बौद्ध धर्म पर निबंध | Essay on Buddhism in Hindi. Here is an essay on ‘Buddhism’ for class 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Buddhism’ especially written for school and college students in Hindi language.
बौद्ध धर्म पर निबंध | Essay on Buddhism
Essay Contents:
- गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्म (Gautam Buddha and Buddhism)
- बौद्ध धर्म के सिद्धांत (Principles of Buddhism)
- बौद्ध धर्म की विशेषताएँ और इसके प्रसार के कारण (The Characteristics of Buddhism and its Spread)
- बौद्ध धर्म के ह्रास के कारण (Cause of Degradation of Buddhism)
- बौद्ध धर्म का महत्व और प्रभाव (Importance and Influence of Buddhism)
# 1. गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्म (Gautam Buddha and Buddhism):
गौतम बुद्ध या सिद्धार्थ महावीर के समकालीन थे । परंपरा के आधार पर कहा जाता है कि उनका जन्म 563 ई॰ पू॰ में शाक्य नामक क्षत्रिय कुल में कपिलवस्तु के निकट नेपाल तराई में अवस्थित लुंबिनी में हुआ था ।
कपिलवस्तु की पहचान बस्ती जिले में पिपरहवा से की गई है । प्रतीत होता है कि गौतम के पिता कपिलवस्तु के निर्वाचित राजा और गणतांत्रिक शाक्यों के प्रधान थे । उनकी माता कोसल राजवंश की कन्या थी । इस प्रकार महावीर की तरह वह भी उच्च कुल वाले थे । गणराज्य में उत्पन्न होने के कारण उनमें कुछ समतावादी भावना आई थी ।
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बचपन से ही गौतम का ध्यान आध्यात्मिक चिंतन की ओर था । शीघ्र ही उनका विवाह करा दिया गया पर दांपत्य-जीवन में उनका मन नहीं रमा । वे लोगों के सांसारिक दु:ख देख-देखकर द्रवित हो जाते और ऐसे दु:खों के निवारण का उपाय सोचने लगते । 29 वर्ष की उम्र में महावीर की ही तरह वे घर से निकल पड़े । सात वर्षों तक भटकते रहने के बाद 35 वर्ष की उम्र में बोधगया में एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ । तब से वे बुद्ध अर्थात् प्रज्ञावान कहलाने लगे ।
गौतम बुद्ध ने अपने ज्ञान का प्रथम प्रवचन वाराणसी के सारनाथ नामक स्थान में किया । उन्होंने लंबी-लंबी यात्रा कर अपना धर्म-संदेश दूर-दूर तक पहुँचाया । वह शरीर से खूब तगड़े थे इसलिए वे एक दिन में 20 से 30 किलोमीटर तक पैदल चल लेते थे ।
वे लगातार चालीस साल तक उपदेश देते, चिंतन-मनन करते, घूमते और भटकते रहे; केवल बरसात में ही एक स्थान पर टिके रहते थे । इस लंबी अवधि में उनका ब्राह्मणों सहित बहुत-से प्रतिद्वंद्वी कट्टरपंथियों से मुकाबला हुआ पर वे शास्त्रार्थ में सभी को पराजित करते गए ।
उनके धर्मप्रचार के कार्यों में ऊँच-नीच अमीर-गरीब और स्त्री-पुरुष के बीच कोई भेदभाव नहीं रहता था। एक परंपरा के अनुसार गौतम बुद्ध 80 वर्ष की उम्र में 483 ई॰ पू॰ में कुशीनगर नामक स्थान में स्वर्गवासी हुए । इस स्थान की पहचान पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसिया नामक गाँव से की जाती है ।
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किंतु पुरातत्व के आधार पर वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध को निश्चित रूप से छठी शताब्दी ईसा-पूर्व में रखना कठिन है । दोनों का संबंध नगरों से है जिनका उदय 500 ई॰ पू॰ तक नहीं हुआ था ।
# 2. बौद्ध धर्म के सिद्धांत (Principles of Buddhism):
गौतम बुद्ध बड़े व्यावहारिक सुधारक थे । उन्होंने अपने समय की वास्तविकताओं को खुली आँखों से देखा । वे उन निरर्थक वादविवादों में नहीं उलझे जो उनके समय में आत्मा (जीव) और परमात्मा (ब्रह्म) के बारे में जोरों से चल रहे थे । उन्होंने अपने को सांसारिक समस्याओं में लगाया ।
उन्होंने कहा कि संसार दु:खमय है और लोग केवल काम (इच्छा लालसा) के कारण दु:ख पाते हैं । यदि काम अर्थात् लालसा पर विजय पाई जाए तो निर्वाण प्राप्त हो जाएगा जिसका अर्थ है कि जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाएगी ।
गौतम बुद्ध ने दु:ख की निवृत्ति के लिए अष्टांगिक मार्ग (अष्टविध साधन) बताया । यह अष्टांगिक मार्ग ईसा-पूर्व तीसरी सदी के आसपास के एक ग्रंथ में बुद्ध का बताया हुआ कहा गया है । ये आठ साधन हैं- सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प,
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सम्यक् वाक, सम्यक् कर्मांत, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि ।
यदि कोई व्यक्ति इन आठ मार्गों का अनुसरण करें तो वह पुरोहितों के फेर में नहीं पड़ेगा और वह अपना लक्ष्य प्राप्त कर लगा । उनकी शिक्षा है कि न अत्यधिक विलास करना चाहिए न अत्यधिक संयम ही । वे मध्यम मार्ग के प्रशंसक थे ।
जैन तीर्थंकरों की तरह बुद्ध ने भी अपने अनुयायियों के लिए आचार-नियम (विनय) निर्धारित किए ।
इस आचार-संहिता के मुख्य नियम हैं:
(1) पराये धन का लोभ नहीं करना,
(2) हिंसा नहीं करना,
(3) नशे का सेवन न करना,
(4) झूठ नहीं बोलना और
(5) दुराचार से दूर रहना ।
सामाजिक आचरण के ये नियम सामान्य रूप से प्रायः सभी धर्मों में निर्धारित हैं ।
3. बौद्ध धर्म की विशेषताएँ और इसके प्रसार के कारण (The Characteristics of Buddhism and its Spread):
बौद्ध धर्म ईश्वर और आत्मा को नहीं मानता है । इस बात को हम भारत के धर्मों के इतिहास में क्रांति कह सकते हैं । बौद्ध धर्म शुरू में दार्शनिक वाद-विवादों के जंजाल में फँसा नहीं था इसलिए यह सामान्य लोगों को भाया । यह विशेष रूप से निम्न वर्णों का समर्थन पा सका क्योंकि इसमें वर्ण व्यवस्था की निंदा की गई है ।
बौद्ध संघ का दरवाजा हर किसी के लिए खुला रहता था चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो । संघ में प्रवेश का अधिकार स्त्रियों को भी था जिससे उन्हें पुरुषों की बराबरी प्राप्त होती थी । ब्राह्मण धर्म की तुलना में बौद्ध धर्म अधिक उदार और अधिक जनतांत्रिक था ।
बौद्ध धर्म वैदिक क्षेत्र के बाहर के लोगों को अधिक भाया और वे लोग आसानी से इस धर्म में दीक्षित हुए । मगध के निवासी इस धर्म की ओर तुरंत उन्मुख हुए, क्योंकि कट्टर ब्राह्यण उन्हें नीच मानते थे और मगध आर्यों की पुण्य भूमि आर्यावर्त्त अर्थात आधुनिक उत्तर प्रदेश की सीमा के बाहर पड़ता था । अभी भी उत्तर बिहार के लोग गंगा के दक्षिण मगध में मरना पसंद नहीं करते हैं ।
बुद्ध के व्यक्तित्व और धर्मोपदेश की प्रणाली दोनों ही बौद्ध धर्म के प्रचार में सहायक हुए । वे भलाई करके बुराई को भगाने तथा प्रेम करके घृणा को भगाने का सयास करते थे । निंदा और गाली से उन्हें क्रोध नहीं आता था ।
कठिन स्थितियों में भी वे धीर और शांत बने रहते थे और अपने विरोधियों का सामना चातुर्य और प्रत्युत्पन्नमति से करते थे । कहा जाता है कि एक बार एक अज्ञानी व्यक्ति ने उन्हें गालियाँ दीं । वे चुपचाप सुनते रहे ।
उस व्यक्ति का गाली देना बंद हुआ तो उन्होंने पूछा ”वत्स, यदि कोई दान को स्वीकार नहीं करे तो उस दान का क्या होगा ?” विरोधी ने उत्तर दिया, ”वह देने वाले के पास ही रह जाएगा ।” तब बुद्ध ने कहा, ”वत्स, में तुम्हारी गालियाँ स्वीकार नहीं करता ।”
जनसाधारण की भाषा पालि को अपनाने से भी बौद्ध धर्म के प्रचार में बल मिला । इससे आम जनता बौद्ध धर्म सुगमता से समझ पाई । गौतम बुद्ध ने संघ की स्थापना की जिसमें हर व्यक्ति जाति या लिंग के भेद के बिना प्रवेश कर सकता था ।
भिक्षुओं के लिए एक ही शर्त थी कि उन्हें संघ के नियमों का निष्ठापूर्वक पालन करना होगा । बौद्ध संघ में शामिल होने के बाद इसके सदस्यों को इंद्रियनिग्रह अपरिग्रह (धनहीनता) और श्रद्धा का संकल्प लेना पड़ता था ।
इस प्रकार बौद्ध धर्म के तीन प्रमुख अंग थे: बुद्ध, संघ और धम्म । संघ के तत्त्वावधान में सुगठित प्रचार की व्यवस्था होने से बुद्ध के जीवनकाल में ही बौद्ध धर्म ने तेजी से प्रगति की । मगध कोसल और कौशांबी के राजाओं अनेक गणराज्यों और उनकी जनता ने बौद्ध धर्म को अपना लिया ।
बुद्ध के निर्वाण के दो सौ साल बाद प्रसिद्ध मौर्य सम्राट् अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया । यह युग-प्रवर्त्तक घटना सिद्ध हुई । अशोक ने अपने धर्मदूतों के द्वारा इस धर्म को मध्य एशिया पश्चिमी एशिया और श्रीलंका में फैलाया और इसे विश्व धर्म का रूप दिया ।
आज भी श्रीलंका बर्मा और तिब्बत में तथा चीन और जापान के कुछ भागों में बौद्ध धर्म प्रचलित है । अपनी जन्मभूमि से तो यह धर्म लुप्त हो गया परंतु दक्षिण एशिया दक्षिण-पूर्व एशिया और पूर्वी एशिया के देशों में जीता-जागता है ।
# 4. बौद्ध धर्म के ह्रास के कारण (Cause of Degradation of Buddhism):
ईसा की बारहवीं सदी तक बौद्ध धर्म भारत से लगभग लुप्त हो चुका था । परिवर्तित रूप में यह धर्म बंगाल और बिहार में ग्यारहवीं सदी तक रहा किंतु उसके बाद देश से यह पूर्णतः लुप्त हो गया । ऐसा क्यों हुआ ? हम देखते हैं कि आरंभ में हर धर्म सुधार की भावना से प्रेरित होता है, परंतु कालक्रमेण वह उन्हीं कर्मकांडों और अनुष्ठानों के जाल में फँस जाता है जिनकी वह आरंभ में निंदा करता है ।
बौद्ध धर्म में भी स्वरूप-परिवर्तन का ऐसा ही चक्र चला । इसमें भी ब्राह्मण धर्म की वे बुराइयाँ घुस गईं जिनके विरुद्ध इसने आरंभ में लड़ाई छेड़ी थी । बौद्ध धर्म की चुनौती का मुकाबला करने के लिए ब्राह्मणों ने अपने धर्म को सुधारा । उन्होंने गोधन की रक्षा पर बल दिया तथा स्त्रियों और शूद्रों के लिए भी धर्म का मार्ग प्रशस्त किया । दूसरी ओर बौद्ध धर्म में विकृतियाँ आती गईं ।
धीरे-धीरे बौद्ध भिक्षु जनजीवन की मुख्य धारा से कटते गए । उन्होंने जनसामान्य की भाषा पालि को छोड़ दिया और संस्कृत को ग्रहण कर लिया जो केवल विद्वानों की भाषा थी । ईसा की पहली सदी से वे बड़ी मात्रा में प्रतिमा-पूजन करने लगे और उपासकों से खूब चढ़ावा लेने लगे । इस चढ़ाव के अतिरिक्त बौद्ध विहारों को राजाओं से भी भारी-भारी संपत्ति के दान मिलने लगे ।
इन सभी से बौद्ध भिक्षुओं का जीवन सुख का जीवन बन गया । नालंदा जैसे बौद्ध विहार तो दो-दो सौ गाँवों से कर तहसीलते थे । सातवीं सदी के आते-आते बौद्ध विहार विलासी लोगों के प्रभुत्व में आ गए और कुकर्मों के केंद्र बन गए जिनका गौतम बुद्ध ने कड़ाई से निषेध किया था । बौद्ध धर्म का यह नया रूप वज्रयान नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
विहारों में अपार संपत्ति और स्त्रियों के प्रवेश होने से उनकी स्थिति और भी बिगड़ी । बौद्ध भिक्षु नारी को भोग की वस्तु समझने लगे । कहा गया है कि एक समय बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनंद से कहा था, ”यदि विहारों में स्त्रियों का प्रवेश न हुआ होता तो यह धर्म हजार वर्ष टिकता लेकिन जब स्त्रियों को प्रवेशाधिकार दे दिया गया है तो अब यह धर्म केवल पाँच सौ वर्ष टिकेगा ।”
कहा जाता है कि ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों को सताया । सताए जाने के कई उदाहरण ईसा की छठी-सातवीं सदियों में मिलते हैं । शैव संप्रदाय के हूण राजा मिहिरकुल ने सैकड़ों बौद्धों को मौत के घाट उतारा । गौड़ देश के शिवभक्त शशांक ने बोधगया में उस बोधिवृक्ष को काट डाला जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था ।
हुआन सांग ने लिखा है कि 1600 स्तूप और विहार तोड़ डाले गए और हजारों भिक्षुओं और उपासकों को मार डाला गया । इसमें कुछ-न-कुछ सच्चाई अवश्य होगी । इस पर बौद्धों की प्रतिक्रिया कई देवमालाओं में देखी जा सकती हैं जहाँ बोधिसत्वों को हिंदू देवताओं के ऊपर खड़ा दिखाया गया है ।
मध्यकाल के आरंभ में दक्षिण भारत में शैव और वैष्णव दोनों संप्रदायों के लोगों ने जैनों और बौद्धों का कड़ा विरोध किया । ऐसे संघर्षों से बौद्ध धर्म अवश्य कमजोर हुआ होगा । विहारों में अपार संपत्ति को देखकर तुर्की हमलावरों की ललचाई नजर उन पर पड़ी । ये विहार उन लोभी हमलावरों के विशेष लक्ष्य हो गए ।
तुर्कों ने विहार में अनेक बौद्ध भिक्षुओं का संहार किया यद्यपि कुछ भिक्षु जान बचाकर नेपाल और तिब्बत भाग गए । बारहवीं सदी तक बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि से लगभग गायब हो चुका था ।
# 5. बौद्ध धर्म का महत्व और प्रभाव (Importance and Influence of Buddhism):
संघबद्ध बौद्ध धर्म अंततः लुप्त हो जाने पर भी भारत के इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ गया । ईसा-पूर्व छठी सदी में पूर्वोत्तर भारत की जनता के सामने जो समस्याएँ खड़ी थीं उनकी ओर बौद्धों ने प्रबल जागरूकता दिखाई ।
लोहे के फालवाले हल से चली खेती व्यापार और सिक्कों के प्रचलन से व्यापारियों और अमीरों को धन संचित करने का मौका मिला अस्सी कोटि धन वाले व्यक्ति की भी चर्चा मिलती है । इन सभी से स्वभावतः सामाजिक और आर्थिक असमानता भारी मात्रा में उत्पन्न हुई ।
इसलिए बौद्ध धर्म ने घोषणा की कि धन संचय नहीं करना चाहिए । इस धर्म के अनुसार घृणा क्रूरता और हिंसा से दरिद्रता जन्म लेती है । इन बुराइयों को दूर करने के लिए बुद्ध ने उपदेश दिया कि किसानों को बीज और अन्य सुविधाएँ मिलनी चाहिए, व्यापारियों को धन मिलना चाहिए और श्रमिकों को मजदूरी मिलनी चाहिए ।
उन उपायों की अनुशंसा सांसारिक दरिद्रता को दूर करने के लिए की गई । बौद्ध धर्म यह भी उपदेश देता है कि जो दरिद्र व्यक्ति भिक्षुओं को भीख देगा वह अगले जन्म में धनवान होगा । भिक्षुओं के आचरण के लिए बनाई गई नियम संहिता ईसा-पूर्व छठी और पाँचवीं सदी वाले पूर्वोत्तर भारत की भौतिक स्थिति के प्रति हो रही प्रतिक्रिया की झलक देती है ।
इसमें भिक्षुओं के भोजन परिधान और यौन संबंध पर अंकुश लगाए गए हैं । भिक्षु सोना और चांदी ग्रहण नहीं कर सकते थे खरीद-बिक्री नहीं कर सकते थे । ये नियम तो बुद्ध की मृत्यु के बाद शिथिल कर दिए गए; परंतु आरंभिक नियम एक प्रकार के आदिम साम्यवाद की ओर लौटने का संकेत देते हैं जो साम्यवाद हमें व्यापार और उन्नत खेती न करने वाले कबायली समाज में लक्षित होता है ।
भिक्षुओं के लिए बनाए गए ये आचार-नियम पूर्वोत्तर भारत में ईसा-पूर्व पाँचवीं सदी में विकसित मुद्रा के प्रचलन निजी संपत्ति और विलासपूर्ण जीवन के विरुद्ध आशिक विद्रोह की झलक देते हैं । उन दिनों मुद्रा और संपत्ति विलास की वस्तुएँ मानी जाती थीं ।
बौद्ध धर्म में ईसा-पूर्व पाँचवीं सदी के भौतिक जीवन में उत्पन्न बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया गया और साथ ही लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में हुए परिवर्तनों को स्थायी बनाने की ओर भी कदम उठाया गया । संघ में कर्जदारों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया ।
इससे स्पष्टतः महाजनों और धनवानों को लाभ हुआ क्योंकि कर्जदार अब संघ में शामिल होकर उनके शिकंजे से मुक्त नहीं हो सकते थे । इसी प्रकार संघ ने दासों के प्रवेश-निषेध का नियम बनाया जो दासों के स्वामियों के लिए लाभकर हुआ । इस प्रकार गौतम बुद्ध के उपदेशों और नियमों में भौतिक जीवन में आए परिवर्तनों को ध्यान में रखा गया और सैद्धांतिक रूप से उसे दृढ़ बनाया गया ।
यों तो बौद्ध भिक्षु संसार से विरक्त रहते और बार-बार लोभी ब्राह्मणों की निंदा करते थे फिर भी कई मामलों में ब्राह्मणों से उनका साम्य था । दोनों उत्पादन में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लेते थे और समाज से मिली भीख या दान पर जीते थे । दोनों ही बताते थे कि परिवार का पालन करना निजी संपत्ति की रक्षा करना और राजा का आदर करना अच्छा है ।
दोनों वर्गमूलक समाज व्यवस्था के समर्थक थे । भेद इतना ही था कि भिक्षु वर्ण को गुण और कर्म के अनुसार मानते थे पर ब्राह्मण जन्म के आधार पर । निस्संदेह बौद्ध धर्म का लक्ष्य था मानव को मुक्ति या निर्वाण का मार्ग दिखाना । जो लोग पुराने कबायली समाज के विघटन और निजी संपत्ति के प्रचलन से उत्पन्न हुई घोर समाजिक असमानताओं को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे उन्हें बौद्ध धर्म में कुछ राहत मिली ।
किंतु ऐसी राहत तो भिक्षुओं के लिए ही संभव था गृहस्थ अनुयायियों के लिए तो छुटकारे का कोई उपाय नहीं था । अतः उन्हें मौजूदा स्थिति से समझौता कर लेने का ही उपदेश दिया गया । बौद्ध धर्म ने स्त्रियों और शूद्रों के लिए अपना द्वार खोलकर समाज पर गहरा प्रभाव जमाया ।
ब्राह्मण धर्म ने स्त्रियों और शूद्रों को एक ही दर्जे में रखा और उनके लिए न यज्ञोपवीत संस्कार का विधान किया और न वेदाध्ययन का । बौद्ध धर्म ग्रहण करने पर उन्हें इस अधिकारहीनता से मुक्ति मिल गई ।
बौद्ध धर्म ने अहिंसा और जीवमात्र के प्रति दया की भावना जगाकर देश में पशुधन की वृद्धि की । प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ सुत्तनिपात में गाय को भोजन रूप और सुख देने वाली (अन्नदा वन्नदा सुखदा) कहा गया है और इस कारण उसकी रक्षा करने का उपदेश दिया गया है ।
यह उपदेश ऐन मौके पर आया जब आर्येतर लोग माँस के लिए और आर्य लोग धर्म के लिए पशुधन का संहार करते जा रहे थे । ब्राह्मण धर्म में गाय की पूजनीयता और अहिंसा पर जोर पड़ने का कारण स्पष्टतः बौद्ध धर्म के उपदेशों का प्रभाव था ।
बौद्ध धर्म ने बौद्धिक और साहित्यिक जगत में भी चेतना जगाई । इसने लोगों को यह सुझाया कि किसी वस्तु को यों ही नहीं बल्कि भली-भांति गुणदोष का विवेचन करके ग्रहण करें । बहुत हद तक अंधविश्वास का स्थान तर्क ने ले लिया । इससे लोगों में बुद्धिवाद पनपा ।
अपने नए धर्म के सिद्धांतों का प्रतिपादन करने के लिए बौद्धों ने नए प्रकार से साहित्यसर्जना की । उन्होंने अपने लेखन से पालि को समृद्ध किया । आरंभिक पालि साहित्य तीन कोटियों में बाँटा जा सकता है । प्रथम कोटि में बुद्ध के वचन और उपदेश हैं दूसरी में संघ के सदस्यों द्वारा पालनीय नियम आते हैं और तीसरी में धम्म का दार्शनिक विवेचन है ।
ईसा की प्रथम तीन सदियों में पालि और संस्कृत को मिला कर बौद्धों ने एक नई भाषा चलाई जिसे मिश्रित (hybrid) संस्कृत कहते है । बौद्धों की साहित्यिक गतिविधियाँ मध्ययुग में भी चलती रहीं । पूर्वी भारत की कुछ प्रख्यात अपभ्रंश कृतियाँ बौद्धों की देन हैं ।
बौद्ध विहार महान विद्याकेंद्र हो गए, जिन्हें आवासी विश्वविद्यालय की संज्ञा दी जा सकती है । इनमें बिहार में नालंदा और विक्रमशिला तथा गुजरात में वलभी उल्लेखनीय हैं । प्राचीन भारत की कला पर बौद्ध धर्म का स्पष्ट प्रभाव है । भारत में पूजित पहली मानव-प्रतिमाएँ शायद बुद्ध की ही हैं ।
श्रद्धालु उपासकों ने बुद्ध के जीवन की अनेक घटनाओं को पत्थरों में उकेरा । बिहार के गया में और मध्य प्रदेश के साँची और भरहुत में जो चित्रफलक (पैनल) मिले हैं वे बौद्ध कला के उत्कृष्ट नमूने हैं । ईसा की पहली सदी से गौतम बुद्ध की फलक-प्रतिमाएँ बनने लगीं ।
भारत के पश्चिमोत्तर सीमांत में यूनान और भारत के मूर्तिकारों ने मिलकर एक नई प्रकार की कला को जिसे गांधार कला कहते हैं जन्म दिया । इस प्रदेश में बनी प्रतिमाओं में देशी और विदेशी दोनों प्रभाव स्पष्ट हैं ।
भिक्षुओं के निवास के लिए चट्टानों को काटकर कमरे बनाए जाने लगे और इस प्रकार गया की बराबर पहाड़ियों में और पश्चिम भारत में नासिक के आसपास की पहाड़ियों में गुहास्थापत्य की शुरुआत हुई । बौद्ध कला दक्षिण में कृष्णा डेल्टा में और उत्तर में मथुरा में फूली-फली ।