शीत युद्ध पर निबंध: कारण और उत्कर्ष | Essay on Cold War: Causes and Climax in Hindi.
Essay # 1. शीत युद्ध के कारण (Causes of Cold War):
i. मिखाईल गोर्वाच्योव की नीतियाँ तथा उनका व्यक्तित्व (Mikhail Gorwachev’s Policies and their Personality):
जिस प्रकार स्टालिन को शीत युद्ध के जनक के रूप में याद किया जाता है । उसी प्रकार विश्व गोर्वाच्योव को शीत युद्ध का अंत करने वाले नेता के रूप में याद करता है । उन्होंने विश्व में शांति स्थापित करने के लिए परमाणुविहीन, हिंसामुक्त, समस्यारहित विश्व की एक नई दृष्टि दी । उन्होंने दिसंबर, 1987 में आई॰एन॰एफ॰ संधि पर हस्ताक्षर किए । कारण
गोर्वाच्योव ने ही ‘पेरास्ट्राइका’ तथा ‘गलॉस्नोस्त नीतियों की शुरूआत कर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में नई व्यवस्था का सूत्रपात किया । पूर्वी यूरोप के देशों की स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र का समर्थन कर, संयुक्त जर्मनी को नाटो की सदस्यता जारी रखने, वारसा पैक्ट को भंग करने का निर्णय लेकर गोर्वाच्योव ने युरोपीय लोगों का दिल जीत लिया । यह सब शीत युद्ध की समाप्ति के मुख्य कारण सिद्ध हुए ।
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ii. सोवियत संघ की आर्थिक मजबूरियाँ (Economic Constraints of the Soviet Union):
1980 के बाद से सोवियत संघ आर्थिक सकट से गुजर रहा था उसकी अर्थव्यवस्था अब शस्त्र निर्माण पर अधिक खर्च करने से चरमराने लगी अब उसमें सामर्थ्य नहीं था कि वह पश्चिमी देशों से शीत युद्ध की प्रतिस्पर्धा कर सके । सन् 1988 में आर्थिक वृद्धि दर 44 प्रतिशत थी, निर्यात 2 प्रतिशत घट गया और आयात 65 प्रतिशत बढ़ गया । लोगों का जीवन स्तर निर्वाह वृद्धि रूक गई अतः सोवियत संघ शीत युद्ध की समाप्ति में ही अपना राष्ट्रीय हित समझने लगा ।
iii. सोवियत संघ का विघटन (Dissolution of the Soviet Union):
1945 से 1991 तक विश्व राजनीति में एक महाशक्ति के रूप में भूमिका निभाने वाला सोवियत संघ अपनी आंतरिक, आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं के कारण अपने को एक राज्य के रूप में संगठित न रख सका । अगस्त 1991 की तख्ता पलट की घटना से गोर्वाच्योव की लोकप्रियता को जबरदस्त धक्का लगा और नवंबर-दिसंबर 1991 में तो इसका बिल्कुल ही बिखराव हो गया ।
ADVERTISEMENTS:
तीन राज्य इसटोनिया, लेटविया तथा लिथानिया तो पहले ही स्वतंत्र हो चुके थे, शेष राज्य भी अपनी-अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करने लगे । रूस, बोरिस यल्तिसन के नेतृत्व में सोवियत संघ का उत्तराधिकारी राज्य बना तथा नौ भूतपूर्व सभी गणराज्यों ने स्वतंत्रता के पश्चात अपने आपको एक राष्ट्रमंडल घोषित कर दिया । आज रूस एक कमजोर राष्ट्र है और पश्चिमी देशों पर निर्भर है सोवियत संघ के इस विघटन के साथ ही शीत युद्ध का भी पूर्णतया अंत हो गया ।
iv. साम्यवादी देशों में लोकतंत्र और बाजार अर्थव्यवस्था (Democracy and Market Economy in Communist Countries):
शीत युद्ध एक वैचारिक संघर्ष था । सोवियत संघ और पूर्वी युरोप के देशों ने विकास का कम्युनिस्ट मॉडल अपनाया था जिसकी विशेषता थी एक सर्वाधिकारवादिता तथा केंद्रीकृत आदेशित अर्थव्यवस्था, किंतु 1989-90 के वर्षों में पूर्वी यूरोप के देशों ने स्वतंत्र निर्वाचन वाली बहुदलीय लोकतंत्रीय राजनीतिक व्यवस्था के साथ-साथ बाजार अर्थव्यवस्था अपना ली ।
1990 में सोवियत साम्यवादी पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया तथा मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था स्वीकार कर ली गई । अब पश्चिमी देशों और पूर्वी यूरोप के देशों में कोई अंतर नहीं रह गया । ऐसे परिवर्तन के दौर में शीत युद्ध का अंत एक स्वाभाविक घटना थी ।
ADVERTISEMENTS:
1971 से 1979 तक के काल को छोड़कर 1945 से 1990 तक के समय में सारे विश्व को टकरावों तथा झगड़ों में उलझा कर शीत युद्ध समाप्त हो गया । 1985 से 1991 तक की कालावधि शीत युद्ध के अंत की दृष्टि से सोवियत संघ-अमेरिका संबंधों में ऐतिहासिक सीमा चिह्न मानी जाती है ।
दूसरे शीत युद्ध काल में दोनों ही देश हथियारों के अनुसंधान और उत्पादन में लगे रहे पर यह भी महसूस करते रहे कि परमाणु शस्त्रों के बारे में कोई न कोई समझौता हो जाना चाहिए जिससे दोनों हो अपने रक्षा उत्पादन और अनुसंधान बजट में हो रही बेतहाशा वृद्धि को रोक सके इस उद्देश्य के लिए दोनों देश 1985 से ही एक परिपक्व तथा अनवरत तनाव शैथिल्य में शामिल हो गए थे दोनों ने सन् 1987 में आई॰एन॰एफ॰ संधि तथा 1990 में स्टार्ट संधि पर हस्ताक्षर किए ।
दोनों ने आपसी संबंधों तथा सहयोग को बढ़ाने की दिशा में कार्य करना आरंभ कर दिया इसके द्वारा दोनों ही अपने संबंधों को समन्वित कर पाए तथा दोनों ही शांतिपूर्ण सहअस्तित्व तथा सहयोग के युग में पदार्पण कर पाए । पैरास्ट्राइका तथा ग्लास्नोस्त तथा पूर्वी यूरोप के देशों पर उनका प्रभाव तथा पश्चिमी जर्मनी और पूर्वी जर्मनी का एक होना, बर्लिन की दीवार का टूटना तथा 1991 में सोवियत संघ का विघटन आदि कुछ घटनाओं ने शीत युद्ध का अन्त निश्चित कर दिया ।
Essay # 2. शीत युद्ध की समाप्ति (Climax of Cold War):
शीत युद्ध की समाप्ति की दिशा में प्रमुख समझौते, घटनाएँ, शिखर वार्ताएँ निम्नलिखित हैं:
1. जेनेवा वार्ता (Geneva Talks):
नवम्बर 1985 में रीगन और गोर्वाच्योव के बीच जेनेवा में एक शिखर वार्ता हुई जिसमें निम्न मुद्दों पर सहमति व्यक्त की गई:
(i) परमाणु युद्ध कभी नहीं लडा जाना चाहिए, कोई भी पक्ष अपना सैनिक वर्चस्व कायम करने की कोशिश नहीं करेगा ।
(ii) हथियारों की होड़ पर काबू पाने के लिए दोनों पक्ष आगे आएँ ।
(iii) दोनों पक्ष 1968 की परमाणु अस्त्र अप्रसार संधि की पुन: पुष्टि करें ।
(iv) रासायनिक हथियारों पर पूर्ण प्रतिबंध हो ।
(v) यूरोप में सेनाओं के मामलों में वियेना वार्ता को महत्व दिया जाए ।
(vi) बल प्रयोग को वर्जित घोषित करने के लिए दस्तावेज तैयार किया जाए ।
(vii) दोनों पक्ष सांस्कृतिक, शैक्षिक, वैज्ञानिक, आर्थिक संबंधों को प्रगाढ़ करें ।
2. रीगन-गोर्वाच्योव शिखर वार्ता 1986 (Reagan-Gorwachev Summit, 1986):
इस शिखर वार्ता में रीगन के ‘स्टारवार्स’ पर अड़े रहने के कारण शिखर वार्ता विफल हो गई । गोर्वाच्योव ने कहा कि अमेरिका को विश्वास है कि वह प्यारवार्स के जरिये सोवियत संघ पर सैनिक श्रेष्ठता प्राप्त करने के कगार पर है । अतः रीगन ने उन समझौतों को मानने से इंकार कर दिया, जिन पर पूर्ण सहमति हो चुकी थी और संधि पर हस्ताक्षर करने बाकी थे, इस प्रकार नया इतिहास बनने का एक अवसर गंवा दिया गया ।
3. आई॰एन॰एफ॰ संधि पर हस्ताक्षर (Signing of the INF Treaty):
रीगन तथा गोर्वाच्योव के बीच 8-10 दिसंबर 1987 में एक शिखर वार्ता हुई दोनों ने 9 दिसंबर 1987 को आई॰एन॰एफ॰ संधि पर हस्ताक्षर किये । संधि में दोनों देश मध्यम व कम दूरी के प्रक्षेपास्त्र नष्ट करने को सहमत हो गए । इस संधि से कुल मिलाकर 1,139 परमाणु हथियार नष्ट किये जाने की बात तय हुई ।
4. सोवियत संघ व यूरोपीय आर्थिक समुदाय में समझौता (Agreement between the Soviet Union and the European Economic Community):
दिसंबर, 1989 में सोवियत विदेश मंत्री ने यूरोपीय आर्थिक समुदाय के साथ हुए समझौते के तहत एक 10 वर्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए । इस समझौते के तहत सोवियत संघ व समुदाय के देशों के बीच विभिन्न वस्तुओं में व्यापार बढाने पर सहमति हो गई ।
5. बर्लिन की दीवार ध्वस्त (Destroy the Berlin Wall):
यूरोप में बर्लिन की दीवार शीत युद्ध का कलुषित प्रतीक थी । 9 नवंबर 1989 को बर्लिन को दो भागों में बाँटने वाली दीवार ध्वस्त कर दी गई । इस घटना का सोवियत संघ की ओर से कोई प्रतिरोध नहीं किया गया ।
6. जर्मनी का एकीकरण (Unification of Germany):
1 जुलाई, 1990 को दोनों जर्मनी का आर्थिक एकीकरण हो गया । सोवियत राष्ट्रपति ने कहा कि जर्मनी का एकीकरण निश्चित है सोवियत संघ जर्मनी से निकट संबंध चाहता है और यह जर्मनी की इच्छा पर है कि वह नाटो या वारसा पैक्ट में शामिल हो । इस प्रकार सोवियत संघ ने जर्मनी के एकीकरण को हरी झंडी दिखा दी और 3 जनवरी 1990 को जर्मनी का एकीकरण हो गया जिससे शीत युद्ध यूरोप में समाप्त हो गया ।
7. नाटो द्वारा शीत युद्ध समाप्ति की घोषणा (NATO Announces Cold War End):
जुलाई 1990 को लंदन में दो दिवसीय नाटो सम्मेलन में राष्ट्रपति जार्ज बुश ने ऐतिहासिक घोषणा करते हुए कहा कि नाटो व वारसा पैक्ट देशों के बीच शीत युद्ध अब समाप्त हो चुका है । पश्चिम जर्मनी ने सोवियत संघ को आश्वासन दिया कि वह एकीकरण के बाद अपनी सेना आधी कर देगा ।
19 दिसंबर 1990 को पेरिस में नाटो व वारसा देशों के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए इस संधि के द्वारा यूरोप में शीत युद्ध समाप्त कर दिया गया । संधि में दोनों गुटों के लिए सैनिकों की संख्या निर्धारित नहीं की गई लेकिन परम्परागत शस्त्रों की अधिकतम संख्या प्रत्येक के लिए निर्धारित कर दी गई ।
8. वारसा पैक्ट समाप्त (Warsaw Pact End):
शीत युद्ध के दिनों में नाटो के प्रत्युतर में सोवियत संघ के नेतृत्व में वारसा पैक्ट का 9, मई 1955 को निर्माण किया गया । वारसा संधि के अनुच्छेद 5 के अंर्तगत एक संयुक्त सैनिक कमान बनाई गई जिसका मुख्ययालय मास्को में था । शीत युद्ध की समाप्ति के माहौल में 1 जुलाई, 1991 को वारसा पैक्ट समाप्त कर दिया गया ।
9. अफगान समझौता (Afghan Settlement):
अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप (1979) से दूसरे शीत युद्ध की शुरूआत हुई थी । अफगान समस्या के समाधान के प्रयासों के अंर्तगत ही अमेरिका तथा सोवियत संघ ने 1 जनवरी, 1992 से देश को सैन्य सामग्रियों की आपूर्ति पूर्णतः बंद कर दी परंतु 12 दिसंबर, 1991 को मास्को में सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में इस आशय का समझौता हुआ था । वस्तुतः दोनों महाशक्तियों ने अफगानिस्तान में शांति बहाल करने की गारंटी दी ।
निष्कर्ष:
शीत युद्ध की समाप्ति के वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के तनाव केंद्रों में कमी आई और कतिपय संकटपूर्ण समस्याओं का हल खोजना असान हुआ । इरान-इराक युद्ध की समाप्ति (1988), अफगान समस्या का समाधान (1988), नामीबिया की स्वतंत्रता (1988), कुवैत की मुक्ति (1991), इराक से सद्दाम हुसैन के शासन की समाप्ति, 2003 में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ ने मिल जुलकर कार्य किया और संयुक्त राष्ट्र संघ प्रभावी भूमिका अंशतः अदा कर सका ।
शीत युद्ध के अंत के साथ ही सोवियत संघ का अस्तित्व भी समाप्त हो गया । 26 दिसंबर, 1991 को सोवियत संघ की सुप्रीम सोवियत ने अपने अंतिम अधिवेशन में सोवियत संघ को समाप्त किये जाने का प्रस्ताव पारित कर दिया और स्वयं के भंग होने की घोषणा कर दी । विश्व राजनीति में शीत युद्ध के अंत के साथ ही ‘हितों’ के संतुलन ने ‘भय’ के संतुलन का स्थान ले लिया । अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के मुख्य मुद्दे ‘सुरक्षा’ और ‘विचारधारा’ के बजाय ‘व्यापार’ और ‘पूंजी निवेश’ बन गए ।
Essay # 3. उत्तर शीत युद्ध काल और विश्व पर प्रभाव (Effect of North Cold War Period and World):
शीतयुद्ध के अंत के साथ ही विश्व व्यवस्था में दूरगामी परिवर्तन हुए । तत्कालीन द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था आज एकल ध्रुवीय विश्व व्यवस्था के रूप में कार्य कर रही है । वैश्विक संबंधों में शीत युद्ध के तनाव का स्थान अब विस्तृत तनाव शैथिल्य, मित्रता एवं सहयोग ने ले लिया है ।
विचारधारागत संघर्ष की समाप्ति के कारण तृतीय विश्व युद्ध के भय से मुक्त विश्व में शस्त्र नियंत्रण एवं विकास के मुद्दों को प्रमुखता दी जाने लगी है । इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में आए इन नवीन परिवर्तनों के आलोक में नई विचारधारा एवं नए संबंधों का प्रवेश हुआ जिसका विश्व पर बहुआयामी प्रभाव पडा ।
इन प्रभावों को निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर समझा जा सकता है:
1. शीत युद्ध के तनावपूर्ण माहौल की समाप्ति के पश्चात विश्व में संयुक्त राज्य अमरीका का वर्चस्व स्थापित हो गया । संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमरीकी शक्ति को संतुलित करने वाली कोई शक्ति न रहने के कारण वह अपनी शक्ति का दुरूपयोग करने लगा ।
खाडी युद्ध, कोसावो में बमबारी, लीबिया, क्यूबा एवं इराक पर प्रतिबंधों की अवधि का बढाया जाना तथा वर्तमान समय में रासायनिक हथियारों के नाम पर इराक पर हमला कर वही अपनी कठपुतली सरकार बनाना इत्यादि मामलों में अमेरिकी नीतियाँ वर्चस्ववादी रही है ।
2. विश्व में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए उत्तरदायी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं आज अमरीकी प्रभाव एवं नियंत्रण में कार्य कर रही हैं । इन संस्थाओं का मुख्य कार्य अमरीकी नीतियों को लागू करना तथा उसके प्रस्तावों का अनुमोदन करना मात्र रह गया है । अमरीका अपने प्रस्तावों के किसी भी विरोध को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है ।
उसने हाल ही में इराक पर हमले के संदर्भ में धमकी देते हुए कहा था कि यदि उसके प्रस्ताव का संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अनुमोदन नहीं किया गया, तो उसका हश्र भी लीग ऑफ नेशंस जैसा होगा ।
3. शीतयुद्धोतर युग में राजनीतिक मुद्दों के स्थान पर आर्थिक मुद्दों को प्रमुखता दिए जाने के कारण विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू॰टी॰ओ॰) धीरे-धीरे संयुक्त राष्ट्र संघ (यू॰एन॰ओ॰) को प्रतिस्थापित करने लगा है आज अमरीका के नेतृत्व में डब्ल्यू॰टी॰ओ॰ अमरीकी आर्थिक एजेंडे को लागू करने तथा आर्थिक सुधारों के नाम पर संपूर्ण विश्व को पूंजीवादी बाजार व्यवस्था अपनाने के लिए बाध्य कर रहा है, यदि यही स्थिति जारी रही, तो इससे राष्ट्र संघ के महत्व में तो कमी आएगी ही, निर्धन एवं विकासशील राष्ट्रों की अंतर्राष्ट्रीय भूमिका भी दुष्प्रभावित होगी ।
4. एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था में गुटनिरपेक्ष आंदोलन को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है । पारस्परिक एकता एवं सहयोग के अभाव के कारण निर्गुट राष्ट्र न तो डब्ल्यू॰टी॰ओ॰ की व्यापारिक वार्ताओं में लाभकारी सौदेबाजी कर पा रहे हैं और न ही राष्ट्र संघ के मंच पर कोई सार्थक पहल ।
5. नई विश्व व्यवस्था में अमेरीका की परमाणु नीति विकासशील राष्ट्रों के लिए आत्मघाती साबित हो रही है । एन॰पी॰टी॰ तथा सीटी-बीटी, जैसी भेदभावपूर्ण संधियों के माध्यम से अमरीका संपूर्ण विश्व में अपना परमाणु बर्चस्व स्थापित करना चाहता है । साथ ही शेष विश्व की परमाणु प्रतिरोधक क्षमता को समाप्त अथवा सीमित कर देना चाहता है ।
इतना ही नहीं एम॰टी॰सी॰आर॰ (मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम) जैसी घोषणाओं के माध्यम से अमरीका और उसके मित्र राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों की प्रक्षेपास्त्र क्षमता के विकास और उसकी संभावनाओं को भी समाप्त कर देना चाहते है ताकि अमरीका अपने राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय हितों की रक्षा के नाम पर कोसावो, इराक, अफगानिस्तान जैसी कार्यवाही जब चाहे और जहाँ चाहे कर सके, उल्लेखनीय है कि एम॰टी॰सी॰आर॰ का सहारा लेकर ही अमरीका ने ‘दोहरे प्रयोग की तकनीक’ के नाम पर क्रायोजेनिक इंजनों के भारत को रूस से होने वाले आयात पर रोक लगवा दी थी ।
6. शीत युद्ध के अंत के साथ ही शस्त्रीकरण, सैन्य प्रतिस्पर्धा, सैनिक गठबंधन, वारसा पैक्ट जैसे तथ्य अपनी सार्थकता खोने लगे और धीरे-धीरे इनका क्षरण आरंभ हो गया ।
विश्व परिदृश्य में आए इस बदलाव के सकारात्मक प्रभाव के कारण ही बर्लिन की दीवार टूट गई और जर्मनी का एकीकरण हुआ पूर्वी यूरोप से साम्यवाद की समाप्ति हो गई तथा सोवियत संघ से दूर अलग हुए गणराज्यों का विश्व राज्य परिवार में उदय हुआ, जिसका अमरीका ने आगे बढकर स्वागत किया । आज यूरोप एवं मध्य एशिया में अमरीका की भूमिका अधिक बढ गई है और वह इस क्षेत्र में अनेक नए दायित्वों का निर्वहन कर रहा है ।
7. साम्यवादी खेमें के विघटन का प्रभाव विश्व अर्थ व्यवस्था पर भी पडा । विश्व की सबसे बडी समाजवादी अर्थ-व्यवस्था के टूटने के कारण अर्थव्यवस्था के समाजवादी मॉडल के स्थान पर ‘पूंजीवादी मॉडल’ को सर्वव्यापी मान्यता प्राप्त हो गई और इसी कारण आर्थिक मुद्दों के स्थान पर राजनीतिक मुद्दे गौण हो गए, जनवरी 1995 में डब्ल्यू॰टी॰ओ के उदय के साथ ही विश्व में आर्थिक उदारवाद की एक लहर चल पडी जिसे विश्व के विभिन्न भागों में पनपे आर्थिक संगठनों, मुक्त व्यापार क्षेत्रों तथा एकीकृत मुद्रा ‘यूरो’ के उदय ने और भी तीव्र बना दिया, इस आर्थिक लहर के फलस्वरूप ही विश्व को प्रत्येक छोटा-बडा देश आज उदारीकरण, सार्वभौमिकरण और खुलेपन का अनुसरण करने को बाध्य है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि शीतयुद्ध के अल का संपूर्ण विश्व पर बहुआयामी प्रभाव पडा और इसने विश्व व्यवस्था को उलट दिया । आज दुनिया भर में उदार लोकतंत्रवाद तथा पूँजीवादी का सर्वत्र बोलबाला दिखाई देता है ।
यद्यपि इस दौरान हितों एवं शक्ति के लिए निरंतर चलने वाले संघर्ष के कारण कट्टरता, धार्मिक उन्माद तथा आतंकवाद जैसे नए कारक भी उभर कर सामने आए, परंतु राष्ट्रों के मध्य पारस्परिक मित्रता, द्विपक्षीय-बहुपक्षीय सहयोग, सतत् विकास, निःशस्त्रीकरण, मानव अधिकारवाद, पर्यावरणवाद, तथा नारी अधिकारवाद जैसे मुद्दों पर जागरूकता तथा आम सहमति पूर्वापेक्षा बढी है इस कारण शीतयुद्ध के पूर्ववर्ती स्वरूप के पुनरोदय की संभावना क्षीण ही दिखाई देती है ।
वैश्वीकरण और समसमायिक विश्व में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का राजनीतिक अर्थशास्त्र:
समसामयिक विश्व में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का राजनीतिक अर्थशास्त्र वैश्वीकरण या भूमंडीलकरण से प्रभावित है । अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर भूमंडलीकरण का प्रभाव किस रूप में है इसे स्पष्ट करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि उदारीकरण व भूमंडलीकरण क्या है । इसके अर्थ को जानने के बाद ही यह स्पष्ट किया जा सकता है कि इसने अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को किस रूप में प्रभावित किया है ।
उदारीकरण लाइसेंस मुक्त व्यवस्था का नाम है इसने अतर्राष्ट्रीय संबंधों को राजनीतिक अर्थशास्त्र में बदल दिया है । कल तक जो राष्ट्र अतर्राष्ट्रीय राजनीति में मुख्य भूमिका निभाते थे उनका मुख्य उद्देश्य ‘शक्ति’ को प्राप्त करना या शक्ति प्रदर्शन करना था, लेकिन अब ये राष्ट्र वैश्वीकरण के युग में अपने राष्ट्रीय हित को किसी न किसी रूप में सही ढंग से पूरा करना चाहते हैं आज राष्ट्रों के बीच संबंध इस बात से निर्धारित हो रहे है कि वह वैश्वीकरण में कितना भागीदार है और उसकी विश्व बाजार में क्या भूमिका है तथा कितना प्रतिशत व्यापार है ।
वैश्वीकरण जैसी व्यापक पूंजीवादी प्रक्रिया ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा के महत्व को लगभग समाप्त कर दिया है या समाप्त करने पर तुले हुए हैं । कल तक जो देश विचारधारा के आधार पर एक-दूसरे से जुडे हुए थे आज उन्होंने अपने आर्थिक हितों के चलते विचारधारा पर ध्यान देना छोड़ दिया है ।
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में इससे संबंधित महत्वपूर्ण उदाहरण है- चीन, जो कि साम्यवादी सिद्धांतों में विश्वास रखते हुए भी क्यूबा जैसे साम्यवादी देश के समीप न होकर पूंजीवादी देश अमेरिका के समीप है जो वैश्वीकरण की लगाम थामे हुए है ।
जाहिर है कि वैश्वीकरण विचारधारा के महत्व को कम कर दिया है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा के अंत का सिद्धांत भी प्रचलित हुआ । अतः वर्तमान परिपेक्ष्य में कहा जा सकता है कि विचारधारा से अर्थ (Capital) अधिक महत्वपूर्ण हो गया है ।
पहले के समय में भी राष्ट्रीय हितों के रूप में राष्ट्र के आर्थिक हित महत्वपूर्ण रहे हैं लेकिन सामरिक सुरक्षा हित उससे अधिक महत्वपूर्ण रहे हैं । विगत दशक में साम्यवादी व्यवस्था के पतन के बाद अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में आए व्यापक परिवर्तन ने पूंजीवादी देशों के उदारीकरण को इसके अंर्तगत सभी वस्तुओं के आयात के विभिन्न चरणों में खुली छूट, सीमा शुल्क में कमी, विदेशी पूंजी के मुक्त प्रवाह की अनुमति, सेवा क्षेत्र विशेषकर बैंकिंग, बीमा, तथा जहाजरानी क्षेत्रों में विदेशी पूंजी के निवेश की छूट तथा रूपये को पूर्ण परिवर्तन करना इत्यादि उपायों का समावेश किया गया है ।
यह लाइसेंस मुक्त व्यवस्था न केवल आर्थिक क्षेत्र में है बल्कि सामाजिक क्षेत्र में उदारवाद खुले समाज की भरपूर वकालत करता है । राजनीतिक क्षेत्र में उदारवाद निजीकरण को बढ़ावा देता है तथा राष्ट्रीकरण को समाप्त करता है । उदारीकरण की प्रक्रिया छोटे स्तर पर भी हो सकती है और बड़े स्तर पर भी हो सकती है ।
जब यह बडे स्तर पर फैल जाती है यानि उसका विस्तार विश्व स्तर तक हो जाता है, विश्व एक बाजार बन जाता है । एक देश की अर्थव्यवस्था का मूल्यांकन विश्व अर्थव्यवस्था से किया जाने लगता है और ऐसा इसलिए भी किया जाता है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में आये उछाल या मंदी पूरे विश्व की आर्थिक व्यवस्था को प्रभावित करने लगती है, तो इसे भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण का नाम दिया जाता है ।
जो व्यापक स्तर तमाम उदारवादी विशेषताओं को स्वीकार करता है और उसे लागू करता है । उदारीकरण व वैश्वीकरण पूंजीवादी व्यवस्था के हथियार हैं तो जाहिर है कि इनका मुख्य उद्देश्य पूंजीवादी व्यवस्था को कायम रखने या बढ़ाने से है ।
समसमायिक विश्व में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का आधार आर्थिक तत्व पर टिक गया है । आज विश्व के सभी राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हित की पूर्ति के लिए अपनी अर्थव्यवस्था पर ध्यान दे रहे हैं । सामजिक असुरक्षा की भावना राष्ट्रों के बीच अब नहीं रही है । विचारधारा के समापन के साथ अब इसका स्थान आर्थिक हित तथा आर्थिक सहयोग ने लिया है ।
ऐसी स्थिति में वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण ने वैश्वीकरण में बदल दिया है और यह वैश्वीकरण राष्ट्रों के बीच के संबंधों का आधार बन गया है । आज विश्व का कोई भी देश इस वैश्वीकरण की प्रक्रिया से अलग होकर सुरक्षित नहीं रह सकता । यह कहना बहुत हद तक उचित है कि वैश्वीकरण ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप को ही बदल दिया है ।
आज राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय समझौते मुख्यतः आर्थिक लाभ के लिए ही करते हैं । वे इस पर ध्यान नहीं देते कि सामरिक हित हेतु संधियाँ की जाएँ । आज वार्ता पैक्ट जैसा संधि संगठन समाप्त हो गया है और ‘नाटो’ जैसा संगठन भी विशेष परिस्थितियों को छोड़कर शून्य स्थिति में हैं । अतः स्पष्ट रूप से वैश्वीकरण ने सैनिक गुटबंदी को कम कर दिया है ।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में वैश्वीकरण के कारण अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), अंतर्राष्ट्रीय विश्व व्यापार संगठन (WTO), विश्व बैंक जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन प्रभावकारी हुए हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ के सुरक्षा परिषद जैसे महत्वपूर्ण अंग की भूमिका में कमी आई है । अतः महत्वपूर्ण आर्थिक संगठनों, तथा उनकी भूमिका पर एक दृष्टिकोण डालना उचित होगा ।
विश्व व्यापार संगठन (WTO):
बहुमुखी व्यापार वार्तालाप का उरूग्वे चक्र सात वर्ष चलने के बाद 15 दिसंबर, 1993 को अपने अंतिम पड़ाव तक जा पहुंचा जब 117 देशों के प्रतिनिधिमंडलों ने एक सहमति में एक नये गैट (GATT) समझौते का अनुमोदन कर दिया । इस समझौते का उद्देश्य विश्व मंडियों में खुलेपन के द्वारा तीव्र आर्थिक विकास की प्राप्ति था ।
गैट समझौते को डंकल समझौता भी कहा जाता है । 15 अप्रैल 1994 को मोरक्को में भारत सहित 125 देशों ने गैट समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये । इस संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद यह घोषणा भी की गई कि 1995 तक GATT का नाम बदलकर डब्ल्यू.टी.ओ WTO कर दिया जाएगा तथा इसका स्तर विश्व बैंक तथा आई.एम.एफ. IMF के समान होगा ।
परिणामस्वरूप 1 जनवरी 1995 को WTO की स्थापना की गई है । WTO विभिन्न परिषदों और समितियों को माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से जुडे उन 28 समझौतों का लागू करता है जिन्हें उरूग्वे दौर की वार्ता में शामिल किया गया, है । साथ ही यह संगठन अनेक बहुपक्षीय संगठनों के समझौतों को भी लागू कराता है । यह संगठन बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली के लिए संस्थागत तथा कानूनी आधार उपलब्ध कराता है ।
इसके अब तक 144 सदस्य हैं । अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के आर्थिक हितों में यह संगठन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । दिसंबर 1991 की WTO की सिएटल बैठक में विकसित और विकासशील देशों में उदारीकरण की प्रक्रिया को लेकर कुछ गतिरोध उत्पन्न हो गया ।
भारत ने कुछ अन्य देशों के साथ मिलकर अमेरिका की उस कोशिश का विरोध किया जिसके तहत व्यापार और समभाजकों पर एक कार्य समूह बनाया गया था । वास्तव में इस पर विकसित देशों का पूरा नियंत्रण है और विकासशील देश विश्व व्यापार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए विकसित देशों पर दबाव बना रहे हैं क्योंकि WTO के द्वारा ही विश्व का संपूर्ण बाजार नियंत्रित होता है ।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund):
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना विश्व के विभिन्न राष्ट्रों के बीच मौद्रिक सहयोग का ज्वलंत उदाहरण है । IMF की स्थापना 28 जुलाई 1944 को संयुक्त राष्ट्र मुद्रा एवं वित्त सम्मेलन में एक समझौते के तहत की गई । IMF ने 1 मार्च 1947 से अपना कार्य प्रारंभ किया । संयुक्त राष्ट्र के साथ इसका संबंध परस्पर सहयोग के एक समझौते के अनुसार 15 नवंबर 1947 को हुआ ।
IMF का उद्देश्य एक ऐसी प्रणाली का विकास करना है जिससे सदस्य देशों को विदेशी विनिमय की सुविधा हो, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रोत्साहन मिले और सदस्य देशों की आर्थिक उन्नति हो सके । वर्तमान में इसकी सदस्य संख्या 182 है तथा यह अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के आर्थिक हितों को प्रभावित करता है । सभी विकसित तथा विकासशील राष्ट्रों ने इसके माध्यम से अपने राष्ट्रीय आर्थिक हितों की पूर्ति करने की कोशिश की है परंतु इस पर भी विश्व महाशक्तियों का ही पूर्ण नियंत्रण है ।
विश्व बैंक (World Bank):
विश्व बैंक संस्थाओं का समूह है- ये है- 1945 में स्थापित ‘अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निमाण और विकास बैंक (IRBD), 1916 में स्थापित ‘अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगम’ (IFC), 1960 में स्थापित अंतर्राष्ट्रीय विकास संघ (IDA), मल्टीलेटरल निवेश गारंटी ऐजेंसी (MIGA), सन् 1944 के ब्रेटन वुड्स से दो वित्तीय निकायों का उदभव हुआ (1) पुनर्निर्माण और विकास का अंतर्राष्ट्रीय बैंक (विश्व बैंक) और (2) अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष । इन दोनों वित्तीय निकायों की स्थापना सन् 1945 में हुई ।
विश्व बैंक का प्रधान उद्देश्य उत्पादक प्रयोजनों के लिए पूंजी निवेश नियोजन में सुविधा देकर सदस्यों के प्रदेशों के पुनर्निर्माण और विकास में सहायता देना है । यह निजी विदेशी पूंजी को प्रोत्साहन देता है, और सदस्य राज्यों को निजी पूंजी उपलब्ध न होने पर उन्हें ऋण देता है ।
यह सदस्य राज्यों की आर्थिक सुविधाओं के विकास के लिए धन उधार देता है । सदस्य राज्यों के प्रदेशों में स्थित व्यापार उद्योगों की प्रगति के लिए भी ऋण दिए जा सकते है । इस प्रकार यह बैंक उत्पादक प्रायोजनों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूंजी के विनियम को प्रोत्साहन देता है ।
वही देश विश्व बैंक का सदस्य हो सकता है जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का सदस्य होता है । इस प्रकार इन दोनों संस्थाओं की सदस्यता साथ-साथ चलती है । वर्तमान 180 देश विश्व बैंक के सदस्य हैं ।
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के राजनीतिक अर्थ-शास्त्र को विश्व बैंक ने बहुत अधिक प्रभावित किया है प्रत्येक विकासशील देश ने इससे ऋण लिया हुआ है तथा ऋण लेने वाले राष्ट्रों के बीच भी प्रतिद्वंद्विता चलती रहती है । प्रत्येक देश दूसरे देश के मुकाबले अपने समर्थन में दावे प्रस्तुत करता है तथा ऋण प्राप्त करने में सफल रहता है ।
कई बार विकसित देशों के दबाव के चलते भी विश्व बैंक से ऐसे देशों को भी ऋण प्राप्त हो जाता है जिन्हें इसकी आवश्यकता बहुत कम होती है । इस प्रकार बदलते विश्व परिदृश्य में विश्व बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था भी आर्थिक हितों के चलते प्रतिद्वंद्विता का केंद्र बन गई है ।
इन अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के अतिरिक्त राष्ट्रों ने अपने-अपने आर्थिक हितों को मजबूत करने के लिए क्षेत्रीय संगठनों की सदस्यता प्राप्त कर वही आर्थिक सहयोग की दिशा में कार्य करके अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अपनी आर्थिक क्षमता को बढ़ाने का कार्य किया है ।
यूरोपीय यूनियन, सार्क, आसियान, हिमतक्षेस, अमेरिकी राज्यों का संगठन, अरब लीग, ओपेक, अफ्रीकी यूनियन तथा G-8, G-15, आदि क्षेत्रीय संगठनों ने आर्थिक हितों को सबसे ऊपर रखा है और इसे अपनी राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ लिया है ।
भारत और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का राजनीतिक अर्थशास्त्र:
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में वैश्वीकरण का प्रभाव, भारत के संदर्भ में, अगर इसका अध्ययन किया जाता है तो वह काफी महत्वपूर्ण है । आज भारत सरकार की नीति पूर्णतः भूमंडलीकरण वाली नीति से जुड़ गई है । वैश्वीकरण ने भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं से जोड़ दिया है ।
भारत वैश्वीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से वैश्वीकरण की प्रक्रिया में शामिल होकर अपने राष्ट्रीय हित की पूर्ति करना चाहता है और यही कारण है कि भारत विकसित देशों के साथ अपने संबंधों को बढ़ाने की दिशा में और अधिक ठोस प्रयास कर रहा है ।
भारत की इस वैश्वीकरण की प्रक्रिया में शामिल होने का क्या परिणाम होगा यह तो समय ही बताएगा लेकिन वर्तमान संदर्भ में यदि देखें तो इससे भारत को लाभ इतना नहीं हुआ है जितना कि नुकसान । भारत में भूमंडलीकरण के चलते निजीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई जिससे सरकारी उपक्रम धीरे-धीरे समाप्त करके सार्वजनिक उपक्रमों में परिवर्तित किये जा रहे हैं । इसका परिणाम यह निकला है कि भारत में शोषण की एक नई धारणा विकसित हुई ।
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों ने बेरोजगारी को तो कम किया है परंतु इसके साथ ही भारत की गरीब, अशिक्षित जनता के शोषण का हथियार भी उनके पास आ गया है । भारत की वैश्वीकरण की प्रक्रिया के चलते बहुराष्ट्रीय निगमों ने भारत की कंपनियों तथा बाजार पर नियंत्रण स्थापित कर लिया है और भारतीय परम्परागत बाजार लगभग नष्ट होने के कगार पर है साथ ही पश्चात संस्कृति की चकाचौंध में आम-आदमी धकेला जा रहा है । अतः वैश्वीकरण की प्रक्रिया को नए रूप में अपनाने पर भारत को पुर्नविचार करने की आवश्यकता है ।
निष्कर्ष:
वैश्वीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का राजनीतिक अर्थशास्त्र भी परिवर्तित हुआ है और विश्व में आर्थिक मुद्दा सबसे प्रभावी बन गया है । हालांकि विकासशील देशों को इससे बहुत अधिक लाभ नहीं हुआ है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सदस्य होने के नाते, तथा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका को प्रस्तुत करने के लिए विकासशील देशों ने वैश्वीकरण की प्रक्रिया को अपना तो लिया है लेकिन इसका अंतिम परिणाम क्या होगा यह अभी देखा जाना बाकी है ।
कुल मिलकार यह कहा जा सकता है कि यदि वैश्वीकरण के प्रति एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया जाए तो इसके औचित्य पर शायद ही कोई प्रश्नचिन्ह खड़ा होगा । साथ ही विकासशील राष्ट्रों को ही इसका अधिक लाभ पहुँचे इसकी भी व्यवस्था अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं को करनी होगी ।