सुभाषचन्द्र बोस पर निबंध! Here is an essay on ‘Subhas Chandra Bose’ in Hindi language.
ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए भारत के बच्चे-बच्चे को स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर हँस-हँसकर अपनी जान न्योछावर करने को तैयार करने के लिए, ”तुम मुझे खून दो, में तुम्हें आजादी दूँगा” का नारा देकर जिस महायोद्धा ने स्वतन्त्रता सेनानियों के खून में शक्ति का संचार करते हुए सम्पूर्ण देश का अभूतपूर्व नेतृत्व किया, वह महान् स्वतन्त्रता सेनानी सुभाषचन्द्र बोस किसी परिचय के मोहताज नहीं ।
उनके राजनीतिक कौशल, नेतृत्व क्षमता, अदम्य साहस एवं शौर्य का ही कमाल था कि पूरी दुनिया को अपनी शक्ति से भयभीत कर देने वाला नाजीवादी जर्मन तानाशाह हिटलर भी उनसे प्रभावित होकर अपने सैनिकों को उन्हें शाही सलामी देने का आदेश देने को बाध्य हो गया ।
सुभाषचन्द्र बोस के अतिरिक्त भारतीय इतिहास में ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं हुआ, जो एक साथ महान् सेनापति, वीर सैनिक, राजनीति का अद्भुत खिलाड़ी और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरुषों, नेताओं के समकक्ष साधिकार बैठकर कूटनीति तथा चर्चा करने बाला हो ।
ADVERTISEMENTS:
महात्मा गाँधी के नमक सत्याग्रह को ‘नेपोलियन की पेरिस यात्रा’ की संज्ञा देने बाले सुभाषचन्द्र बोस एक ऐसे व्यक्तित्व थे, जिनके पाँव लक्ष्य से कभी पीछे नहीं हटे तथा उन्होंने जो स्वप्न देखा उसे साधा । ऐसे महान् व्यक्तित्व सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा प्रान्त के कटक शहर में हुआ था । उनके पिता जानकीनाथ बोस एक प्रसिद्ध सरकारी वकील थे, जिनके पूर्वज पश्चिम बंगाल के चौबीस परगना जिले के केदालिया गाँव के निवासी थे ।
सुभाषचन्द्र की प्रारम्भिक शिक्षा कटक में ही हुई थी । आगे की शिक्षा के लिए उन्होंने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया । उनके पिता चाहते थे कि बोस प्रशासनिक अधिकारी बनें, अपने पिता के इस स्वप्न को साकार करने के उद्देश्य से कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी ए करने के बाद वे इंग्लैण्ड चले गए और वर्ष 1920 में भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया ।
उस समय आईसीएस की परीक्षा पास करना आसान नहीं था । इस महत्वपूर्ण उपलब्धि को प्राप्त करने के बाद भी उन्हें अंग्रेजों के अधीन कार्य करना स्वीकार नहीं था । अत: उन्होंने यह नौकरी करने से इनकार कर दिया और देश के स्वतन्त्रता संग्राम में कूद गए ।
अंग्रेजों के खिलाफ अपने संघर्ष की शुरूआत करते हुए सुभाषचन्द्र बोस, देशबन्धु चितरंजन के सहयोगी बन गए । प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत के बहिष्कार में उन्हें प्रथम बार गिरफ्तार कर 6 माह की सजा दी गई । वर्ष 1924 में जब देशबन्धु कलकत्ता के मेयर बने, तब सुभाषचन्द्र को उन्होंने चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर बनाया ।
ADVERTISEMENTS:
उनके स्वतन्त्रता उन्मुखी कार्यक्रमों एवं क्रियाकलापों से भयभीत होकर सरकार ने उन्हें उसी वर्ष फिर गिरफ्तार कर जेल भेज दिया, पर वह उन्हें अधिक समय तक कैद नहीं रख सकी और 15 मई, 1927 को उन्हें रिहा कर दिया गया । इस समय तक वे देश के प्रखर नेता बन चुके थे और उनकी ख्याति देश की सीमा को लाँघकर जर्मनी, जापान अमेरिका, सोवियत रूस जैसे देशों तक पहुँच चुकी थी ।
26 जनवरी, 1930 को कलकत्ता के मेयर पद पर रहते हुए नेताजी ने आजादी के दिन की धोषणा के साथ विशाल जुलूस निकाला, जिसके कारण उन्हें फिर गिरफ्तार कर असहनीय यातनाएँ दी गई । जेल में उनका स्वास्थ्य जब अत्यधिक बिगड़ गया, तो सरकार ने उन्हें इस शर्त पर रिहा किया कि वे रिहा होने के बाद सीधे यूरोप चले जाएंगे ।
अत: वे रिहा होने के तुरन्त बाद अपने सम्बन्धियों से मिले बिना ही वायुयान द्वारा स्विट्जरलैण्ड चले गए । यह वास्तव में सरकार की सोची-समझी चाल थी । उन्हें रिहा नहीं किया गया था, बल्कि निर्वासन दिया गया था और यह बात तब स्पष्टतः सिद्ध हो गई जब अपने पिता की मृत्यु पर स्वदेश लौटते ही गिरफ्तार कर उन्हें उनके घर में ही नजरबन्द कर दिया गया ।
लगभग एक माह तक बे इसी तरह नजरबन्द रहे, इस दौरान उन्हें किसी राजनीतिक चर्चा में भाग नहीं लेने दिया गया । अत: वे पुन: यूरोप लौट गए । विदेश में रहते हुए देश की सेवा करना काफी कठिन था और ब्रिटिश सरकार ने उनसे स्पष्ट कह दिया था कि भारत में बे केवल जेलों में ही रह सकते हैं, फिर भी बे स्वदेश लौटे, इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें पुन गिरफ्तार कर लिया गया ।
ADVERTISEMENTS:
उनकी गिरफ्तारी से देशभर में क्रान्ति की लहर फैल गई, पर सरकार टस-से-मस नहीं हुई । इसी बीच उनके बिगड़ते हुए स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें पहले की तरह पुन: रिहा कर दिया गया । वर्ष 1938 में काँग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में बे गाँधीजी द्वारा नामजद उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया के विरुद्ध अध्यक्ष पद का चुनाव जीतने में कामयाब रहे । पट्टाभि सीतारमैया की पराजय को गाँधीजी ने अपनी पराजय बताया ।
सुभाषचन्द्र बोस गाँधीजी का बहुत सम्मान करते थे । अत: दक्षिणपन्थी कांग्रेसियों के असहयोग को देखते हुए उन्होंने काँग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और फॉरवर्ड ब्लॉक नामक नई पार्टी की स्थापना की । बंगाल में उठ रही क्रान्ति को देखते हुए उन्हें वर्ष 1941 में फिर गिरफ्तार कर लिया गया और उनके घर पर उन्हें नजरबन्द करते हुए उन पर कड़ा पहरा लगा दिया गया, फिर भी वे यहाँ से भेष बदलकर भागने में सफल हुए ।
यहाँ से भागकर वे काबुल होते हुए जर्मनी पहुँचे । उस समय जर्मनी का शासक तानाशाह हिटलर था । उसने उनका यथेष्ट सम्मान किया और दक्षिण-पूर्वी एशिया जाने की उनकी योजना को समर्थन ब सहयोग भी दिया । जून, 1943 में सुभाषचन्द्र जापान चले गए, वहाँ से फिर वे सिंगापुर के लिए रवाना हुए, जहाँ उसी वर्ष 4 जुलाई को रासबिहारी बोस ने उन्हें आजाद हिन्द फौज का सेनापति बना दिया ।
21 अक्टूबर, 1943 को अन्ततः सुभाषचन्द्र बोस ने सिंगापुर में ही आजाद भारत की अस्थायी सरकार कीं घोषणा कर दी । जापान, इटली, चीन, जर्मनी, फिलीपींस, कोरिया, मांचुको और आयरलैण्ड देशों की सरकारों ने उनकी सरकार को मान्यता दी ।
बाद में उन्होंने बर्मा में रंगून को अपनी अस्थायी सरकार की राजधानी बनाया और अण्डमान-निकोबार द्वीप को जीतकर बही अनुशासित एवं व्यवस्थापूर्ण ढंग से आजाद हिन्द सरकार का कार्य चलाने लगे । 6 जुलाई, 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गाँधी के नाम एक प्रसारण जारी किया, जिसमें उन्होंने गाँधीजी को ‘राष्ट्रपिता’ कहकर सम्बोधित किया और युद्ध में विजय के लिए आशीर्वाद और शुभकामनाएं माँगी ।
‘दिल्ली चलो’ का नारा देकर उन्होंने अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाया एवं कोहिमा एवं मणिपुर के युद्ध में अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिए, परन्तु ब्रिटिश सरकार की वायुसेना के सामने आजाद हिन्द फौज कब तक टिकी रहती । सुभाषचन्द्र बोस को रंगून छोड़ना पड़ा और 19 मई, 1946 को अंग्रेजों ने रंगून पर पुन कब्जा जमा लिया ।
आजाद हिन्द फौज को इस युद्ध में भले ही हार का सामना करना पड़ा हो, पर ब्रिटिश सरकार के प्रशिक्षित सैनिकों के छक्के छुड़ा देने वाली झाँसी रेजीमेंट की वीरांगनाओं के अदम्य साहस, शौर्य और वीरता को कभी भुलाया नहीं जा सकता ।
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद सुभाषचन्द्र बोस को नया रास्ता ढूँढना बहुत आवश्यक था, उन्होंने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया । 18 अगस्त, 1945 को बे हवाई जहाज से मंचूरिया की ओर जा रहे थे । इस सफर के दौरान वे लापता हो गए । 23 अगस्त, 1945 को एक वायुयान दुर्घटना में उनकी मृत्यु के समाचार पर किसी को विश्वास नहीं हुआ ।
उनके प्रति लोगों के अनन्य दुर्लभ प्रेम की भावना का ही परिणाम था कि बीसवीं सदी के अन्त तक भारतवासी यह मानते रहे कि उनके प्रिय नेताजी की मृत्यु नहीं हुई है और आवश्यकता पड़ने पर वे पुन: देश की बागडोर सँभालने को कभी भी आ सकते है ।
देश के स्वतन्त्रता संग्राम में सुभाषचन्द्र बोस की भूमिका को देखते हुए जनवरी, 1992 में उन्हें मरणोपरान्त देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया । नेताजी आज हमारे बीच सशरीर उपस्थित नहीं हैं, पर देशभक्ति का उनका अमर सन्देश आज भी हमें देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा देता है ।