एक पारिस्थितिक तंत्र पर निबंध: शीर्ष चार निबंध | Essay on an Ecosystem: Top 4 Essays in Hindi!

Essay # 1. पारिस्थितिक तंत्र व पर्यावरण का आशय (Introduction to Ecosystem):

पारिस्थितिक तंत्र का तात्पर्य उस अधिवासीय वातावरण से है जहाँ पर जैविक घटक और अजैविक घटक सतत् रूप से अंतराकर्षित होते हैं । इस अंतराकर्षण का मूल कारण है- जैविक समुदाय के बीच खाद्य ऊर्जा का प्रवाह । जर्मन प्राणिशास्त्री अनिस्ट हैकेल ने सर्वप्रथम ‘इकोलॉजी’ शब्द का प्रयोग किया ।

इन्हें पारिस्थितिक तंत्र के जनक के रूप में भी जाना जाता है । परिस्थितिक तंत्र की अवधारणा गत्यात्मक (Dynamic) है न कि स्थैतिक । यह एक खुला तंत्र है जिसमें प्राकृतिक कारणों से अथवा मानवीय हस्तक्षेप के कारण परिवर्तन आता रहता है ।

Essay # 2. पारिस्थितिक तंत्र के घटक (Factors Affecting Ecosystem):

जैव तथा अजैव घटकों की अन्तः किया द्वारा पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण होता है । जैव घटकों के अन्तर्गत उत्पादक, उपभोक्ता नथा अपघटकों को शामिल किया जाता है । उत्पादक वे होते हैं जो अपना भोजन स्वयं निर्मित करते हैं तथा स्वपोषित होते हैं । ये क्लोरीफिल से युक्त होते है ।

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स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में स्वपोषित शाक, झाड़ी तथा वृक्ष जबकि गहरे जलीय पारिस्थितिक तंत्र में फाइटोप्लैंकटन प्रमुख उत्पादक होते है । उपभोक्ताओं को शाकाहारी, मांसाहारी तथा सर्वाहारी में वर्गीकृत करते हैं । उपभोक्ता जो भोजन के लिए पौधों पर निर्भर रहता है, उसे प्राथमिक उपभोक्ता या न्दाभक्षी तथा जो अन्य प्राणियों पर निर्भर होता है उसे मांसाहारी कहते हैं जैसे- शेर व बाघ ।

सर्वाहारी उपभोक्ता प्राथमिक एवं द्वितीयक उपभोक्ताओं से भोजन ग्रहण करते हैं जैसे- मनुष्य । अपघटक परपोषी जीव होते है । इसमें बैक्टीरिया व कवक को सम्मिलित करते हैं । अजैव घटकों के अन्तर्गत मृत कार्बनिक पदार्थ (कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन, वसा तथा ह्यूमस) तथा अकार्बनिक (नाइट्रोजन, जल एवं CO2) को सम्मिलित करते है ।

Essay # 3. आहार शृंखला व आहार जाल (Food Chain or Food Web):

पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा का स्थानांतरण शृंखलाबद्ध रूप से होता है । इसे आहार शृंखला कहा जाता है । आहार शृंखला में हरे पौधे उत्पादक होते हैं तथा इन उत्पादकों पर उपभोक्ता आहार के लिए निर्भर होते हैं, कुछ जीव सर्वभक्षी होते है जो खाद्य शृंखला में एक से अधिक स्तर रखते है । पारिस्थितिकी तंत्र की निरंतरता के लिए आहार शृंखला अति आवश्यक है ।

जीवों की प्रजातियों द्वारा अनेक प्रजातियों से भोजन प्राप्त करने के कारण आहार शृंखला में जटिलता आ जाती है । जिसके फलस्वरूप आहार जाल का निर्माण होता है । पारिस्थितिकी तंत्र में आहार शृंखला में जितनी अधिक जटिलता होगी अर्थात् जैविक विविधता जितनी अधिक होगी,पारिस्थितिकी तंत्र में संतुलन की संभावना उतनी अधिक होगी ।

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विभिन्न पर्यावरणीय दशाओं वाले पारिस्थितिक तंत्र में एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में ऊर्जा का स्थानान्तरण भिन्न-भिन्न होता है । यह सामान्यतः 5 प्रतिशत से 20 प्रतिशत तक होता है । स्थलीय परिस्थितिक तंत्रों में एक स्तर से दूसरे स्तर में औसतन 10 प्रतिशत ऊर्जा का ही स्थानांतरण हो पाता है । इसे 10 प्रतिशत का नियम भी कहते हैं ।

जीवों की जाति और पर्यावरणीय दशाओं के अनुसार परिस्थितिक क्षमता में अंतर मिलता है, परंतु एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर पर ऊर्जा की एक अल्प मात्रा ही स्थानांतरित होती है । इसीलिए पारिस्थितिक पिरामिड सामान्यतः तीन या चार स्तर के ही होते हैं । इसके अध्ययन हेतु संख्या पिरामिड, बायोमास पिरामिड व ऊर्जा पिरामिड का अध्ययन किया जाता है ।

इनमें ऊर्जा पिरामिड का अध्ययन अधिक लोकप्रिय है । इसके अंतर्गत किसी भी पारिस्थितिक तंत्र में प्रत्येक पोषण स्तर पर प्रति इकाई क्षेत्रफल (वर्गमीटर) में प्रति इकाई समय (एक वर्ष) में उपयोग की गई ऊर्जा की कुल मात्रा को प्रदर्शित करते हैं । इस प्रकार इसकी इकाई किलो कैलोरी प्रति वर्ग मीटर प्रतिवर्ष (K.Cal/m2/yr.) है ।

Essay # 4. पारिस्थितिकी तंत्र पर मानवीय प्रभाव (Effect of Humans on the Ecosystem):

प्रत्येक पारिस्थितिक तंत्रों में अलग-अलग प्रकार के खाद्य प्रवाह और आंतरिक अधिवासीय विशेषताएँ होती हैं ।

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लेकिन मानव ने विशेषकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से पारिस्थितिक नियमों के विपरीत इनसे पदार्थ व ऊर्जा का अत्यधिक दोहन किया है परिणामतः मनुष्य की आयु, कार्यिक क्षमता और खाद्य उपलब्धता में तो वृद्धि हो गई किन्तु अन्य जीवों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और विश्व के अनेक भागों में पारिस्थितिक असंतुलन की समस्या उत्पन्न हो गई हैं ।

बढ़ते तापमान, ओजोन छिद्र, अम्लीय वर्षा और ग्रीन हाउस प्रभाव आदि के कारण संपूर्ण जीवमंडलीय पारिस्थतिक तंत्र तेजी से असंतुलित हो रहे हैं । अनेक जीवों का विनाश हो चुका है और अनेक विनाश के कगार पर खड़े हैं ।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP-मुख्यालय नैरोबी) की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में प्रतिदिन औसतन 50 प्रकार के जीवों का विनाश हो रहा है जो वास्तव में आनुवांशिक विनाश है । अतः परिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए नवीन योजनाओं व नवीन चिंतन की जरूरत है । कई देशों ने इस दिशा में सराहनीय प्रयास किए, भारत भी इन देशों में एक है ।

औद्योगिक क्रांति के बाद से ही प्रकृति का दोहन खतरनाक स्तर तक बढ़ गया है, क्योंकि जहाँ अन्य सभी जीव-जन्तु पूर्णतः प्रकृति द्वारा निर्धारित होते हैं, वहीं मनुष्य प्रकृति के जैव व अजैव घटकों में अत्यधिक परिवर्तन करने की क्षमता रखता है ।

मानवीय जनसंख्या की विस्फोटक वृद्धि स्थिति से पारिस्थितिक पिरामिड पर भार बढ़ा है, जिससे खाद्य-शृंखला असंतुलित हो रहा है । साथ ही मनुष्य ऐसे पदार्थों का उपभोग करता है जो पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं । इनसे पारिस्थतिक असंतुलन की समस्या उत्पन्न हुई है ।

इन्हें तीन प्रमुख वर्गों में रखकर देखा जा सकता है:

1. स्थलीय वातावरण से संबंधित समस्याएँ:

इनके अंतर्गत वनों का विनाश, मृदा-क्षरण, मृदा-प्रदूषण, मृदा में लवणता व क्षारीयता की वृद्धि, भूमिगत जल में ह्रास की समस्या आती हैं । पर्यावरणीय संतुलन के लिए पर्वतीय क्षेत्रों के 60% एवं मैदानी क्षेत्रों के 20% भाग में वन का होना आवश्यक है ।

कुल मिलाकर संपूर्ण स्थल के 33% क्षेत्रफल पर वन होने आवश्यक हैं जबकि यह वैश्विक वन संसाध न आकलन (GFRA)-2010 के अनुसार 31% भू-भाग पर है । इस प्रकार विश्व में औसतन वन क्षेत्र प्रायः अपेक्षा अनुसार है । परंतु, इनका क्षेत्रीय विवरण अत्याधिक असमानता लिए हुए है ।

वस्तुतः स्थलीय पर्यावरण से संबंधित समस्याएँ मुख्य रूप से विकासशील देशों की समस्याएँ हैं । मध्य अमेरिका द. एशिया, द.पू. एशिया, अफ्रीका आदि में ये समस्याएँ अधिक गंभीर हैं । उदाहरण के लिए दक्षिण एशियाई क्षेत्र वन आवरण कुल भौगोलिक क्षेत्र का मात्र 19% है ।

भारत में भी GFRA-2010 के अनुसार सिर्फ 23% है । भूमि प्रदूषण व नगरीय कचरे के कारण जलीय प्रदूषण की समस्या भी गंभीर हुई है । सेंट लॉरेंस, राइन, गंगा, यमुना आदि नदियाँ प्रदूषण से अत्यधिक ग्रस्त नदियाँ हैं ।

2. वायुमंडलीय वातावरण से संबंधित समस्याएँ:

जीवाश्मी ऊर्जा के अत्यधिक प्रयोग, वनों के तीव्र विनाश, परिवहन साधनों के उपयोग में भारी वृद्धि आदि के कारण वैश्विक जलवायु परिवर्तन देखने को मिले हैं ।

वायुमंडलीय वातावरण से संबंधित असंतुलन मुख्यतः तीन प्रकार के हैं:

a. ओजोन छिद्र (Ozone Hole):

समताप मंडल में पाई जाने वाली ओजोन परत को ‘जीवन रक्षक छतरी’ (Life Saving Umbrella) कहा जाता है क्योंकि यह सूर्य के पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करती है । इन किरणों से आंखों के रोग होने का खतरा रहता है तथा कृषि व जलवायु पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है । ओजोन परत से सूर्य की पराबैंगनी किरणों की 70 से 90% तरंगें छन जाती है ।

ओजोन परत में छेद सर्वप्रथम फॉरमैन द्वारा 1973 ई. में अंटार्कटिका में देखा गया था । अंटार्कटिका के ऊपर स्थित ओजोन परत के इस छिद्र में प्रकाश-रासायनिक क्रियाओं के द्वारा सामान्यतः सितम्बर-अक्टूबर के दौरान ही वृद्धि देखी जाती है । ‘डॉब्सन मीटर’ से ओजोन की सघनता या सान्द्रता मापा जाता है ।

अंटार्कटिका के वायुमंडल में ओजोन का सान्द्रण 220 डॉब्सन यूनिट से कम हो जाने पर ओजोन छिद्र का निर्माण हो जाता है । ओजोन परत में छेद होने का प्रमुख कारक क्लोरीन है । इसकी उत्पत्ति क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFC), हाइड्रोफ्लोरो कार्बन (HFC) हैलोजेन्स, कार्बन टेट्राक्लोरीन, मिथाइल क्लोरोफार्म व मिथाइल ब्रोमाइड जैसे रसायनों से होती है ।

वैज्ञानिकों के अनुसार क्लोरीन का एक अणु ओजोन के 1 लाख अणुओं को तोड़ सकता है । रेफ्रिजरेशन, एयर कंडीशनिंग, स्कैनर, प्लास्टिक आदि ने ओजोन परत को फाड़ने में प्रमुख भूमिका निभाई है क्योंकि इनसे उत्सर्जित होने वाले रसायनों में इनकी बड़ी मात्रा होती है ।

जेट विमानों द्वारा उत्सर्जित होने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड के कारण ओजोन परत में छिद्र की समस्या उत्पन्न हो गई है । चिली के भेड़ों में अंधापन, अंटार्कटिक में प्लैंक्टन घास के खत्म होने की प्रवृति, ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर प्रवाल जीवों के असामयिक विनाश का कारण भी इसी छिद्र को माना जा रहा है ।

एक नए ओजोन छिद्र का पता आर्कटिक सागर के ऊपर चला है जिसका प्रतिकूल प्रभाव उ. गोलार्द्ध में होने की आशंका है । ओजोन परत में बढ़ते छिद्र को रोकने के लिए 1987 ई. में मांट्रियल (कनाडा) में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें ओजोन छिद्र के लिए उत्तरदायी रसायनों में कटौती हेतु विभिन्न राष्ट्रों की सहमति ली गई थी ।

ओजोन रिक्तीकरण का वैज्ञानिक आंकलन-2010 की रिपोर्ट के अनुसार ओजोन गैस की सुरक्षात्मक परत के नाश होने का क्रम अब लगभग बंद हो गया है तथा ओजोन छिद्र का आकार अब धीरे-धीरे छोटा हो रहा है ।

यदि वैश्विक प्रयास इसी प्रकार जारी रहे तो यह अनुमान है कि 2050 ई. तक ओजोन स्तर पहले की स्थिति में आ जाएगा । 16 सितम्बर, 2015 को पूरे विश्व में ओजोन दिवस मनाया गया । इस वर्ष का विषय-वस्तु थी ‘एक साथ ओजोन बचाव के 30 वर्ष’ ।

b. भूमंडलीय तापन (Global Warming):

औद्योगिक क्रांति के बाद से वायुमंडल में कार्बनडाईऑक्साइड (CO2), कार्बनमोनोऑक्साइड (CO), मीथेन (CH4), क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC), हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFC) आदि ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में तीव्र वृद्धि हुई है ।

यद्यपि ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने की तीव्रता क्लोरोफ्लोरोकार्बन में सर्वाधिक है परंतु भूमंडलीय तापन के लिए मुख्यतः कार्बनडाईऑक्साइड जिम्मेदार है क्योंकि विभिन्न ग्रीन हाउस गैसों में इनकी मात्रा सर्वाधिक है ।

यह भारी गैस है एवं वायुमंडल की पार्थिव विकिरण के लिए अपारगम्यता को बढ़ाता है जिससे ऊर्जा ऊष्मा पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश तो कर जाती है परंतु बाहर नहीं जा पाती है । जिसके कारण ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न होते हैं और तापमान में वृद्धि देखी जाती है ।

यदि वायुमंडल में कार्बन-डाई- ऑक्साइड की मात्रा इसी तरह बढ़ती रही तो 1900 ई. की तुलना में 2030 ई. में विश्व के तापमान में 3C की वृद्धि हो जाएगी । भूमंडलीय तापन के कारण हिम क्षेत्र पिघलेंगे जिसके परिणामस्वरूप समुद्री जलस्तर 2.5 से 3 मी. तक बढ़ जाएगा । इससे अनेक द्वीपों और तटीय क्षेत्रों के डूबने की आशंका है ।

उदाहरण के लिए प्रशांत महासागर का तुवालू और कारटरेट द्वीप प्रायः डूब गए हैं एवं मालदीव के भी जलमग्न होने की आशंका है । तापमान बढ़ने के कारण अनेक सूक्ष्म जीव व जीव-जन्तु विनष्ट हो सकते है जिससे जैव-विविधता में कमी आएगी ।

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ‘नासा’ के गोड्‌डार्ट इंस्टीट्‌यूट फॉर स्पेस स्टडीज के आकलन के अनुसार पिछली एक सदी में सर्वाधिक गर्म पाँच वर्ष पिछले एक दशक में ही रहे हैं ।

c. अम्लीय वर्षा (Acid Rain):

वायुमंडल में सल्फर डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड, क्लोरीन व फ्लोरीन जैसे हैलोजेन पदार्थों के मिलने से वर्षा में अम्लीयता की मात्रा बढ़ी है । वर्षा में सल्फ्युरिक अम्ल, नाइट्रिक अम्ल, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल आदि के मिश्रण का पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।

जब वर्षा जल का pH मान 5 से नीचे आ जाता है तो यह अत्यधिक हानिकारक हो जाता है । वनस्पतियों के क्लोरोफिल पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है एवं उनकी प्रकाश संश्लेषण की क्रिया बाधित होती है । इससे उनके पत्ते पीले पड़ने लगते हैं व उनका असामयिक विनाश हो जाता है ।

झीलों में अम्लीयता के बढ़ने से नार्वे, सं.रा. अमेरिका व कनाडा जैसे देशों के मत्स्य-उद्योग पर प्रतिकूल असर पड़ा है । संगमरमर के इमारतों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । ताजमहल के संदर्भ में इसे समझा जा सकता है ।

3. जैविक वातावरण पर प्रभाव:

पारिस्थितिक असंतुलन का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव जीवमंडल पर पड़ा है । UNEP के एक रिपोर्ट के अनुसार प्रतिदिन 50 जैविक प्रजातियाँ विलुप्त होने की श्रेणियों में आ रहे हैं । यह जैविक विनाश वनों के विनाश से भी संबद्ध है । IUCN भी ‘रेड डाटा बुक’ के माध्यम से यह बताता है कि कौन से वन्य जीव खतरनाक स्तर पर है जिनका संरक्षण अति आवश्यक है ।

प्रेयरी भैंस, सफेद हाथी, सफेद बाघ, दरयाई घोड़ा, चिम्पांजी, ह्वेल, डॉल्फिन, प्रवाल जीव आदि अत्यधिक संकटग्रस्त स्थिति में हैं ।

पुनः जैव-तकनीकी से उत्पन्न ट्रांसजेनिक बीजों एवं जीवों के कारण परंपरागत बीज व जीव क्रमशः विलीन होते जा रहे हैं । मानव की संख्या में अनियंत्रित वृद्धि तथा प्रकृति के अनियोजित व अनियंत्रित दोहन से खाद्य-शृंखला प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ है ।

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