Here is an essay on the ‘East India Company’ especially written for school and college students in Hindi language.
यदि पहले से नहीं, तो कम-से-कम वेलेंस्त्री के समय से ब्रिटिश साम्राज्यवाद भारत में तेजी से लंबी डगें भरने लगा था । इससे मुगल साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर खड़े होनेवाले भारतीय राज्यों के भाग्य का प्रभावित होना अवश्यंभावी था । कम्पनी-सरकार से उनके सम्बन्ध इन बातों पर निर्भर थे कि बदलती हुई राजनीतिक परिस्थितियाँ कैसी थीं तथा गवर्नर-जनरलों के व्यक्तिगत विचार एवं महत्वाकांक्षाएं क्या थीं ।
लेकिन “वेलेस्ली के साथ एक दृढ़ विचार चल निकला, जो हमारे अपने समय तक जारी रहा । वह यह था कि प्रत्यक्ष रूप में या परोक्ष रूप में समस्त भारत का अंग्रेजों द्वारा शासन एक पूर्व-निर्दिष्ट प्रणाली का अंग है” । भारतीय राज्यों के प्रति ब्रिटिश नीति के निश्चित रूप ग्रहण करने में इस दृढ़ विचार ने यथेष्ट प्रभाव डाला ।
वारेन हेस्टिंग्स के सामने मराठों और मैसूर के युद्धप्रिय शासकों के अनाधिकार हस्तक्षेपों के विरुद्ध ब्रिटिश राज्य की रक्षा का काम पड़ा था । उसने एक ऐसी नीति अपनायी, जिसे अंग्रेजी में “रिंग-फेस” की नीति कहते हैं ।
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तदनुसार उसने सावधानी के तौर पर पड़ोसी राज्यों की सीमाओं की रक्षा करने की चेष्टा की । लेकिन उसकी कुछ कारवाइयों-जैसे बनारस के चेत सिंह और अवध को बेगमों से उसकी माँगे तथा रामपुर के फैजुल्ला खाँ के प्रति उसका बर्ताव-में संधियों को तोड़ा गया अथवा नैतिक, सिद्धांतों का अभाव पाया गया ।
लार्ड वेलेस्ली की सहायक संधियों ने वस्तुत: कुछ भारतीय राज्यों पर ब्रिटिश प्रधानता स्थापित कर दी । लेकिन सैद्धांतिक रूप में ये राज्य इस प्रकार ब्रिटिश सर्वोच्च सत्ता के अधीन नहीं हुए, क्योंकि आंतरिक शासन के मामलों में उनकी स्वतंत्रता अक्षुण्ण थी ।
मैसूर से की गयी संधि को छोड्कर वेंलेस्ली की बाकी सभी संधियाँ समानता की शर्तों पर की गयी थीं । मगर आत्म-रक्षा के लिए कम्पनी पर निर्भर रहने के कारण अवध, कर्णाटक और तंजोर जैसे राज्य “द्वैधशासन” की उन सभी बुराइयों के शिकार होने लगे, जिन्होंने बंगाल को १७६५ ई॰ से तबाह कर डाला था ।
यह लार्ड हेस्टिंग्स ही था जिसने “पारस्परिकता और आपसी मित्रता” की संधियों को “निम्नपदस्थ सहयोग” की संधियों में परिवर्तित कर दिया । उसने अधिकांश भारतीय राज्यों को लाचार कर दिया कि वें युद्ध या संधि करने और दूसरी शक्तियों से सुलह की बातचीत करने के अपने सर्वोच्च अधिकारों को समर्पित कर दें ।
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इस प्रकार उसने वहाँ ब्रिटिश आधिपत्य की स्थापना कर डाली । औपचारिक रूप में इन राज्यों की अतिरिक्त सर्वोच्च शासन-शक्ति-अक्षुण्ण थी । किन्तु यथार्थ व्यवहार में उनके आंतरिक शासन के मामलों में ब्रिटिश रेजिडेंट बहुधा हस्तक्षेप किया करते थे ।
यह हस्तक्षेप किस प्रकार का और किस हद तक होता था, यह संबंधित अफसरों के “व्यक्तित्व और स्वभाव” के अंतर पर निर्भर था । जो भी हो, लार्ड हेस्टिग्स “संयोजनवादी” नहीं था ।
लार्ड हेस्टिंग्स के प्रस्थान और गदर के विस्फोट के बीच के युग में ब्रिटिश प्रभाव का बोझ भारतीय राज्यों पर और भी भारी बनकर आ पड़ा । इसके दो कारण थे । एक ओर तो इन राज्यों के अतिरिक्त शासन के क्षेत्र में ब्रिटिश रेजिडेंट का कार्यपालक और नियंत्रणकारी अधिकार बढ़ता ही गया ।
दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार ने संयोजन की नीति को स्पष्टतापूर्वक व्यक्त कर डाला । संयोजन की यह नीति कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स द्वारा १८३४ ई॰ में ही निकाली गयी थी । १८४१ ई॰ में उसने अधिक स्पष्टता के साथ इस पर जोर डाला ।
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लार्ड डलहौजी के समय में यह बहुत जोर-शोर के साथ बरती गयी । यह (नीति) कम्पनी-सरकार केन्द्रों उद्देश्यों का परिणाम थी । एक उद्देश्य था साम्राज्य में नये राज्य मिलाकर ब्रिटिश राजनीतिक प्रभाव का विस्तार करना ।
दूसरा उद्देश्य था वाणिज्य-द्रव्य के वहन और राजस्व के संग्रह के लिए अधिक सुविधाएँ प्राप्त करना । दोनों का मतलब था भारत पर ब्रिटिश आधिपत्य की पकड़ को कस देना ।
लार्ड विलियम बेंटिंक जिस समय भारत आया, उस समय वह इंगलैंड के अधिकारियों द्वारा “अलग रहने” की नीति से बँधा हुआ था । किन्तु कुछ दशाओं में वह इससे प्रचंड रूप में हट पड़ा तथा उसके स्वामियों ने भी कुछ वर्षों के भीतर संयोजन की नीति स्पष्ट कर दी ।
इस प्रकार १०३१ ई॰ मैं उसने मैसूर का शासन अपने हाथों में ले लिया, जो राजा कृष्ण उदैयार द्वारा कुशासित होने के फलस्वरूप अव्यवस्था में पड़ गया था । राजा को पेंशन देकर अलग कर दिया गया । मैसूर का शासन १८८१ ई॰ तक ब्रिटिश सरकार के हाथों में रहा ।
बेंटिंक ने कुछ दूसरे राज्यों को भी ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया । कछार का राज्य, जहाँ के अंतिम शासक की मृत्यु के पश्चात् राजवंश समाप्त हो गया था, १८३२ ई॰ के अगस्त में ब्रिटिश राज्य में मिला लिया गया, क्योंकि रिक्त सिंहासन के उम्मीदवारों में से किसी के दावें को ब्रिटिश सरकार ने उचित नहीं माना ।
आसाम में स्थित जयंतिया का राज्य १८३५ ई॰ के मार्च में ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया क्योंकि वहाँ के नये शासक ने अपने ऊपर लादी गयी भारी शर्तों को मानने से इन्कार कर दिया । कुर्ग के राजायुवक वीर राज्य पर अपनी प्रजा के प्रति राक्षसी बर्बरता और अंग्रेजों के विरुद्ध गुप्त षडयंत्र करने के आरोप लगाये गये । यद्यपि ये अभियोग किसी निश्चित प्रमाण से संपुष्ट नहीं हो रहे थे और बाद में ये अधिकांशत: झूठे या अप्रमाणित सिद्ध हुए, फिर भी त्रिटिश सेनाएँ कुर्ग भेजी गयी ।
७ मई, १८३४ ई० को औपचारिक घोषणापत्र के द्वारा यह ब्रिटिश राज्य में मिला लिया गया । इस प्रकार छोटे भारतीय राज्य ऐसे-ऐसे वहाने बनाकर मिला लिये गये जो ठीक से परीक्षा करने पर टिक नहीं सकेंगे ।
लार्ड आकलैंड की शक्तियाँ अफगान युद्ध में लगी हुई थी । अत: वह राज्यों पा अधिक ध्यान न दे सका । फिर भी, उसने आंध्र प्रदेश में स्थित कुर्नूल के नवाब का राज्य मिला लिया, क्योंकि उसे संदेह था कि उक्त नवाब ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण मनसूबे रखता है ।
उसके उत्तराधिकारी लार्ड एलेनबरा को ग्वालियर में एक भयंकर विप्लव का सामना करना पड़ा । १८१७-१८१९ ई॰ के मराठा-युद्ध के अंत: में दौलतराव सिंधिया के अधीन ग्वालियर सतलज के दक्षिण सबसे शक्तिशाली भारतीय सैनिक राज्य बच रहा था । दौलतराव १८२७ ई॰ में मर गया । उसका एक युवक सम्बन्धी जनको राव सिंधिया राजा बना दिया गया । दौलतराव सिंधिया की विधवा महारानी बायजा बाई संरक्षिक बनी ।
वह महत्त्वाकांक्षाओं वाली स्त्री थी । नये शासक की कमजोरी तथा संरक्षिक के कारनामों से राज्य में विविध षड्यंत्र और अव्यवस्था उठ खड़ी हुई । संरक्षिका के १८३३ ई॰ में हटा दिये जाने पर भी इनका अंत: नहीं हुआ । इन्हीं झंझटों के बीच जनकोजी १८४३ में निस्संतान मर गया ।
तब जयाजी राव नामक एक अल्पवयस्क बालक गद्दी पर बैठाया गया । लेकिन षड्यंत्र और प्रतिषड्यंत्र तुरंत बढ़ चले । इसका एक विशेष कारण यह था कि बालक राजा के लिए एक संरक्षक के चुनाव की बात लेकर दो प्रतिद्वंद्वी दलों में षड़यंत्र चलने लगे ।
स्वर्गीय राजा की युवती विधवा ने गवर्नर-जनरल के उम्मीदवार और दिवंगत राजा के मामा साहब कृष्णराव कदम को पदच्युत कर दिया, क्योंकि वह खासजीवाला की नियुक्ति पसंद करती थी । जैसा कि किसी राज्य में गृहयुद्ध होने पर स्वाभाविक है विण्लयर की सेना, जिसकी संख्या चालीस हजार थी, चंचल हो उठी ।
इससे गवर्नर-जनरल के मस्तिष्क में चिंता पैदा हो गयी । इस समय पंजाब में भी शेर सिंह की हत्या हे बाद एक गृह-युद्ध करीब-करीब छिड़ने ही वाला था । खालसा सेना करीब सत्तर हजार थी । गवर्नर-जनरल को भय हुआ कि यदि ग्वालियर की सेना खालसा सेना से स्मेल जाए, तो यह ब्रिटिश सरकार के लिए एक भयंकर संकट सिद्ध होगा ।
इस अवांछनीय पन्नावना को रोकने के लिए लार्ड एलेनबरा ने अपने खास आदमियों को परिस्थिति का सामना करने को भेजा । जब शांतिपूर्ण वार्ताएं उपस्थित समस्या का समाधान करने में असफल हो गयीं, तब उसे ग्वालियर के मामलों में सशस्त्र हस्तक्षेप का सहारा लेना पड़ा । दो ब्रिटिश सेनाएँ चंबल पर चल पड़ी ।
ग्वालियर की सेना राज्य की वास्तविक शासिका बन गयी थी । वह ब्रिटिश सैनिकों का विरोध करने को आगे बड़ी । किन्तु यह २९ दिसम्बर, १८४३ ई॰ को दो लड़ाईयों में पराजित हुई-पहली ग्वालियर के उत्तर महाराजपुर में सर हयू गफ द्वारा तथा दूसरी पनियार में जनरल द्वारा । ग्वालियर अब निश्चित रूप से रक्षित राज्य के पद पर उतर आया ।
यह एक संरक्षक-परिषद् के अधीन कर दिया गया । इसी परिषद् को महाराजा की नाबालिगी में एक ब्रिटिश रेजिडेंट के नियंत्रण में रहकर ग्वालियर के मामलों का प्रबंध करना था । सेना घटाकर नौ हजार कर दी गयी तथा दस हजार आदमियों की एक ब्रिटिश सेना वहाँ रख दी गयी ।
विवित्रता की बात तो यह है कि गदर में राज्य के मंत्री दिनकर राव के अधीन ग्वालियर की सेना ने अंग्रेजों का समर्थन किया, जब कि वहाँ रखी हुई कंपनी की सेना उनके विरुद्ध खड़ी हुई ।
लार्ड डलहौजी की गवर्नर-जनरली में ब्रिटिश साम्राज्य की विस्मयजनक वृद्धि हुई तथा अनेक भारतीय राज्य मिट गये । लार्ड डलहौजी ने बहुत अधिक राज्यों को “समाप्ति- सिद्धांत” (“डौक्ट्रिन ऑफ लैप्स”) के नाम से प्रसिद्ध एक सिद्धांत का अनुसरण कर ब्रिटिश साम्राज्य मेंमिला लिया ।
इसका मतलब यह है कि स्वाभाविक उत्तराधिकारियों के न रहने पर “अवलंबित” राज्यों-ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाये गये अथवा अधीनता की शर्त माननेवाले राज्यों-की सर्वोच्च सत्ता सर्वोच्च शक्ति में समाप्त हो जाती थी । दलील के रूप में कहा जाता था कि मुगल साम्राज्य के पतन के बाद ब्रिटिश सरकार ने यह अधिकार प्राप्त कर लिया था । हिन्दुओं में गोद लेने की बहुत पुरानी प्रथा थी ।
किन्तु यह सिद्धांत सर्वोच्च सत्ता की स्वीकृति के बिना उन राज्यों के उत्तराधिकारियों के गोद लेने के अधिकार को नहीं मानता था । यह सिद्धांत संरक्षित मित्रों पर नहीं लागू होता था । कुछ भारतीय राज्यों के शासन की अधिक प्रचलित बुराइयों की ओर इशारा करते हुए गवर्नर-जनरल ने घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार बुद्धिमत्तापूर्ण और ठोस नीति बरतेगी ।
समय-समय पर राज्य या राजस्व लेने के जो अधिकारपूर्ण अवसर उपस्थित होंगे, उन्हें वह नहीं छोड़ देने या नहीं भूल जाने को विवश है । ये अवसर हर तरह के सभी उत्तराधिकारियों के न रहने पर अधीन राज्यों के समाप्त हो जाने से पैदा हो सकते है ।
अथवा ये अवसर स्वाभाविक उत्तराधिकारियों के न रहने पर पैदा हो सकते है, जहाँ हिन्दू कानून के अनुसार गोद लेने के संस्कार को सरकारी स्वीकृति देकर उत्तराधिकार को जारी रखा जा सकता है । ऐसे प्रत्येक अवसर पर सरकार कर्तव्य और नीति से बँधकर शुद्धतम ईमानदारी के साथ तथा सद्विश्वास का अत्यंत सिद्धांत पूर्ण पालन करते हुए काम करने को बाधित है ।
जब कही संदेह की छाया तक दिखलायी जा सके, तब दावा तुरंत छोड़ दिया जाना चाहिए । यह सच है कि गोद लेने के संबंध में लगाये गये सिद्धांत और संयोजन की नीति का आविष्कार लार्ड डलहौजी ने नहीं किया था । इन दोनों को कोर्ट ऑफ डिरेर्क्टस पहले ही १८३४ ई॰ से ही दृढ़ता से कहता आ रहा था तथा कुछ दशाओं में इन्हें लागू भी किया गया था । हम पहले ही संयोजन के प्रारंभिक दृष्टांत दे चुके है ।
जहाँ तक “समाप्ति-सिद्धांत” का संबंध है, यह पहले ही १८३९ ई॰ में मंदावी पर, १८४० ई॰ में कोलाबा और जलौन पर तथा १८४२ ई॰ में सूरत पर लागू किया गया था । लेकिन इसमें संदेह नहीं कि लार्ड डलहौजी ने सब से अधिक शक्तिसत्ता के साथ इन सिद्धांतों की वकालत की तथा इन्हें लागू किया ।
इंस कहता है: “उसके संयोजनों में प्रत्येक के लिए बहुत काफी मिसालें मौजूद थीं । किन्तु उसके पूर्वाधिकारियो ने इस सामान्य सिद्धांत पर काम किया था कि यदि हो सके तो संयोजन को छोड़ दिया जाए; डलहौजी ने इस सामान्य सिद्धांत पर काम किया कि यदि कानूनन वह कर सके तो संयोजन कर ही डाले अर्थात् देशी राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला ही डाले ।”
“समाप्ति-सिद्धांत” के अनुसार ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाये गये राज्य ये थे- १८४८ ई॰ में सतारा, १८४९ ई॰ में जैतपुर और संबलपुर, १८५० ई॰ में बधान (यह सतलज के इस पार एक पर्वतीय राज्य था) १८५२ ई॰ में उदयपुर, १८५३ ई॰ में नागपुर तथा १८५४ ई॰ में झाँसी ।
याद रखना आवश्यक है कि “अवलंबित” राज्यों तथा “संरक्षित मित्रों” के बीच बहुत अंतर था तथा यह संदिग्ध है कि ये (उपरिलिखित) सभी राज्य औचित्य के साथ “अवलंबित” राज्य माने जा सकते थे ।
सतारा का राज्य १८१८ ई॰ में पेशवा के पतन के बाद लार्ड हेस्ट्रिंग्स द्वारा शिवाजी के वंश के एक सदस्य को दे दिया गया था । इस अर्थ में यह अंग्रेजों द्वारा सिरजा हुआ राज्य था । १८३९ ई॰ में कुशासन के अपराध में राजा पदच्युत कर दिया गया था उसका भाई गद्दी पर बैठाया गया ।
नवीन राजा के कोई संतान न थी । १८४८ ई॰ में उसकी मृत्यु हुई । अपनी मृत्यु के पहले ही बिना गवर्नर-जनरल या ब्रिटिश रेजिडेंट से पूछे उसने एक पुत्र को गोद ले लिया था । लार्ड डलहौजी ने इस गोद लेने को नाजायज ठहराया । उसके प्रमुख सहकर्मियों ने उसका समर्थन किया ।
गवर्नर-जनरल ने घोषणा की कि सतारा का राज्य सर्वोच्च शक्ति में समाप्त हो गया । कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स भी उसके इस विचार से सहमत हुआ तथा मान लिया कि गवर्नर-जनरल का विचार “भारत के सामान्य कानून एवं प्रथा के अनुरूप है” । नागपुर भी १८१८ ई॰ में ब्रिटिश नियंत्रण में पड़ गया था । किन्तु हेस्टिंगस ने इसे पुराने राजवंश के एक सदस्य को दे दिया था ।
राजा १८५३ ई॰ में मर गया । उसके कोई सीधा वंशज न था और न उसने किसी लड़के को गोद ही लिया था । डलहौजी ने यह कहकर कि यह राज्य कम्पनी का सिरजा हुआ था, इसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया । ब्रिटिश सरकार से सतारा और नागपुर का कानूनी सम्बन्ध जो भी रहा हो यह स्पष्ट है कि उनके मिला लेने में डलहौजी के उद्देश्य केवल साम्राज्यवादी थे ।
डलहौजी के प्रचंड समर्थक ली-वार्नर तक ने इसे स्वीकार किया है । वह लिखता है कि सतारा और नागपुर के सम्बन्ध में “साम्राज्य-सम्बन्धी विचारों ने उस पर प्रभाव डाला……वे बम्बई और मद्रास तथा बम्बई एवं कलकत्ते के बीच आवागमन के मुख्य रास्तों के ठीक आरपार स्थित थे ।”
और भी, नागपुर के राज्य धन और खजानों का सार्वजनिक नीलाम द्वारा व्यवस्थापन हुआ, जो निश्चित रूप से एक अप्रतिष्ठित और बुद्धिमत्ताशून्य काम था । के ने अपनी ‘हिस्ट्री ऑफ द’ सेप्वाय वार इन इंडिया’ में इसे “राजमहल की लूटखसोट” कहा है ।
बुंदेलखंड का एक जिला झाँसी अंग्रेजों को पेशवा द्वारा १८१८ ई॰ में दी गयी थी । अंग्रेजों ने “अधीन सहयोग” की शर्तों पर एक शासक को इसकी गद्दी पर बैठा दिया । इसका अंतिम शासक नवम्बर, १८५३ ई॰ में मर गया । उसके कोई संतान न थी । किन्तु उसने एक पुत्र को गोद ले लिया था ।
डलहौजी ने इसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया । सिक्किम के सरदार ने ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि को पकड़ लिया तथा दो ब्रिटिश प्रजाजनों के साथ दुर्व्यवहार किया । कम्पनी ने उसे दंड देने का निश्चय किया । इसलिए उसने १८५० ई॰ में सिक्किम का एक भाग ले लिया, जो करीब १६७६ वर्गमील था ।
संबलपुर का शासक नारायण सिंह बिना किसी उत्तराधिकारी के मर गया । तब घर १८४९ ई॰ में यह ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया । बघात और उदयपुर के सम्बन्ध में लार्ड डलहौजी द्वारा किये गये निर्णय को लार्ड कैनिंग ने उलट दिया । कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स ने यह कहकर उसके करौली (राजस्थान में) के संयोजन के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया कि यह “संरक्षित मित्र” था, न कि “अवलंवित” राज्य ।
समाप्ति के सिद्धांत का प्रयोग कुछ राज्यों के शासकों के दावों (टाइटिलों) और पेंशनों के छीन लेने के लिए भी किया गया । उसका कहना था कि “वास्तविक अधिकार के बिना ठाट-बाट रहने से निश्चय ही” कंपनी के “सद्विश्वास” में “देशी आस्था हिल जाएगी” ।
इस प्रकार, जब कर्णाटक का नवाब १८५३ ई॰ में मरा, तब लार्ड डलहौजी ने निर्णय किया कि उसके किसी उत्तराधिकारी को स्वीकार न किया जाए । इसी तरह, जब तंजोर का राजा अपने पीछे केवल दो लड़कियाँ एवं सोलह विधवाएँ छोड़कर १८५५ ई॰ में मर गया, तब गवर्नर-जनरल ने इस राज्य में राजा का पद सदा के लिए उठा दिया । उसने दिल्ली के नाममात्र के बादशाह की उपाधि को भी उठा देना चाहा ।
किन्तु कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स ने इसमें उसका समर्थन नहीं किया । १८५३ ई॰ में भूतपूर्व पेशवा बाजीराव द्वितीय मर गया । उसे सर जौन मैलकौम द्वारा आठ लाख रुपयों की पेंशन मिली थी । यह पेंशन लार्ड डलहौजी ने उसके पोष्यपुत्र धुंधुपंत को, जो पीछे नाना साहब के नाम से प्रसिद्ध हुआ, नहीं दी ।
उसका कहना था कि उक्त पेंशन उसके गोद लेनेवाले पिता के व्यक्तिगत भत्ते के रूप में थी और इस कारण उसके (पिता के) उत्तराधिकारी को नहीं मिल सकती थी । इस काम को के ने “कठोर” तथा आर्नल्ड ने “लोभपूर्वक पकड़ना” कहा है ।
लार्ड डलहौजी और उसके एजेंट हैदराबाद स्थित रेजिडेंट ने वरार का समृद्ध प्रांत अत्याचारपूर्ण ढंग से छीन लिया । ६ जून, १८५१ ई॰ को गवर्नर-जनरल ने निजाम के पास कड़े शब्दों से भरा एक पत्र भेजा ।
इसमें उससे कहा गया कि वह (निजाम) अपने राज्य में रखे गये ब्रिटिश सैनिकों का बाकी पड़ गया खर्च अदा कर दे अथवा यदि वह ऐसा न कर सके तो अपने राज्य के कुछ जिले ब्रिटिश कम्पनी की सरकार के हवाले कर दे । परिस्थितियों से लाचार होकर निजाम ने २१ मई, १८५३ ई॰ को अंग्रेजों से संधि कर ली, जिसके द्वारा बरार का कपास उपजानेवाला प्रांत उनके हवाले कर दिया गया ।
कुछ राज्यों का शासन “लाखों लोगों के कष्ट से भरा हुआ” था । इन राज्यों के मिलाने में ब्रिटिश सरकार ने, विजय और समाप्ति लैप्स के अतिरिक्त “शासितों की भलाई” का निर्धारित सिद्धांत भी चला दिया । इस निर्धारित सिद्धांत के लागू करने का सब से अच्छा उदाहरण अवध का दृष्टांत है ।
१८०१ ई॰ की वेलेस्ली की संधि के समय से अवध “संरक्षित अधीन राज्य” बनाकर रखा गया था तथा आंतरिक शासन पर नियंत्रण रखा गया था । यह वस्तुत: बुद्धिमत्ता- शून्य प्रबंध था, जिसके अनुसार अवध का शासक उत्तरदायित्व से तो संपन्न था, किन्तु शक्ति से वंचित था ।
इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि राज्य का शासन भयंकर रूप से भ्रष्ट होता गया तथा इसकी जनता को महान् कष्ट होने लगा । ब्रिटिश सरकार ने अवध के शासन की बुराइयों को महसूस किया । बाद में आनेवाले गवर्नर-जनरलों ने विशेषकर लार्ड विलियम बेंटिक और लार्ड हार्डिज ने, इसके शासक को चेतावनी दी ।
लेकिन किसी ने भी सहायक प्रथा के मौलिक दोष का उपचार करने के निमित्त कुछ नहीं किया । सहायक प्रथा ने अवध के शासक को ब्रिटिश संरक्षण का विश्वास दिलाकर उसे राज्य के वास्तविक हितों से बेखबर बना डाला था तथा “उसके प्रजाजनों के समर्थन-योग्य विद्रोह” से उसका बचाव कर दिया था ।
अवध की शोचनीय परिस्थिति बढ़ती ही गयी । इस पर ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित किया गया । खासकर कर्नल स्लीमन और कर्नल आउट्रम ने पहले की अपेक्षा अधिक स्पष्टता के साथ ब्रिटिश सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया । कर्नल स्लीमन १८४८ ई॰ से १८५४ ई॰ तक अवध का रेजिडेंट था ।
कर्नल आउट्रम उसका उत्तराधिकारी था । दोनों समाप्ति की नीति के विरुद्ध थे । अवध की बढ़ती हुई शोचनीय परिस्थिति से गवनर जनरल को पूरा विश्वास गया कि अवध के संबंध में अधिक साहसपूर्ण नीति के अपनाये जाने की आवश्यकता है । ब्रिंटिश साम्राज्य भारत में तेजी से फैल रहा था । इसके करीब-करीब केंद्र में अवध का कुशासित राज्य मौजूद था ।
स्वाभाविक था कि यह ब्रिटिश साम्राज्य के निर्माताओं को बिलकुल काल-विरुद्ध जँचता, जो उनके काम की सुविधा के ख्याल से यथाशीघ्र हटा दिया जाना चाहिए । यह राज्य वारेन हेस्टिंग्स के समय से ही ब्रिटिश नियंत्रण के अधीन आ चुका था । इसे लेने के लिए सुशासन की आशा से बढ्कर कोई दूसरा अधिक अच्छा या सुविधाजनक बहाना नहीं हो सकता था ।
लार्ड डलहौजी का विचार था कि अवध की समस्या का समाधान इसे मिलाकर नहीं किया जाए, बल्कि केवल इसके शासन को अपने हाथों में लेकर तथा इसके शासन को सिर्फ अपना महल, पद और उपाधियाँ देकर किया जाए ।
लेकिन कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स ने आदेश दिया कि यह पूर्ण रूप में मिला लिया जाए । १३ फरवरी, १८५६ ई॰ को आउट्रम ने विधिवत् पूर्ण संयोजन की घोषणा कर दी । अवध का आखिरी नवाब वाजिद अली शाह कलकत्ते निष्कासित कर दिया गया । वहां उसे बारह लाख रुपये वार्षिक पेंशन पर अपने अंतिम दिन गुजारने पड़े ।
अवध का संयोजन राज्य-वृद्धि का एक उदाहरण था । जैसा कि स्वयं डलहौजी ने सर जार्ज कूपर को लिखे गये अपने १५ दिसम्बर, १८५५ ई॰ के पत्र में लिखा था, इस संयोजन का “औचित्य अंतर्राष्ट्रीय कानून से प्रतिपादित नहीं” था ।
कम्पनी उस समय भारत में अपने अधिकृत स्थानों को ठोस बनाने के लिए इच्छुक थी । उसने अवध के कुशासन को इसके संयोजन का कारण बनाया था । किन्तु हमें याद रखना चाहिए कि इस कुशासन का मुख्य उत्तरदायित्व अंग्रेजों पर था । उन्होंने ही उस राज्य पर सहायक प्रथा का नीतिहीन प्रबंध लादा था तथा बराबर उसके मामलों में हस्तक्षेप करते रहे थे ।
सर हेनरी लारेंस ने लिखा- “अवध के मामलों पर लिखनेवाले प्रत्येक व्यक्ति ने जो बातें भी दी हैं, वे सभी एक ही चीज सिद्ध करती हैं कि उस प्रांत में ब्रिटिश हस्तक्षेप उसके दरबार और जनता के लिए उतना ही हानिकारक हुआ है, जितना ब्रिटिश नामवरी के लिए लज्जाजनक ।” और भी, ब्रिटिश सरकार के प्रति अवध के राजवंश की अविचलित स्वामिभक्ति का कोई ख्याल नहीं किया गया ।
कुछ का यह भी विचार है कि अवध का संयोजन “राष्ट्रीय विश्वास का प्रचंड उल्लंघन” था, जिसमें एक पुरानी संधि की अवहेलना की गयी थी । १८३७ ई॰ में लार्ड आकलैंड ने अवध के नवाब से एक संधि की थी । इसके अनुसार नवाब को या तो सुधार जाना था या सर्वोच्च सत्ता स्वयं रखते हुए शासन को ब्रिटिश सरकार के हवाले कर देना था ।
इस संधि को कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स ने स्वीकार नहीं किया । लेकिन लार्ड आकलैंड ने अवध के नवाब को सूचित किया कि इसकी केवल एक धारा अस्वीकृत हुई है । किसी तरह “यह संधि बाद के एक सरकारी प्रकाशन में सचमुच सम्मिलित हो गयी तथा उत्तराधिकारी गवर्नर-जनरल उसे अब भी चालू कहकर हवाला देता रहा” ।
जब कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स ने अवध के संयोजन का निर्णय किया, तब ब्रिटिश सरकार ने अकस्मात् अवध के नवाब को सूचित किया कि १८३७ ई॰ की संधि “एक मुर्दा चिट्ठी” थी ।