Here is an essay on ‘Black Money’ for class 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Black Money’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Black Money
Essay Contents:
- काले धन का परिचय (Introduction to Black Money)
- काले धन के अनुमान (Estimates of Black Money)
- काले धन की वृद्धि के कारण (Causes for Growth of Black Money)
- काले धन का प्रभाव (Impact of Black Money)
- काले धन का उचित उपाय (Suitable Measures to Control Black Money)
Essay # 1. काले धन का परिचय (Introduction to Black Money):
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शब्द ‘समानान्तर अर्थव्यवस्था’ अथवा ‘काला धन’ ऐसे धन के सन्दर्भ में प्रयुक्त होता है जो गुप्त गतिविधियों द्वारा उत्पन्न किया जाता है क्योंकि, अधिकारियों को इसकी सूचना प्राप्त हो जाने की आशंका बनी रहती है । अन्य शब्दों में इसे अर्थव्यवस्था में अस्वीकृत क्षेत्र कहा जा सकता है जिसके उद्देश्य स्वीकृत सामाजिक उद्देश्यों के विपरीत चलने के स्थान पर उनके समानान्तर चलते हैं । इसका अर्थ अवैध अर्थव्यवस्था अथवा अस्पष्टीकृत धन भी है ।
ऐसी अस्वीकृत अथवा काली अर्थव्यवस्था के उद्देश्य मूल अर्थव्यवस्था के समानान्तर चलते हैं परन्तु घोषित सामाजिक उद्देश्यों के विपरीत होते हैं । इस प्रकार की अर्थव्यवस्था ‘काली अर्थव्यवस्था’, ‘अवैध अर्थव्यवस्था’, ‘अस्पष्टीकृत अर्थव्यवस्था’, ‘अविवरणित अर्थव्यवस्था’, ‘भूमिगत अर्थव्यवस्था’, अस्वीकृत अर्थव्यवस्था’ के नाम से भी जानी जाती है ।
”लोकप्रिय भाषा शैली में, एक अनाधिकारिक अर्थव्यवस्था काले धन के नाम से चलती है तथा अधिकारिक अर्थव्यवस्था सफेद धन के नाम से । काले और सफेद का प्रतिस्थापन नम्बर 2 और नम्बर 1, अस्पष्टीकृत और स्पष्टीकृत, अविवरणित और विवरणित, अलिखित और लिखित इत्यादि के रूप में किया जाता है ।”
समानान्तर अर्थव्यवस्था के राजनीतिक, व्यापारिक, वैध, औद्योगिक, सामाजिक और नैतिक पहलू होते हैं । समानान्तर अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत वैध और अवैध क्षेत्रों के उद्देश्यों के बीच विस्तृत विरोध होता है । भारत में समानान्तर अर्थव्यवस्था के अस्तित्व के कारण समाज का समाजवादी प्रतिमान असन्तुष्ट है ।
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समानान्तर अथवा काली अर्थव्यवस्था का आरम्भ दूसरे विश्व युद्ध से हुआ जब देश को आवश्यक वस्तुओं के गम्भीर अभाव का अनुभव करना पड़ा तथा सरकार ने इन वस्तुओं की पूर्ति के लिये नियन्त्रण प्रणाली का प्रयोग किया । स्वतन्त्रता के पश्चात काल में अर्थव्यवस्था के विकास से समानान्तर अर्थव्यवस्था अथवा काले धन की सीमा बहुत बढ़ गई है तथा आर्थिक गतिविधियों के निर्धारण में प्रभुत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है तथा राष्ट्रीय नीतियों को ढालने में भी भाग ले रही है ।
इससे उत्पादन का गठन और संरचना परिवर्तित हो रहे है तथा भारी काले धन वाली एक सशक्त श्रेणी का विकास हो रहा है । काले धन के संचालकों की बढ़ती हुई संख्या, अपने हितों के अनुकूल समानान्तर अर्थव्यवस्था की स्थापना में सफल हुई है जो देश के राष्ट्रीय हितों के बिल्कुल विपरीत है ।
यदि समानान्तर अर्थव्यवस्था, अधिकारिक अर्थव्यवस्था के स्थायित्व और वृद्धि के लिये गम्भीरखतरा बनी हुई है, तो निश्चित रूप में ”काले धन का विस्तार बहुत बड़ा है तथा उसके आकार की मात्रा और जटिलता गम्भीरतापूर्वक बढ़ रही है । काले धन के रूप में बढ़ती हुई आय, आय और धन की असमानताओं को बढ़ा रही है और समाज में दो नम्बर के समृद्ध लोगों की एक श्रेणी जन्म ले रही है जो पहले से ही कटुतापूर्वक स्तरित है । असमानताएं अब छिपी हुई नहीं हैं । नये, दो नम्बर के समृद्धों का दिखावे वाले उपभोग, ठाठ-बाठ और धन-सम्पत्ति का भद्दा दिखावा, उन्हें धन की असीमित उपलब्धता, विभिन्न स्थानों और देशों में उनकी सम्पत्ति और महत्वपूर्ण स्थानों पर उनका प्रभाव किसी से छिपा नहीं है ।”
डी. आर. पैन्डसे कहते हैं कि काले धन के दो सम्भव स्रोत हैं । पहले तो यह अवैध अनुतोषों (Gifts) से उत्तपन्न होने वाली अवैध आय तथा ‘सलामी’ अथवा ‘पगड़ी’ अथवा भ्रष्टाचार या रिश्वतख़ोरी से कमाये धन से उत्पन्न होती है । दूसरे, यह वैध स्रोतों से उत्पन्न हो सकती है, परन्तु कर-अधिकारियों से छुप कर वंचन से उत्पन्न होती है । बड़े-बड़े शहरों में डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड अकाऊटैंट, वकील प्रायः अपनी आय की बड़ी-बड़ी राशियां छुपा लेते हैं, यद्यपि आय वैध ढंग से अर्जित की होती है ।
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विभिन्न स्थितियों के अन्तर्गत यह काला धन सफेद धन में परिवर्तित किया जाता है अथवा सफेद धन को भी काले धन में परिवर्तित किया जाता है । काले धन की यह समस्या बहुत मिश्रित एवं विवादास्पद समस्या है जिसका पृथक्कीरण बहुत कठिन है । इसलिये समानान्तर अर्थव्यवस्था के आन्तरिक शाखा विस्तार ने निर्धन एवं धनाढय लोगों के बीच की खाई को बड़ा दिया है । समस्या की प्रबलता इतनी तीक्ष्ण है कि यह अर्थव्यवस्था के लिये चिन्ता का विषय बन गई है ।
Essay # 2. काले धन के अनुमान (Estimates of Black Money):
देश में काले धन का अनुमान लगाने के लिये समय-समय पर विभिन्न प्रयत्न किये जाते रहे हैं ।
कुछ महत्वपूर्ण अनुमानों का वर्णन नीचे किया गया है:
1. कैलडोर के अनुमान (Kaldor’s Estimates):
एन. कैलडोर ने भारतीय कर सुधारों से सम्बन्धित अपने विवरण में गैर-राष्ट्रीय आय का अनुमान इस प्रकार लगाया:
(i) मजदूरी और वेतन,
(ii) स्व-नियुक्त लोगों की आय,
(iii) आय ब्याज और लगान ।
उसके विवरण के अनुसार वर्ष 1953-54 में काले धन की राशि 600 करोड़ तक थी जो कुल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) का 6.0 प्रतिशत था ।
2. वांन्चू समिति के अनुमान (Wanchoo Committee’s Estimates):
समिति ने गैर-वेतन आय का वर्ष 1961-62 के लिये अनुमान 2,686 करोड़ रुपये लगाया तथा गैर-वेतन आय जो वास्तव में कर निर्धारण के लिये प्रयुक्त हुई, वह 1875 करोड़ रुपये थी अतः 811 करोड़ रुपयों के लिये कर प्राप्त नहीं हो सका । इसलिये वर्ष 1961-62 में काले धन की राशि 700 करोड़ रुपये थी जो 1965-66 में 1,400 करोड़ रुपयों तक तथा 1965-66 में 1400 करोड़ रुपयों तक और 1969-70 में यह कुल राष्ट्रीय उत्पाद का 4.4 प्रतिशत थी ।
3. रंगनेकर के अनुमान (Rangnekar’s Estimates):
डी. के. रगनेकर के अनुमान के अनुसार वर्ष 1961-62 में 1,150 करोड रुपये की कर-वंचना हुई । इसकी तुलना में DTES द्वारा अनुमानित राशि 850 करोड़ रुपये थी । वर्ष 1965-66 के लिये यह 2,350 करोड़ रुपये थी जबकि DTEC के अनुमान की राशि 1,216 करोड़ रुपये थी जो कि कुल राष्ट्रीय उत्पाद का 8.4 प्रतिशत है ।
4. चोपड़ा के अनुमान (Chopra’s Estimates):
श्री ओ. पी. चोपड़ा के अनुसार वर्ष 1960-61 से लेकर वर्ष 1977-78 तक, 18 वर्षों के लिये अस्पष्ट आय के अनुमान 916 करोड़ रुपयों से बढ़ कर 8,098 करोड़ रुपये हो गये । चोपड़ा ने स्पष्ट किया है कि वर्ष 1973-74 के पश्चात् अस्पष्ट आय का अनुपात संयुक्त गैर-वेतन आय से बढ़ गया है । वर्ष 1976-77 में कुल राष्ट्रीय उत्पाद का 10.5 प्रतिशत था ।
5. गुप्ता के अनुमान (Gupta’s Estimates):
पूनम गुप्ता और संजीव गुप्ता ने देश में काले धन का अनुमान लगाने के लिए फीग (Feige) की सौदा आय अनुपात प्रणाली का प्रयोग किया (फीग का मानना था कि कुल सौदों का कुल आय से अनुपात सापेक्षतया स्थिर था) । उन्होंने वर्ष 1967-68 से 1978-79 के वर्षों के लिये काले धन का अनुमान लगाने के लिये तीन वर्षों अर्थात् 1949-50, 1950-51 और 1951-52 की औसत का प्रयोग किया । धन जो वर्ष 1967-68 में 3,034 करोड़ रुपये था वर्ष 1978-79 बढ़ कर 46,867 करोड़ रूपये हो गया ।
अतः उपरोक्त अनुमान अनुसार काले धन के अध्ययन की मुख्य खोजें निम्नलिखित प्रकार हैं:
i. एक प्रफुल्लत अर्थव्यवस्था अस्पष्ट आय के अधिक अवसर उपलब्ध करती है ।
ii. अस्पष्ट आय का कर योग्य गैर-वेतन आय से अनुपात वर्ष 1973-74 से अधिक हुआ है ।
iii. कीमतों में वृद्धि काले धन की वृद्धि की ओर ले जाती है ।
iv. काले धन को सफेद धन में परिवर्तित करने के लिये कोष को कृषि की ओर परिवर्तित किया जाता है ।
v. सम्पूर्ण करों में एक प्रतिशत की वृद्धि काले धन वाली अर्थव्यवस्था को अधिकारिक अर्थव्यवस्था की तुलना में 3 प्रतिशत से अधिक वृद्धि करती है ।
6. मैलकोम एस. अधिसेशिय्या का अनुमान (Malcolm S. Adiseshiah Estimates):
वर्ष 1982-83 की प्रचलित कीमतों पर अनुमानित काला धन सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 50 प्रतिशत था जिसकी राशि 1,45,141 करोड रुपये थी तथा इस प्रकार अस्पष्ट धन की राशि 72,000 करोड़ रुपये थी जो कुल राष्ट्रीय आय का 40 प्रतिशत बनता है ।
7. अर्न्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष के स्टाफ द्वारा किये गये सर्वेक्षण ने 72,000 करोड़ रुपयों का अनुमान लगाया है । सार्वजनिक वित्त एवं नीति के राष्ट्रीय संस्थान ने काले धन का अनुमान वर्ष 1975-76 के लिये 9,950 करोड़ रुपये से लेकर 11,870 करोड़ रुपयों के बीच लगाया है । (सकल घरेलू उत्पाद का 15 से 18 प्रतिशत), वर्ष 1983-84 में यह राशि 31,584 करोड़ रुपयों 36,784 करोड़ रुपयों के बीच थी (सकल घरेलू उत्पाद का 18 से 21 प्रतिशत)
8. आर. एन. लखोटिया (R.N. Lokhotia) का मानना है कि अन्तिम अध्ययन के पश्चात् राशि दुगनी हो चुकी है । भारतीय अर्थव्यवस्था में काले धन के संचारण की मात्रा जी.डी.पी. का 60 प्रतिशत थी जो अब लगभग 70,000 करोड़ रुपये हो जायेगी ।
9. सूरज बी. गुप्ता (Suraj B. Gupta) ने तीन विशेष वर्षों के लिये अर्थात् 1980-81, 1983-84 और 1987-88 के लिये अनुमान लगाया । गुप्ता का मत था की NIPFP द्वारा लगाया काले धन का अनुमान एक अल्पानुमान था । परन्तु भारत में काली आय की राशि जो 1980-81 में 50,977 करोड़ थी वर्ष 1983-84 में बढ़ कर 85,208 करोड़ रुपये हो गई तथा 1987-88 में 1,49,297 करोड़ रुपयों तक पहुंच गई जो कुल राष्ट्रीय उत्पाद का क्रमशः 41.7 प्रतिशत, 45.8 प्रतिशत और 51.7 प्रतिशत थी ।
10. वित्त पर एक संसदीय स्थायी समिति (A Parliamentary Standing Committee of Finance) ने काले धन के अनाधिकारिक अनुमानो ने इस राशि की मात्रा वर्ष 1994-95 के लिये 1,10,000 करोड़ रुपये बतायी । मधु दण्डवते, योजना उद्योग के तत्कालीन उपाध्यक्ष ने अनाधिकारिक अनुमान उद्धरित करते हुये बताया था कि देश में संचरित काला धन लगभग 80,000 करोड़ रुपये था ।
Essay # 3. काले धन की वृद्धि के कारण (Causes for Growth of Black Money):
देश में काले धन के प्रसार के लिये उत्तरदायी कारणों का वर्णन नीचे किया गया है:
1. करों की उच्च दर (High Rates of Taxes):
काले धन की उत्पत्ति का मुख्य कारण प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकार के करों के उच्च दर की उपस्थिति है । करों के उच्चतर दर के कारण कर-दाताओं में कर वंचन की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । के. एन. काबरा (K.N. Kabra) के अनुमान दर्शाते हैं कि आय कर के वचन की राशि, जोकि वर्ष 1971-72 में 1,890 करोड़ रुपये थी वर्ष 1978-79 में बढ़ कर 5,305 करोड़ रुपये हो गई ।
कुल सम्भावित कर राजस्व से वंचित कर की प्रतिशतता जोकि वर्ष 1971-72 में प्रतिशत थी वर्ष 1978-79 में 82.1 प्रतिशत हो गई । आय कर, निगम कर, केन्द्रीय उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क, बिक्री कर आदि की बडे स्तर पर कर वंचना होती है । यह इन करों के उच्च दर के कारण है ।
2. प्रतिफल के स्वीकार योग्य शुद्ध दर और वैध रूप में अनुमत प्रतिफल के दर में विचलन (Divergence between Acceptable Net Rate of Return and Legally Permissible Rate of Return):
काले धन के अस्तित्व के लिये उत्तरदायी मुख्य कारक वह व्यक्ति है जो वैध रूप में अनुमत प्रतिफल दर से उच्च प्रतिफल दर की इच्छा करता है । इसलिये, प्रतिफल का उच्च सीमान्त दर विशेष महत्व रखता है । उदाहरणतया, एक समय पर आय कर का सीमान्त दर 97.5 प्रतिशत तक ऊंचा था तथा इस कारण एक विशेष स्तर के ऊपर सभी आय का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया । तदानुसार, बहुत से विशेषज्ञों ने भारत को ”अत्याधिक करारोपन राष्ट्र” का नाम दिया ।
विभिन्न समितियों ने जैसे वान्चू समिति आदि ने आय कर और सरचार्ज को कम करने की कई बार सिफारिश की । कुछ वर्ष पूर्व तत्कालीन वित्त मन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने विभिन्न बजटों में करों के दरों को कम करने के अनेक उपाय किये हैं । जिसके सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुये हैं और आय कर से प्राप्त राजस्व में पर्याप्त वृद्धि हुई है ।
वर्ष 1994-95 में व्यक्तिगत आयकर तथा निगमित आय कर के संयुक्त रूप में राजस्व के 25 प्रतिशत तक बढ़ने की सम्भावना है । जी.डी.पी. में स्पष्ट करों का भाग जोकि वर्ष 1990-91 में 2.1 प्रतिशत था वर्ष 1994-95 में बढ़ कर 2.8 प्रतिशत हो गया ।
3. नियंत्रण, परमिट और लाईसैन्स की प्रणाली (System of Control, Permits and Licenses):
नियन्त्रण, परमिट, लाईसैन्स, कोटा तथा कुवितरण काले धन की मात्रा को बढ़ाने में सहायता करते हैं । नियन्त्रणों को दक्षतापूर्वक लागू करना कठिन है ।
4. सार्वजनिक व्यय की मात्रा में वृद्धि (Increase in the Volume of Public Expenditure):
केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों का सार्वजनिक व्यय दृढ़ता स बढ़ रहा है । वर्ष 1950-51 में यह 740 करोड़ रुपयों से बढ़ कर वर्ष 1994-95 में 2,346.47 करोड़ रुपये हो गया । जो 3.17 गुणा वृद्धि दर्शाता है । केन्द्रीय सरकार का कुल व्यय भी महत्वपूर्ण ढंग से बढ़ गया है, जो वर्ष 1980-81 में 22,056 करोड रुपये था वर्ष 1990-91 में बढ़ कर 1,05,298 करोड़ रुपये हो गया और 1995-96 में 1,62,272 करोड़ (RE) ।
सार्वजनिक व्यय की यह बढ़ती हुई मात्रा सार्वजनिक धन के भारी मात्रा में दुरुपयोग का कारण भी बनी है तथा अर्थव्यवस्था में काले धन की भारी वृद्धि हुई है ।
5. राजनीतिक दलों को धन देना (Funding of Political Parties):
काले धन के उपयोग द्वारा राजनीतिक दलों को धन देने की प्रवृति बढ़ रही है । बड़े-बड़े व्यापारिक घराने राजनीतिक दलों को भारी मात्रा में काला धन दे रहे हैं, यह धन विशेषतया में उस दल को दिया जाता है जो शक्ति में होता है । यह धन देने का मुख्य प्रयोजन राजनीतिक नेतृत्व को वश में करके अनाधिकारिक लाभ प्राप्त करना तथा नीति निर्णयों को अपने पक्ष में करना होता है ।
6. सार्वजनिक क्षेत्र में काले धन की उत्पत्ति (Generation of Black Money in Public Sector):
भारत में क्रमिक पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत बड़े स्तर पर निवेश निर्धारित किया जा रहा है । विभिन्न सार्वजनिक परियोजनाएँ तथा सार्वजनिक उद्यमों की निगरानी अफसरशाही द्वारा की जाती है । इन अधिकारियों द्वारा लिये जाने वाले निर्णयों की जांच परख राजनीतिक नेताओं द्वारा की जाती है । अफसरशाहों, ठेकेदारों और राजनीतिज्ञों के बीच आपसी मिलिभगत से अन्दरूनी समझौते होते हैं जिसके कारण परियोजनाओं की लागत में कृत्रिम वृद्धि की जाती है जिससे काले धन की उत्पत्ति में वृद्धि होती है ।
7. दूसरा विश्व युद्ध (Second World War):
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, भारतीय उद्योग में बहुत से लोगों ने समय को काले बाजार के अनुकूल समझा । पश्चिमी राष्ट्रों की ओर औद्योगिक वस्तुओं की परम्परागत पूर्ति समाप्त कर दी गई जिससे प्रमुख क्षेत्रों में कडे अभाव की स्थिति उत्पन्न हो गई । जिससे, अभाव का लाभ उठा कर धन कमाने की प्रवृत्ति ने जन्म लिया । यह लाभ व्यापारिक गतिविधियों के विकास के कारण नहीं था ।
8. कर वंचन (Tax Evasion):
काले धन का वृद्धि का एक अन्य कारण कर वंचन है । वर्ष 1971-72 में कर वंचन की राशि 1890 करोड़ रुपये थी, जबकि, हाल ही के वर्षों में ये आकड़े कई गुणा बढ़ गये का भाव है कि कर की दर में कमी कर वंचन को कम नहीं कर पायी । इसके अतिरिक्त, त्रुटिपूर्ण कर देश में काले धन के स्तर को बढ़ाने के लिये बहुत उत्तरदायी है ।
9. अवमूल्यन पर प्रतिबन्ध (Ceiling on Depreciation):
सरकार ने अवमूल्यन भत्तों पर प्रतिबन्ध लगा दिये हैं । विज्ञापन, मनोरंजन, अतिथि गृहों आदि पर खर्चे सीमाबद्ध हो गये हैं । इन प्रतिबन्धों का प्रयोजन उपभोकताओं को मध्यस्थों से सुरक्षित करना है परन्तु वह महसूस करते हैं कि यह तर्कसंगत नहीं हैं ।
वे इन व्यवस्थाओं का अधिकतम लाभ उठाते हैं परन्तु लाभों के शेष भाग को छोड़ना नहीं चाहते । इसलिये विभिन्न उपायों के उपयोग से वे इसे काले धन में परिवर्तित कर देते हैं और उसे दिखावापूर्ण उपभोग में प्रयुक्त करते हैं ।
10. कर नियमों का अप्रभावी प्रवर्तन (Ineffective Enforcement of Tax Laws):
काले धन की वृद्धि का एक अन्य कारण कर निगमों का अप्रभावी प्रवर्तन भी है । यह इन विभागों में विस्तृत भ्रष्टाचार के कारण है । करों की उच्च दर व्यापारियों को इन सौदों को सूचीबद्ध न करने के लिये प्रेरित करती है । कर वंचन बिना किसी रोक-टोक चलता रहता है । अतः इससे थोक, खुरदरा और उत्पादन स्तरों पर काले धन की उत्पत्ति की प्रतिक्रिया चलती रहती है ।
11. अन्य कारक (Other Factors):
भारत जैसे देश में काले धन की उत्पत्ति अन्य विभिन्न गतिविधियों से भी उत्पन्न होती है जैसे तस्करी, सम्पत्ति के सौदे, रिश्वतखोरी, तोहफे, कमिशन, व्यवसायियों तथा कलाकारों आदि द्वारा आय की चोरी आदि । अतः इस प्रकार काले धन की भारी राशि लगातार समानान्तर अर्थव्यवस्था के क्षेत्र को बढ़ा रही है ।
Essay # 4. काले धन का प्रभाव (Impact of Black Money):
समानान्तर अर्थव्यवस्था का आर्थिक और सामाजिक जीवन पर गम्भीर प्रभाव होता है । भारतीय अर्थव्यवस्था की कार्य प्रणाली पर इसके अत्यधिक हानिकारक प्रभाव हैं ।
निम्नलिखित बिन्दुओं की सहायता से इसके पक्ष और विपक्ष के प्रभावों को समझा जा सकता है:
1. राजस्व की हानि (Loss of Revenue):
काले धन का प्रत्यक्ष प्रभाव यह है कि इससे राज्य के कोष को राजस्व की हानि होती है । प्रत्यक्ष करों की जांच समिति के अनुसार वर्ष 1968-69 में यह हानि 470 करोड रुपये थी । देश में काले धन के विकास के कारण यह राशि कई गुणा बढ़ गई है । इस राशि में अवैध आर्थिक गतिविधि के उत्पादन से राजस्व की हानि भी सम्मिलित है ।
2. अनुत्पादक निवेश (Unproductive Investment):
काला धन अनुत्पादक कार्यों में निवेश को प्रोत्साहित करता है जैसे अच्छे आभूषण, कीमती हीरे, सोना-चांदी आदि । इसका हमारी अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है क्योंकि इसे दिखावटी उपभोग वाली वस्तुओं और सेवाओं पर उजाड़ दिया जाता है ।
3. साधनों का विचलन (Division of Resources):
काले धन ने साधनों का विपचन भू-सम्पत्ति की ओर मोड़ दिया है । सम्पत्ति का बड़े स्तर पर अल्प-मूल्यन होता है जिससे काला धन सफेद बन जाता है । इससे भूमि की कीमतें भी बढ़ गई हैं । इसलिये, मध्य वर्ग, घरों के निर्माण के लिये भूमि की कीमत देने में असमर्थ होता है । दूसरी ओर, निश्चित आय वाला वेतन भोगी वर्ग जीवन की मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ होता है ।
4. तरलता की बहुलता (Abundance of Liquidity):
काले धन के एक भाग को नगदी के रूप में रख लिया जाता है जिस कारण तरलता बहुत बढ़ जाती है । इसे काली तरलता कहा जाता है । इसलिये जब भी सरकार अतिरेक मांग को साख नियन्त्रण द्वारा नियन्त्रित करने का प्रयत्न करती है तो ऐसे प्रयत्न विफल हो जाते हैं ।
5. कोष का स्थानान्तरण (Transfer of Funds):
काले धन के परिणामस्वरूप कोष एक देश से दूसरे देश की ओर स्थानान्तरित होता है । डी. टी. ई. सी. अनुमानों के अनुसार विदेशी विनिमय के रिसाव की सीमा 240 करोड़ रुपयों तक थी । यह स्थानान्तरण विदेशी विनिमय नियमों की अवहेलना से हुये हैं । इसलिये, देश स्वयं को विरोधाभास स्थिति में पाता है ।
6. अनैतिकता का जन्म (Birth of Immorality):
अवैध ढंग से बचाया हुआ धन अवांछित तथा भद्दे ढंग से व्यय किया जाता है । परिश्रम और ईमानदारी जैसे गुणों को महत्व नहीं दिया जाता । अनेक उच्च अधिकारी तथा ईमानदार कर्मचारी बडे शहरों के औसत दुकानदारों से कहीं कम कमाई करते हैं, जिससे भ्रष्टाचार के विचार जन्म लेते हैं ।
7. दिखावे के लिये व्यय (Conspicuous Expenditure):
व्यापारियों और पूंजीपतियों के हाथों में काले धन का केन्द्रीकरण दिखावटी उपभोग की वृद्धि करता है जिसका सभी वर्गों के लोगों पर प्रदर्शक प्रभाव होता है । इससे उत्पाद-मिश्रण विकृत होता है तथा गैर आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन बढ़ता है तथा जन समूहों के उपभोग वाली वस्तुओं के उत्पादन को क्षति पहुँचती है ।
8. जी. डी. पी. का अल्पानुमान (Underestimation of GDP):
काली आय के कारण जी.डी.पी. का अल्पानुमान होता है क्योंकि भारी मात्रा में आय इस अस्पष्ट क्षेत्र की ओर मुड़ जाती है जिससे देश में समानान्तर अर्थव्यवस्था की वृद्धि होती है ।
9. कोषों का स्थानान्तरण (Transfer of Funds):
काला धन कोष को भारत से विदेशों की ओर गुप्त मार्गों द्वारा स्थानान्तरित करता है जिससे विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम (FERA) का उल्लंघन होता है । यह निर्यातों का कम बीजक बनाने तथा आयातों का अधिक बीजक बनाने से सम्भव होता है ।
10. सेवा संगठन का विकास (Expansion of Service Organisation):
काले धन के विकास के परिणाम स्वरूप इसके संरक्षण के लिये सेवा संगठन का विस्तार होता है जिसमें एक ओर दलाल, टाउट तथा गुण्डे लोग शामिल होते हैं और दूसरी ओर कर व्यवसायी, चार्टर्ड अकाऊंटैंट तथा सम्पर्क अधिकारी होते हैं जो अर्थव्यवस्था में काले धन की संस्कृति तथा इस बूरे ढांचे को स्थापित करते हैं ।
11. भ्रष्ट राजनीतिक प्रणाली (Corrupt Political System):
अन्तिम परन्तु अति महत्त्वपूर्ण बात यह है कि काले धन अथवा समानान्तर अर्थव्यवस्था ने देश की राजनीतिक व्यवस्था के आधार को भ्रष्ट बना दिया है । भिन्न-भिन्न अवसरों पर सांसद, विधायक, मन्त्री तथा अन्य अधिकारी काले धन के संचालकों से कोष एकत्रित करते हैं, जिससे भारतीय राजनीति का नैतिक ताना-बाना भ्रष्ट हो चुका है ।
वांचू समिति के अनुसार, ”इसलिये यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि काला धन कैंसर रोग की भांति है जिसे, यदि समय पर रोका न गया हो तो देश की अर्थव्यवस्था को नष्ट कर देगा ।”
अतः समानान्तर अर्थव्यवस्था के अस्तित्व ने देश की नियोजित अर्थव्यवस्था को पूर्णतया विकृत तथा अवरुद्ध कर दिया है ।
Essay # 5. काले धन का उचित उपाय (Suitable Measures to Control Black Money):
निःसन्देह काला धन सामाजिक एवं आर्थिक बुराई है । इसलिये इससे छुटकारा पाना अत्यावश्यक है । काले धन के स्त्रोतों का पता लगाने के लिये कड़े उपाय करना आवश्यक है ।
अर्थव्यवस्था के निविष्ट कार्य के लिये, इस जोखिमपूर्ण कार्य से निपटने हेतु निम्न उपायों के सुझाव दिये गये हैं:
1. स्वैच्छिक प्रकटाव योजनाएं (Voluntary Disclosure Schemes):
काले धन का पता लगाने के लिये सरकार ने अनेक स्वैच्छिक प्रकटाव योजनाएं समय-समय पर प्रस्तुत की हैं । यह योजना कर दरों के घटाव का विवरण है । वर्ष 1951 में इस प्रकार की योजना आरम्भ की गई जिसके परिणामस्वरूप 71 करोड़ रुपयों का प्रकटाव किया गया, जिस पर 11 करोड़ रुपयों का कर एकत्रित हुआ । इसके अतिरिक्त, योजना का एक संशोधित रूप आरम्भ किया गया जिसका नाम ”काला धन” था ।
सीधे 60 प्रतिशत दर के स्थान पर विभिन्न कर दर लिये गये जिससे बहुत सी छिपी हुई आय सामने आई । पुन: स्पष्ट कर जांच समिति की सिफारिशों के अनुसार सरकार ने आय और धन के लिये VDS योजना का उपयोग किया । इस योजना से 1,578 करोड़ रुपयों का प्रकटाव हुआ जिससे आय और सम्पत्ति कर के रूप में 248.7 करोड़ रुपयों की उगाही हुई । बजट 1997-98 ने स्वैच्छिक प्रकटाव योजना आरम्भ की, जिसका प्रयोजन काले धन को सामने लाना था ।
2. विशेष बीयर्र-बाण्ड योजना (Special Bearer Bond System):
बेहिसाब धन को उत्पादक कार्यों में प्रयोग करने के लिये सरकार ने वर्ष 1981 में विशेष बीयर्र-बाण्ड योजना आरम्भ की । इस योजना के अनुसार, प्रत्येक का प्रत्यक्ष मूल्य 10,000 रुपये 10 वर्षों की परिपक्व अवधि के सम मूलक किया गया । परिपक्वता पर इन बाण्डों के धारक को 12,000 रुपये प्राप्त होंगे । बाण्ड के मौलिक ग्राहक को पूर्ण उन्मुक्ति दी गई । वर्ष 1982-83 में लगभग 875 करोड़ रुपये विशेष बीयर्र बाण्ड जारी किये गये ।
3. विमुद्रीकरण (Demonetization):
अनेक राजनीतिज्ञों तथा अर्थशास्त्रियों ने काले धन की बुराई के उन्यूलन के लिये विमुद्रीकरण के सुझाव दिये हैं परन्तु जब इन उपायों के प्रयत्न किये गये तो अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई । 16 जनवरी वर्ष 1978 को उच्च मूल्य वर्ग के नोटों का विमुद्रीकरण आरम्भ किया गया । उस दिन उच्च विमुद्रीकरण दरों की राशि 146 करोड़ रुपये थी ।
अगस्त, 1981 तक उपलब्ध आकड़ों के अनुसार रिजर्व बैंक आफ इण्डिया को 125 करोड़ रुपयों की राशि सौंपी गई । इसमें से बैंकों द्वारा सौंपी गई राशि का मूल्य 70 करोड़ रुपये था । वास्तव में, यह अनुमान किया गया कि विमुद्रीकरण काले धन को सामने लाने में कोई विशेष योगदान नहीं कर पाया ।
4. कर वंचन को रोकने के उपाय (Measures to Check Tax Evasion):
कर वंचन काले धन की उत्पत्ति का मूल कारण है । इसलिये, कर वंचन में सहायक, अनेक अनियमितताओं को रोकने के लिये विभिन्न उपाय किये गये । इन उपायों में अधिकांश उपाय विभिन्न समितियों और आयोगों की सिफारिशों पर आधारित थे जैसे कराधान जांच आयोग (1953), प्रशासनिक सुधार आयोग (1969), प्रत्यक्ष कर जांच समिति (1971) आदि ।
इनमें अधिकांश सिफारिशें कर नियमों में संशोधन थी । यह भी महसूस किया कि कर प्रशासन बहुत दुर्बल और अप्रभावी था । यह उपाय विभिन्न आयोगों और समितियों का सिफारिशों के अनुसार किये गये जैसे कराधान जांच आयोग (1953), भारतीय कर सुधार के लिये काल्डोर की सिफारिशें (1956) प्रत्यक्ष कर प्रशासनिक जांच समिति (1958) और प्रत्यक्ष कर जांच समिति (1991) ।
आयोगों एवं समितियों ने कर सम्बन्धी नियमों में अनेक त्रुटियों तथा दुर्बलताओं की ओर ध्यान आकर्षित किया तथा कर वंचन को रोकने के अनेक उपाय प्रस्तावित किये ।
5. कर दरों को घटाना (Reduction of Tax Rates):
करों को अधिक उत्पादक बनाने के लिये सरकार व्यक्तिगत आय कर का पैक रेट कम कर रही है । वर्ष 1990-91 में 61.9 प्रतिशत से कम करके 54 प्रतिशत कर दिया और पुन: वर्ष 2000-01 में 30 प्रतिशत तक घटा दिया । इस प्रकार व्यक्तिगत आय कर और निगम कर के कम करने से कर राजस्व के 25 प्रतिशत तक बढ़ जाने की सम्भावना है । सकल घरेलू उत्पाद में प्रत्यक्ष करों का भाग भी करों की दर कम होने से 2.1 प्रतिशत से बढ़ कर 2.8 प्रतिशत हो गया ।
6. आर्थिक उदारता (Economic Liberalisation):
आर्थिक उदारता के आरम्भण से नियन्त्रणों और नियमनों का समय समाप्त हो गया और फलस्वरूप काली अर्थव्यवस्था भी धीरे-धीरे कम हो जायेगी ।
7. अन्य उपाय (Other Measures):
सरकार ने देश में काले धन की वृद्धि को रोकने के लिये कुछ अन्य उपाय भी किये हैं जिनमें सम्मिलित हैं-वर्ष 1991 में राष्ट्रीय आवास बैंकों में जमा, आप्रवासी भारतीयों द्वारा विदेशी विनिमय जमा करना, यू. एस. डालरों में राष्ट्रीय विकास बाण्ड जारी करना, प्रत्याशियों द्वारा किये जाने वाले चुनावी व्यय पर नियन्त्रण, कर प्रशासन में त्रुटियों को समाप्त करने के लिये खोजें, माल जब्त, छापों की प्रक्रिया और अन्य कदम उठाये गये ।
परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि भारत में ये सभी उपाय आधे मन से किये गये । परिणामस्वरूप समानान्तर अर्थव्यवस्था की पकड़ धीरे-धीरे दृढ़ हो रही है । यदि सरकार, अफसरशाही और कर प्रशासकों द्वारा देश में काले धन को नियन्त्रित करने के सच्चे मन से प्रयत्न किये होते तो समानान्तर अर्थव्यवस्था का ढांचा निश्चित रूप में नियन्त्रित और आर्थिक स्थिति का अनुभव करता जिसमें सामान्य लोगों का जीवन स्तर ऊंचा होता, संयमित मुद्रा स्फीति तथा तर्कसंगत आर्थिक निर्णय होते ।