Here is an essay on चक्रवात पर निबंध | ‘Temperate and Tropical Cyclone’ especially written for school and college students in Hindi language.
1. शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Essay on Temperate Cyclone):
ये गोलाकार, अंडाकार या V- आकार के होते हैं, जिनके कारण इन्हें लो (Low), गर्त (Depression) या टूफ (Trough) कहते हैं । आदर्श शीतोष्ण चक्रवात का दीर्घ व्यास 1920 किमी. होता है परन्तु लघु व्यास 1040 किमी. तक भी मिलते हैं । कभी-कभी ये चक्रवात 10 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र तक का फैलाव रखते हैं ।
शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात 35०-65० अक्षांशों के मध्य दोनों गोलार्द्धों में पाए जाते हैं, जहाँ ये पछुआ पवनों के प्रभाव में पश्चिम से पूर्व दिशा में चलते हैं तथा मध्य अक्षांशों के मौसम को बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं । इनके चलने के मार्ग को झंझा-पथ (Storm Track) कहा जाता है । इसकी गति सामान्य रूप से 32 किमी. प्रति घंटे से 48 किमी. प्रति घंटे तक मिलती है ।
उत्पत्ति व जीवन चक्र (Origin and Lifecycle):
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इनकी उत्पत्ति का संबंध ध्रुवीय वाताग्रों से जोड़ा जाता है जहाँ पर दो विपरीत स्वभाव वाली हवाएँ (एक ठंडी व शुष्क एवं दूसरी गर्म व आर्द्र) मिलती है । इसकी उत्पत्ति हेतु दिए गए सिद्धान्तों में बर्कनीज (Bjerknes) का ध्रुवीय वाताग्र सिद्धान्त सर्वाधिक मान्य है । उन्होंने इसके जीवन चक्र को 6 क्रमिक अवस्थाओं में देखा है ।
प्रथम अवस्था में गर्म और ठंडी वायुराशियाँ एक दूसरे के समानान्तर चलती है तथा वाताग्र स्थायी होता है । दूसरी अवस्था में दोनों वायुराशियाँ एक दूसरे के प्रदेश में प्रविष्ट होने का प्रयास करती है तथा लहरनुमा वाताग्र का निर्माण होता है । तीसरी अवस्था में उष्ण एवं शीत वाताग्रों का पूर्ण विकास हो जाता है तथा चक्रवात का रूप प्राप्त हो जाता है ।
चौथी अवस्था में शीत वाताग्र के तेजी से आगे बढ़ने के कारण उष्ण वृतांश संकुचित होने लगता है । पाँचवीं अवस्था में चक्रवात का अवसान प्रारंभ हो जाता है तथा छठी या अंतिम अवस्था में उष्ण वृत्तांश विलीन हो जाता है और चक्रवात का अंत हो जाता है ।
वायु प्रणाली (Air System):
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इसके केन्द्र में न्यून दाब होता है जबकि परिधि की ओर अधिक दाब की स्थिति होती है । अतः हवाएँ परिधि से केन्द्र की ओर चलती है । परन्तु ये सीधे केन्द्र पर न पहुँचकर कॉरिऑलिस बल और घर्षण के कारण समदाब रेखाओं को 20० से 40० के कोण पर काटती है, जिससे संचार प्रणाली उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की विपरीत दिशा में व दक्षिणी गोलार्द्ध में अनुकूल दिशा में हो जाती है ।
चक्रवात में मौसम तथा वर्षा (Weather in Cyclone and Rain):
चक्रवात के भिन्न-भिन्न भागों के गुजरते समय भिन्न-भिन्न मौसम का आभास होता है ।
i. चक्रवात का आगमन (The Arrival of Cyclone):
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आकाश में सबसे पहले पक्षाभ मेघ दिखाई पड़ते हैं एवं चक्रवात के आने पर वायुदाब तेजी से गिरने लगता है । चन्द्रमा व सूर्य के चारों तरफ प्रभामंडल (Halo) स्थापित हो जाता है ।
ऐसा पश्चिम दिशा से बढ़ते पक्षाभ व पक्षाभ स्तरी मेघों के कारण होते हैं । जैसे-जैसे चक्रवात निकट आता जाता है, बादल काले व घने होने लगते हैं । वायु दिशा पूर्वी से बदलकर द.पू. होने लगती है ।
ii. उष्ण वाताग्र प्रदेशीय वर्षा:
उष्ण वाताग्र के आने पर मुख्यतः वर्षा स्तरी (Nimbo-Stratus) मेघों के साथ वर्षा होती है । वाताग्र का ढाल हल्का होने के कारण गर्म हवा धीमी गति से ऊपर उठती है तथा विस्तृत क्षेत्र में लम्बे समय तक परंतु हल्की वर्षा होती है । समस्त आकाश मेघाछन्न रहता है ।
iii. उष्ण वृतांश (Warm Sector):
उष्ण वृतांश के आगमन के साथ ही मौसम में अचानक परिवर्तन हो जाता है । वायु की दिशा पूर्ण दक्षिणी हो जाती है । आकाश बादल रहित होकर साफ हो जाता है । तापमान तेजी से बढ़ने लगता है, तथा वायुदाब कम होने लगता है । वर्षा समाप्त हो जाती है यद्यपि कभी-कभी हल्की फुहार भी पड़ जाती है । मौसम कुल मिलाकर साफ व सुहावना हो जाता है ।
iv. शीत वाताग्र प्रदेशीय वर्षा:
उष्ण वृतांश के गुजर जाने पर शीत वाताग्र आ जाता है, जिसके फलस्वरूप तापक्रम गिरने लगता है तथा सर्दी पड़ने लगती है । ठंडी वायु गर्म वायु को ऊपर धकेलने लगती है । वायु दिशा में पर्याप्त अंतर हो जाता है । आकाश में काले कपासी वर्षी (Cummulo-Nimbus) बादल छा जाते हैं, व तीव्र वर्षा प्रारम्भ हो जाती है ।
वाताग्र का ढाल तीव्र होने के कारण गर्म व आर्द्र वायु तेजी से ऊपर उठती है । अतः वर्षा लघु क्षेत्र में अल्प समय तक परंतु मूसलाधार होती है । यहाँ तड़ित झंझा (Thunder Storm) का भी आविर्भाव होता है एवं बिजली की चमक व बादलों की गरज के साथ वर्षा होती है । यदि ऊपर उठने वाली गर्म वायु आर्द्र तथा अस्थिर हो तो वर्षा तीव्र होती है ।
v. शीतवृतांश (Cold Sector):
शीत वाताग्र के गुजरने पर शीघ्र ही शीत वृतांश का आगमन हो जाता है । मौसम में अचानक परिवर्तन दिखलाई पड़ता है तथा आकाश मेघरहित होकर स्वच्छ हो जाता है । तापक्रम में तेजी से कमी आती है, वायुदाब बढ़ने लगता है एवं प्रतिचक्रवाती दशाएँ व्याप्त हो जाती है । वायुमार्ग में 45० से 180० का परिवर्तन हो जाता है तथा उसकी दिशा प्रायः पश्चिमी हो जाती है ।
चक्रवात के विलीन हो जाने पर उस स्थान पर चक्रवात आने से पहले की दशाएँ पुनः स्थापित हो जाती है । चूंकि शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात का व्यापक विस्तार होता है, अतः इसका जो भाग जिस प्रदेश पर होगा वहाँ वैसी ही मौसमी दशाएँ होंगी ।
2. उष्णकटिबंधीय चक्रवात (Essay on Tropical Cyclone):
कर्क रेखा व मकर रेखा के मध्य उत्पन्न होने वाले चक्रवातों को उष्ण कटिबंधीय चक्रवात कहा जाता है । निम्न अक्षांशों के मौसम खासकर वर्षा पर इन चक्रवातों का पर्याप्त प्रभाव होता है । ग्रीष्मकाल में केवल गर्म सागरों के ऊपर इनकी उत्पत्ति अंतर उष्णकटिबंधीय अभिसरण (ITCZ) के सहारे उस समय होती है जब यह खिसककर 5० से 30० उत्तरी अक्षांश तक चली आती है ।
इन प्रदेशों की गर्म व आर्द्र पवनें जब संवहनीय प्रक्रिया से ऊपर उठती है तो घनघोर वर्षा होती है । इन चक्रवातों की ऊर्जा का मुख्य स्रोत संघनन की गुप्त ऊष्मा है । ऊपर उठने वाली वायु जितनी गर्म व आर्द्र होगी मौसम उतना ही तूफानी होगा ।
सामान्य रूप से इन चक्रवातों का व्यास 80 से 300 किमी. तक होता है परन्तु कुछ इतने छोटे होते हैं जिनका व्यास 50 किमी, से भी कम होता है । इनकी आकृति सामान्यतः वृताकार या अंडाकार होती है परन्तु इनमें समदाब रेखाओं की संख्या बहुत कम होती है । उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की गति साधारण से लेकर प्रचंड तक होती है ।
क्षीण चक्रवातों में पवन की गति 32 किमी, प्रति घंटा होती है जबकि हरीकेन में पवन गति 120 किमी. प्रति घंटा से भी अधिक देखी जाती है । उष्ण कटिबंधीय चक्रवात सदैव गतिशील नहीं होते । कभी-कभी एक ही स्थान पर ये कई दिनों तक वर्षा करते रहते हैं । इनका भ्रमणपथ भिन्न-भिन्न होता है । साधारणतः ये व्यापारिक हवाओं के साथ पूर्व से पश्चिम दिशा में अग्रसर होते हैं ।
भूमध्यरेखा से अक्षांशों तक इनकी दिशा पश्चिमी, 15० से 30० तक ध्रुवों की ओर तथा इसके आगे पुनः पश्चिमी हो जाती है । ये चक्रवात जब उपोष्ण कटिबंध में पहुँचते हैं तो समाप्त होने लगते हैं । सागरों के ऊपर इन चक्रवातों की गति तीव्र होती है, परंतु स्थल तक पहुँचने के क्रम में ये क्षीण होने लगते हैं । यही कारण है कि ये केवल तटीय भागों को ही प्रभावित कर पाते हैं ।
तीव्रता के आधार पर इन चक्रवातों को कई उप-प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है । क्षीण चक्रवातों के अंतर्गत हिंद महासागर व उसकी शाखाओं के उष्णकटिबंधीय विक्षोभ व अवदाब शामिल किए जाते हैं, जिनकी गति 40-50 किमी. प्रति घंटा होती है । इन्हें भारत में चक्रवात, गर्त या अवदाब कहा जाता है । आस्ट्रेलिया में इनका नाम ‘विली-विली’ है ।
इनसे प्रभावित क्षेत्रों में भारी वर्षा होती है व बाढ़ आ जाती है । प्रचंड चक्रवात कई समदाब रेखाओं वाले विस्तृत चक्रवात होते हैं, जिनकी गति 120 किमी. प्रति घंटा से भी अधिक होती है, परन्तु कम संख्या में आने के कारण इनका जलवायुविक महत्व नगण्य होता है ।
वायु-प्रणाली, आकार तथा वर्षा के सम्बन्ध में ये लगभग शीतोष्ण चक्रवात की भांति दिखाई पड़ते हैं, परन्तु इनके बीच कुछ मौलिक अंतर हैं । सामान्यतः इनकी समदाब रेखा अधिक सुडौल होती है । इन चक्रवातों के केन्द्र में वायुदाब बहुत कम होता है ।
दाब प्रवणता अधिक (10-55mb) होने के कारण ये प्रचंड गति से आगे बढ़ते हैं । इनमें वाताग्र नहीं होते, अतः वर्षा का असमान वितरण भी नहीं होता । चक्रवात के चक्षु को छोड़कर वर्षा हर जगह व मूसलाधार होती है । सं.रा. अमेरिका में इन्हें हरीकेन, चीन व फिलीपींस में टाइफून एवं जापान में टाइफू कहा जाता है ।
बंगाल की खाड़ी में आने वाले सुपर साइक्लोन (Super Cyclone) की गति 225 किमी. प्रति घंटा होती है तथा इनमें केन्द्र व परिधि के बीच वायुदाब का अंतर 40-55mb रहता है । टोरनैडो मुख्यरूप से संयुक्त राज्य अमेरिका एवं गौण रूप से आस्ट्रेलिया में उत्पन्न होते हैं । ये आकार की दृष्टि से लघुतम व प्रभाव की दृष्टि से सबसे प्रलयकारी उष्णकटिबंधीय चक्रवात हैं ।
इनकी आकृति कीपाकार होती है । ऊपर का चौड़ा भाग कपासी-वर्षी मेघ (Cummulo-Nimbus) से जुड़ा होता है । केन्द्र में वायुदाब न्यूनतम होता है । केन्द्र व परिधि के वायुदाब में इतना अधिक अंतर होता है कि हवाएँ 800 किमी. प्रति घंटे तक की रफ्तार से प्रवाहित होती है ।
जब टॉरनेडो के कीपाकार बादलों का निचला भाग धरातल से छूकर चलता है तो मिनटों में महान विनाश हो जाता है । इन चक्रवातों में तापक्रम सम्बन्धी विभिन्नता नहीं होती क्योंकि इनमें विभिन्न वाताग्र नहीं होते ।
उष्णकटिबंधीय चक्रवात में मौसम (Season in Tropical Cyclone):
इनके आने के पहले वायु मंद पड़ने लगती है, तापमान बढ़ने लगता है व वायुदाब में कमी आने लगती है । आकाश पर पक्षाभ मेघ (Cirrus Clouds) दिखने लगता है । सागर में ऊँची तरंगें उठने लगती हैं । जैसे ही हरीकेन नजदीक आ जाता है, हवाएँ तूफानी रूप धारण कर लेती हैं । आकाश में काले कपासी-वर्षी मेघ छाने लगते हैं तथा मूसलाधार, भीषण वर्षा प्रारंभ हो जाती है ।
आकाश पूरी तरह से मेघाच्छादित हो जाता है । दृश्यता समाप्त हो जाती है । यह स्थिति कुछ घंटों तक रहती है । इसके बाद अचानक वायु गति मंद हो जाती है । आकाश मेघ रहित व साफ हो जाता है एवं वर्षा रुक जाती है । यह लक्षण चक्रवात के चक्षु (Eye) का परिचायक है । यहाँ वायुदाब न्यूनतम होता है । यह अवस्था लगभग आधे घंटे तक रहती है ।
इसके बाद चक्रवात का पृष्ठ भाग आ जाता है व घनघोर वर्षा प्रारम्भ हो जाती है । यह दशा लम्बे समय तक बनी रहती है । जैसे-जैसे चक्रवात आगे बढ़ता जाता है वायुदाब बढ़ता जाता है, वायुवेग मंद पड़ने लगता है तथा बादलों का आवरण हल्का होते जाने से वर्षा क्षीण हो जाती है । चक्रवात के आगे निकल जाने पर आकाश से बादल छँट जाते हैं तथा मौसम साफ हो जाता है ।
वितरण (Distribution):
ये चक्रवात मुख्य रूप से 5०-15० अक्षांशों के मध्य दोनों 0177 में सागरों के ऊपर पाए जाते हैं तथा महाद्वीपों के तटीय भागो को प्रभावित करने के बाद समाप्त हो जाते हैं ।
उष्णकटिबंधीय भागों में उष्णकटिबंधीय चक्रवातों का कोई न कोई रूप अवश्य देखने को मिलता है । परन्तु ये दक्षिणी अटलांटिक महासागर, दक्षिण पूर्व प्रशान्त महासागर एवं भूमध्य रेखा के दोनों ओर 5० अक्षांशों के मध्य बिल्कुल नहीं देखे जाते ।
भारत में उष्ण-कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclone in India):
उष्ण-कटिबंधीय चक्रवात कर्क रेखा एवं मकर रेखा के बीच उत्पन्न होने वाले चक्रवात हैं । इसकी तीव्रता सामान्य से लेकर काफी अधिक तक भी हो सकती है । इनमें पवन वेग 30 किमी. प्रति घंटे से लेकर 225 किमी. प्रति घंटे तक मिलती है ।
इनकी उत्पत्ति उष्णकटिबंधीय सागरीय भागों पर गर्मियों में होती है जबकि तापमान 27०C से अधिक हो । अत्यधिक वाष्पीकरण के कारण आर्द्र हवाओं के ऊपर उठने से इनका इज्मणि होता है । उष्णकटिबंधीय चक्रवातों को ऊर्जा, संघनन की गुप्त ऊष्मा से मिलती है । परिणामस्वरूप आकाश में काले कपासी मेघ छा जाते हैं तथा घनघोर वर्षा होती है ।
उष्ण-कटिबंधीय चक्रवात अपने निम्न दाब के कारण ऊँची सागरीय लहरों का निर्माण करते हैं एवं अगर इनकी प्रभाविता अधिक हो, तो ये तटीय भागों में व्यापक विनाश लाते हैं । इन चक्रवातों का मुख्य प्रभाव तटीय भागों में ही हो पाता है, क्योंकि उसके पश्चात् इनकी ऊर्जा स्रोत अर्थात् संघनन की गुप्त ऊष्मा में ह्रास होता चला जाता है ।
भारत में अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न होने वाले अवदाबों का प्रभाव सामान्य बात है । ये अप्रैल से नवंबर के बीच आते हैं । सामान्य रूप से इनकी गति 40-50 किमी. प्रति घंटा होती है परंतु कभी-कभी तीव्रता के अधिक होने के कारण ये विनाश का कारण बनते हैं ।
इस संदर्भ में कांडला में आए चक्रवात एवं ओडिश्य के चक्रवातों को देखा जा सकता है । ओडिश्य में आए उष्णकटिबंधीय चक्रवात को सुपर साइक्लोन (Super Cyclone) का दर्जा दिया गया था, क्योंकि चक्रवात के केंद्र एवं परिधि के वायुदाब का अंतर 40-55mb तक का था एवं पवन गति 225 किमी/घंटा से भी अधिक थी ।
वर्तमान समय में इन चक्रवातों के पूर्वानुमान के लिए भारत में तीन तरह के उपाय किए जा रहे हैं:
i. कुल 10 रडार लगाए गए हैं (पूर्व में 6 और पश्चिम में 4) इनसे तटीय भागों एवं जहाजों को समय-समय पर इन चक्रवातों के वायुदाब व गति सम्बधी जानकारी मिलती रहती है ।
ii. हवाई जहाजों के द्वारा भी रेडियो तरंगों (Radio Waves) को भेजकर चक्रवातों के क्रियाविधि सम्बन्धी जानकारी प्राप्त कर इनके बारे में पूर्वानुमान लगाया जाता है ।
iii. उपग्रहों के द्वारा और भी सूक्ष्मतर तरीकों से इन चक्रवातों के सम्बध में जानकारी प्राप्त की जाती है ।
इस प्रकार, वर्तमान समय में कम से कम 48 घंटे पहले इन चक्रवातों की सूचना दी जा रही है । परंतु महाचक्रवात के आने पर चक्रवात के प्रभाव की जानकारी दे पाना आसान नहीं रह पाता ।
चक्रवात के आने की जानकारी मछुआरों को जहाजों को और तटीय क्षेत्र के निवासियों को, प्राप्त सूचना के आधार पर पूर्व में ही दे दी जाती है परंतु उस पर उनके द्वारा अधिक ध्यान नहीं दिए जाने के कारण अधिक नुकसान उठाना पड़ जाता है ।