भारत के बैंकों पर निबंध | Essay on the Banks of India in Hindi language!

Essay # 1. रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया (Reserve Bank of India):

रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया भारत का केन्द्रीय बैंक (Central Bank) है, जिसकी स्थापना रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एक्ट 1934 के अन्तर्गत की गई थी तथा जिसने 1 अप्रैल, 1935 से अपना कार्यारम्भ किया था । भारत सरकार ने 1948 में रिजर्व बैंक (सार्वजनिक अधिकार में हस्तान्तरण) अधिनियम पास कर सन् 1949 में इसका राष्ट्रीयकरण कर लिया । रिजर्व बैंक एक सामान्य व्यापारिक बैंक न होते हुए देश का शीर्षस्थ बैंक है तथा यह बैंक वे समस्त कार्य करता है, जो एक केन्द्रीय बैंक के होते है ।

Essay # 2. स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया (State Bank of India):

अखिल भारतीय ग्रामीण साख सर्वेक्षण समिति (गोरा वाला समिति) ने 1954 में प्रस्तुत अपने प्रतिवेदन में यह अनुशंसा की थी कि ग्रामीण-साख की प्रभावकारी व्यवस्था करने हेतु एक शक्तिशाली बैंक स्थापित किया जाना चाहिए, जो ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी शाखाओं का जाल बिछा कर वहाँ बैंकिंग सुविधाओं का विस्तार कर सके ।

इस हेतु यह सुझाव दिया गया कि इम्पीरियल बैंक तथा स्वतन्त्रतापूर्व देशी राज्यों में स्थापित अन्य दस बैंकों को मिलाकर स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना की जाए, जिसकी अधिकांश पूँजी भारत सरकार के पास हो । भारत सरकार ने इन अनुशंसाओं को स्वीकार करते हुए । 1 जुलाई, 1955 को स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना 20 करोड़ रुपये की अधिकृत पूंजी से की । स्टेट बैंक की पूँजी का 92 प्रतिशत भाग रिजर्व बैंक के पास तथा शेष 8% अन्य व्यक्तियों एवं संस्थाओं के पास है ।

ADVERTISEMENTS:

उद्देश्य एवं कार्य (Object and Functions):

उद्देश्य:

स्टेट बैंक की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य सार्वजनिक क्षेत्र में एक ऐसे शक्तिशाली बैंक की स्थापना करना था, जो देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं का व्यापक विस्तार तथा कृषि, लघु एवं कुटीर उद्योगों, लघु-व्यापार एवं निर्यात-व्यापार के अर्थ-प्रबन्धन की प्रभावकारी व्यवस्था कर सके ।

कार्य:

ADVERTISEMENTS:

इन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु स्टेट बैंक निम्नलिखित कार्य करता है:

(1) सामान्य बैंकिंग कार्य:

एक व्यापारिक बैंक के रूप में स्टेट बैंक:

(i) विभिन्न खातों में जनता की जमाएँ स्वीकार करता है ।

ADVERTISEMENTS:

(ii) सरकारी प्रतिभूतियों, विनिमय विपत्रों, प्रतिज्ञा-पत्रों, माल के अधिकार-पत्रों आदि के आधार पर व्यावसायिक ऋण प्रदान करता है ।

(iii) अपने कोषों का विनियोजन विभिन्न प्रकार की सरकारी, रेलवे व अन्य निगमों की प्रतिभूतियों में करता है ।

(iv) विभिन्न प्रकार की अन्य बैंकिंग सेवाएँ, जैसे सोने-चाँदी के सिक्कों का क्रय-विक्रय, लॉकर सुविधाएँ ड़ाफ्ट, तार आदि द्वारा धन के हस्तान्तरण की सुविधाएँ एजेन्ट, परिसमापक तथा निष्पादन (Agent, Liquidator and Executor) के रूप में सेवाएं भी उपलब्ध कराता है ।

(2) विशिष्ट कार्य:

अपनी स्थापना के उद्देश्यों के अनुरूप स्टेट बैंक:

(i) ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं के विस्तार,

(ii) लघु, कुटीर एवं ग्रामीण उद्योग-व्यवसायों के अर्थ-प्रबन्धन,

(iii) कृषि साख के प्रबन्धन एवं

(iv) निर्यात-व्यापार के अर्थ-प्रबन्धन से सम्बन्धित कार्य करता है ।

(3) केन्द्रीय बैंकिंग के कार्य:

जिन स्थानों पर रिजर्व बैंक (भारत का केन्द्रीय बैंक) की शाखाएँ नहीं हैं वहाँ स्टेट बैंक, रिजर्व बैंक के एजेन्ट के रूप में केन्द्रीय बैंक के कार्य करता है ।

इस नाते वह:

(i) सरकार के बैंकर के रूप में सरकारी धन प्राप्त करता है एवं सरकार के आदेशानुसार भुगतान करता है तथा सार्वजनिक ऋण की व्यवस्था करता है

(ii) बैंकों के बैंकर के रूप में व्यापारिक बैंकों की जमाएँ स्वीकार करता है,

आवश्यकता पड़ने पर उन्हें ऋण देता है, उनके बिलों की कटौती करता है तथा उन्हें धन हस्तान्तरण एवं सुविधाएँ प्रदान करता है ।

(4) अग्रणी बैंक के रूप में:

जिन जिलों में स्टेट बैंक से अग्रणी बैंक (Lead Bank) नामांकित किया गया है वहाँ वह अग्रणी बैंक के कार्य करता है ।

निषिद्ध कार्य (Prohibited Business):

स्टेट बैंक निम्नलिखित कार्य नहीं कर सकता:

(i) अंशों की प्रत्याभूति पर 6 माह से अधिक अवधि के ऋण स्वीकृत करना,

(ii) अपनी प्रशांसकीय आवश्यकताओं के अतिरिक्त कोई अन्य अचल सम्पत्ति क्रय करना;

Essay # 3. केन्द्रीय सहकारी बैंक (Central Co-Operative Bank):

हमारे देश के सभी राज्यों में मिश्रित सदस्यता वाले केन्द्रीय सहकारी बैंक जिला स्तर पर है । अंश पूँजी के अलावा ये बैंक राज्य सहकारी बैंक से ऋण भी प्राप्त करते हैं ।

नगरों में स्थापित होने के कारण ये बैंक व्यापारिक बैंकों के प्रायः सभी कार्य करते हैं । जनता की जमाओं (Deposits) पर ये बैंक व्यापारिक बैंकों से 1/2 प्रतिशत अधिक ब्याज देते हैं । केन्द्रीय सहकारी बैंक के क्षेत्र में आने वाली सभी सहकारी समितियों को अपनी अतिरिक्त राशियाँ अनिवार्यतः केन्द्रीय सहकारी बैंक में जमा करनी पड़ती हैं ।

केन्द्रीय सहकारी बैंक मुख्य रूप से प्राथमिक सहकारी समितियों में 10 से 12 प्रतिशत ब्याज पर 1 से 3 वर्ष तक की अवधि के लिए ऋण देते है । ये ऋण प्रायः विनिमय-विपत्रों के आधार पर दिये जाते है । केन्द्रीय बैंक इन विपत्रों की राज्य सहकारी बैंक में से पुनर्कटौती (Re-Discounting) करवा लेते हैं ।

Essay # 4. राज्य सहकारी बैंक (State Co-Operative Bank):

प्रत्येक राज्य में एक राज्य सहकारी बैंक की स्थापना की गई है । राज्य सहकारी बैंकों की सदस्यता प्रमुख रूप से केन्द्रीय सहकारी बैंकों तथा सीमित रूप में अर्थशास्त्र एवं सहकारिता के अनुभवी विद्वानों को दी जा सकती है । कुछ राज्यों में प्राथमिक सहकारी समितियों को भी इनकी सदस्यता प्राप्त है । जिन क्षेत्रों में केन्द्रीय सहकारी बैंक नहीं है, वहाँ राज्य सहकारी बैंक अपनी शाखायें खोल देते हैं ।

ये बैंक अपनी पूँजी अंश बेचकर, जमायें (Deposits) प्राप्त कर तथा ऋण लेकर प्राप्त करते हैं । रिजर्व बैंक से इन बैंकों को ऋण प्राप्त होता है तथा ये केन्द्रीय सहकारी बैंकों में 8 से 10 प्रतिशत ब्याज लेकर ऋण देते है । रिजर्व बैंक इन्हें राज्य सरकार की गारण्टी पर विनिमय-विपत्रों के आधार पर ऋण देता है ।

ये बैंक सहकारी प्रतिभूतियों तथा कृषि बिलों की धरोहर पर प्रायः 1 वर्ष के अल्पकालीन (विशेष परिस्थितियों में मध्यकालीन भी) ऋण देते है । इस प्रकार राज्य सहकारी बैंक, रिजर्व बैंक एवं प्राथमिक साख समितियों के मध्य महत्वपूर्ण कडी का कार्य करते है ।

Essay # 5. भूमि विकास बैंक (Land Development Bank):

इन बैंकों को पहले भूमि बन्धक बैंक (Land Mortgage Bank) कहा जाता था अब ये भूमि विकस बैंक (LDB) के नाम से जाने जाते हैं । प्रत्येक राज्य में एक केन्द्रीय भूमि विकस बैंक तथा सभी महत्वपूर्ण कृषि क्षेत्रों में एक-एक प्राथमिक भूमि विकस बैंक की स्थापना की गई है ।

केन्द्रीय बैंकों की पूँजी में सरकार, प्राथमिक भूमि विकास बैंकों, सहकारी बैंकों, सहकारी समितियों एवं ग्रामीण-कृषकों की भागीदारी है । प्राथमिक बैंक अपनी अंश पूंजी ग्रामीण जनता से ही प्राप्त करते है ।

भूमि विकस बैंक कृषकों के उनकी भूमि की जमानत पर दीर्घकलीन ऋण प्रदान करते हैं । ये ऋण भूमि अथवा कृषि उपकरण (जैसे ट्रैक्टर, पम्पसैट आदि) क्रय करने तथा भूमि में स्थायी सुधार कार्यों (जैसे कुआँ खोदना, भूमि का समतलीकरण करना, आदि) कार्यों के लिए दिये जाते है ।

प्राथमिक बैंक स्वयं ऋण स्वीकृत नहीं करता, वह तो प्राप्त आवेदन-पत्रों, भूमि सम्बन्धी दस्तावेजों आदि की जाँच सके, उन्हें केन्द्रीय बैंक को भेज देता है । केन्द्रीय भूमि बन्धक बैंक ऋण स्वीकृति की सूचना प्राथमिक बैंक को भेजता है तत्पश्चात् बन्धक रखी जाने वाली भूमि की रजिस्ट्री कराई जाती है । ये बैंक प्रायः 7 से 10 वर्ष तक की अवधि के ऋण देते है ।

केन्द्रीय भूमि विकास बैंक ऋण-पत्रों को निर्गमित करके साधन प्राप्त करते हैं । चूँकि इन ऋण-पत्रों पर राज्य सरकर की गारण्टी होती है अतः इन्हें बेचने में अधिक कठिनाई नहीं रहती । व्यापारिक बैंक इन ऋण-पत्रों में विनियोजन करना पसन्द करते है क्योंकि एक तो उन्हें अच्छा ब्याज मिल जाता है, दूसरे वे आवश्यकता पड़ने पर इन ऋण-पत्रों के आधार पर रिजर्व बैंक से ऋण प्राप्त कर सकते हैं ।

Essay # 6. भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (Industrial Development Bank of India):

भारतीय औद्योगिक विकास बैंक की स्थापना 1 जुलाई, 1964 को 225 करोड़ रुपये की पूँजी से की गई थी । आरम्भ में इसकी स्थापना रिजर्व बैंक के सहायक के रूप में की गई थी किन्तु 1976 से इसकी समस्त पूंजी भारत सरकार द्वारा क्रय करके इसे एक स्वतन्त्र संस्था का रूप दे दिया गया ।

उद्देश्य एवं कार्य (Objects and Functions):

औद्योगिक बैंक की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य वृहत् स्तरीय उद्योगों की दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना तथा अन्य वित्तीय संस्थानों के कार्यों के समन्वय स्थापित करना था ।

इसके महत्वपूर्ण कार्य निम्नानुसार हैं:

(I) पुनर्वित्त व्यवस्था (Refinance):

 

यह बैंक निम्नानुसार पुनर्वित्त की सुविधायें प्रदान करता है:

(a) वित्तीय संस्थाओं को 3 से 25 वर्षों तक के लिए,

(b) सहकारी बैंक तथा अनुसूचित बैंकों द्वारा स्वीकृत औद्योगिक ऋणों पर 3 से 10 वर्षों तक के लिए,

(c) अनुसूचित बैंकों द्वारा स्वीकृत निर्यात ऋणों पर 6 माह से 10 वर्षों तक के लिए ।

(II) प्रत्यक्ष सहायता (Direct Assistance):

पुनर्वित्त के अतिरिक्त यह बैंक विभिन्न उद्योगों को प्रत्यक्ष सहायता भी देता है ।

यह सहायता:

(i) प्रत्यक्षत्रण,

(ii) अंशों एवं ऋण-पत्रों का क्रय एवं अभिगोपन,

(iii) अन्य साधनों से प्राप्त ऋणों के स्थगित भुगतानों (Deferred Payment) की प्रत्याभूति देकर,

(iv) व्यापारिक बिलों तथा प्रतिज्ञा-पत्रों की कटौती या पुनर्कटौती करके, तथा

(v) अन्य साधनों से ऋण दिलाने की व्यवस्था करके तथा कमी पड़ने पर स्वयं पूर्ति करके, प्रदान की जाती है ।

(III) पिछड़े क्षेत्रों एवं लघु उद्योग क्षेत्र को सहायता (Assistance to Backward Areas and Small Scale Sector):

यह बैंक पिछड़े क्षेत्रों के विकस के लिए विशेष सहायता देता है तथा लघु उद्योगों के विकास के लिए भी सहायता देता है ।

(IV) शोध एवं सर्वेक्षण (Research and Survey):

बैंक द्वारा माल के क्रय-विक्रय तथा विनियोग से सम्बन्धित शोध एवं सर्वेक्षण का कार्य भी किया जाता है । इस हेतु बैंक तकनीकी सहायता भी उपलब्ध कराता है ।

Essay # 7. भारतीय निर्यात-आयात बैंक (EXIM) (Export-Import Bank of India):

इस बैंक की स्थापना 1 जनवरी, 1982 को 200 करोड़ रु. की अधिकृत पूँजी से की गई थी । इसकी समस्त दत्त पूँजी (50 करोड़ रु.) भारत सरकार द्वारा प्रदान की गई है ।

इसके अतिरिक्त बैंक:

(i) भारत सरकार से ऋण ले सकता है,

(ii) रिजर्व बैंक तथा उसके National Industrial Credit (Long Term Operation) Fund से ऋण ले सकता है,

(iii) भारत में अथवा भारत के बाहर विदेशी मुद्रा में ऋण ले सकता है,

(iv) बॉण्ड तथा ऋण-पत्रों के निर्गमन द्वारा बाजार से साधन जुटा सकता है ।

उद्देश्य एवं कार्य (Objective and Functions):

निर्यात-आयात बैंक एक शीर्षस्थ संस्था है, जिसकी स्थापना दो प्रमुख उद्देश्यों से की गई है:

(1) निर्यातकों एवं आयातकों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कतना, तथा

(2) वस्तुओं एवं सेवाओं के आयात-निर्यात में संलग्न अन्य संस्थाओं के कार्यों में समन्वय स्थापित करना ।

इस बैंक के प्रमुख कार्य हैं:

(i) भारत के आयात-निर्यात व्यापार (तृतीय देशों से सम्मिलित करते हुए) का अर्थ-प्रबन्धन करना;

(ii) विदेशों में संयुक्त-उपक्रमों (Joint Ventures) का वित्त-प्रबन्धन करना;

(iii) लीज (Lease) के आधार पर मशीनरी एवं उपकरणों के आयात-निर्यात का वित्त-प्रबन्यन करना;

(iv) विदेश में स्थापित किसी संयुक्त-उपक्रम में भारतीयों द्वारा पूँजी लगाये जाने हेतु ऋण प्रदान करना,

(v) भारतीय औद्योगिक विकास बैंक द्वार किये जाने वाले निर्यात अर्थ-प्रबन्धन के समस्त कार्य करना,

(vi) यह बैंक अर्थ-प्रबन्धन (Financing) के तीन प्रमुख कार्यक्रम चला रहा है:

(a) भारतीय कम्पनियों तथा विदेशी सरकारों, कम्पनियों एवं वित्तीय संस्थानों को ऋण,

(b) बिलों की पुनर्कटौती (Rediscounting) तथा

(c) निर्माण एवं टर्नकी (Construction and Turnkey) अनुबन्धों की गारण्टी सहायता ।

Essay # 8. राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (National Bank for Agricultural and Rural Development):

14 प्रमुख बैंकों के राष्ट्रीयकरण तथा कृषि पुनर्वित्त एवं विकास निगम (Agricultural Refinance) की स्थापना के उपरान्त भी कृषि-वित्त की प्रभावकारी व्यवस्था नहीं की जा सकी । भारत सरकार की प्रेरणा पर रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया ने कृषि एवं ग्रामीण विकस में संस्थागत वित्त (Institutional Finance) के प्रभाव का अध्ययन करने हेतु शिवरामन समिति (Shiva Raman Committee) की नियुक्ति की ।

मार्च, 1981 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में इस समिति ने यह सुझाव दिया कि कृषि एवं ग्रामीण विकास से सम्बन्धित समस्त समस्याओं के निराकरण हेतु आवश्यक धन जई व्यवस्था करने हेतु एक ऐसे शक्तिशाली बैंक की स्थापना की जानी चाहिए; जो कृषि-वित्त के रिजर्व बैंक के दायित्व को अपने ऊपर ले सके । इस सिफारिश को 12 जुलाई, 1982 को राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (NABARD) की स्थापना कर कार्यान्वित किया गया ।

 

वित्तीय साधन (Financial Resources):

 

इस बैंक की स्थापना 200 करोड़ रु. की पूँजी से की गई है, जिसमें भारत सरकार तथा रिजर्व बैंक की बराबर-बराबर की भागीदारी है । इसे 500 करोड़ रु. तक बढ़ाया जा सकता है । इस बैंक ने कृषि पुनर्वित्त एवं विकास निगम (ARDC) की समस्त सम्पत्तियों का अधिग्रहण कर लिया है ।

अल्पकालीन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ये बैंक रिजर्व बैंक से उधार प्राप्त कर सकता है । रिजर्व बैंक के दोनों कोषों-राष्ट्रीय कृषि साख (दीर्घकालीन) कोष तथा राष्ट्रीय कृषि साख (स्थिरीकरण) कोष-नाबार्ड को हस्तान्तरित कर दिए गए है । यह बैंक भारत सरकार से उधार ले सकता है, स्थानीय प्राधिकरणों तथा अनुसूचित बैंकों से जमाएँ स्वीकार कर सकता है एवं बाजार में ऋण-पत्र बॉण्ड निर्गमित कर सकता है ।

प्रमुख कार्य (Important Functions):

नाबार्ड रिजर्व बैंक के कृषि साख विभाग द्वारा किए जाने वाले समस्त कार्यों को सम्पादित करता है । इसकी स्थापना का प्रमुख उद्देश्य कृषि एवं ग्रामीण विकास के सभी क्षेत्रों के लिए आवश्यक पर्याप्त वित्तीय साधन एवं तकनीकी जानकारी उपलब्ध कराना है ।

इसके प्रमुख कार्य निम्नानुसार हैं:

(1) कृषि एवं अन्य ग्रामीण क्रियाओं (जैसे कारीगरी, लघु एवं कुटीर उद्योगों, आदि के नियोजन एवं विकास हेतु उपयुक्त ढाँचा (Frame Work) तैयार करना ।)

(2) ग्रामीण क्षेत्रों के सभी महत्वपूर्ण अंगों- कृषि, हस्तशिल्प एवं कारीगरी, लघु एवं कुटीर उद्योग, आदि के लिए पुनर्वित्त (Refinance) की व्यवस्था करना ।

(3) राज्य सहकारी बैंकों एवं क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को 18 माह तक की अवधि के लिए पुनर्वित्त स्वीकार करना, जिसे विशेष प्रकरणों में 7 वर्षीय मध्यकालीन पुनर्वित्त में बदला जा सकता है ।

(4) भूमि विकास बैंकों, अनुसूचित व्यापारिक बैंकों, ग्रामीण बैकों तथा राज्य सहकारी बैंकों के लिए 25 वर्षों तक की अवधि के दीर्घकालीन ऋणों कीं व्यवस्था करना ।

(5) सहकारी समितियों के अंश क्रय करने हेतु 20 वर्ष तक की अवधि के ऋण राज्य सरकारों को स्वीकृत करना ।

(6) ग्रामीण समाज का गहन अध्ययन करने तथा उनकी समस्याओं के निराकरण हेतु सुझाव देने के लिए शोध एवं विकास कोष (Research and Development Fund) की स्थापना करना ।

Essay # 9. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (Regional Rural Banks):

ग्रामीण क्षेत्रों में साख सम्बन्धी सुविधाओं का विस्तार करने हेतु समय-समय पर विभिन्न प्रकार के प्रयास किये जाते रहे है । 1945 में गाडगिल समिति ने कृषि साख निगम की स्थापना करने, 1950 में ग्रामीण बैंकिंग जाँच समिति ने सहकारी बैंकों को सुदृढ़ बनाने तथा ग्रामीण साख सर्वेक्षण समिति ने 1954 में सहकारी साख की सक्षम व्यवस्था करने पर बल दिया ।

14 प्रमुख व्यापारिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण के घोषित उद्देश्यों में एक महत्वपूर्ण उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग तथा साख सुविधाओं का विस्तार करना था । इन समस्त प्रयासों के बावजूद भी इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति न हो सकी । अतः 1972 में बैंकिंग आयोग (Banking Commission, 1972) ने कृषि एवं ग्रामीण उद्योगों की साख एवं विकास सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायता देने के लिए ‘क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों’ की स्थापना करने का सुझाव दिया ।

ग्रामीण बैंकों की स्थापना के पीछे दो महत्वपूर्ण कारण थे:

(1) सहकारी एवं व्यापारिक बैंकों ने ग्रामीण क्षेत्रों एवं लघु कृषकों की साख-सम्बन्धी आवश्यकताओं में वांछित रुचि नहीं ली ।

(2) व्यापारिक बैंकों में शहरी अभिरुचियों वाले अधिकारियों, कर्मचारियों के स्थान पर ग्रामीण अभिरुचियों एवं रुझान (Aptitude) वाले कर्मचारियों से युक्त ग्रामीण बैंक खोलना जो ग्रामीणों, छोटे कृषकों, कारीगरों की आवश्यकताओं को समझ सकें तथा जिन्हें इनकी व्यावहारिक समस्याओं में रुचि हो ।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की योजना (Scheme for Regional Rural Bank):

भारत सरकार ने 1975 में 50 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना करने के कार्यक्रम की घोषणा की । प्रथम पाँच क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का शुभारम्भ 2 अक्तूबर, 1975 को किया गया । मार्च, 1990 देश में 196 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक कार्यरत थे जिनकी कुल शाखाओं की संख्या 14,651 थी । वर्तमान में देश में 64 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक कार्यरत हैं जिनकी कुल शाखाओं की संख्या 18823 है ।

पूँजी एवं प्रबन्ध:

प्रत्येक ग्रामीण बैंक की अधिकृत पूँजी 1 करोड़ रु. दत्त पूँजी 25 लाख रु. है, जिसमें 50% भारत सरकार द्वारा 15 प्रतिशत सम्बन्धित राज्य सरकर द्वारा, 35 प्रतिशत प्रायोजक व्यापारिक बैंकर (Sponsoring Bank) द्वारा प्रदान की जाती है ।

कार्य-क्षेत्र एवं कार्य-प्रणाली:

(1) इन बैंकों का कार्य-क्षेत्र प्रायः एक या दो जिलों तक ही सीमित होता है ।

(2) ये बैंक लघु-कृषकों, ग्रामीण-हस्तकारों एवं छोटे व्यापारियों एवं उत्पादकों को साख सुविधायें उपलब्ध कराते है ।

(3) ऋणों पर कम दर से ब्याज लिया जाता है । इसकी ब्याज दर सहकारी समितियों द्वारा लिये जाने वाली दर से अधिक नहीं रहती ।

(4) इनके कर्मचारियों को अन्य व्यापारिक, राष्ट्रीयकृत बैंकों के कर्मचारियों के समान वेतन न देकर इनके वेतन राज्य सरकार के कर्मचारियों, स्थानीय निकायों के कर्मचारियों के अनुरूप रखे जाते हैं । भावना यह है कि ग्रामीण बैंकों के कर्मचारी ग्रामीण परिवेश के अनुरूप जीवन-शैली अपनायें ।

(5) ये बैंक स्थानीय भाषा तथा सरल कार्य प्रणाली का प्रयोग करते हैं तथा अपने ग्राहकों से बैंक से व्यवहार करने में सहायता देने हेतु तत्पर रहते हैं ।

ग्रामीण बैंक एवं दाँतवाला समिति (Dantwala Committee and Rural Bank):

ग्रामीण बैंकों के औचित्य तथा उनकी भूमिका पर रिपोर्ट देने हेतु जनता सरकार द्वार प्रो. एम. एल. दाँतवाला की अध्यक्षता में एक समिति की नियुक्ति की गई । इस समिति ने ग्रामीण बैंकों की आवश्यकता स्वीकार करते हुए इन बैंकों को और अधिक शक्तिशाली बनाने तथा ग्रामीण बैंकिंग एवं साख के क्षेत्र में इनकी भूमिका को और अधिक सार्थक बनाने का सुझाव दिया ।

प्रगति (Progress):

मार्च, 1990 तक हमारे देश में 23 राज्यों में 196 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक स्थापित हो चुके थे जिनकी 14,651 शाखाएँ थी । मार्च, 1990 तक इन बैंकों ने कुल 809 करोड़ रु. की अल्पकालीन साख स्वीकृत की थी जिसका 90% भाग समाज के दुर्बल वर्ग (Weaker Section) प्रदान किया गया था । इसी प्रकार वर्ष 2013-14 में शाखाओं की स्थिति बढ़कर 18823 हो गई है ।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की वित्तीय स्थिति अत्यन्त दुर्बल हो गई है तथा अधिकांश बैंक भारी घाटे में चल रहे है । 7 मई, 1986 को जबलपुर में आयोजित ‘आल इण्डिया ग्रामीण बैंक वर्कर्स ऑर्गेनाइजेशन’ के तीसरे द्विवार्षिक अधिवेशन में संस्था के अध्यक्ष सी एस. के. राठौर के अनुसार देश में 120 से अधिक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक इस समय भारी घाटे में चल रहे हैं । इनमें से 75 से अधिक ग्रामीण बैंक तो अपनी पूरी जमा पूँजी भी घाटे में खत्म कर चुके हैं ।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का भारी घाटे में चलने का प्रमुख कारण सरकार की दोषपूर्ण नीतियाँ तथा इन बैंकों का कुप्रबन्ध है । इस हालत से मरने का केवल एक ही सस्ता है, जैसी कि रिजर्व बैंक ने सिफारिश की है कि ग्रामीण बैंकों के व्यावसायिक बैंकों में मिला दिया जाए ।

Essay # 10. राष्ट्रीय आवासन बैंक (National Housing Bank):

देश में आवास की गम्भीर समस्या को हल करने एवं राष्ट्रीय आवासन नीति के अनुसार देश में आवास-सुविधाओं के विस्तार हेतु अर्थ-प्रबन्धन की व्यवस्था करने के उद्देश्य से जुलाई, 1988 में राष्ट्रिय आवासन बैंक की स्थापना रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की सहायक (Subsidiary) संस्था के रूप में की गई । आवासन-वित्त (Housing Finance) के क्षेत्र में यह बैंक शीर्षस्थ संस्था है ।

वित्तीय संसाधन (Financial Resources):

यह बैंक निम्नलिखित साधनों से वित्तीय साधन जुटा सकती है:

(1) बॉण्ड तथा ऋण-पत्र निर्गमित करके;

(2) रिजर्व बैंक द्वारा स्थापित राष्ट्रीय आवासन साख (दीर्घकालीन संक्रियाएँ) कोष [National Housing Credit (Long-Term Operation) Fund] से दीर्घकालीन ऋण प्राप्त करके;

(3) रिजर्व बैंक से 18 महीनों की अवधि के अल्प-कालीन ऋण प्राप्त करके,

(4) भारत एवं विदेशों में स्थित वित्तीय संस्थाओं से विदेशी मुद्रा में ऋण प्राप्त करके,

(5) केन्द्रीय सरकार एवं अन्य संस्थाओं से उधार लेकर तथा दीर्घकालीन जमाएँ स्वीकार करके ।

गृह ऋण-खाता योजना (Home Loan Account):

राष्ट्रीय आवासन बैंक ने व्यापारिक एवं-सहरी बैंकों के माध्यम से गृह ऋण-खाता योजना जुलाई, 1989 से लागू की है जिसके अन्तर्गत गृह निर्माण हेतु ऋण प्राप्त करने का इच्छुक कोई भी व्यक्ति किसी व्यापारिक या सहकारी बैंक में गृह ऋण-खाता खोलकर एक निश्चित राशि 5 वर्षों तक जमा करता रहता है ।

5 वर्ष पश्चात् वह व्यक्ति जमा की गई राशि के अनुसार निर्धारित राशि तक का ऋण प्राप्त कर सकता है । व्यापारिक (सहकारी) बैंकों द्वारा इस प्रकार दिये जाने वाले ऋणों के लिए राष्ट्रीय आवासन बैंक उन्हें पुन: वित्त स्वीकृत करता है ।

कार्य एवं उद्देश्य (Functions and Objectives):

राष्ट्रीय आवासन बैंक के प्रमुख कार्य निम्नानुसार हैं:

(i) आवासन वित्त संस्थाओं की स्थापना करना (To Establish Housing Financing Institutions):

इस प्रमुख कार्य ऐसी संस्थाओं की स्थापना करना तथा उनका विकास करना है जो आवासन हेतु वित्तीय संसाधन एकत्रित कर आवासन-वित्त प्रदान कर सकें ।

(ii) गारण्टी तथा अभिगोपन (Guarantee and Underwriting):

यह बैंक आवासन-वित्त संस्थाओं को गारण्टी तथा अभिगोपन की सुविधा प्रदान करती है ।

(iii) पुनःवित्त (Refinance):

आवासन-वित्त संस्थाओं को यह बैंक पुनः वित्त प्रदान करती है ।

(iv) आवासन वित्त (Housing Finance):

यह बैंक आवासन हेतु आवश्यक वितीय साधन जुटाने एवं आवासन-ऋण उपलब्ध करने हेतु योजनाएं बनाती है ।

(v) अनुदान (Subsidy):

 

यह बैंक आर्थिक रूप से निर्बल व्यक्तियों के लिए बनाई गई आवासन-ऋण योजनाओं के अन्तर्गत अनुदान (Subsidy) भी प्रदान कर सकती है ।

(vi) मार्गदर्शन एवं समन्वय (Guidance and Co-Ordination):

यह बैंक आवासन-वित्त संस्थाओं के विकास हेतु उनके मार्ग दर्शन के लिए आवश्यक नियम बना सकती है, उन्हें तकनीकी एवं प्रशासनिक सहायता दे सकती है तथा विभिन्न आवासन-वित्त संस्थाओं में आवश्यक समन्वय स्थापित कर सकती है ।

(vii) परामर्शदात्री सेवायें (Advisory Services):

यह बैंक आवासन सम्बन्धी समस्त मामलों में केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों, स्थानीय संस्थाओं तथा अन्य सम्बन्धित एजेन्सियों को परामर्शदायी सेवाएँ दे सकती है ।

Essay # 11. भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (Small Industries Development Bank of India):

लघु उद्योगों की वित्त व्यवस्था हेतु एक अलग शीर्षस्थ संस्था के रूप में भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक की स्थापना 1990 में की गई । यह बैंक औद्योगिक विकास बैंक (IDBI) के सहायक बैंक के रूप में देश में लघु उद्योगों की स्थापना, वित्त प्रबन्धन एवं विकास करने हेतु कार्य करता है तथा लघु उद्योगों के क्षेत्र में कार्यरत अन्य सभी संस्थाओं के कार्यों में समन्वय भी करता है ।

पूँजी (Capital):

बैंक नई अधिकृत पूँजी 250 करोड़ रु. है, जो भारतीय औद्योगिक विकस बैंक द्वारा प्रदान की गई है । ये बैंक भारत सरकर तथा रिजर्व बैंक से ऋण लेकर अपने संसाधन रख सकता है ।

कार्य एवं उद्देश्य (Functions and Objectives):

1988-89 में बजट प्रस्तुत करते समय तत्कालीन वित्त मन्त्री थी एन.डी.तिवारी, ने अपने भाषण में कहा था-

”बहुत छोटे तथा लघु उद्योगों की यह माँग बहुत समय से थी कि उनके लिए एक अलग शीर्ष बैंक (Apex Bank) हो……. यह नया बैंक भारत के औद्योगिक विकास बैंक का सहायक (Subsidiary) होगा । नये बैंक की पूँजी 250 करोड़ रु. होगी । इसका अपना अलग निर्देशक-मण्डल होगा । जिसमें लघु-उद्योग क्षेत्र के प्रतिनिधि भी सम्मिलित होंगे । यह नया बैंक मई, 1986 में स्थापित लघु उद्योग विकास कोष (Small Industries Development Fund) तथा बहुत छोटे एवं लघु उद्योग क्षेत्र की परियोजनाओं को इक्विटी सहायता (Equity Support) देने हेतु राष्ट्रीय इक्विटी कोष (National Equity Fund) इन दोनों का प्रशासन भी करेगा ।”

इस बैंक के प्रमुख कार्य निम्नानुसार हैं:

(i) पुनर्वित्त सहायता (Refinance):

लघु क्षेत्र की इकाइयों से ऋण एवं अग्रिम प्रदान करने वाली प्राथमिक वित्त संस्थाओं (Primary Financial Institutions) को पुनर्वित्त की व्यवस्था करना तथा उन्हें वित्तीय सहायता प्रदान करना ।

(ii) विनिमय-पत्रों को भुनाना (Discounting/Rediscounting of Bills):

लघु-क्षेत्र की औद्योगिक इकाइयों द्वारा निर्मित मशीनों की बिक्री या उनको बेची गई मशीनों के आधार पर लिखे गए विनिमय-विपत्रों को भुनाना या पुनर्भुनाना ।

(iii) ऋण एवं अग्रिम (Loans and Advances):

लघु इकाइयों की ऋण एवं अग्रिम स्वीकृत सना तथा इनके द्वार निर्गमित अंशों ऋण-पत्रों एवं बॉण्डों को क्रय करना ।

(iv) निर्यात वित्त व्यवस्था (Export Financing):

लघु क्षेत्र की इकाइयों द्वारा निर्मित माल के निर्यात हेतु वित्त व्यवस्था करना तथा इस हेतु ऋण स्वीकृत सना अथवा किसी प्राथमिक वित्त संस्था द्वारा दिए गये ऋणों पर पुनर्वित्त प्रदान करना ।

(v) जोखिम पूंजी तथा आसान ऋण (Seed Capital and Soft-Loans):

राष्ट्रीय इक्विटी कोष (National Equity Fund) में से लघु-क्षेत्र की इकाइयों को जोखिम पूंजी एवं आसान शर्तों पर ऋण (Soft-Loans) देना ।

(vi) फैक्टरिंग तथा लीजिंग सुविधाएँ (Factoring and Leasing):

लघु क्षेत्र की इकाइयों को लेनदारी क्रय (Factoring) तथा लीजिंग (Leasing) की सेवाएं प्रदान करना ।

(vii) स्थापना, विस्तार एवं प्रबन्ध हेतु सहायता (Assistance for Establishment, Extension and Management):

लघु क्षेत्र की इकाइयों को उनकी स्थापना प्रबन्ध अथवा विस्तार हेतु तकनीकी, विधिक, विपणन सम्बन्धी या प्रशासनिक सहायता प्रदान करना ।

सक्षेप में यह कहा जा सकता है कि लघु उद्योगों के विकास एवं विस्तार हेतु जो कार्य पहले औद्योगिक विकस बैंक (IDBI) द्वारा किए जाते थे, वे अब लघु उद्योग विकस बैंक (SIDBI) द्वारा किये जा रहे हैं ।

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