राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों पर निबंध | Essay on Directive Principles of State Policy in Hindi.
Essay Contents:
- नीति निदेशक का प्रारम्भ (Introduction to Directive Principles)
- नीति निदेशक सिद्धांतों का क्रियान्वयन (Execution of Directive Principles)
- नीति-निदेशक सिद्धांतों का महत्व (Importance of Directive Principles)
- नीति निदेशक सिद्धांतों का वर्गीकरण (Classification of Directive Principles)
- राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की आलोचना (Criticism of State Policy Directive Principles)
- मूल अधिकारों एवं निदेशक सिद्धांतों के मध्य विवाद (Controversy between Principal Rights and Directive Principles)
Essay # 1. नीति निदेशक सिद्धांतों का प्रारम्भ (Introduction to Directive Principles):
भारतीय संविधान की मूल कृति के भाग चार में अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्य के नीति-निदेशक तत्वों का उल्लेख किया गया है । राज्य के नीति-निदेशक तत्व वे सिद्धांत हैं जो सरकार को कुछ कर्तव्य सौंपते हैं । संविधान में कहा गया है कि ये तत्व देश का प्रशासन चलाने के लिए आधार हैं ।
वास्तव में संविधान निर्माताओं का यह विश्वास था कि मौलिक अधिकारों के द्वारा राजनीतिक लोकतंत्र की आधारशिला रखना तभी लाभदायक होगा जब इसके साथ-साथ सामाजिक न्याय तथा आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना भी की जाए । इसीलिए उन्होंने नीति निदेशक सिद्धांतों के रूप में कुछ ऐसे नियमों की रचना की है जिनको क्रियात्मक रूप देने से देश में एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की जा सकती है ।
ADVERTISEMENTS:
अतः कहा जा सकता है कि संविधान की प्रस्तावना में जिन आदर्शों एवं उद्देश्यों को स्थान दिया गया है उन्हें व्यवहारिक रूप प्रदान करने के लिए इन तत्वों का समावेश संविधान में किया गया है ।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार – ”राज्य के नीति-निदेशक तत्वों का उद्देश्य जनता के कल्याण को प्रोत्साहित करने वाली सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है ।”
दुर्गादास बसु के अनुसार – ”अधिकांश निदेशों का ध्येय आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करना है जिसका संकल्प उद्देशिका से लिया गया है ।”
डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था- ”संविधान के इस भाग का निर्माण करते समय संविधान सभा भावी विधानमंडलों और कार्यपालिकाओं को निर्देश दे रहा है कि उन्हें अपनी वैधानिक तथा कार्यपालिका शक्तियों का किस प्रकार प्रयोग करना है ।”
Essay # 2. निदेशक सिद्धांतों का क्रियान्वयन (Execution of Directive Principles):
ADVERTISEMENTS:
1950 से केंद्र एवं राज्यों में निदेशक सिद्धांतों को लागू करने के लिए अनेक कार्यक्रम एवं कानूनों को बनाया गया ।
इनका उल्लेख निम्नलिखित है:
1. 1950 में योजना आयोग की स्थापना की ताकि देश का विकास नियोजित तरीके से हो सके । पंचवर्षीय योजनाओं में सामाजिक और आर्थिक न्याय तथा आय, सामाजिक स्थिति एवं अवसर में असमानता को घटाने का लक्ष्य रखा गया ।
2. ज्यादातर सभी राज्यों में भू-सुधार कानून पारित किए गए ताकि ग्रामीण स्तर पर उनकी स्थिति में सुधार हो सके ।
ADVERTISEMENTS:
इन पैमानों में शामिल हैं:
(a) बिचौलियों जैसे जमींदार, जागीरदार, ईनामदार आदि को समाप्त किया गया ।
(b) भूमि सीमांकन व्यवस्था ।
(c) अतिरिक्त भूमि का भूमिहीनों में वितरण ।
(d) सहकारी कृषि, आगे चलकर भू-सुधार कानून को संवैधानिक सुरक्षा दी गई और उन्हें नौवीं अनुसूदी में शामिल किया गया ताकि उन्हें न्यायालय में चुनौती न दी जा सके ।
3. न्यूनतम मजदूरी अधिनियम (1948), मजदूरी भुगतान अधिनियम (1936), बालश्रम प्रतिबंध एवं सुधार अधिनियम (1986), बंधुआ मजदूर व्यवस्था निवारण अधिनियम (1976), व्यापार संगठन अधिनियम (1926), कारखाना अधिनियम (1948), खदान अधिनियम (1952), औद्योगिक विवाद अधिनियम (1947), कर्मचारियों को क्षतिपूर्ति अधिनियम (1923), आदि को श्रमिक वर्ग के हित में सुरक्षा के तहत प्रभावी बनाया गया ।
4. मातृत्व लाभ अधिनियम (1961) और समान सुविधा अधिनियम (1976) को महिला कर्मचारियों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया ।
5. सामान्य वस्तुओं के प्रोत्साहन हेतु वित्तीय संसाधनों के प्रयोग के लिए कुछ पैमाने तय किए गए । इनमें शामिल हैं जीवन बीमा का राष्ट्रीयकरण (1956), 14 प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण (1969), सामान्य बीमा का राष्ट्रीयकरण (1971), शाही खर्च की समाप्ति (1971), आदि ।
6. विधिक सेवा अधिकार अधिनियम (1987) का राष्ट्रीय स्तर पर गठन किया गया ताकि गरीबों को निःशुल्क एवं उचित कानूनी सहायता प्राप्त हो सके । इसके अलावा समान न्याय को बढावा देने के लिए लोक अदालतों का गठन किया गया । लोक अदालत गैर-संवैधानिक फोरम हैं जो कानूनी विवाद का निपटारा करती हैं, इन्हें जन अधिकार अदालतों के समान स्तर दिया गया । इनके निर्णय मानने की बाध्यता होती है और इनके फैसले के खिलाफ किसी न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती ।
7. खादी एवं ग्रामीण उद्योग बोर्ड, खादी एवं ग्रामीण उद्योग आयोग, लघु उद्योग बोर्ड, राष्ट्रीय लघु उद्योग परिषद, हैंडलूम बोर्ड, हथकरघा बोर्ड, कॉपर बोर्ड, सिल्क बोर्ड आदि की कुटीर उद्योग एवं ग्राम विकास के लिए स्थापना की गई ।
8. सामुदायिक विकास योजना (1952), पर्वतीय क्षेत्र विकास योजना (1960), सूखा संभावित क्षेत्र योजना (1973), न्यूनतम आवश्यकता योजना (1974), एकीकृत ग्रामीण विकास योजना (1978), जवाहर रोजगार योजना (1989), स्वर्णजयंती ग्राम स्वरोजगार योजना (1999), संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना आदि को मानक जीवन जीने के उद्देश्य से प्रारंभ किया गया ।
9. वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम (1972) एवं वन (संरक्षा) अधिनियम (1980) को वन्य जीवों एवं वनों के लिए सुरक्षा कवच के रूप में प्रभावी बनाया गया । आगे चलकर जल एवं वायु अधिनियमों की सुरक्षा के लिए केंद्र एवं राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड स्थापित किए गए जो पर्यावरण की सुरक्षा एवं सुधार में संलग्न हुए ।
10. त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को पेश किया गया ताकि गांधी जी का सपना कि हर गाव गणतंत्र हो, साकार हो सके ।
11. अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम (1955) को जन अधिकार अधिनियम (1976) में सुरक्षा देते हुए नया नाम दिया गया और अनुसूचित जाति और अनुणचइत जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम (1989) को अनुसूचित जाति एवं जनजाति की सुरक्षा में प्रभावी बनाया गया ताकि उन्हें शोषण से मुक्ति और सामाजिक न्याय मिले ।
65वें संविधान संशोधन अधिनियम (1990) के तहत अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की गई ताकि उनके हितों की रक्षा हो सके ।
12. प्राचीन एवं ऐतिहासिक धरोहरों, वास्तुशास्त्रीय क्षेत्र एवं रख-रखाव अधिनियम (1951) को धरोहरों, स्थानों एवं राष्ट्रीय महत्व के तहत प्रभावी बनाया गया ।
13. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र एवं अस्पतालों को सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के लिए देश भर में स्थापित किया गया । इसके अलावा खतरनाक बीमारियों जैसे-मलेरिया, टीबी, कुष्ठ, एड्स, कैंसर, फिलेरिया, कालाज्वर, गलघोंटू, जापानी बुखार आदि को नष्ट करने के लिए विशेष योजनाएं प्रारंभ की गईं ।
14. कुछ राज्यों में गायों, बछड़ों और बैलों को काटने के लिए बने बूचड़खाना पर कानूनी प्रतिबंध लगाया गया ।
15. कुछ राज्यों में 65 वर्ष से अधिक आयु वाले लोगों के लिए तात्कालिक वृद्धावस्था पेंशन शुरू की गई ।
16. भारत ने गुट निरपेक्ष नीति एवं पंचशील की नीति को अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए अपनाया ।
केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा उपरोक्त कदम उठाए जाने के बावजूद निदेशक सिद्धांतों को पूर्ण एवं प्रभावी तरीके से लागू नहीं किया जा सका है । इनमें से कुछ कारण हैं- जैसे अपर्याप्त वित्तीय संसाधन, सामाजिक-आर्थिक प्रतिकूल परिस्थिति, जनसंख्या विस्फोट, केंद्र-राज्य तनावपूर्ण संबंध आदि ।
Essay # 3. नीति-निदेशक सिद्धांतों का महत्व (Importance of Directive Principles):
उपरोक्त आधार पर नीति निदेशक सिद्धांतों की बड़ी तीव्र आलोचना की गई है फिर भी ये देश के शासन में आधारभूत महत्व रखते हैं । कोई भी सरकार इनकी उपेक्षा नहीं कर सकती । न्यायमूर्ति हेगडे के अनुसार यदि हमारे संविधान में कोई भाग ऐसा है जिन पर सावधानी और गहराई से विचार करने की आवश्यकता है तो वह भाग तीन और चार है । उनमें हमारे संविधान का दर्शन निहित है ।
नीति-निदेशक तत्वों के महत्व को दर्शाने के लिए निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं:
1. शासन के मूल्यांकन का आधार:
इन सिद्धांतों का एक बहुत बड़ा लाभ यह है कि ये भारतीय जनता के पास सरकार की सफलताओं को आंकने की कसौटी हैं । मतदाता इन आदर्शों को सम्मुख रखकर अनुमान लगाते हैं कि शासन को चलाने वाली पार्टी ने अपनी शासन संबंधी नीति को बनाते समय किस सीमा तक इन सिद्धांतों का पालन किया है ।
लोग शासन को चलाने वाली पार्टी को, जो इन नियमों का पालन नहीं करती, वोट नहीं देते । अतः हमें यह मानना पड़ेगा कि ये सिद्धांत कानूनी रूप में लागू नहीं किए जा सकते तो भी इनसे उदासीन नहीं रहा जा सकता ।
डी. अम्बेडकर के अनुसार – ”निदेशक सिद्धांत हमारे आर्थिक लोकतंत्र के आदर्श को प्रकट करते हैं” । जनता का कोई भी उत्तरदायी मंत्रिमंडल सरलता से संविधान में दिए गए इन सिद्धांतों के विरूद्ध जाने का विचार नहीं कर सकता ।
2. आर्थिक स्वतंत्रता के प्रवर्तक:
वास्तव में ये सिद्धांत भारतीय संविधान की प्रस्तावना की व्याख्या करते है । जिसके अनुसार देश में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय स्थापित करने का वचन दिया गया है । इस प्रकार इन सिद्धांतों के पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं है फिर भी ये बहुत महत्वपूर्ण हैं । वर्तमान तथा आगामी कोई भी सरकार इनकी ओर से उदासीन नहीं हो सकती ।
3. राज्य सरकारों के लिए प्रकाश स्तंभ के रूप में:
निदेशक सिद्धांत केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों का पथ-प्रदर्शन करते हैं । संविधान के अनुच्छेद 37 के अनुसार – ”इन सिद्धांतों को शासन का मौलिक आदेश घोषित किया गया है, जिन्हें कानून बनाने तथा लागू करते समय ध्यान में रखना प्रत्येक सरकार का कर्तव्य माना गया है । चाहे कोई भी राजनीतिक दल मंत्रिमंडल बनाए, उसे अपनी आंतरिक तथा बाह्य नीति निश्चित करते समय इन सिद्धांतों को अवश्य ध्यान में रखना पड़ेगा । इस तरह से ये सिद्धांत मानो सभी राजनीतिक दलों के संयुक्त चुनाव-घोषणा पत्र हैं । अपने कानूनी तथा कार्यकारी कामों में ये सिद्धांत प्रत्येक दल के लिए मार्गदर्शक, दार्शनिक तथा मित्र का रोल निभाते हैं ।”
4. संवैधानिक पवित्रता:
निदेशक सिद्धांत उसी प्रकार पवित्र है जिस प्रकार संविधान के अन्य अनुच्छेद । यह कहना ठीक नहीं कि न्यायालय की शक्ति के अभाव में वे संवैधानिक पवित्रता खो बैठते हैं । सूर्यपाल सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार केस में न्यायालय ने कहा है कि यदि कानून ‘शासन के आधारभूत सिद्धांत’ निदेशक तत्वों का विरोध करता है तो उसे अवैध घोषित कर दिया जाएगा ।
पंडित नेहरू ने चौथे संशोधन के समय स्पष्ट रूप से कहा था कि अगर संविधान का कोई अनुच्छेद निदेशक सिद्धांतों को व्यवहारिक रूप देने में बाधा पहुंचाता है तो संविधान में आवश्यक संशोधन किया जा सकता है ।
5. नीति-निदेशक सिद्धांतों के पीछे जनमत की शक्ति होती है:
राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत चाहे न्यायालयों द्वारा लागू नहीं कराए जा सकते हों तो भी इनका विशेष महत्व है । प्रत्येक प्रजातंत्रीय सरकार को जनमत के अनुसार चलना पड़ता है । इसलिए कोई भी सरकार आज के युग में जनमत का विरोध नहीं कर सकती ।
जब कोई शासक पार्टी इन सिद्धांतों से उदासीन होकर जनमत को अपना विरोधी बना लेती है तब वह अपने लिए खतरा मोल लेती है तथा उसके लिए अपना शासन बनाए रखना कठिन हो जाता है । एम॰वी॰ पायली का कथन है कि इन हानिकारक परिणामों से डरते हुए कोई भी शासक पार्टी निदेशक सिद्धांतों की ओर से उदासीन नहीं हो सकती ।
6. मौलिक अधिकारों का सहायक:
मौलिक अधिकारों की घोषणा इसलिए की गई है कि प्रत्येक नागरिक अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके, परंतु मौलिक अधिकारों को अपने उद्देश्य में तब तक सफलता नहीं मिल सकती, जब तक निदेशक सिद्धांतों को लागू न किया जाए । मौलिक अधिकारों ने नागरिकों को राजनीतिक स्वतंत्रता तथा समानता प्रदान की है जिसका उस समय तक कोई लाभ नहीं है जब तक कि सामाजिक और आर्थिक समानता की स्थापना न की जाए ।
पायली के अनुसार – ”राजनीतिक लोकतंत्र को बनाए रखने में सबसे अधिक प्रभावशाली शक्ति आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना है । जहां आर्थिक लोकतंत्र नहीं, राजनीतिक लोकतंत्र शीघ्र ही तानाशाही में बदल जाएगा ।”
7. संविधान की व्याख्या करने में सहायक हैं:
इन सिद्धांतों का महत्व इस बात में भी है कि ये भारतीय न्यायालयों के लिए पथ-प्रदर्शक का कार्य करते हैं । न्यायालयों ने बहुत सारे अभियोगों का निर्णय करते हुए इनको उचित महत्व दिया है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे वास्तव में भारतीय शासन के मूल आधार हैं ।
उदाहरणस्वरूप बिहार सरकार बनाम कामेश्वर सिंह के अभियोग का निर्णय करते समय उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 39 की व्याख्या की थी । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि निदेशक सिद्धांत बड़े लाभदायक सिद्ध हो जाते हैं ।
केरल मठ के स्वामी केशवानन्द बनाम यूनियन सरकार के मुकदमे में भी सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत विस्तार से निदेशक सिद्धांतों पर विचार किया । भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश कानिया (Kania) के अनुसार- ”ये सिद्धांत संविधान का भाग होने के नाते बहुमत की अस्थायी इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करते, बल्कि समस्त राष्ट्र की बुद्धिमत्ता के प्रतीक है जिसे संविधान सभा में प्रकट किया गया ।”
8. कल्याणकारी राज्य के आदर्श:
नीति निदेशक सिद्धांतों द्वारा कल्याणकारी राज्य के आदर्श की घोषणा की गई है । कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए जिन बातों की आवश्यकता होती है उन सभी को निदेशक सिद्धांतों में निहित किया गया है ।
अनुच्छेद 38 में स्पष्ट कहा गया है – ”राज्य लोगों के कल्याण के लिए ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करने और उसे सुरक्षित रखने का प्रयत्न करेगा, जिसके अंतर्गत राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं में लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त हो ।”
डॉ. अम्बेडकर ने कहा है – ”संविधान का उद्देश्य केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही लोकतंत्र की स्थापना नहीं है, जिसमें कानूनी शक्ति का आधार वयस्क मताधिकार होता है और कार्यकारिणी विधानमंडल होती है, बल्कि कल्याणकारी राज्य को भी बढ़ावा देना है जिसमें सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्र भी होता है ।”
9. नैतिक आदर्श के रूप में:
कुछ आलोचकों द्वारा नीति निदेशक सिद्धांतों की इस आधार पर आलोचना की जाती है कि ये मात्र नैतिक आदर्श हैं लेकिन इससे इन सिद्धांतों की महत्ता कम नहीं होती । नीति निदेशक सिद्धांतों की भांति इंग्लैंड के मैग्ना कार्टा (1215) को कोई कानूनी बल प्राप्त न था परंतु फिर भी अंग्रेज इसे अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आधार मानते हैं ।
Essay # 4. नीति निदेशक सिद्धांतों का वर्गीकरण (Classification of Directive Principles):
भारतीय संविधान में निहित नीति-निदेशक सिद्धांत मुख्यतः आयरलैंड के संविधान से प्रेरित हैं । अनुच्छेद 36 से 51 तक इन सिद्धांतों का वर्णन किया गया है ।
संविधान में वर्णित इन सिद्धांतों को मुख्यतः चार भागों में विभाजित किया जा सकता है:
1. आर्थिक सिद्धांत (Economic Theory):
(i) राज्य आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूह के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा ।
(ii) राज्य ऐसी नीति अपनाए, जिससे प्रत्येक नागरिक को जीविका के साधन प्राप्त हो सके ।
(iii) राज्य समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व तथा नियंत्रण इस प्रकार करेगा जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम कल्याण हो ।
(iv) समान कार्य के लिए सब स्त्री-पुरूषों को समान पारिश्रमिक मिले, इसकी भी व्यवस्था की जाऐगी ।
(v) राज्य को देखना चाहिए कि मजदूर स्त्रियों तथा बालकों की दुर्बल दशा का दुरूपयोग न हो तथा आर्थिक आवश्यकताशों से मजबूर होकर उनको ऐसी वृति न अपनानी पडे जो उनकी आयु तथा शक्ति के अनुकूल न हो ।
(vi) राज्य यह भी देखेगा कि देश की आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन व उत्पादन साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी सकेंद्रण न हो ।
(vii) राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करेगा जिसमें सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय हो ।
(viii) सरकार को देखना चाहिए कि समाज का एक वर्ग दूसरे वर्ग का शोषण न करे ।
(ix) मजदूरों के लिए उचित तथा कार्य की ऐसी हालातों का निर्माण करना, जिससे उनको आराम मिल सके तथा वे अपने जीवन को सास्कृतिक रूप से ऊँचा बना सके ।
2. सामाजिक सिद्धांत (Social Theory):
(i) राज्य का यह कर्तव्य है कि वह प्रारंभिक शैशवावस्था की देखरेख करे तथा 6 वर्ष की आयु तक बालकों की शिक्षा का प्रावधान करे ।
(ii) समाज के दुर्बल वर्गों, विशेषतया अनुसूचित जाति और जनजाति की शिक्षा व आर्थिक उन्नति का प्रबंध राज्य करेगा । साथ ही साथ यह भी देखेगा कि इनके साथ सामाजिक अन्याय तो नहीं हो रहा है ।
(iii) राज्य द्वारा निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था की जाएगी तथा अन्य इसी प्रकार की व्यवस्था करेगा जिससे आर्थिक व अन्य किसी आधार पर कोई नागरिक न्याय प्राप्ति से वंचित न रह जाए ।
(iv) वन्य जीवन और जंगलों की रक्षा का प्रबंध करना ।
(v) राष्ट्रीय महत्व व कलात्मक स्थानों, वस्तुओं तथा स्मारकों को राज्य नष्ट होने, स्थानांतरित किए जाने एवं बाहर भेजने आदि से रक्षा करेगा ।
(vi) राज्य देश के सभी नागरिकों के लिए समान आचार संहिता बनाने का प्रयत्न करेगा (अनुच्छेद 44)
(vii) उद्योगों के प्रबंध में कर्मचारियों की भागीदारी ।
3. गाँधीवादी सिद्धांत (Gandhian Theory):
शासन में सुधार और उसके स्तर को ऊँचा उठाने तथा स्वतंत्र भारत के निर्माण के लिए गाँधीजी ने जो विचार रखे थे, उनका समावेश इन नीति निदेशक सिद्धांतों में किया गया है ।
जो इस प्रकार हैं:
(i) राज्य द्वारा कुटीर उद्योगों का विकास व प्रोत्साहन
(ii) सरकार ग्राम पंचायतों का संगठन करेगी तथा उनको इतनी शक्तियाँ प्रदान करेगी कि वे प्रबंधकीय ईकाईयों के रूप में सफलतापर्बूक कार्य कर सकें ।
(iii) सरकार द्वारा मद्य या अन्य नशीले पदार्थों के दुरूपयोग पर रोक लगाना ।
(iv) सरकार खेती-बाडी तथा पशु-पालन का संगठन वैज्ञानिक आधार पर करेगी । दुधारू पशुओं को मारने पर प्रतिबंध लगाएगी तथा पशुओं की नस्ल को सुधारने का प्रयत्न करेगी ।
(v) राज्य दुर्बल एवं पिछडी जातियों की प्रगति के लिए प्रयत्न करेगी ।
(vi) कार्यपालिका का न्यायपालिका से पृथक्करण ।
4. अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा से संबंधित सिद्धांत (Principles Related to International Peace and Security):
(i) राज्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देगा ।
(ii) विभिन्न राष्ट्रों के बीच न्याय और सम्मान पूर्ण संबंधों की स्थापना हो सके, राज्य इसके लिए प्रयत्नशील रहेगा ।
(iii) राज्य अंतर्राष्ट्रीय संधियों तथा कानूनों का सम्मान करेगा ।
(iv) अंतर्राष्ट्रीय विवादों को राज्य शांतिपूर्ण गा से निपटाने की प्रवृति को बढ़ावा देगा ।
42वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गए नीति निदेशक तत्व:
42वें संविधान संशोधन (1976) द्वारा राज्य के नीति निदेशक तत्वों में कुछ नये सिद्धांतों को जोडा गया है जिनका वर्णन निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है:
1. इस संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई कि राज्य द्वारा विशेष रूप से कुछ ऐसी नीतियों का निर्माण किया जाएगा जिनका उद्देश्य बालकों तथा अल्पवय व्यक्तियों को शोषण से बचाना तथा उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छी व्यवस्थाएँ प्रदान करना है ।
2. अनुच्छेद 39A के द्वारा यह व्यवस्था की गई कि राज्य द्वारा समान न्याय दिलाने तथा कानूनी सहायता उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाएगी ।
3. एक अन्य अनुच्छेद 43-A का समावेश किया गया जिसके द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि राज्य उद्योगों के प्रबंध में कर्मचारियों के भाग लेने की व्यवस्था करेगा ।
4. 42वें संविधान संशोधन द्वारा एक अन्य नया अनुच्छेद 48-A जोड़ा गया जिसके अनुसार वनों तथा वन्य जीवों की सुरक्षा की व्यवस्था है ।
Essay #5. राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की आलोचना (Criticism of State Policy Directive Principles):
संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 में विभिन्न नीति निदेशक सिद्धांतों का वर्णन किया गया है, जिसका मुख्य उद्देश्य लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना और नीति-निर्धारकों का मार्गदर्शन करना है ।
फिर भी अनेक विद्वानों द्वारा इसके विभिन्न उपबंधों की आलोचना की जाती है, जिसका वर्णन निम्नलिखित है:
1. इनका कानूनी दृष्टिकोण से कोई महत्व नहीं है:
नीति निदेशक सिद्धांतों की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि कानून की दृष्टि से इनका कोई महत्व नहीं है क्योंकि न्यायालयों द्वारा इनको लागू नहीं करवाया जा सकता, न ही राज्य उनका कानूनी रूप में पालन करने को प्रतिबद्ध है । यदि इनका कोई कानूनी मान्यता नहीं है तो अवश्य ही इनका संविधान में होना या न होना कोई महत्व नहीं रखता ।
संविधान नैतिक आदर्शों को रखने का स्थान नहीं है । इसमें केवल वही बातें रखनी चाहिए जिसकी कोई कानूनी महत्व हो । इस प्रकार यह सिद्धांत संविधान बनाने वालों की पवित्र भावनाओं का एक संग्रह मात्र है ।
2. अव्यवहारिक एवं अनुचित:
राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों में अधिकतर न तो व्यवहारिक हैं और न ही ठोस । उदाहरणतया नशाबंदी सिद्धांत की इस आधार पर आलोचना की जाती है कि वे जहाँ सदाचार की दृष्टि से आदर्श हैं, वहीं कई आर्थिक समस्याएँ भी उत्पन्न कर देते हैं । जहाँ कहीं भी भारत में नशाबंदी कानून लागू किया गया है, यह केवल असफल ही नहीं रहा, अपितु इससे राष्ट्रीय आय में हानि भी हुई है । मद्यनिषेध कानून शराबियों को नैतिक प्राणी बनाने की बजाय शराब के अवैध व्यापार को जन्म देता है ।
3. साधनों की उपेक्षा:
आइवर जेनिंग्स का विचार है कि संविधान का यह अध्याय केवल उद्देश्यों की व्याख्या करता है । उद्देश्यों के लिए साधन का वर्णन नहीं करता । ये फेबियन समाजवाद के विचारों को अपनाता है; लेकिन उनके मुख्य साधन उत्पादन, वितरण तथा विनियमन के राष्ट्रीयकरण को नहीं अपनाता । इस प्रकार भारतीय संविधान राष्ट्रीयकरण के सिद्धांत का उल्लंघन कर समाजवाद की प्राप्ति के साधन को छोड़ देता है ।
4. संवैधानिक द्वंद्व के कारण:
आलोचकों का कहना है कि यदि राष्ट्रपति जो संविधान के संरक्षण की शपथ लेते हैं, किसी बिल को इस आधार पर स्वीकृति देने से इन्कार कर दें कि वह निदेशक सिद्धांतों का उल्लंघन करता है तो क्या होगा? संविधान सभा में श्री के॰ सन्थानम ने यह भय प्रकट किया कि इन निदेशक सिद्धांतों के कारण राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री अथवा राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच मतभेद पैदा हो सकता है ।
5. राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्त एक संप्रभु राज्य में अस्वाभाविक हैं:
नीति-निदेशक सिद्धांतों की एक अन्य आलोचना इस आधार पर की जाती है कि ये सिद्धांत निरर्थक हैं, क्योंकि निर्देश केवल अपने से अधीन तथा कमजोरों को दिए जाते हैं । दूसरे, यह बात अर्थहीन लगती है कि प्रभुत्व संपन्न राष्ट्र अपने आपको आदेश दे ।
6. निदेशक सिद्धांतों के विषय बहुत अनिश्चित तथा अस्पष्ट हैं:
नीति-निदेशक सिद्धांतों की आलोचना इस आधार पर भी की जाती है कि संविधान में निहित इन सिद्धांतों में कोई स्पष्टता और निश्चितता नहीं है । उदाहरणतः समाजवादी सिद्धांतों में मजदूरों तथा स्वामियों के परस्पर संबंधों के बारे में निश्चित रूप में कुछ नहीं कहा गया है ।
डॉ॰ श्रीनिवासन ने निदेशक सिद्धांतों की आलोचना करते हुए कहा है कि इन सिद्धांतों की व्यवस्था विशेष प्रेरणादायक नहीं है । इसमें बहुत-सी बातें अस्पष्ट हैं । इनका उचित प्रकार से वर्गीकरण नहीं किया गया । देश की अत्यंत महत्वपूर्ण समस्याओं को साधारण समस्याओं से जोड़ दिया गया है ।
7. मौलिक अधिकारों तथा निदेशक तत्वों में द्वंद्व:
मौलिक अधिकारों तथा निदेशक सिद्धांतो में द्वंद्व की संभावना बनी रहती है । क्योंकि एक ओर तो निदेशक सिद्धांतों को देश के शासन में आधारभूत माना गया है और दूसरी ओर उन्हें न्यायालयों के संरक्षण से परे रखा गया है । नौकरशाही को निदेशक सिद्धांतों को भी लागू करना पड़ता है और मौलिक अधिकारों की रक्षा भी करनी पड़ती है । ऐसे कई अवसर आये जब नीति-निदेशक और मौलिक अधिकारों में सर्वोच्चता को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ है ।
8. संसद की सर्वोच्चता के विरूद्ध:
आलोचकों का कहना है कि निदेशक सिद्धांत संसद की प्रभुता के विरूद्ध है । संसद को कानून बनाने में स्वतंत्रता होनी चाहिए । यह आवश्यक नहीं कि जिन विचारों को संविधान निर्माताओं ने उस समय आदर्श समझा, उन्हें जनता भी पसंद करे । परिस्थितियों के बदलने से आदर्शों में परिवर्तन आना स्वाभाविक है । संसद जनता का प्रतिनिधित्व करती है, अतः संसद को जनता की इच्छाओं के अनुसार कानून बनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए ।
9. कुछ प्रसिद्ध संविधान-शास्त्रियों ने नीति-निदेशक सिद्धांतों के बारे में अपने विचार निम्नलिखित रूप से प्रस्तुत किए हैं:
i. प्रो. के. टी. शाह ने संविधान सभा में कहा था, ”राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत एक चेक की भांति है जिसका भुगतान बैंक की सुविधा पर छोड़ दिया गया है ।”
ii. प्रो. केसी व्हीयर ने निदेशक सिद्धांतों को ‘लक्ष्य एवं आकांक्षाओं का घोषणापत्र’ कहा है ।
iii. नसीरूद्दीन के विचारानुसार, ‘ये निदेशक सिद्धांत नवीन वर्ष के आरंभ में लिए गए प्रण की भांति हैं, जिनको जनवरी के दूसरे दिन ही भुला दिया जाता है ।”
Essay # 6. मूल अधिकारों एवं निदेशक सिद्धांतों के मध्य विवाद (Controversy between Principal Rights and Directive Principles):
मूल अधिकारों को न्यायोचित एवं निदेशक सिद्धांतों को गैर न्यायोचित नाम दिया गया । एक तरफ इनको नैतिक बढ़ावा (अनुच्छेद 37) तो दूसरी तरफ दोनों में संवैधानिक मान्यताओं के तहत संघर्ष की स्थिति । यह स्थिति संविधान लागू होने के समय से ही है । चम्पाकम दोराइराजन मामले (1951) में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि निदेशक सिद्धांत एवं मूल अधिकारों के बीच किसी तरह के संघर्ष में पूर्व की स्थिति प्रभावी रहेगी ।
इसमें घोषणा की गयी कि निदेशक सिद्धांत मूल अधिकारों के पूरक के रूप में निश्चित रूप से लागू होंगे । लेकिन यह भी तय हुआ कि मूल अधिकारों को संसद द्वारा संविधान संशोधन प्रक्रिया के तहत संशोधित किया जा सकता है । इसी के फलस्वरूप संसद ने पहला संशोधन अधिनियम (1951), चौथा संशोधन अधिनियम (1955) एवं सत्रहवीं संशोधन अधिनियम (1964) कुछ निर्देशों के साथ लागू किया ।
उपरोक्त परिस्थिति में 1967 में उच्चतम न्यायालय के फैसले में गोलकनाथ मामले से एक व्यापक परिवर्तन हुआ । इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि संसद किसी मूल अधिकार को समाप्त नहीं कर सकती । दूसरे शब्दों में, निदेशक सिद्धांतों को लागू करने के लिए मूल अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता ।
संसद ने गोलकनाथ मामले (1967) में उच्चतम न्यायालय के फैसले पर 24वें संशोधन अधिनियम (1971) एवं 25वें संशोधन अधिनियम (1971) के जरिए प्रतिक्रिया व्यक्त की । वे संशोधन अधिनियम में घोषणा की गई कि संसद को यह अधिकार है कि वह संवैधानिक संशोधन अधिनियम के तहत मूल अधिकारों को समाप्त करे या कम कर दे ।
25वें संशोधन अधिनियम के तहत एक नया अनुच्छेद 31C को जोड़ा गया जिसमें निम्नलिखित व्यवस्थाएं रखी गईं:
1. कोई भी कानून जिसमें सामाजिक निदेशक सिद्धांत निहित हैं, उन्हें मूल अधिकारों के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 या अनुच्छेद 31 के संदर्भ में अवैध नहीं किया जा सकता ।
2. इस तरह की नीतियों को प्रभावी बनाने के लिए कोई कानूनी घोषणा नहीं है ताकि इन्हें प्रभावी न बनाने के लिए किसी अदालत में इन पर प्रश्न उठाया जा सके ।
केशवानंद भारती मामले (1973) में उच्चतम न्यायालय ने उपरोक्त दूसरी व्यवस्था के तहत घोषणा की । इसमें कहा गया कि अनुच्छेद 31C न्यायिक समीक्षा, जो कि संविधान की मुख्य विशेषता है, के आधार पर असंवैधानिक एवं अवैध है इसलिए इसे दूर नहीं किया जा सकता । हालांकि अनुच्छेद ट की उपरोक्त प्रथम व्यवस्था को संवैधानिक एवं वैध माना गया है ।
बाद में 42वें संविधान अधिनियम (1976) में उपरोक्त अनुच्छेद 31C की पहली व्यवस्था की उम्मीदों को विस्तारित किया गया । इसमें कानूनी सुरक्षा को छोड़कर एवं किसी भी निदेशक सिद्धांत को विशेष रूप से उन्हें नहीं जिनकी विशेष चर्चा अनुच्छेद 39(b) एवं 39(c) में है ।
दूसरे शब्दों में, वे संशोधन अधिनियम में निदेशक सिद्धांतों की प्राथमिकता एवं सर्वोच्चता को मूल अधिकारों पर प्रभावी बनाया गया, उन अधिकारों पर जिनका उल्लेख अनुच्छेद 14,19 एवं 31 में है । हालांकि, इस विस्तार को उच्चतम न्यायालय द्वारा मिनरवा मिल्स मामले (1980) में असंवैधानिक एवं अवैध घोषित किया गया ।
इसका तात्पर्य है कि निदेशक सिद्धांतों को एक बार फिर मूल अधिकारों का पूरक बताया गया लेकिन अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 19 द्वारा स्थापित मूल अधिकारों को अनुच्छेद 39(b) और 39(c) में बताए गए निदेशक सिद्धांतों का पूरक माना गया । आगे अनुच्छेद 31 को 44वें संशोधन अधिनियम (1978) द्वारा समाप्त कर दिया गया ।
मिनरवा मिल्स मामले (1980) में उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था भी दी कि ”भारतीय संविधान मूल अधिकारों और निदेशक सिद्धांतों के बीच संतुलन के रूप में है । ये आपस में सामाजिक क्रांति के वादे पर जुड़े हुए हैं । ये एक रथ के दो पहियों के समान हैं तथा एक-दूसरे पर लादने से संविधान की मूल भावना बाधित होती है । मूल भावना और संतुलन संविधान के बुनियादी ढांचे की विशेषता के लिए आवश्यक है । निदेशक सिद्धांतों के तय लक्ष्यों को मूल अधिकारों को प्राप्त किए बगैर प्राप्त नहीं किया जा सकता ।”
इस तरह वर्तमान स्थिति में मूल अधिकार निदेशक सिद्धांतों पर उच्चतर हैं फिर भी इसका मतलब यह नहीं है कि निदेशक सिद्धांतों को लागू नहीं किया जा सकता । संसद, निदेशक सिद्धांतों को लागू करने के लिए मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है । इस संशोधन में संविधान के मूल ढांचे को क्षति नहीं पहुँचना चाहिए या उसे समाप्त नहीं होना चाहिए ।