संकेत करता है । हॉबहाउस के सामाजिक सिद्धांत का मुख्य सार ही सामाजिक विकास का विचार है । हॉबहाउस के अनुसार सामाजिक विकास से अभिप्राय अपेक्षाकृत अच्छे तथा सम्पूर्ण जीवन के लिये परिवर्तन होना भी है ।

इसका अभिप्राय एक प्रगतिशील समाज के सदस्यों के लिए व्यक्तित्व का विकास होना भी है । एक प्रगतिवादी समाज के व्यक्तियों में सामंजस्य पाया जाता है, क्योंकि नैतिकता का मुख्य आधार ही सामाजिक सामंजस्य में निहित होता है । सामाजिक विकास की अवधारणा एक जैविक अवधारणा ही कही जा सकती है, जिसमें किसी समाज के सदस्यों का सन्तुलित विकास निहित होता है ।

इस प्रकार किसी समाज के सदस्यों का विकास ही सामाजिक विकास की पूर्व आवश्यकता कहीं जा सकती है । सामाजिक विकास तथा सामाजिक प्रगति में सह-सम्बन्ध पाया जाता है । किसी समाज में विकास तभी सम्भव होता है जब उसके सदस्य सामाजिक प्रगति में पर्याप्त योगदान देते हैं ।

हेज के विचार:

हेज के अनुसार सामाजिक विकास का समाज के सदस्यों की सामाजिक गतिविधियों से घनिष्ट सम्बन्ध होता है । इनके विचार में समाज के सदस्यों द्वारा जो आविष्कार किये जाते हैं वह सामाजिक विकास के लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण करते है ।

इनको समाज के सृजनात्मक सदस्य और अधिक उन्नत एवं पूर्ण करते हैं । यदि किन्हीं प्रकार की आवश्यकताओं को स्पष्ट किया जाये तो एक विकासशील समाज में प्रायः अनेक आविष्कार किये जाते हैं । उदाहरण के लिए युद्ध के समय अनेक प्रकार के विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों का आविष्कार होता है ।

हेज के अनुसार जीवन के प्रति एक अच्छा दृष्टिकोण होना सामाजिक विकास की एक आवश्यक दशा है । आन्तरिक चेतना का विकास तथा समाज के सदस्यों द्वारा किन्हीं आधारभूत नैतिक सिद्धांतों को मानना भी सामाजिक विकास की पूर्ण आवश्यकता है । नैतिक गुणों के अभाव में कोई भी समाज विकसित नहीं हो सकता । इसलिये सामाजिक विकास के लिए नैतिक चेतना का विकास भी आवश्यक है ।

मौरिस गिन्सबर्ग का विचार:

मौरिस गिन्सबर्ग ने सामाजिक विकास की व्याख्या प्रयोजन के रूप में की है । इनके विचार में समुदायों का विकास अपने सदस्यों की सामान्य आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए होता है । समुदाय अपने सदस्यों के पारस्परिक सहयोग के द्वारा विकसित होते हैं ।

सामाजिक विकास तथा व्यक्तियों का विकास दोनों साथ-साथ घटित होते है । यदि सदस्यों में सहयोग करने की तत्परता हो तो समाज का विकास होता है । लेकिन सदस्यों में एकीकरण का पाया जाना सामाजिक विकास के लिए एक आवश्यक पूर्व-दशा है ।

अन्त में सामाजिक विकास से अभिप्राय किसी भी समाज में होने वाले उन परिवर्तनों से होता है जो समाज की आधारभूत संस्थाओं में होते है, जो सामाजिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक संगठनों से सम्बन्धित होते हैं, जो अन्ततः सामाजिक कल्याण में वृद्धि से सम्बन्धित होते हैं ।

यह सभी परिवर्तन समाज में उत्पन्न होने वाले विघटनकारी तत्वों को हठाकर समाज को एक निर्दिष्ट दिशा की ओर ले जाते हैं । यह समाज को स्वावलम्बी तथा सर्वोदय के निकट ले जाते हैं । इस प्रकार चाहे समाज का विकास साम्यवादी समाज की ओर हो, अथवा पूंजीवादी समाज की ओर या सर्वोदय समाज की ओर, सभी विकास की दिशा के द्योतक है ।

देखना केवल यह है कि मानवीय सुख एवं कल्याण की मात्रा अधिकतम होनी चाहिये । इस प्रकार एरिक फ्रॉम की स्वस्थ की परिकल्पना, अमिताई ईटज्योनी की सक्रिय समाज की परिकल्पना तथा विनोबा भावे की सर्वोदय समाज की कल्पना सामाजिक विकास की सर्वोत्कृष्ट अवस्थायें है ।

शैफ्फ का मत:

ऐ. शैफ्फ ने सामाजिक विकास को समझाने के लिए ‘गति’ परिवर्तन विकास तथा प्रगति में अनार किया है । जहाँ तक सामाजिक परिवर्तन का प्रश्न है यह एक ऐसी प्रक्रिया का बोध कराता है जिसमें पृथक्-पृथक् समय बिन्दुओं में समाज की संरचना भिन्न होती चली जाती है ।

लेकिन जब हम ‘गति’ की बात करते हैं तो हम बड़े ही संकुचित अर्थों में स्थान में होने वाले स्थिति में परिवर्तन की ओर संकेत करते हैं । यह लगभग एक यान्त्रिक गति के समान है । विकास का विचार भी संकुचित ही है ।

जब कभी हम विकास की चर्चा करते हैं उससे हमारा अभिप्राय किसी प्रकार के परिवर्तन से अवश्य होता है लेकिन जब हम परिवर्तन का अनुमान लगाना चाहते हैं तो हमें विकास पर विचार करने की आवश्यकता नहीं होती ।

इस प्रकार शैफ्फ के अनुसार- ”विकास से अभिप्राय: उन परिवर्तनों से है जो एक विशेष सन्दर्भ में और एक विशेष पैमाने पर किसी प्रघटना में होने वाली उन्नति के परिमाणात्मक तत्व की ओर संकेत करते हैं जिन्हें मूल्यों की एक विशेष व्यवस्था में हम संकारात्मक समझते हैं ।


Essay # 3. सामाजिक विकास का अर्थ (Meaning of Social Development):

1. ऑक्सफोर्ड इंगलिश डिक्शनरी में विकास को ”एक क्रमिक उन्मूलन किसी भी वस्तु की अधिकतम जानकारी, जीवाणु का विकास” आदि के अर्थ में बताया गया है । उदाहरणार्थ, एक बच्चे द्वारा युवा अवस्था को प्राप्त करने पर उसमें होने वाले शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन को विकास कहा जायेगा । इसी प्रकार शरीर में बीमारी की बढ़ोतरी को भी विकास कहेंगे । किन्तु विकास का यह अर्थ सामाजिक विकास से भिन्न है ।

विकास परिवर्तन की एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें विभेदीकरण की वृद्धि होती है तथा यह सदैव ऊपर की ओर होता है । विकास का सम्बन्ध सामाजिक मूल्यों से नहीं है । अतः यह अच्छाई और बुराई दोनों ही ओर से हो सकता है । यह तो एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तन की गति को प्रकट करता है ।

सामजिक जीवन के उदाहरण द्वारा हम इसे और भली-भांति समझ सकते हैं । विकास में अच्छाई व बुराई दोनों ही हो सकती है । उदाहरण के लिए मानव ने शिकारी, पशुपालन व कृषि अवस्था से आज की औद्योगिक अवस्था तक विकास की एक लम्बी यात्रा तय की है ।

प्रत्येक अवस्था के अपने गुण व दोष, लाभ व हानि, अच्छाई तथा बुराई है जिसका मूल्यांकन विकास में नहीं किया जाता । विकास का सम्बन्ध तो मानव जीवन में उत्तरोत्तर परिवर्तन एवं एक अवस्था के दूसरी ओर आगे बढ़ने से ही है ।

2. मार्क्सवादी विचारकों ने भी विकास और प्रगति शब्द का समान अर्थों में ही प्रयोग किया । स्कॉफ ने विकास को परिभाषित करते हुए लिखा है- ”माप के पैमाने और सन्दर्भ के एक निश्चित ढाँचे में एक निश्चित प्रकार के परिवर्तनों को बताने वाला शब्द विकास है जो मूल्यों की एक निश्चित व्यवस्था के अन्तर्गत स्पष्ट रूप से एक घटना की परिमाणात्मक वृद्धि का प्रतिनिधित्व करता है ।”

इस परिभाषा से विकास की तीन विशेषताएँ प्रकट होती हैं- (i) विकास में एक निश्चित ढाँचे में एक निश्चित प्रकार के परिवर्तन आते हैं, (ii) इस परिवर्तन के कारण समाज में परिमाणात्मक वृद्धि होती है जिसकी माप का पैमाना भी निश्चित होता है, (iii) विकास मूल्यों से घनिष्ट रूप से सम्बद्ध है । इस परिभाषा में प्रगति एवं विकास की अवधारणा को बुला-मिला दिया गया है ।

3. बॉटोमोर कहते हैं कि अनेक नवीन समाजशास्त्रीय रचनाओं में विकास शब्द का एक प्रयोग ग्रामीण एवं कृषि प्रधान तथा औद्योगीकृत समाजों में भेद प्रकट करने के लिए किया गया है । विकास शब्द के द्वारा इन दोनों प्रकार के समाजों में पाये जाने वाले आय के अन्तर तथा ग्रामीण एवं कृषि प्रधान समाज के औद्योगीकृत हो जाने की प्रक्रिया को प्रकट किया जाता है ।

इस प्रकार विकास शब्द का प्रयोग नवीन विचारधारा में दो विशेषताओं को बताने के लिए किया गया है- (i) वर्तमान समय में देखे जाने वाले विशिष्ट प्रकार के परिवर्तनों की चर्चा के लिए, तथा (ii) उन आर्थिक परिवर्तनों के लिए जिन्हें नापा एवं पहचाना जा सके ।

इस अर्थ में यदि मानव अपने ज्ञान में वृद्धि कर नवीन आविष्कारों द्वारा प्रकृति पर नियन्त्रण बढ़ाने में सफल होता है तो निश्चिय ही वह विकास कहलायेगा । विकास को तुलनात्मक एवं ऐतिहासिक अर्थ में प्रयोग अनेक लेखकों ने किया है । एक महत्वपूर्ण नवीन गोष्ठी में विकास शब्द का प्रयोग कम आय वाले देशों में हो रहे औद्योगीकरण और उसकी तुलना पश्चिमी देशों में हो रहे औद्योगीकरण से करने के सन्दर्भ में किया ।

इस प्रकार आधुनिक समय में विकास शब्द का प्रयोग अधिकांशतः आर्थिक अर्थों में किया गया है । प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि, श्रम-विभाजन एवं विशेषीकरण में वृद्धि, बाजारों का विस्तार, उत्पादन एवं उद्योगों में वृद्धि, पूंजी निर्माण में वृद्धि प्राकृतिक स्रोतों का अधिकाधिक दोहन तथा मानवीय ज्ञान द्वारा प्रकृति पर अधिकाधिक नियन्त्रण आर्थिक विकास को इंगित करते हैं ।

किन्तु विकास शब्द के प्रयोग को आर्थिक एवं औद्योगिक क्षेत्रों में होने वाले कुछ विशिष्ट परिवर्तनों तक ही सीमित कर देना उचित नहीं है यह धर्म, प्रथाओं, परिवार राजनीति, संस्कृति, आदि अनेक क्षेत्रों में प्रयुक्त किया जा सकता है । सामाजिक विकास में सामाजिक सम्बन्धों का विस्तार होता है, प्राचीन सामाजिक संरचनाओं मूल्यों मनोवृतियों एवं विचारों में परिवर्तन एवं वृद्धि होती है ।

सामाजिक विकास में व्यक्ति की स्वतन्त्रता, पारस्परिक सहयोग एवं नैतिकता की भावना तथा समुदाय की आय एवं सम्पत्ति में वृद्धि होती है । आर्थिक विकास सामाजिक विकास का ही एक अंग है जिसे विभिन्न आधारों पर मापना सरल है । संक्षेप में सामाजिक विकास समाज का विकासोन्मुख परिवर्तन है जिसमें निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के नियन्त्रित एवं जागरूक प्रयत्न किये जाते हैं ।


Essay # 4. सामाजिक विकास की विशेषतायें (Importance of Social Development):

(i) एक सार्वभौमिक प्रक्रिया:

विश्व में शायद ही ऐसा कोई समाज मिले जो विकास की प्रक्रिया से न गुजर रहा हो । इस प्रकार विकास एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है । आदिम समाज से औद्योगिक समाज की रचना विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम है ।

(ii) जागरूक एवं अजागरूक प्रक्रिया:

विकास के लिए सतत् प्रयास भी किये जाते हैं जिसके फलस्वरूप विकास होता है परन्तु प्रयासों के दौरान कई बार स्वत: भी विकास हो जाता है । इस प्रकार विकास एक जागरूक एवं अजागरूक दोनों ही प्रकार की प्रक्रिया है ।

(iii) वैचारिक आधार:

किसी भी क्षेत्र में विकास करने के लिए सर्वप्रथम उसकी वैचारिक रूपरेखा तैयार करनी पड़ती है और तभी उसके आधार पर विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है ।

(iv) अनेक विकल्पों की विद्यमानता:

विकास के अन्तर्गत विकल्पों का अतुल भण्डार उपलब्ध होता है । हम विकास की किसी भी तकनीक, रूप, साधन और तरीके को सुविधानुसार अपना सकते हैं ।

(v) लौकिक परिवर्तन का परिचायक:

विकास का सम्बन्ध धर्म व आध्यात्मिकता से नहीं है । विकास का सम्बन्ध केवल सांसारिक परिवर्तनों से ही है । विश्व में क्या-क्या परिवर्तन आ रहे हैं, यह सब कुछ हमें विकास की प्रक्रिया के दौरान ही ज्ञात होते है ।


Essay # 5. सामाजिक विकास के मापदण्ड (Measurement of Social Development):

हॉरॉविज ने विकास के चार मापदण्ड बताये हैं:

(a) शिक्षा की मात्रा व स्वरूप,

(b) कल्याण का स्तर,

(c) मनोवृत्ति और कार्यों में अन्तर,

(d) विकास की लागत तथा उपलब्धियां ।

मिचेल ने विकास के छ: प्रमुख मापदण्ड बताये हैं:

(i) अशिक्षा से सार्वभौमिक शिक्षा की ओर रूपान्तर,

(ii) एकतंत्र से प्रजातन्त्र तथा सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार की ओर परिवर्तन,

(iii) कानून के समक्ष सभी की समानता में वृद्धि,

(iv) राष्ट्रीय प्रभुसत्ता में वृद्धि,

(v) धन के केन्द्रीयकरण से उचित और न्यायपूर्ण वितरण की ओर परिवर्तन

(vi) स्त्रियों की स्थिति में दासी के स्थान पर साथी के रूप में परिवर्तन ।


Essay # 6. सामाजिक विकास की दशायें (Conditions of Social Development):

हॉबहाउस ने सामाजिक विकास की कुछ दशाओं का उल्लेख किया है जिनके अभाव में किसी भी समाज का विकास सम्भव नहीं है ।

ये दशाएं निम्नांकित है:

(I) पर्यावरण सम्बन्धी दशाएँ:

किसी भी समाज में विकास के लिए पर्यावरण सम्बन्धी उचित दशाओं का होना आवश्यक है । जिस समाज का उपयुक्त भौगोलिक वातावरण हो तथा जिसे प्राकृतिक साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हों खनिज पदार्थ काफी मात्रा में पाये जाते हों तो ऐसे समाज में विकास की सम्भावनाओं पर सन्देह नहीं किया जा सकता । भौगोलिक व प्राकृतिक साधनों की उपलब्धि कार्यक्षमता व कार्यकुशलता को भी बढ़ती है ।

(II) जैवकीय दशाएँ:

रुग्ण एवं अस्वस्थ जनसंख्या वाले समाज की तुलना में स्वस्थ जनसंख्या वाले समाज में विकास अधिक होगा । इसका कारण यह है कि शारीरिक स्वस्थता कार्यक्षमता की अधिकता की परिचायक है और अधिक कार्यक्षमता से उत्पादन तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है जीवन-स्तर उच्च होता है, जो विकास का द्योतक है ।

(III) मनोवैज्ञानिक परिस्थितियाँ:

विकास के लिए मनोवैज्ञानिक परिस्थितियाँ भी उत्तरदायी होती है क्योंकि जब तक हम किसी कार्य के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होंगे तब तक कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं होगा । अतः किसी भी समाज को विकास करने हेतु अपने सदस्यों को सर्वप्रथम मानसिक रूप से तैयार करना होगा, तभी वह अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकता है ।

(IV) सामाजिक दशाएँ:

समाज की संस्थाएं, मूल्य धर्म, राजनीति, आर्थिक परिस्थितियाँ, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ व रीति-रिवाज भी विकास पर प्रभाव डालते हैं । यदि हमारा सामाजिक पर्यावरण विकास की प्रक्रिया के अनुकूल होगा तभी विकास सम्भव हैं ।

फिर हमारी समाज व्यवस्था भी इस प्रकार की होनी चाहिए जो प्रत्येक सदस्य को उचित अवसर, स्वतन्त्रता, विशेषतः उचित सामाजिक न्याय और उन्नति के अवसर प्रदान करें । जहाँ इन सब का अभाव होता है, उस समाज में विकास की कल्पना करना निरर्थक है ।


Essay # 7. सामाजिक विकास के विभिन्न सिद्धान्त (Different Approaches of Social Development):

विकास की व्याख्या विभिन्न सिद्धान्तों के आधार पर की गई है । इनमें मुख्य हैं आदर्शवादी, ऐतिहासिक तथा मार्क्सवादी ।

(i) आदर्शवादी सिद्धान्त:

प्लेटो और हीगेल तथा भारत में श्री अरविन्द की अवधारणाओं के अनुसार विकास परम तत्व का क्रमश: अनावरण है जिसमें उसके अनाभिव्यक्त तत्व अभिव्यक्त होते रहते हैं । परम तत्व के प्रमुख लक्षणों की अभिव्यक्ति ही विकास की कसौटी है ।

जिस समाज में ये लक्षण जितने होंगे वह उतना ही विकसित होगा । आधुनिक समाजशास्त्र में आदर्शवादी सिद्धान्तों का कोई विशेष महत्व नहीं है । फिर भी सोरोकिन और टायनबी की विकास की सांस्कृतिक अवधारणाओं को आदर्शवादी कहा जा सकता है ।

(ii) ऐतिहासिक सिद्धान्त:

अधिकतर समाजशास्त्रियों ने विकास की ऐतिहासिक व्याख्या की है जिसके अनुसार मानव समाज सब कहीं विकास को कुछ अवस्थाओं से होकर आगे बढ़ता है । इस प्रकार की अवस्थाओं का एक सरल प्रतिमान परम्परागत समाज संक्रमणवादी समाज तथा आधुनिक समाज है ।

विकास का यह वर्गीकरण इतिहास की आर्थिक अवस्थाओं पर आधारित है । उत्पादन की क्रिया और साधनी का इसमें विशेष महत्व है । आधुनिक काल में विकसित और विकासशील समाजों के अनेक तुलनात्मक अध्ययन किये गये हैं । बहुधा इन ऐतिहासिक विवरणों में विकास की स्थितियों को पूरी तरह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है ।

इनका आग्रह है कि सभी समाजों में विकास इन्हीं स्थितियों से होकर होगा । उदाहरण के लिये यह कहा जाता है कि सब कहीं अन्न संग्रह, चरवाही, कृषि प्रधान और औद्योगिक अवस्थाओं से होकर विकसित होते है जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है । इसी प्रकार आधुनिक औद्योगिक समाजों में विकास की कुछ विचारकों ने पूँजीवाद से समाजवाद की ओर अनिवार्य प्रगति माना है जबकि वर्तमान काल में सोवियत साम्यवाद के पूर्ण विघटन से इस बात का खण्डन होता है ।

इसी प्रकार वैरिंगटन मूर की पुस्तक Social Origins of Dictatorship and Democracy के अनुसार आधुनिक जगत को पहुँचाने के तीन मार्ग हैं बुर्जुआ क्रान्ति फात्सीवादी क्रान्ति और कृषक क्रान्ति अथवा जन आन्दोलन । यहाँ पर हरबर्ट स्पेन्सर और एल. टी. हाबहाउस के सिद्धान्तों का विशेष महत्व है ।

(iii) मार्क्सवादी विचारधारा:

आधुनिक काल में विकास की व्याख्या का एक प्रसिद्ध सिद्धान्त मार्क्सवादी विचारधारा है जिसके प्रमुख सिद्धान्त हैं आर्थिक निर्धारणवाद, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद तथा वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त सोवियत रूस में साम्यवाद के पतन और जनतन्त्र की स्थापना से विकास की मार्क्सवादी अवधारणा को आघात लगा है फिर भी चीन तथा अन्य देशों में अनेक विचारक आज भी मार्क्सवाद के समर्थक हैं ।


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